व्यूहस्तृतीयः प्रद्युम्नः प्रियनर्मसखोऽभवत्।
चक्रे लीलासहायं यो राधा-माधवयोर्व्रजे
श्रीचैतन्याद्वैत तनुः स एव रघुनन्दनः।
(गौ. ग. दी. 70 श्लोक)
प्रद्युम्न जी तृतीय व्यूह के हैं। इन्होंने कृष्ण के प्रियनर्म सखा होकर व्रज में श्रीराधामाधव जी की लीला में सहायता की थी। वे प्रद्युम्न जी ही इस समय श्रीचैतन्य के अभीन्न देह रघुनन्दन बने हैं।
ये वैद्यकूल में पैदा हुये थे। किसी के मत में इनका आविर्भाव 1432 शकाब्द में हुआ था। इनके पिता का नाम श्रीमुकुन्द दास जी है, जबकि इनकी माता का नाम ज्ञात नहीं हो पाया। रघुनन्दन ठाकुर के पिता श्रीमुकुन्द दास, श्रीनरहरि सरकार ठाकुर के बड़े भाई थे। श्रीचैतन्यचरितामृत की मध्य लीला के पन्द्रहवें परिच्छेद में यह स्पष्ट तौर पर लिखा है कि रघुनन्दन के पिता श्रीमुकुन्द दास राजवैद्य थे।, जैसे कि—
बाह्ये राजवैद्य इँहो, करे राज-सेवा।
अन्तरे प्रेम इँहार जानिबेक केबा॥
एक बार श्रीमुकुन्द दास, बादशाह की चिकित्सा करने गये तो वे वहाँ मोर पंखों से बने पंखे को देखकर मूर्च्छित होकर गिर पड़े थे।इस प्रसंग का वर्णन श्रीचैतन्यचरितामृत में हुआ है।वर्द्धमान ज़िले के अन्तर्गत श्रीखण्ड में इनका पीठ स्थान था। वर्द्धमान काटोया रेललाईन पर है। काटोया से पहिले ही इनका पीठ स्थान व श्रीखण्ड है और उसके बाद श्रीखण्ड का रेलवे स्टेशन है। श्रीखण्ड स्टेशन से पीठस्थान1 की दूरी लगभग एक मील है।
श्रील रघुनन्दन ठाकुर बसन्त पंचमी के दिन प्रकट हुए थे। रघुनन्दन के चाचा श्रीनरहरि सरकार ठाकुर ने श्रीरघुनन्दन ठाकुर का बचपन से ही बहुत स्नेह के साथ पालन-पोषण किया था।
जहाँ कृष्ण भक्ति होती है, वहीं गुरुत्त्व का प्रकाश होता है। श्रीमन्महाप्रभु जी ने ऐसा कहकर रघुनन्दन जी को मुकुन्द दास जी के पिता रूप से निर्देश किया था।—
खण्डेर मुकुन्ददास, श्रीरघुनन्दन।
श्रीनरहरि,-एइ मुख्य तिन जन॥
मुकुन्द दासेरे पूछे शचीर नन्दन।
“तुमि-पीता, पुत्र तोमार-रघुनन्दन??॥
किबा रघुनन्दन-पिता, तुमि-तार तनय?
निश्चय करिया कह, याउक संशय॥
मुकुन्द कहे,-“रघुनन्दन आमार ‘पिता’ हय।
आमि तार ‘पुत्र’,-एइ आमार निश्चय॥
आमा सबार कृष्णभक्ति रघुनन्दन हैते।
अतएव पिता-रघुनन्दन, आमार निश्चिते॥
शुनि’ हर्षे कहे प्रभु,-“कहिले निश्चय।
जाँहा हैते कृष्णभक्ति सेइ गुरु हय॥
(चै. च.म. 15/112-117)
[श्रीखण्ड के तीन मुख्य जन है—श्रीमुकुन्द दास, श्रीरघुनन्दन और श्रीनरहरि। एक दिन श्रीशचिनन्दन गौरहरि श्रीमुकुन्द दास से पूछते हैं-आप पिता हो और आपका पुत्र श्रीरघुनन्दन है या रघुनन्दन पिता है और तुम उसके पुत्र हो? आप यह निश्च्य रूप से बताइये ताकि मेरा संशय दूर हो जाये।
श्रीमुकुन्द जी कहते हैं कि रघुनन्दन मेरा पिता है, मै उनका पुत्र हूँ, यही मेरा निश्च्य है, चूँकि हम सबकी कृष्णभक्ति श्रीरघुनन्दन से हुई है। अतः निश्चित रूप से रघुनन्दन ही मेरा पिता है।
यह सुनकर प्रभु प्रसनन्ता से कहने लगे कि अपने ठीक बात कही है, जिससे कृष्ण भक्ति मिले, वही महान है, बड़ा है।]
श्रीमन्महाप्रभुजी ने रघुनन्दन ठाकुर को सेवा के रूप में श्रीविग्रह सेवा का आदेश दिया था।
रघुनन्देर कार्य—कृष्णेर सेवन।
कृष्ण-सेवा बिना इँहार अन्य नाहि मन॥
(चै. च.म. 15/131)
(अर्थात श्रीरघुनन्दन का कार्य तो श्रीकृष्ण की सेवा ही है। कृष्ण सेवा छोड़कर उनका मन और कुछ नहीं चाहता।)
रघुनन्दन ठाकुर ने शिशुकाल में अपने कुल देवता श्रीगोपीनाथ को लड्डू खिलाये थे। उद्धवदास की गीति में उसका इस प्रकार वर्णन है—
प्रकट श्रीखण्डवास, नाम श्रीमुकुन्ददास,
धरे सेवा गोपीनाथ जानि।
गेला कोन कार्यान्तरे, सेवा करिवार तरे,
श्रीरघुनन्दने डाकि आनि॥
घरे आछे कृष्ण सेवा, यत्न करे खवाइबा,
एत बलि मुकुन्द चलिला।
पितार आदेश पाया, सेवार सामग्री लैया,
गोपीनाथेर सम्मुखे आइला॥
श्रीरघुनन्दने अती, वयः क्रम शिशुमती,
खाओ बले कांदिते कांदिते।
कृष्ण से प्रेमेर वशे, ना राखिया अवशेषे,
सकल खाइला अलक्षिते॥
आसिया मुकुन्ददास, कहे बालकेर पाश,
प्रसाद नैवेद्य आन देखि।
शिशु कहे नाथ शुन, सकलि खाइल पुनः,
अवशेषे कछु न राखि।
शुनि अपरूप हेन, विस्मित हृदये पुनः,
आर दिने बालके कहिया।
सेवा अनुमति दिया, बाड़ीर बाहिर हैया,
पुनः आसि रहे लुकाइया॥
श्रीरघुनन्दन अति, हइया हरिषमति,
गोपीनाथे लाड़ू दिया करे।
खाओ खाओ बले घन, अर्धेक खाइते हेन,
समये मुकुन्द देखी द्वारे॥
ये खाइल रहे हेन, आर ना खाइला पुनः,
देखिया मुकुन्द प्रेमे भोर।
नन्दन करिया कोले, गद् गद् स्वरे वोले,
नयने वरिषे घन लोर॥
अद्यपि श्रीखण्डपुरे, अर्द्ध लाड़ू आछे करे।
देखे यत भाग्यवन्त जने॥
श्रीरघुनन्दन यांरे लाड़ू खाओवाइल।
तांरे देखी मने महा कौतुक वाड़िल॥
(भ.र. 9/525)
(अर्थात् श्रीखण्ड में श्रीमुकुन्द दास नाम वाले भक्त प्रकट हुए। वह घर में ही श्रीगोपीनाथ जी की सेवा करते थे। एक बार उनको किसी कार्य के लिए बाहर जाना था। इसलिए उन्होंने अपने पुत्र रघुनन्दन को बुलाकर कहा कि घर में श्रीगोपीनाथ जी की सेवा है,यत्न करके ठाकुर जी को भोग लगाना-ऐसा कहकर श्रीमुकुन्द जी चले गए। पिता जी के आदेशानुसार रघुनन्दन जी सेवा की सामग्री लेकर श्रीगोपीनाथ जी के पास आये। श्रीरघुनन्दन अभी बाल्य अवस्था में ही थे, सो सरल भाव से गोपीनाथ जी को रोते-रोते कहने लगे कि आप खाओ। गोपीनाथ जी तो प्रेम के वश में हैं, उन्होंने गुप्त रूप से सारी सामग्री खा ली। जब श्रीमुकुन्द दास लौटे तो बालक को कहा कि जाकर नैवेद्य प्रसाद लाओ तो बालक ने कहा कि वह तो गोपीनाथ जी ने सारा खा लिया, कुछ भी तो नहीं छोड़ा, यह सुनकर श्रीमुकुन्द विस्मित हो गये। फिर किसी और दिन बालक को सेवा करने के लिए कहकर स्वयं घर से बाहर जाकर और फिर घर में आकर छिप गये। इधर श्रीरघुनन्दन ने बड़ी प्रसन्नता के साथ अपने हाथ में श्रीगोपीनाथ जी को लड्डू दिया और लो खाओ, लो खाओ-ऐसा कहने लगे। श्रीगोपीनाथ जी ने जब आधा लड्डू खा लिया तो उसी समय श्रीमुकुन्द जी कमरे में देखने के लिए आ गये। आधा लड्डू जो बच गया था, उसे श्रीगोपीनाथ जी ने नहीं खाया। यह देखकर मुकुन्द प्रेम में विभोर हो गये उनके नयनों से अश्रुधारा चलने लगी, कण्ठ गद् गद् हो गया और अति प्रसन्न होकर उन्होंने रघुनन्दन को गोद में उठा लिया।
आज भी श्रीखण्डदेश में आधा लड्डू लिये श्रीगोपीनाथ जी विराजमान हैं। कोई भाग्यवान् ही उनके दर्शन पा सकता है। श्रीरघुनन्दन जी मदनमोहन से अभिन्न हैं, रसिक उद्धव दास यह कहते हैं कि श्रीरघुनन्दन ने जिनको लड्डू खिलाया था, उनके दर्शन करने का मनमें महाकौतुक बढ़ गया।)
श्रीनरहरि सरकार ठाकुर ने पीठस्थान के निकटवर्त्ती जलाशय से, श्रीगौरांग महाप्रभु और नित्यानन्द प्रभु की सेवा के लिए पूर्णरूपेण परिपक्व शहद प्राप्त किया था। यह किम्वदन्ती भी सुनी जाती है कि रघुनन्दन के अलौकिक प्रभाव से, उस जलाशय के तटवर्ती कदम्ब वृक्ष पर हमेशा दो फूल खिलते थे।
श्रीगौड़ीय वैष्णव अभिधान में श्रीरघुनन्दन ठाकुर के सम्बन्ध में एक अन्य अलौकिक घटना का उल्लेख भी है।–
श्रीअभिराम ठाकुर ने किसी समय श्रीखण्ड में आकर श्रीरघुनन्दन को प्रणाम किया। श्रीरघुनन्दन उनका आलिंगन करके प्रेम में सराबोर हो गए थे। उस समय रघुनन्दन बड़ डांगा में प्रचण्ड कीर्तन कर रहे थे, उनके चरणों का नूपुर टूट कर दो कोस दूर आकाइहाट में उनके शिष्य श्रीकृष्ण दास के घर जा गिरा। बाद में उस स्थान की स्मृति का संरक्षण करने के लिए वहाँ एक कुण्ड बनाया गया, जिसकी नूपुर कुण्ड के नाम से प्रसिद्धि हुई।
संकीर्तन पिता श्रीमन्महाप्रभु जी ने अपने स्वीकृत पुत्र श्रीरघुनन्दन को संकीर्तन यज्ञ के अधिवास दिवस में माला-चन्दन और यज्ञ की शेष आहुति प्रदान करने का अधिकारी बनाया था।
श्रीरघुनन्दन ठाकुर चातुर्मास्य के समय गौड़देश के भक्तों के साथ पूरी जाते थे। श्रीजगन्नाथ जी के रथ के आगे जो सात सम्प्रदायों का नृत्य कीर्तन होता था, उसमें खण्डवासी भक्तों की सातवीं मण्डली के नर्त्तक थे, श्रील नरहरि सरकार ठाकुर और श्रीरघुनन्दन।
श्रीनरोत्तम ठाकुर और श्रीनिवासाचार्य प्रभु द्वारा आयोजित खेतरि पीठस्थान महोत्सव में, काटोया में दास गदाधर जी के और श्रीखण्ड में श्रीनरहरि सरकार के तिरोभाव उत्सव में श्रीरघुनन्दन ठाकुर ने योगदान दिया था। –
केह केह-श्रीरघुनन्दने प्रीत यार।
जन्मे जन्मे श्रीकृष्ण चैतन्य वश तार॥
केह केह-कि दयालु श्रीरघुनन्दन।
प्रीत दीन हीन, दु: ख जनेर जीवन॥
केह केह-कि दैन्य! विनय नाइ हेन।
केह केह-कंदर्पे प्राय शोभा येन॥
[कोई कहता है कि जिसकी श्रीरघुनन्दन से प्रीति है, जन्म-जन्म में श्रीकृष्णचैतन्य उसके वश में हैं। कोई कहता है कि अहा! श्रीरघुनन्दन जी कितने दयालु हैं, वे दीन-हीन तथा दुःखी जीवों के तो जीवन स्वरूप हैं। कोई कहता है कि उनमें इतनी दीनता व विनय भाव था कि उनका वर्णन ही नहीं हो सकता। कोई कहता है कि उनकी शोभा कामदेव के समान है।………इत्यादि]
श्रील रघुनन्दन ठाकुर का श्रीनिवासाचार्य के प्रति असीम वात्सल्य स्नेह था। उन्होंने तिरोधान से पाहिले “वैष्णव धर्म का भविष्य आशाप्रद नहीं”-ऐसा कहकर श्रीनिवासाचार्य प्रभु को आश्वासन देकर आशीर्वाद प्रदान किया था –
आईसे समय इथे विषम हइव।
सवाकार मने नाना संदेह जन्मिव॥
कृष्ण चैतन्य-चन्द्रेण नित्यानन्देन संह्रते।
अवतारे कलावस्मित् वैष्णवाः सर्वे एव हि॥
भविष्यन्ति सदोद्विगनाः काले काले दिने दिने।
प्रायः संदिग्ध हृदया उत्तमेतर मध्यमा॥
(श्रीकृष्ण भजनामृत)
अर्थात रघुनन्दन जी ने श्रीनिवास जी को कहा कि श्रीकृष्णचैतन्य प्रभु और नित्यानन्द प्रभु द्वारा अपनी लीला संवरण करने पर इस कलिकाल में सारे वैष्णव सदा उद्विग्न-चित्त रहेंगे। उत्तम, मध्यम और कनिष्ट सभी समय के प्रभाव से सब समय पर प्रायः संदिग्ध-चित्त से रहने लगेंगे।
नहिव चिंतित इथे-प्रभु गौरराय।
साधिव अनेक कार्य तोमार द्वाराय॥
चिरंजीवी हइया रहिवे पृथ्वीते।
राखीवे प्रभुर धर्म स्वगण सहिते॥
तोमार प्रभावे कृष्णावहिर्मुख गण।
हइव उन्मुख लैया तोमर शरण॥
(भक्तिरत्नाकर 13/174 -179)
[रघुनन्दन जी कहते हैं-परन्तु चिन्ता करने की कोई आवश्यकता नहीं श्रीनिवास, क्योंकि श्रीगौरराय तुम्हारे द्वारा अनेक कार्य करवायेंगे।आप पृथ्वी पर लम्बे समय तक जीवित रहो और अपने साथियों के साथ महाप्रभु जी के धर्म का प्रचार करो। जो लोग श्रीकृष्ण से विमुख है, वे सब आपके प्रभाव से आपकी शरण लेकर श्रीकृष्ण के उन्मुख हो जायेंगे।]
अपने पुत्र कानाई ठाकुर को, गौर-गोपाल के चरणों में समर्पित करके, श्रील रघुनन्दन ठाकुर ने श्रावण मास की शुक्ला चतुर्दशी वाले दिन इस संसार की लीला संवरण की। श्रीकानाई ठाकुर ने पिता का तिरोभाव उत्सव किया।
श्रीकृष्णचैतन्यनाम लैया बार-बार।
हैला संगोपन देखि लोक चमत्कार॥
धन्य से श्रावण शुक्ला चतुर्थी दिवस।
केवा नाहि गाय रघुनन्दनेर यश॥
(भ.र. 13/183-184)
[अर्थात् बार-बार श्रीकृष्णचैतन्य महाप्रभु जी का नाम लेकर श्रीरघुनन्दन जी अदृश्य हो गये। यह चमत्कार देखकर लोग विस्मित हो गये।वह श्रावन की शुक्ला चतुर्थी का दिन धन्य है जिस दिन रघुनन्दनजी ने आप्रकट लीला की। कौन ऐसा है जो उस दिन श्रीरघुनन्दन का यश नहीं गायेगा।]
1 श्रीपीठस्थान श्रीखण्ड निवासी भक्तों के नाम:- श्रीनरहरि सरकार ठाकुर, श्रीमुकुन्द ठाकुर, श्रीरघुनन्दन, श्रीचिरंजीव, श्रीसुलोचन, श्रीदामोदर कविराज, श्रीरामचन्द्र कविराज, श्रीगोविन्द कविराज, श्रीबलराम दास, श्रीरतिकान्त, श्रीरामगोपाल दास, श्रीपीताम्बर दास, श्रीशचीनन्दन दास, श्रीजगदानन्द आदि।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से