परम पूज्यपाद परमहंस परिव्राजकाचार्य
त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति कुमुद सन्त गोस्वामी

आपका प्राकट्य पश्चिम बंगाल के मेदनीपुर जिला के अन्तर्गत ‘नारमा’ नामक गाँव में 2 वैशाख सन् 1914 में वहाँ के ज़मींदार श्रीवैकुण्ठ नाथ राय जी के घर पर हुआ। आपकी माता जी का नाम श्रीमती रत्नमयी देवी है। तीनों भाइयों में आप सबसे छोटे थे। माता-पिता द्वारा दिया हुआ आपका नाम श्रीराधारमण था। बचपन से ही आप बड़े धार्मिक प्रवृति के थे। खेलों में अधिक समय न बिताकर, आप घर में श्रीअनन्तदेव जी तथा श्रीगोपाल जी की सेवा पूजा किया करते थे।

आपके पिताजी धनी जमींदार होने के साथ-साथ धर्मप्रचार में बड़े उत्साही थे। आपके गाँव ‘नारमा’ में, प्रतिवर्ष संस्कृत परिषद् का उत्सव हुआ करता था, जिसमें देश के विभिन्न प्रान्तों से विद्वान भाग लेने आया करते थे। जगद्‌गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी के कृपापात्र पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्री श्रीमद् भक्ति हृदय वन महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्री श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज (तब आप ब्रह्मचारी थे), श्री सुन्दरानन्द विद्याविनोद प्रभु, श्रीसुरेशचन्द्र भट्टाचार्य तथा श्रीहरि बन्द्यांपाध्याय आदि भक्त लोग इस वार्षिक उत्सव में भाग लेने आया करते थे। इस उत्सव में आने पर प्रतिवर्ष इनका अवस्थान वहाँ के ज़मींदार श्रीवैकुण्ठ नाय के घर पर ही हुआ करता था। जगदगुरु श्रील प्रभुपाद जी के शिष्य जब इस उत्सव में भाग लेने आते थे तो वे श्री वैकुण्ठ नाथ राय जी के घर पर, पारमार्थिक प्रवचन व गाँव में नगर-संकीर्तन का भी आयोजन किया करते थे। वैकुण्ठ नाथ राय जी के सबसे छोटे पुत्र श्री राधारमण जी बड़े उत्साह से वैष्णवों के साथ संकीर्तन करते, बड़े ध्यान से हरिकथा सुनते व दौड़-भागकर घर आये वैष्णवों की सेवा करते थे।

श्री वैकुण्ठनाथ राय ने अपने पुत्र की स्वाभाविक भगवत्- प्रीति को लक्ष्य कर, पूज्यपाद वन महाराज व पूज्यपाद पुरी गोस्वामी महाराज जी के समक्ष पुत्र की शिक्षा की व्यवस्था मठ में ही रहकर करने की बात कही। श्रीराधारमण जी की मांता रत्ममयी देवी ने भी इस बात पर सहमति प्रदान की। श्रीमद् वन महाराज जी एवं श्रीमद् पुरी गोस्वामी महाराज जी जब प्रचार कार्यक्रम के बाद वापस मठ में आये तो उन्होंने बालक राधारमण की असाधारण रुचि एवं श्री वैकुण्ठनाथ राय की इच्छा की। सारी बात श्रील प्रभुपाद के समक्ष निवेदन की। प्रभुपाद जी ने भी उनकी बात को सहर्ष स्वीकार करते हुए एवं मठ में ही रखकर राधारमण को शिक्षा देने की अनुमति प्रदान कर दी।

प्रभुपाद जी की अनुमति का समाचार प्राप्त करते ही, श्रीवैकुण्ठनाथ राय अपने ग्यारह वर्षीय पुत्र राधारमण को लेकर गौड़ीय मठ में उपस्थित हुए। बालक राधारमण जी श्रील प्रभुपाद के चरण दर्शन करके अत्यन्त प्रभावित हुए एवं सभी सेवा कार्यों में योगदान करते हुए मठ में रहने की बात को सहर्ष स्वीकार कर लिया। उनकी शिक्षा की व्यवस्था The New Indian School में हुई। वे अध्ययन के अतिरिक्त समय को, श्रीहरिकथा, कीर्तन एवं श्रवण में ही व्यतीत करते थे। इनके सुमधुर कण्ठ एवं रुचि को देखकर सभी मठवासी मुग्ध होते थे। प्रभुपाद जी ने 3 फरवरी से 17 मार्च 1930 तक मायापुर में एक विराट पारमार्थिक प्रदर्शनी का उ‌द्घाटन किया। इस प्रदर्शनी को देखने के लिए दूर-दूर से भीड़ आती। प्रभुपाद जी ने इस प्रदर्शनी की कई सेवाएँ श्रीराधारमण को दीं जो उन्होंने बड़ी ज़िम्मेदारी के साथ निभायीं। इसी समय में प्रभुपाद जी ने बालक राधारमण को हरिनाम प्रदान किया तथा 20 मार्च 1930 को आपकी निष्कपट सेवा देखकर प्रभुपाद जी ने आपको गेरुआ वस्त्र भी प्रदान किया। शिक्षा समाप्ति के पश्चात् श्रील प्रभुपादजी ने आप को ढाका, मुम्बई, रैंगून तथा मद्रास आदि विभिन्न मठों की सेवा में नियुक्त किया। सुमधुर कण्ठ एवं संगीत में निपुण देखकर प्रभुपाद जी ने आपको ‘राग कुमुद’ उपाधि वाला, गौर आशीर्वाद प्रशस्ति पत्र (commendation certificate) से विभूषित किया, जिसमें सभापति के रूप में स्वयं श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी के हस्ताक्षर थे।

1 जनवरी सन् 1937 को जब प्रातः 5 बजे जगद्‌गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने स्वधाम गमन की लीला की, उस समय श्रीराधारमण ब्रह्मचारी जी कई संन्यासियों के साथ मद्रास में श्रीहरिनाम संकीर्तन का प्रचार कर रहे थे। प्रभुपाद जी के इस हृदय विदारक संवाद को सुनकर आप तुरन्त ही परमाराध्य श्रील भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज (तब का नाम हयग्रीव दास ब्रह्मचारी) के साथ मायापुर आये तथा काफी समय मठ में रहे परन्तु मठ की बदली हुई परिस्थितियों से समन्वय न बिठा पाने के कारण अपने गुरुभाई त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् भक्ति भूदेव श्रौति महाराज जी के साथ भारत के तीर्थ भ्रमण के लिए निकल पड़े और वापसी में अपने घर की ओर चल दिये। आपके अपने ही गाँव में श्रीराधाकिशोर मोहन जी का मन्दिर था। उस मन्दिर के एक निर्जन कमरे में अकेले बैठकर हरिनाम करते रहते। एक दिन श्रील प्रभुपाद जी ने आपको स्वप्न में संन्यास लेकर, महाप्रभु जी की वाणी का प्रचार करने के लिए आदेश दिया।

बृहस्पतिवार, 12 फरवरी, 1942 को धीरचोरा गोपीनाथ जी के सामने, परमपूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति विचार यायावर महाराज जी ने आपको संन्यास प्रदान करके, श्रील प्रभुपाद जी का स्वप्न पूरा किया। संन्यास के बाद आपका नाम हुआ त्रिदण्डि स्वामी श्री भक्ति कुमुद सन्त महाराज। सन् 1973 में श्रील प्रभुपाद जी के सौवें प्रकट उत्सव पर अर्थात् उनकी आविर्भाव – शताब्दी उत्सव के उपलक्ष्य में जो विशेष ट्रेन 15 बोगी लेकर चारों धामों सहित भारत के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर गयी थी। उसमें आप पार्टी के महान प्रचारकों में से एक महान प्रचारक थे।

आपके द्वारा स्थापित पहला प्रचार केन्द्र – श्री गौरांग मठ, के शियाडी, मेदनीपुर, पश्चिम बंगाल में है। दूसरा प्रचार केन्द्र – श्रीचैतन्य आश्रम, खड़गपुर, पश्चिम बंगाल; तीसरा प्रचार केन्द्र – श्रीचैतन्य आश्रम, पुरीधाम, उड़ीसा तथा चौथा प्रचार केन्द्र – श्रीचैतन्य आश्रम, कोलकाता, है। यहाँ पर आपके प्राणेश्वर ठाकुर हैं – श्रीराधा गोपीनाथ, श्रीराधा गोविन्द, श्रीराधा मदनमोहन तथा श्रीराधा रमण जी।

आपके रचित व संकलित ग्रन्थ हैं – पत्र उपदेश, गीता सिद्धान्त सार, सन्त वाणी, प्रबन्धावली, श्रीगौरांग महाप्रभुर जीवनी, मोह मुदगरेर बंगानुवाद, साधक कण, दामोदर व्रत माहात्म्य, भक्ति गीति, दीक्षा, श्रीविष्णु सहस्त्रनाम स्तोत्रम्, श्रीचैतन्य भागवत, श्रीचैतन्य चरितामृत, वन्दनाकण व वन्दना चयन।

एक दीप से कई दीप प्रज्जवलित हो जाते हैं, फिर कई दीपों से और कई नए दीप प्रज्वलित हो जाते हैं। इस तरह यह दीप प्रज्वलन का कार्य चलता रहता है। प्रभुपाद जी ने इस धराधाम में जितने प्रदीप प्रज्वलित किए थे, परम पूज्यपाद श्रील भक्ति कुमुद सन्त गोस्वामी महाराज, उनके वह आखिरी द्वीप हैं जो कि अभी भी अपने दर्शन देकर श्री सारस्वत गौड़ीय वैष्णव-समाज को देदीप्यमान कर रहे हैं।

कहावत है कि पृथ्वी कभी भी सच्चे वैष्णवों से, सन्तों से रहित नहीं रहती। इसके इलावा जगद्‌गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद जी ने कहा है कि भक्ति विनोद धारा कभी भी बन्द नहीं होगी।