शीतकाल के आगमन की प्रथम षष्ठी (छठी) तिथि को उड़न षष्ठी कहते हैं। इसी तिथि में श्री जगन्नाथ देव के अंगों पर शीत के वस्र अर्पित किये जाते हैं। यह शीत वस्त्र माँडुया वसन अर्थात जुलाहे के माँडयुक्त (स्टार्चवाले) बिना धोये वस्र होते हैं। श्री चैतन्य महाप्रभु के पार्षद श्री पुण्डरीक विद्यानिधि प्रभु शुद्ध सदाचारी वैष्णव होने के कारण, उन्हें जगन्नाथ देव के सेवकों का इस प्रकार आचरण देखकर दुःख हुआ। उन्होंने अपने सखा स्वरूप दामोदर से कहा—

मण्डुया वसन ईश्वरे रे देन केने॥
ए देशे त’ श्रुति स्मृति-सकल प्रचुरे।
तबे केने बिना धौते मण्डवस्र परे?
(चै. भा. अ. 10/104)

(अर्थात्-ये लोग माँडयुक्त वस्त्र जगन्नाथ को क्यों पहनाते हैं? अरे, यहाँ तो श्रुति स्मृति की मान्यता है, फिर श्रुति स्मृति को मानते हुये भी, ये क्यों माँडवाले कपड़े पहनाते हैं?)

इसके उत्तर में स्वरूप दामोदर ने कहा कि ईश्वर का आचरण लौकिक स्मृति के नियमों से अतीत व दोष रहित है। उक्त विचार विद्यानिधि प्रभु के हृदय को प्रसन्न करनेवाला न होने के कारण वे प्रत्युत्तर में बोले, “भगवान के सम्बन्ध में यह ठीक होने पर भी भगवद्-दास के लिए शुद्धाचार से रहना ही संगत है‌। श्री विग्रह निर्गुण होने के कारण वहाँ पर यह विचार ठीक हो सकते है, किन्तु, सेवक तो निर्गुण ब्रह्म नहीं है, उन्हें तो गुण दोष का विचार करना आवश्यक है।”

विद्यानिधि प्रभु यद्यपी भगवान् के परम भक्त है, परन्तु परमभक्त होने पर भी महाप्रभु ने अपने प्रियजन के माध्यम् से जगद्वासियों को यह शिक्षा दी कि जगन्नाथ के भक्तों के आचरण में दोष दर्शन करना ठीक नहीं है। अतः रात्रि को स्वप्न में भगवान् जगन्नाथ व बलराम, विद्यानिधि के निकट उपस्थित हुये। स्वप्न में जगन्नाथ की क्रोधमूर्ति को देखकर विद्यानिधि भयभीत हो गये। उन्होंने स्वप्न में देखा की जगन्नाथ और बलराम दोनों ही उनकी दोनों गालों पर थप्पड़ मार रहे हैं। विद्यानिधि प्रभु द्वारा भयभीत और आर्त स्वर से कृष्ण, रक्षा करो, रक्षा करो, अपराध क्षमा करो, उच्चारण व क्रन्दन करने पर जगन्नाथ ने कहा—

तोर अपराधेर अन्त नाञि।
मोर जाति मोर सेवकेर जाति नाञि।
सकल जानिला तुमि रहि’ एइ ठाञि॥
तबे केन रहियाछे, जाति नाशा-स्थाने।
जाति राखि’ चल तुमि आपन-भवने‌॥
(चै. भा. अ. 10/131-133)

[अर्थात्, जगन्नाथ पुण्डरीक विद्यानिधि को कहते हैं कि तेरे अपराधों का अन्त नहीं है। मेरी और मेरे सेवकों की जाति नहीं होती। यहाँ रहकर जब तुम्हें सब पता चल गया है, तो तब इस जाति-नाश के स्थान पर क्यों रहते हो, अपने घर जाओ और अपनी जाति को बचाओ।]

विद्यानिधि प्रभु प्रातः स्वप्न टूटने पर जब उठे, तो उनके गालों पर थप्पड़ के आघात के निशान थे और उनकी गाल फूली हुई थी। विद्यानिधि की गाल फूली हुई देखकर भक्त हँसने लगे। विद्यानिधि जगन्नाथ के कितने प्रिय है, यह घटना ही इसका साक्षात् प्रमाण है कि भगवान् ने स्वयं आकर उन्हें थप्पड़ मारे। आराध्य देव अत्याधिक स्नेहावश ही प्रियजनों पर शासन करते हैं: –

सेइ रात्र्ये जगन्नाथ-बलाइ आसिया।
दुइ भाइ चड़ान ताँरे हासिया हालिया॥
गाल फुलिल आचार्य अन्तरे उल्लास।
विस्तारि’ वर्णियाछेन वृन्दावन दास॥
(चै. च. अ. 16/80 -81)

[उसी रात को जगन्नाथ तथा बलराम दोनों भाई आकर हँसते-हँसते पुण्डरीक विद्यानिधि के गालों पर थप्पड़ मारने लगे। यद्यपी गाल फूले हुए थे, तब भी पुण्डरीक के हृदय में उल्लास था। श्री वृन्दावन दास ने इस घटना का विस्तृत रूप से वर्णन किया है।]

ए भक्तेर नाम लैञा गौरांग ईश्वर।
‘पुण्डरीक बाप’ बलि’ कान्देन विस्तर॥
पुण्डरीक विद्यानिधि चरित्र शुनिले।
अवश्य ताँहारे कृष्णपादपद्म मिले॥
(चै. भा. अ. 10/180-181)

[श्री गौरांग महाप्रभु इस भक्त का नाम अर्थात् ‘पुण्डरीक बाप’ पुकार कर अतिशय रोते थे। पुण्डरीक विद्यानिधि का चरित्र श्रवण करने से अवश्य ही श्री कृष्ण के चरणों की प्राप्ति होती है।]

स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से