श्रीश्यामानन्द प्रभु

श्रीश्यामानन्द प्रभु श्रीकृष्णलीला के द्वादश गोपालों में से एक सुबल सखा के अनुगत जन के अनुगत पार्षद हैं। श्रीगौरीदास पण्डित श्रीकृष्णलीला में सुबल सखा हैं। गौरीदास पण्डित के शिष्य हैं हृदयानन्द (हृदय चैतन्य), और श्यामानन्द प्रभु हृदयानन्द के शिष्य हैं।

यं लोका भुवि कीर्त्तयन्ति हृदयानन्दस्य शिष्यं प्रियं
सख्ये श्रीसुबलस्य यं भगवतः प्रेष्ठानुशिष्यं तथा
स श्रीमान रसिकेन्द्रमस्तकमणिष्चित्ते ममाहर्निशं
श्रीराधाप्रिय – नर्ममर्मसु रुचिं सम्पादयन् भासताम्॥
-श्रीश्यामानन्दशतक।

इस संसार में जिन्हें श्रीहृदयानन्द के प्रिय शिष्य के रूप में जाना जाता है। जो श्रीकृष्णलीला में सुबलसखा के अनुगत होने के कारण स्वयं भगवान श्रीकृष्णचन्द्र के प्रियतम जनों के अनुशिष्य हैं, वही रसिकराज मुकुटमणि सुशोभित श्यामानन्द प्रभु श्रीराधामाधव की प्रिय अन्तरंगलीला विलास सेवा में, मेरा अनुराग पैदा कर दिन रात मेरे हृदय में विराजित रहें।

श्रीश्यामानन्द प्रभु 1456 शकाब्द में मधुपूर्णिमा (चैत्र पूर्णिमा) तिथि में मेदिनीपुर ज़िले के अन्तर्गत खड़गपुर रेलवे स्टेशन के समीप धारेन्दाबहादुरपुर ग्राम में पिता श्रीकृष्ण मण्डल और माता श्रीदुरिका देवी को अवलम्बन कर आविर्भूत हुये थे। श्यामानन्द प्रभु के पिता श्रीकृष्ण मण्डल सुवर्ण रेखा नदी के किनारे दण्डेश्वर ग्राम में रहते थे। श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान (शब्दकोश) में ऐसा लिखा है कि श्रीकृष्ण मण्डल दण्डेश्वर ग्राम के पास अम्बुया में रहते थे। श्यामानन्द प्रभु के पिता पहले गौड़देश (बंगाल) में वास करते थे बाद में वहाँ से उड़ीसा के दण्डेश्वर ग्राम में और फिर वहाँ से धारेन्दाबहादुरपुर के अम्बुया ग्राम में आकर रहने लगे थे। धारेन्दा, बहादुरपुर, रायणी या रोहिणी, गोपीवल्लभपुर तथा नृसिंहपुर ये पांच श्रीपाट श्रीश्यामानन्द प्रभु के शिष्यों के प्रिय स्थान हैं। श्रीश्यामानन्द प्रभु सद्गोप कुल में आविर्भूत हुये थे। वैष्णव स्वरूपतः निर्गुण होते हैं, वे किसी भी कुल में आविर्भूत हो सकते हैं। निम्न कुल में उनकी आविर्भाव लीला को देख कर वैष्णव में जात-पात करने से/ विचार रखने से नरक की प्राप्ति होती है। ‘अर्च्ये विष्णौ शिलाधीः गुरुषु नरमतिर्वैष्णवे जातिबुद्धिर्विष्णोर्वा वैष्णवाना कलिमलमथने पादतीर्थेऽम्बुबुद्धिः। श्रीविष्ण्णोनाम्नि मन्त्रे सकलकलुषहे शब्दसामान्य बुद्धिर्विष्णो सर्वेष्वरेशे तदितर समधीर्यस्य वा नारकी सः॥’ (पद्मपुराण)

नीच जाति नहे कृष्णभजने अयोग्य।
सत्कुल विप्र नहे भजनेर योग्य॥
जेई भजे सेइ बड़ अभक्त हीन छार।
कृष्णभजने नाहि जाति-कुलादि विचार॥
चै.च.अ. 4/66-67

अर्थात नीच जाति श्रीकृष्ण-भजन के अयोग्य नहीं है। उसे भी कृष्ण भजन करने का अधिकार है। ऐसा भी नहीं है कि सत्कुल में उत्पन्न ब्राह्मण ही श्रीकृष्ण-भजन के योग्य या श्रीकृष्ण-भजन के अधिकारी है। जो भजन करता है वही श्रेष्ठ है और जो भजन नहीं करता वह अभक्त तुच्छ है। श्रीकृष्ण-भजन में जाति कुल आदि का कोई भी विचार नहीं है। दीन-हीन व्यक्ति पर भगवान अधिक दया करते हैं और कुलीन पण्डित एवं धनी लोगों पर भगवान दया नहीं करते हैं क्योंकि उनमें अधिक अभिमान होता है।

न मेऽभक्तश्चतुर्वेदी मद्भक्तः श्वपचः प्रियः।
तस्मै देयं ततो ग्राह्यं स च पुज्यो यथाह्यहम॥
हरिभक्तिविलास-धृत-प्रमाणवचन

भक्तिहीन चतुर्वेदी ब्राह्मण मुझे प्रिय नहीं है, किन्तु चण्डाल कुल में जन्म ग्रहण करने पर भी मेरा भक्त मुझे बहुत प्रिय है, वही दान का सत्पात्र है तथा उसकी कृपा भी/ही ग्रहण करने योग्य है। वह निश्चय ही मेरे समान पूज्य है।

श्यामानन्द प्रभु से पहले एक पुत्र और एक कन्या के निर्याण से पिता-माता ने ये संकल्प लिया था कि अब की बार जो पुत्र होगा उसे विष्णु पादपद्मों में अर्पित कर देंगे। बहुत दुःख पाने के पश्चात माता-पिता ने श्यामानन्द प्रभु को पुत्र रूप से प्राप्त कर दुःखों के साथ पालन किया था, इसलिये उन्होंने उनका नाम दुःखी रखा था।

दण्डेश्वर ग्रामे वास सर्वाशे प्रबल।
माता श्रीदुरिका, पिता श्रीकृष्ण मण्डल॥
सद्गोपकुलेते श्रेष्ठ अति सुचरित।
कृष्ण से सर्वस्व ताँर भक्ते अति प्रीत॥
श्रीकृष्ण मण्डल दुरिकार गुण-गण।
ग्रन्थेर बाहुल्य – भये ना हय वर्णन॥
धारेन्दा – वाहादुरपुरेते पूर्वस्थिति।
शिष्टलोक कहे श्यामानन्द जन्म तिथि॥
कोनमते मण्डलेर नाहि प्रतिबन्ध।
पुत्रकन्या गत हैले हैल श्यामानन्द॥
माता-पिता दुःख सह पालन करिल।
एइ हेतु दुःखी नाम प्रथमे हइल॥
भक्ति रत्नाकर 1/351-55, 359

श्यामानन्द प्रभु के माता-पिता ने यथा समय पुत्र के अन्नप्राशन, चूड़ाकरणादि संस्कार सम्पन्न किये। धीरे-धीरे पुत्र बड़ा हुआ और व्याकरण शास्त्र का अध्ययन कर उसमें पारंगत हो गया। पुत्र की प्रतिभा और उसका धर्म में अनुराग देख माता-पिता उल्लसित हुये। अब दुःखी (श्यामानन्द) वैष्णवों के मुख से श्रीगौरनित्यानन्द की महिमा सुनने के पश्चात हर समय उनके अनुकीर्तन में लगे रहते। श्रीगौरनित्यानन्द की महिमा का कीर्त्तन और राधाकृष्ण की लीला का गान करते समय उनके दोनों नेत्रों से नदी की धारा समान अश्रु प्रवाहित होते रहते थे। पूर्णतः कृष्ण भजन में लगे रहने के लिये इनके माता-पिता ने इन्हें कृष्ण मंत्र की दीक्षा लेने का उपदेश दिया। माता-पिता के अभिप्राय को समझकर दुःखी ने कहा कि वे अम्बिका कालना में जाकर श्रीकृष्णचैतन्य-नित्यानन्द के प्रिय श्रीगौरीदास के शिष्य हृदय चैतन्य से दीक्षा लेंगे। इससे श्रीगंगा-दर्शन व श्रीगंगा-स्नान का सौभाग्य भी हो जायेगा और गुरुसे दीक्षा भी मिल जायेगी। पुत्र की ऐसी इच्छा सुनकर माता-पिता ने सहर्ष पुत्र को अनुमति दे दी। दुःखी अम्बिकानगर में श्रीहृदय चैतन्य प्रभु के पादपद्मों में उपस्थित हुये। परिचय जानने के पश्चात हृदय चैतन्य प्रभु ने स्नेह से भर कर उन्हें कृष्णमंत्र प्रदान कर शिष्य बना लिया और नाम रखा कृष्णदास। तब से दुःखी – ‘दुःखी कृष्णदास’ के नाम से प्रसिद्ध हो गये। हृदय चैतन्य प्रभु ने दुःखी कृष्णदास को वृन्दावन में जाकर भजन करने का उपदेश दिया। यद्यपि ऐसा आदेश सुन कर दुःखी कृष्णदास गुरुदेव के विरह में व्याकुल हो उठे किन्तु फिर भी गुरु का आदेश पालन करने के लिये नवद्वीप, गौड़मण्डल का दर्शन एवं वहाँ पर उपस्थित वैष्णवों से कृपा प्रार्थना करते हुये नाना तीर्थ भ्रमण करने के पश्चात वृन्दावन पहुंचे और वहाँ श्रीराधा-श्यामसुन्दर की आराधना में निमग्न हो गये। उस समय के वैष्णव जगत के श्रेष्ठ पात्रराज, षड़गोस्वामिगणो में से एक श्रीजीव गोस्वामी के आनुगत्य में दुःखी कृष्णदास शास्त्रों का अध्ययन करने लगे। जब हृदय चैतन्य प्रभु ने दुःखी कृष्णदास की भजन निष्ठा की बात सुनी तो उन्होंने श्रीजीव गोस्वामी को पत्र लिखा कि वे दुःखी कृष्णदास को अपना शिष्य समझकर उसका पालन करें। श्रीनिवास, नरोत्तम और दुःखी कृष्णदास तीनों ने वृन्दावन में श्रीजीव गोस्वामी से शास्त्र अध्ययन किया। श्रीजीव गोस्वामी ने श्रीनिवास, नरोत्तम और दुःखी कृष्णदास को क्रमशः आचार्य, ठाकुर और श्यामानन्द नाम प्रदान किये। श्रीजीव गोरवामी द्वारा श्यामानन्द नाम दिये जाने का कारण ऐसा निर्दिष्ट हुआ है कि दुःखी कृष्णदास ने राधाश्याम-सुन्दर को महानन्द प्रदान किया था।

श्यामसुन्दरेर महानन्द जन्माइल।
‘श्यामानन्द’ नाम पुनः वृन्दावने हैल॥
श्रीजीव गोस्वामी चारु चेष्टा निरखिया।
पढाइल भक्तिग्रन्थ निकटे राखिया॥
भक्तिरत्नाकर 1/401-402

श्रील जीव गोस्वामी ने गोस्वामिगण द्वारा रचित सभी ग्रन्थ देकर 1504 शकाब्द में श्रीनिवासाचार्य, नरोत्तम ठाकुर और श्रीश्यामानन्द प्रभु को गौड़देश और उड़ीसा में नाम प्रेम का प्रचार करने के लिये भेजा था। राजा वीरहम्बीर के स्थान वनविष्णुपुर में ग्रन्थों के चोरी हो जाने व बाद में उनके मिलने का प्रसंग श्रीनिवासाचार्य के चरित्र में वर्णित हुआ है।

श्रील नरोत्तम ठाकुर ने उत्तर बंगाल में एवं श्रीश्यामानन्द प्रभु ने उड़ीसा में गौड़ीय वैष्णव धर्म का प्रचार किया। पहले मेदिनीपुर ज़िला उड़ीसा के साम्राज्य के अन्तर्गत ही था। इसलिये मेदिनीपुर शहर में श्यामानन्द प्रभु की पावन स्मृति के संरक्षण के लिये वहाँ पर संस्थापित मठ का नाम ‘श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ’ रखा गया है। यद्यपि श्रीश्यामानन्द प्रभु ने हृदय चैतन्य प्रभु से दीक्षा ली थी तथापि अपने गुरुदेव के निर्देशानुसार ही श्रीजीव गोस्वामी का संग करने और उनकी सेवा करने से मधुर रस की कृष्ण सेवा में उनकी रुचि हो गयी थी। हृदय चैतन्य प्रभु द्वादश गोपालों में से एक अर्थात सुबल सखा का अभिन्न स्वरूप होने के कारण वे सख्य रस से गौर नित्यानन्द का भजन करते थे। जो लोग ऐसा समझते हैं कि श्यामानन्द प्रभु ने उन्नत अधिकार मधुर रस में सम्यक रूप से श्रीकृष्ण को प्रसन्न कर अपने दीक्षागुरु के पादपद्मों में अपराध किया है, तो उनका ऐसा सोचना उचित नहीं है। मधुर रस में भी सख्य रस निहित है। शिष्य की समुन्नति से गुरुदेव की महिमा बढ़ती ही है। श्यामानन्द प्रभु राधारानी के कितने प्रिय थे ये श्रीजीव गोस्वामी के आदेश से गौड़मण्डल जाने से पहले वृन्दावन की एक अलौकिक घटना से निश्चित रूप से प्रमाणित होता है। घटना इस प्रकार है – एक दिन श्यामानन्द प्रभु प्रेमाविष्ट होकर वृन्दावन के रासमण्डल की झाडू से सफाई कर रहे थे कि उसी समय राधारानी की अलौकिक कृपा से उन्हें वहाँ राधारानी के श्रीचरणों का एक नुपुर मिला। श्यामानन्द प्रभु ने अत्यन्त उल्लास के साथ उस नुपुर को अपने मस्तक से स्पर्श किया जिससे उनके ललाट पर नूपुर आकृति का तिलक बन गया। यही से श्यामानन्द प्रभु की धरा (सम्प्रदाय) में नूपुर तिलक का प्रवर्तन हुआ। श्रीनरोत्तम ठाकुर और श्रीश्यामानन्द प्रभु ने मुख्य रूप से कीर्तन के द्वारा ही प्रचार किया। श्रीनिवासाचार्य प्रभु, श्रीनरोत्तम ठाकुर और श्रीश्यामानन्द द्वारा प्रवर्तित कीर्तनों के सुर क्रमशः ‘मनोहर साही’, ‘गराणहाटी’, और ‘रेणेटी’ थे। प्राणों को हर लेने वाले सुरों में कीर्तन करने से श्रोता मोहित हो जाते थे। अभी इन सब सुरों का प्रचलन देखने को नहीं मिलता है। श्यामानन्द प्रभु के प्रचार के फल रूप उड़ीसा के कई मुसलमान भी उनके शिष्य हो गये थे। श्यामानन्द प्रभु के असंख्य शिष्यों में से श्रीरसिक मुरारि प्रधान थे। श्रीरसिकानन्द रोहिणी ग्राम के अधिपति श्रीअच्युत के पुत्र थे। उनका एक और नाम था ‘मुरारि’। दोनों नामों को मिलाकर उन्हें रसिक-मुरारि भी कहा जाता है। श्रीरसिकानन्द देव गोस्वामी अलौकिक शक्ति से सम्पन्न आचार्य थे। अभी भी उड़ीसा के गांव-गांव में उनकी महिमा सुनने को मिलती है। श्यामानन्द प्रभु के असंख्य शिष्यों में से कुछ मुख्य शिष्यों के नामों का भक्तिरत्नाकर ग्रंथ में उल्लेख हुआ है –

श्यामानन्द शिष्य करिलेन स्थाने-स्थाने।
केवा ना पवित्र हय ता’ सवार नामे॥
राधानन्द, श्रीपुरुषोत्तम, मनोहर।
चिन्तामणि, बलभद्र, श्रीजगदीश्वर॥
उद्धव, अक्रूर, मधुवन, श्रीगोविन्द।
जगन्नाथ, गदाधर, श्रीआनन्दानन्द॥
श्रीराधामोहन आदि शिष्यगण संगे।
सदा भासे संकीर्त्तन – सुखेर तरंगे॥
श्रीश्यामानन्देर महा अद्भुत विलास।
वर्णे कविगण जा’ते सभार उल्लास॥
भक्ति रत्नाकर 15/62-66

इसके अतिरिक्त श्रीश्यामानन्द प्रभु ने श्रीदामोदर नामक एक योगी पर कृपा कर उसे भक्ति रस में परिवर्तित कर दिया था। उसके सम्बन्ध में श्रीनरहरि चक्रवर्ति ने श्रीभक्तिरत्नाकर ग्रन्थ में इस प्रकार लिखा है।

दामोदर नामे एक योगाभ्यासी छिला।
ता’रे कृपा करि’ भक्ति रसे डुबाइला॥
श्रीश्यामानन्देर शिष्य हैया दामोदर।
निताई’ चैतन्य’ बलि’ कांदे निरन्तर॥
से प्रेम-आवेश देखि’ केवा धैर्य धरे?
‘सर्वश्रेष्ठ श्रीभक्ति’ बलिया नृत्य करे॥
श्यामानन्ददेव दामोदरे उद्धारिया।
सर्वत्र भ्रमये भक्तिरत्न बिलाईया॥
भक्ति रत्नाकर

श्रीरसिक मुरारि और श्रीदामोदर आदि भक्तों को साथ लेकर श्यामानन्द प्रभु ने धारेन्दा ग्राम में जो महोत्सव किया था, श्रीश्यामानन्द के परिवार (संप्रदाय) के भक्त उसकी महिमा आज भी गाते हैं। श्रीश्यामानन्द प्रभु ने अपने प्रधान शिष्य श्रीरसिकानन्ददेव गोस्वामी को गोपीवल्लभपुर में अपने सेवित विग्रह श्रीगोविन्द की सेवा समर्पित की थी। वृन्दावन में श्यामानन्द प्रभु के द्वारा सेवित विग्रह ‘राधाश्यामसुन्दर’ उन्हीकी परम्परा के भक्तों के द्वारा वर्तमान समय में राधाश्यामसुन्दर मन्दिर में सेवित हो रहे हैं। उपरोक्त मन्दिर वृन्दावन में गौड़ीय वैष्णवों का दर्शनीय स्थान है। श्रीश्यामानन्द प्रभु ने अपने अन्तिम जीवन काल में उड़ीसा के नृसिंहपुर गांव में रहकर वैष्णव धर्म का प्रचार किया था। 1552 शकाब्द में अषाढ़ी कृष्णा-प्रतिपदा तिथि को श्रीश्यामानन्द प्रभु ने नृसिंहपुर गांव में अपनी अप्रकट लीला की थी।

स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से

Śrī Śyāmānanda Prabhu

Śrī Śyāmānanda Prabhu was a servant of a servant of Subala in Kṛṣṇa-līlā. He was the disciple of Hṛdayānanda or Hṛdaya Caitanya, a disciple of Gaurī Dāsa Paṇḍita, who is Subala in Kṛṣṇa-līlā.

yaṁ lokā bhuvi kīrtayanti hṛdayānandasya śiṣyaṁ priyaṁ
sakhye śrī-subalya yaṁ bhagavataḥ preṣṭhānuśiṣyaṁ tathā
sa śrīmān rasikendra-mastaka-maṇiścitte mamāharniśaṁ
śrī-rādhāpriya-narma-marmasu ruciṁ sampādayan bhāsatām

Śrī Śyāmānanda was known in this world as Hṛdayānanda’s dear disciple. Due to his being a follower of Subala sakhā, he became the grand-disciple of Lord’s dear associate. May he, the crest-jewel of the connoisseurs of divine love, appear day and night in my mind, bringing me a fondness for the service of Śrī Śrī Rādhā-Mādhava’s confidential joyous pastimes. (Śyāmānanda-śataka)

Śyāmānanda Prabhu was born on the full moon day of Caitra in 1456 of the Śaka era (1535 AD) in the town of Dharenda Bahadurpur, which is near the Khargapur railway station in Midnapore. His father was Śrī Kṛṣṇa Maṇḍala and his mother, Durikā. Kṛṣṇa Maṇḍala’s hometown was Dandeshwar, which lies on the banks of the Subarnarekha River. The following statement is found in the Gauḍīya Vaiṣṇava Abhidhāna: “Śrī Kṛṣṇa Maṇḍala used to live in a place called Ambua, near Dandeshwar. He formerly lived in Gauḍa (the part of Bengal which lies on the banks of the Bhagirathi River) and only later moved to Dandeshwar, just across the present-day border in Odisha. Śyāmānanda Prabhu’s Sripats in the towns of Dharenda, Bahadurpur, Rayni or Rohini, Gopiballabhpur and Nrisinghapur are very dear to his disciples.”

Śyāmānanda Prabhu was born in the Sadgopa subcaste. Of course, a Vaiṣṇava is beyond the material qualities and may take birth in a family of any race or caste. If anyone thinks badly of Vaiṣṇavas or judges them on the basis of their race or caste is destined for hell.

arcye viṣṇau śīladhīḥ guruṣu naramatir vaiṣṇave jāti-buddhir
viṣṇor vā vaiṣṇavānāṁ kali-mala-mathane pāda-tīrthe ’mbu buddhiḥ
śrī viṣṇor nāmni mantre sakala-kaluṣahe śabda-sāmānya-buddhir
viṣṇau sarveśvareśe tad-itara-samadhīr yasya vā nārakī saḥ

Anyone who considers the deity to be nothing but stone, the guru to be an ordinary human being, or the Vaiṣṇava to be a member of a particular caste or race, who takes the holy water which has washed Viṣṇu or the Vaiṣnava’s feet and can destroy all the sins of the age of Kali, to be ordinary water, who thinks that the Name or mantra of Viṣnu, which destroys all evils, is the same as any other sound, or who takes Viṣṇu to be equal to anything other than Him, has to suffer hellish life. (Padma-purāṇa)

One who takes birth in a low-class family is not disqualified from performing devotional service, nor is one who born in a pure, high-class brahminical family automatically qualified for such service. Whoever engages in the worship of the Lord is a great person; one who does not worship is rejected. There is no consideration of caste or creed in Kṛṣṇa-bhajana. (Caitanya Caritāmṛta 3.4.66-7)

na me bhaktaś caturvedī
mad-bhaktaḥ śvapacaḥ priyaḥ
tasmai deyaṁ tato grāhyaṁ
sa ca pūjyo yathā hy aham

Simply being a knower of the four Vedas does not make someone My devotee. An outcaste who is My devotee is dear to Me. One should exchange gifts and food, etc., with such a devotee for he is verily as worshipable as I am. (Itihāsa-samuccaya, quoted in Hari-bhakti-vilāsa 10.127)

Śyāmānanda’s parents had lost several children in childbirth and they vowed to surrender their next child to Viṣṇu if it survived. Having suffered so much grief in the loss of their previous children, they first named Śyāmānanda as Duḥkhī, or “unhappy”, to ward off further distress.

Śyāmānanda’s parents Durikā and Śrī Kṛṣṇa Maṇḍala made their home in Dandeshwar. His father was the best of the Sadgopa caste, of impeccable character. Kṛṣṇa was everything to him and Kṛṣṇa’s devotees very dear. We cannot describe the virtues of his parents for fear of increasing the volume of this book. They had previously lived in Dharenda-Bahadurpur and people say that Śyāmānanda was born there. Though his brothers and sisters had all died as children, nothing could stop him. Even so, his parents brought him up in sadness and they called him Duḥkhī. (Bhakti-ratnākara 1.351-5, 359)

Duḥkhī’s parents performed the appropriate rituals such as the first eating of solid food, the cutting of hair when their time came. As he grew older, he studied Sanskrit grammar, etc. His parents were overjoyed to see his talents and his religious proclivity. He listened attentively to devotees when they spoke of Gaurāṅga and Nityānanda Prabhu’s glories and would repeat them to others constantly. Whenever he listened to the activities of Gaura-Nitāi or Rādhā and Kṛṣṇa, tears would flow in torrents from his eyes.

Duḥkhī served his parents devotedly and they told him to get initiated so that he could fully commit himself to the service of the Lord. Duḥkhī agreed and told them that he wished to take dīkṣā from Hṛdaya Caitanya in Ambika Kalna. Going there would also give him the chance to see the Ganges and to bathe in it. His parents happily gave him permission to go.

When Duḥkhī arrived in Ambika Kalna, he threw himself at the feet of Hṛdaya Caitanya, who upon becoming acquainted with him, happily gave him kṛṣṇa-mantra. He gave Duḥkhī the Vaiṣṇava name “Kṛṣṇadāsa” and so he was known from then on as Duḥkhī Kṛṣṇadāsa. Hṛdaya Caitanya ordered him to go to Vṛndāvana and take up a life of intense bhajana. Though Duḥkhī Kṛṣṇadāsa did not like being separated from his gurudeva, following his order he set off for Vraja, first visiting Navadvīpa and other places in Gauḍa-maṇḍala, where he sought the blessings of the Vaiṣṇavas. After spending much time on pilgrimage, he finally arrived in Vṛndāvana where he became completely absorbed in the worship of Śrī Rādhā-Śyāmasundara.

In Vṛndāvana, Duḥkhī Kṛṣṇadāsa studied the Vaiṣṇava scriptures under Śrī Jīva Gosvāmī, who was the leading scholar of the sampradaya. When Hṛday Caitanya heard of the enthusiasm with which Duḥkhī Kṛṣṇadāsa was leading his devotional life in Vraja, he wrote a letter to Jīva Gosvāmī in which he said that Jīva Gosvāmī should accept Duḥkhī Kṛṣṇadāsa as his own disciple. Just as he gave titles to his other prominent students (Ācārya title to Śrīnivāsa and Ṭhākura to Narottama), Jīva Gosvāmī gave the name Śyāmānanda to Duḥkhī Kṛṣṇadāsa. The reasoning behind this name was that he brought great joy to Śrī Rādhā-Śyāmasundara.

He brought great joy to Śyāmasundara and hence he was given the new name ‘Śyāmānanda’ in Vṛndāvana. Seeing his sincere endeavour in devotion, Śrī Jīva Gosvāmī taught him devotional scriptures. (Bhakti-ratnākara 1.401-2)

Jīva Gosvāmī sent Śrīnivāsa Ācārya, Narottama Dāsa Ṭhākura and Śyāmānanda Prabhu back to Bengal with the Vaiṣṇava scriptures written by the Gosvāmīs in 1504 of the Śaka era (1582-3 AD). The idea was to spread the teachings found in these books throughout Bengal and Odisha. We have already related the events that took place when Bīrahāmbīra stole these books. Narottama Ṭhākura went to northern Bengal and Śyāmānanda Prabhu went to Odisha. The Midnapore district was previously under the rule of the Odishan king.

Rādhārāṇī’s Special Mercy on Śyāmānanda
Śyāmānanda Prabhu’s Preaching
Excerpt from “Sri Chaitanya: His Life and Associates” by Srila Bhakti Ballabh Tirtha Goswami Maharaj