नाम्नार्जुनः सखा प्राग् यो दासः परमेश्वरः।
(गो.ग.दी. 132)
गौरगणोद्देश दीपिका में लिखा है कि श्रीपरमेश्वर दास जी द्वादश गोपालों में से एक अर्जुन नामक सखा हैं।
श्रील परमेश्वरी ठाकुर वैद्य कुल में आविर्भूत हुए थे। इनका निवास स्थान आंटपुर में है। इस स्थान का पहले का नाम विशखालि था। ये स्थान हावड़ा –आमता रेल-लाइन की चांपाडांगा शाखा के आंटपुर स्टेशन के नज़दीक तथा वर्तमान राय तेज बहादुर दीवान (परलोकगत कृष्ण राम मित्र) द्वारा स्थापित श्रीराधा गोविन्द जी के प्राचीन मन्दिर के निकट है।
काटोया में संन्यास ग्रहण करने के बाद श्रीमन्महाप्रभु जी प्रेमोन्मत्त होकर श्रीवृन्दावन की ओर धावित हुए तो श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु की चातुरी से वे श्रीअद्वैताचार्य जी के घर आ गए। वहाँ पर वे श्रीशचीमाता व नवद्वीपवासी भक्तों के साथ श्रीमन्महाप्रभु जी से मिले। श्रीशचीमाता व भक्तों की इच्छा से जब श्रीमन्महाप्रभु जी के लिए नीलाचल में रहने के लिए स्वीकृति हुई तो वे छत्रभोग पथ से श्रीनित्यानन्द, श्रीमुकुन्द, श्रीजगदानन्द व श्रीदामोदर के साथ नीलाचल की ओर चल दिए।
वृन्दावन जाएँगे—कहकर जब महाप्रभु जी ने नीलाचल से पहली बार वृन्दावन के लिए शुभ यात्रा की थी तो उस बार श्रीमन्महाप्रभु जी का वृन्दावन जाना नहीं हुआ; वे पाणिहाटि, कुमारहट्ट, कुलिया, रामकेलि ग्राम, कानाइ –नाटशाला व शान्तिपुर आदि स्थानों से होते हुए दोबारा नीलाचल में ही वापस आ गए……… श्रीमन्महाप्रभु जी वृन्दावन जाएँगे ऐसा सुनकर श्रीनृसिंहनन्द ब्रह्मचारी मानसिक सेवा द्वारा कुलिया से वृन्दावन तक का रत्नपथ बनाने लगे। रत्नपथ निर्माण करते-करते कानाई-नाटशाला तक आकर रुक गए। जब वे कानाई-नाटशाला पर रुक गए और आगे पथ न बना पाए तो वे समझ गए कि इस बार महाप्रभु जी वृन्दावन नहीं जाएंगे, वे कानाई-नाटशाला से वापस लौट आएंगे।. …….. महाप्रभु जी जब वृन्दावन जा रहे थे तो लाखों लोग उनके पीछे चलने लगे। ……… कानाई-नाटशाला तक आकर उन्हें सनातन गोस्वामी जी की बात याद आ गई। रामकेलि ग्राम में श्रीसनातन गोस्वामी जी ने कहा था—
याँहा सङ्गे चले एइ लोक लक्षकोटि।
वृन्दावन-याइबार ए नहे परिपाटी1॥
(चै. च. म. 1/224)
कानाई-नाटशाला से वापस लौटते समय नीलाचल के रास्ते में श्रीमन् महाप्रभु जी शान्तिपुर में श्रीअद्वैत आचार्य जी के घर में कुछ दिन ठहरे। इस बार नीलाचल जाते समय श्रीमन्महाप्रभु जी के साथ श्रीबलभद्र भट्टाचार्य एवं पण्डित श्रीदामोदर जी थे। गया से वापस लौटते समय भी श्रीमन् महाप्रभु जी ने कानाई-नाटशाला में द्विभुज मुरलीधर श्रीकृष्ण के अतुलनीय रूप का दर्शन किया था। वह मूर्ति श्रीमन् महाप्रभु जी को आलिंगन करके अन्तर्हित हो गयी थी।
(चै. च. मध्य 2/179-185)
श्रीमन्महाप्रभु जी ने नीच, मूर्ख व पतित आदि सभी का उद्धार करने के लिए श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु को गौड़-देश जाने का आदेश दिया तो महाप्रभु जी की आज्ञा पाकर नित्यानन्द प्रभु ने अपने गणों को साथ में लेकर गौड़देश की ओर प्रस्थान किया। उस समय श्रीरामदास, श्रीगदाधर दास, श्रीरघुनाथ वैद्य, श्रीकृष्णदास पण्डित, श्रीपरमेश्वरी दास व पुरन्दर पण्डित आदि श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु के साथ में थे। रास्ते में चलते-चलते नित्यानन्द प्रभु के पार्षदों के विभिन्न प्रकार के भाव प्रकाशित हुए।
श्रीचैतन्य भागवत में इस प्रकार लिखा है—
कृष्णदास पण्डित, परमेश्वरी दास।
पुरन्दरपण्डितेर परम उल्लास॥
नित्यानन्दस्वरूपेर यत आप्तगण।
नित्यानन्दसंगे सबे करिला गमन॥
पथे चलितेइ नित्यानन्द महाशय।
सर्व-परिषद आगे कैला प्रेम-मय॥
सबार हइल आत्म-विस्मृति अत्यन्त।
‘का’र देहे कत भाव नाहि ता’र अन्त॥
(चै.भा.अ. 5/232-235)
अर्थात श्रीकृष्णदास पण्डित, श्रीपरमेश्वरीदास और पुरन्दर पण्डित में बहुत उल्लास है। श्रीनित्यानन्द जी के जो निज जन हैं, सब ने नित्यानन्द जी के साथ ही गमन किया। मार्ग में चलते हुए श्रीनित्यानन्द प्रभु जी ने सब पार्षदों को प्रेममय कर दिया। सब अपने आप को भूल गये। किस के देह में कितने-कितने भाव उमड़े इस का कोई अन्त नहीं है–
कृष्णदास परमेश्वरीदास दुइजन।
गोपालभावे ‘हइ हइ’ करे अनुक्षण॥
(चै. भा. अ.5/240)
श्रीकृष्णदास तथा श्रीपरमेश्वरीदास ग्वाल-बालों के भाव में है-है’ करते हैं।
श्रीपरमेश्वरी दास श्रीनित्यानन्द लीला पुष्टि के एक प्रधान पार्षद एवं नित्यानन्द जी के जीवन सदृश थे। श्रीचैतन्य भागवत के अन्त्य खण्ड में इस प्रकार वर्णित है—
नित्यानन्द-जीवन परमेश्वरीदास।
याँहार विग्रहे नित्यानन्देर विलास॥
(चै.भा.अ.5/732)
श्रीपरमेश्वरीदास जी श्रीनित्यानन्द जी के जीवन हैं, जिन के शरीर में श्रीनित्यानन्द जी विलास करते हैं।
आंटपुर गाँव में परमेश्वरी दास जी के सेवित श्रीगौरविग्रह में श्रीमन् महाप्रभु जी प्रकाशित हुए थे—इस प्रकार का प्रामाणिक-वाक्य श्रीचैतन्य भागवत में पाया जाता है—
पुरन्दरपण्डित परमेश्वरीदास।
याँहार विग्रहे गौरचन्द्रेर प्रकाश॥
सत्वरे धाइया आइलेन सेइक्षणे।
प्रभु देखि’ प्रेमयोगे कान्दे दुइजने॥
(चै. भा. अ. 5/95-96)
श्रीपुरन्दर पण्डित तथा श्रीपरमेश्वर दास जी, जिन के विग्रहों में श्रीगौरचन्द्र जी का प्रकाश है, शीघ्रता से उसी क्षण दौड़ते हुए आये और प्रभु को देखकर दोनों प्रेम से रोने लगे।
गौराङ्ग नकड़ि कृष्णदास, दामोदर।
श्रीपरमेश्वरी बलराम विज्ञवर॥
श्रीमुकुन्द, दास वृन्दावन आदि करि।
ए सवाय सह सुखे चलये ईश्वरी॥
(भ.र. 10/376-377)
(अर्थात गौराङ्ग नकड़ि श्रीकृष्णदास, श्रीदमोदर, श्रीपरमेश्वर, विद्वान बलरामजी तथा श्रीवृन्दावन दास जी आदि के साथ ईश्वरी जाह्नवा देवीजी आनन्द के साथ चल रही हैं।)
श्रीनित्यानन्द शक्ति श्रीजाह्नवा देवी के खेतरी महोत्सव में जाते समय परमेश्वरी जी भी उनके साथ थे, ऐसा वर्णन भक्ति रत्नाकर में पाया जाता।
श्रीपरमेश्वर दास ठाकुर श्रीजाह्नवी माता के साथ ब्रजधाम गए थे व जाह्नवा माता जी की कृपा से ही ये वृन्दावन में श्रीगोपीनाथ जी के साथ श्रीराधिका जी का मिलन दर्शन करके प्रेमाप्लिावित हो गए थे। श्रीजाह्रवा माता जी के आदेश से उन्होंने आंटपुर में श्रीराधा-गोपीनाथ जी की विग्रह प्रतिष्ठा की थी—
तार आंटपुर ग्राम शीघ्र करि याह,
तथा राधागोपीनाथ सेवा प्रकाशह॥
ईश्वरी आज्ञाय परमेश्वरी दास।
राधा गोपीनाथ सेवा करिल प्रकाश॥
(भ.र. 13/245-246)
(अर्थात श्रीजाह्नवा माता जी परमेश्वरी दास से कहती हैं कि आप जल्दी आंटपुर ग्राम में जाओ और वहां श्रीराधागोपीनाथ जी की सेवा का प्रकाश करो। श्रीपरमेश्वर दास जी ने श्रीमती जाह्नवा देवी जी की आज्ञा से ही श्रीराधा गोपीनाथ जी की सेवा का प्रकाश किया।)
श्रीपरमेश्वर दास ठाकुर कुछ समय के लिए खड़दह में एवं वृन्दावन में आते समय पुरी ज़िला के गरलगाछा ग्राम में रहे थे। जब श्रील नरोत्तम ठाकुर खड़दह में आए थे तो उन्होंने उन्हें पुरी के रास्ते का विवरण दिया था।
श्रीपरमेश्वर ठाकुर के स्मरण से ही कृष्ण-भक्ति लाभ होती है—इस प्रकार की महिमा की बात श्रीचैतन्य चरितामृत में है, यथा—
परमेश्वरदास-नित्यानन्दैक-शरण।
कृष्णभक्ति पाय, ताँर ये करे स्मरण॥
(चै.च.आ. 11/29)
अर्थात श्रीपरमेश्वर दास जी ने श्रीनित्यानन्द जी की एक मात्र शरण ली है, जो इनका स्मरण करेगा वह कृष्ण भक्ति प्राप्त करेगा।
परमेश्वरी दास ठाकुर जी की अलौकिक शक्ति थी। एक समय की बात है, हुगली ज़िले के श्रीरामपुर के निकट आक्नामहेश नामक गाँव में श्रीकमलाकर पिप्लाई के निवास स्थान पर हरिनाम-संकीर्तन हो रहा था तथा परमेश्वरी दास ठाकुर वहाँ पर प्रेम में प्रमत्त होकर नृत्य कर रहे थे। उस उच्च संकीर्तन ध्वनि व नृत्य को देखकर कई उन पाखण्डियों के शरीर में जलन होने लगी जो वहाँ कीर्तन-स्थान को कलंकित व भक्तों को दमित करने के लिए आए थे। उन्होंने कीर्तन स्थल पर एक मरा हुआ गीदड़ (सियार) फेंक दिया किन्तु वैष्णवप्रवर श्रीपरमेश्वर दास जी ने संकीर्तन बन्द नहीं किया। उनके संकीर्तन के प्रभाव से मरा हुआ गीदड़ भी जीवित होकर कीर्तन करने लगा। इस घटना को देख कर सभी विस्मित व परमानन्द में निमग्न हो गए। वैष्णव वन्दना में लिखा है—
परमेश्वर दास वन्दिव सावधाने।
शृगाले लओयान नाम संकीर्तन-स्थाने॥
अर्थात श्रीपरमेश्वर दास जी की मैं सावधानी पूर्वक वन्दना करता हूँ, उन्होंने तो मरे हुये गीदड़ को भी ज़िन्दा करके उससे संकीर्तन करवा दिया।
श्रीमन्दिर के ठीक सामने दो वृक्ष हैं जिनमें एक बकुल का है व दूसरा कदम्ब का है तथा दोनों वृक्षों के बीच में श्रीपरमेश्वर दास ठाकुर जी की समाधि है तथा समाधि के ऊपर तुलसी मंच सुशोभित है। परमेश्वरी ठाकुर के समय जो दो बकुल वृक्ष थे उन्हीं की शाखाओं से ये वृक्ष उत्पन्न हुए हैं—ऐसा प्रवाद है। किसी-किसी का कहना है कि उन वृक्षों की दातुन से इन वृक्षों की उत्पत्ति है। कदम्ब के वृक्ष में प्रत्येक वर्ष एक फूल होता है जिससे श्रीविग्रह की चरण पूजा होती है।
वैशाखी पूर्णिमा तिथि को श्रील परमेश्वरी ठाकुर जी का तिरोभाव उत्सव सम्पन्न होता है।
1 – लाखों-करोड़ों लोग जिसके साथ में चलें, ये वृन्दावन जाने का तरीका नहीं हैं।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ ‘गौर-पार्षद’ में से