श्रीरामलीला में जो हनुमान जी हैं, गौर लीला मे वे ही मुरारि गुप्त रूप से प्रकटित हुये हैं । मुरारि गुप्त के हृदय में भगवान् मुरारि(श्रीचैतन्य देव)गुप्त रूप से सर्वदा वास करते हैं, इसीलिये वे ‘मुरारि गुप्त’ के नाम से जाने जाते हैं।
मुरारिगुप्तो हनुमानङ्गदः श्रीपुरन्दरः।
यः श्रीसुग्रीवनामासीद्गोविन्दानन्द एव सः॥
(गौ. ग. दी. 91)
श्रीरामलीला में जो हनुमान जी हैं, गौर लीला मे वे ही मुरारि गुप्त रूप से प्रकटित हुये हैं। मुरारि गुप्त के हृदय में भगवान् मुरारि (श्रीचैतन्य देव) गुप्त रूप से सर्वदा वास करते हैं, इसीलिये वे ‘मुरारि गुप्त’ के नाम से जाने जाते हैं।
‘मुरारि’ वैसये गुप्ते इहार हृदये।
एतेके ‘मुरारि गुप्त’ नाम योग्य हये॥ 1
(चै. भ.म.10/31)
भव रोग वैद्य श्री मुरारि नाम यांर।
‘श्रीहट्टे’ एसबे वैष्णवेर ‘अवतार’॥2
(चै. भा. आ. 2/35)
ये श्रीहट्ट में वैद्यवंश में आविर्भूत हुये थे। इनके पिता के बारे में काफी ढूँढने पर भी मालूम न पड़ सका।आयु में ये महाप्रभु जी की अपेक्षा बडे़ थे। श्रीहट्ट से नवद्वीप आकर महाप्रभु के घर के पास आकर रहे तथा महाप्रभु जी की बाल्यलीला के साथी बने। महाप्रभु जी से पहले उनके जिन नित्यसिद्ध पार्षदों के आविर्भाव का वर्णन चैतन्य भागवत में है, उनमें मुरारि गुप्त का नाम भी उल्लिखित हुआ है:–
निगूढ़े अनेक आर वैसे नदीयाय।
पूर्वे सब जन्मिलेन ईश्वर आज्ञाय॥
श्रीचन्द्रशेखर, जगदीश, गोपीनाथ।
श्रीमान्, मुरारि, श्रीगरुड़, गङ्गादास॥
(चै. भा. आ. 2/98-99)
श्रीचन्द्रशेखर, श्रीजगदीश, श्रीगोपीनाथ, श्रीमान् पण्डित, श्रीमुरारि, श्रीगरुड़ तथा श्रीगंगादास आदि अनेक भक्त गुप्तभाव से नवद्वीप में रहते थे। श्रीभगवान् की आज्ञा से उन्होंने पहले ही नवद्वीप में जन्म ले लिया था।
यह भी महाप्रभु जी के सहपाठी रूप से गंगादास पण्डित जी के संस्कृत विद्यालय में पढ़ते थे। विद्याविलास लीला के समय महाप्रभु जी मुरारि गुप्त के साथ विचार-विमर्श भी करते थे और मज़ाक भी करते थे, किन्तु मन ही मन मुरारि गुप्त की व्याख्या से सन्तुष्ट होते थे।
मुरारि गुप्त भी महाप्रभु जी के अद्भुत पाण्डित्य से विस्मित होते थे तथा महाप्रभु जी के हाथ के स्पर्श से आनन्द सागर में निमज्जित होने का आनन्द अनुभव करते और सोचते थे कि ये कभी भी साधारण मनुष्य नहीं हो सकते—
प्रभुर प्रभावे गुप्त परमपंण्डित।
मुरारिर व्याख्या शुनि’ हन हरषित॥
सन्तोषे दिलेन ताँ’र अंङ्गे पद्महस्त।
मुरारिर देह हैल आनन्द समस्त॥
चिन्त्ये मुरारिगुप्त आपन-हृदये।
प्राकृत-मनुष्य कभी ए पुरुष नहे॥
एमन पाण्डित्य किवा मनुष्येर हय?
हस्तस्पर्शे देह हैल परानन्दमय॥
(चै. भा.आ. 10/30-33)
[अर्थात् महाप्रभु जी की कृपा से श्री मुरारि गुप्त परम पण्डित थे। श्री मुरारि की व्याख्या सुनकर श्रीमन्महाप्रभु आनन्दित होते थे और आनन्दित होकर अपना कमल के समान हाथ उनके शरीर पर लगाते जिससे मुरारि गुप्त का सारा शरीर पुलकित हो उठता। तब मुरारि अपने मन में विचार करने लगते कि यह कोई साधारण मनुष्य नहीं है। ऐसा पाण्डित्य क्या दुनियावी मनुष्य में हो सकता है? इनके हाथ लगने मात्र से ही मेरी देह परमानन्दमय हो जाती है।]
वैष्णवों का भूषण होता है—दीनता। मुरारि गुप्त के अन्दर इतनी दीनता थी कि उनकी दीनता देखकर महाप्रभु जी का हृदय द्रवीभूत हो जाता था।
श्रीमुरारि गुप्त शाखा,-प्रेमेर भाण्डार।
प्रभुर हृदय द्रवे शुनि’ दैन्य याँर॥ 3
(चै. च. आ. 10/49)
श्री मुरारिगुप्त जी ने महाप्रभु जी की बाल्यलीला साक्षात् देखकर ‘श्रीचैतन्य चरित’ ग्रन्थ लिखा था।
गया से वापस आने के पश्चात् शुक्लाम्बर के घर में महाप्रभु जी का श्री मुरारिगुप्त से मिलन हुआ था। मुरारि गुप्त को श्रीमान् पणिडत जी से ही महाप्रभु जी के प्रेम विकार की बात पता लगी थी। मुरारिगुप्त जी पर प्रसन्न होकर महाप्रभु जी ने एक दिन उनको अपने वराह के रूप में दर्शन करवाये थे तथा गर्जन करते-करते मुरारि के जल पात्र को दाँतों पर इस प्रकार उठा लिया जैसे अपने वराहावतार में पृथ्वी को उठाया था। वराह भगवान् के दर्शन कर मुरारिगुप्त जी कृतार्थ हो गये और उनका स्तव करने लगे।
श्रीचैतन्य भागवत् के मध्यखण्ड के तृतीय अध्याय में वृन्दावन दास ठाकुर जी ने इसे सुन्दर रूप में लिखा है:–
वराह-आवेश हैला मुरारि-भवने।
ताँर स्कन्धे चड़ि’ प्रभु नाचिला अङ्गने॥
(चै. च. आ. 17/19)
भगवान रामचन्द्र जैसे हनुमान जी से स्नेह करते थे, उसी प्रकार गौरांग महाप्रभु भी मुरारि गुप्त से स्नेह करते थे—
अन्तरे मुरारिगुप्त-प्रति बड़ प्रेम।
हनुमान्-प्रति प्रभु रामचन्द्र येन॥4
(चै.भा. म. 3/19)
श्रीवासांगन में ‘सातप्रहरिया’ महाप्रकाशलीला के समय महाप्रभु जी ने मुरारि को राम रूप के दर्शन कराकर कृतार्थ किया था। अपने इष्ट देव के दर्शन करके मुरारिगुप्त मूर्च्छित हो गये थे। बाद में जब मुरारिगुप्त जी की मूर्च्छा भंग हुई तब उन्होंने महाप्रभु जी का स्तव किया। मुरारि गुप्त का स्तव सुन कर महाप्रभु ने उन्हें उनकी इच्छा के अनुसार वर प्रदान किया—
मुरारिरे आज्ञा हैल-“मोर रूप देख।“
मुरारि देखये रघुनाथ परतेक॥
दुर्वादलश्याम देखे सेइ विश्वम्भर।
वीरासने बसियाछे महाधनुर्धर॥
जानकी-लक्ष्मण देखे वामेते दक्षिणे।
चौदिके करये स्तुति वनरेन्द्रगणे॥
आपन प्रकृति वासे ये हेन वानर।
सकृत देखिया मूर्च्छा पाइल वैद्यवर॥
मूर्च्छित हइया भूमे मुरारि पड़िला।
चैतन्येर फाँदे गुप्त मुरारि रहिला॥
(चै.भा. म. 10/7-11)
[अर्थात् श्रीमुरारि को महाप्रभु जी की आज्ञा हुई—’मेरा रूप देखो’ तो श्रीमुरारि जी ने साक्षात् रघुनाथ जी के दर्शन किये।
उन्होंने उन्हीं श्रीमहाप्रभु जी को दुर्वादल की तरह श्याम वर्ण के महाधनुर्धारी वीरासन पर बैठे हुये श्रीराम के रूप में देखा। उन्होंने उनके दाईं ओर लक्ष्मण और बाईं ओर श्रीजानकी जी को देखा था चारों ओर से वानरों को भी स्तुति करते हुये देखा। वानरों को देखकर मुरारि गुप्त भी अपने आपको वानर समझने लगे और मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़े। मुरारि गुप्त जी श्रीचैतन्य महाप्रभु जी की प्रेम रज्जू में फँस गये।]
मुरारि गुप्त से श्रीराम का स्तव पाठ सुनकर श्रीमान्महाप्रभु जी ने उनके मस्तक पर ‘रामदास’ लिख दिया था।
मुरारिगुप्त-मुखे शुनि’ राम-गुणग्राम।
ललाटे लिखिल ताँर ‘रामदास’ नाम॥
(चै. च. आ. 17/61)
एक दिन श्रीवास मन्दिर में भी महाप्रभु जी ने अपना शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी चतुर्भुज रूप प्रकट किया था तथा गरुड़-गरुड़ बुलाने पर मुरारि गुप्त हुंकार करते-करते वहाँ पर आये। उनके गरुड़ जी के रूप में प्रकटित होने पर महाप्रभु उनके कन्धों पर चढ़ गये—यह लीला श्रीचैतन्य भागवत् के मध्य खण्ड के 2-रे अध्याय में एवं भक्तिरत्नाकर की द्वादश तरंग में वर्णित है।
श्रीमनमहाप्रभु जी ने श्रीवास के घर में मुरारि गुप्त जी के माध्यम से स्वयं अपने तत्त्व की, नित्यानन्द तत्त्व की और व्यवहार की शिक्षा भी प्रदान की थी। मुरारि गुप्त द्वारा श्रीवास के घर में आकर पहले महाप्रभु जी को और बाद में नित्यानन्द प्रभु को प्रणाम करने पर महाप्रभु जी ने उनसे कहा — ‘ये ठीक नहीं है।’ मुरारि गुप्त इसका तात्पर्य न समझ सके परन्तु घर आकर रात को स्वप्न में उन्होंने देखा कि नित्यानन्द प्रभु जी साक्षात् हलधर हैं एवं महाप्रभु विश्वम्भर रूप से नित्यानन्द प्रभु जी को पंखा झल रहे हैं। स्वप्न में सभी तत्त्व जानकर अगले दिन जब मुरारि गुप्त जी श्रीवास-आंगन में आये तो पहले उन्होंने नित्यानन्द प्रभु को और फिर श्रीचैतन्य महाप्रभु जी को प्रणाम किया। चूँकि श्रीमुरारि गुप्त राम जी के उपासक हैं अतः उन्होंने पहले श्रीगुरु पूजा व जगद्गुरु पूजा की, ऐसा न करके यदि उनके द्वारा पहले ही भगवत् पूजा की जाती है तो ऐसा करने से क्रम भंग होता।—गौड़ीय-भाष्य।
बसि’ आछे महाप्रभु कमललोचन।
दक्षिणे से नित्यानन्द प्रसन्न-वदन॥
आगे नित्यानन्देर चरणे नमस्करि’।
पाछे वन्दे विश्वम्भर-चरण मुरारि॥
(चै. भा. म. 20/22-23)
[कमलनयन महाप्रभु जी विराजमान हैं। उनके दक्षिण में प्रसन्न मुख श्रीनित्यानन्द जी बैठे हैं। श्री मुरारिगुप्त जी ने आकर पहले श्रीनित्यानन्द जी को प्रणाम किया, उसके पश्चात् महाप्रभु जी के चरणों की वन्दना की]
महाप्रभु जी द्वारा स्नेहाविष्ट होकर मुरारि जी को अपना चबाया हुआ ताम्बूल देने पर मुरारि जी ने अति-आनन्द के साथ उसका भक्षण किया। महाप्रभु द्वारा हाथ धोने के लिये कहने पर मुरारि जी ने अपने हाथ तुरन्त सर पर रख लिये। यहीं पर श्रीमन् महाप्रभु जी ने स्मार्त्त विचार की भ्रान्ति का प्रदर्शन किया तथा प्रकाशानन्द जी के मायावाद का खण्डन करते हुये महाप्रभु जी ने कहा—
प्रभु बले,-आरे बेटा जाति गेल तोर।
तोर अंगे उच्छिस्ट लागिल सब मोर॥
बलिते प्रभुर हइल ईश्वर आवेश।
दान्त कड़मड़ करि’ बलये विशेष॥
संन्यासी प्रकाशानन्द बसये काशीते।
मोरे खण्ड खण्ड बेटा करे भाल मते॥
पड़ाय वेदान्त, मोर विग्रह ना माने।
कुष्ठ कराइलुँ अंगे तबु नाहि जाने॥
अनन्त ब्रह्माण्ड मोर ये अंगेते अंगेते वैसे।
ताहा मिथ्या बले बेटा केमन साहसे?
सत्य कहों मुरारि आमार तुमि दास।
ये न माने मोर अंग, सेइ याय नाश॥
(चै. भा. म. 20/31-36)
[अर्थात् महाप्रभु जी कहने लगे, अरे बेटा! तेरी तो जाति चली गयी, देख तेरे सब अंगों में मेरा उच्छिष्ट लग गया है। यह कहते-कहते महाप्रभु जी आवेश में आकर और अपने दांतों से कड़कड़ की ध्वनि करते हुये कहने लगे-एक संन्यासी प्रकाशानन्द काशी में रहता है। वह तो मेरे टुकड़े-टुकड़े कर रहा है। वह वेदान्त पढ़ाता है पर मेरे विग्रह को, मेरे स्वरूप को नहीं मानता है। मैंने उसके अंगों में कोढ़ पैदा कर दिया है, तब भी वह नहीं समझता है। मेरे जिन अंगों में अनन्त ब्रह्माण्डों का वास है, यह बेटा किस साहस से उसे मिथ्या कहता है? हे मुरारि! तुम मेरे दास हो, मैं सत्य कहता हूँ, जो व्यक्ति मेरे स्वरूप को नहीं मानेगा, वह नाश को प्राप्त होगा]
एक दिन मुरारिगुप्ता ने घर में आकर अपनी पत्नी को भोजन बनाने के लिये कहा तथा उसे भोजन बनवाने के तात्पर्य से भी अवगत करवाया। मुरारि जी की भक्तिमति स्री ने घृत-अन्नादि बहुत से पदार्थ बनाये। अपनी स्री के द्वारा घी वाले चावल इत्यादि बनाकर देने पर वे प्रेमभाव में विभावित होकर पात्र से एक-एक ग्रास अन्न श्रीकृष्ण के उद्देश्य से भूमि पर गिराने लगे। आश्चर्य का विषय है कि महाप्रभु जी ने वहाँ साक्षात् प्रकट न होकर भी सब ग्रहण किया। दूसरे दिन आकर महाप्रभु जी मुरारि से बोले-‘तुम्हारे पास चिकित्सा के लिये आया हूँ। तूने खाओ-खाओ बोलकर मुझे बहुत अन्न खिलाया है। इसलिये अजीर्ण हो गया है। तेरा जल ही इस अजीर्ण की औषधि है। महाप्रभु ने गट-गट कर मुरारिगुप्त के जल पात्र का जल पान कर लिया , इसे देख मुरारिगुप्त मूर्च्छित हो गये तथा उपस्थित सभी भक्त प्रेमाश्रु बहाने लगे।’ भक्त का द्रव्य जिस तरह से भी क्यों न दिया जाये, भगवान् अत्यन्त प्रीति के साथ उसे ग्रहण करते हैं
जल –पाने अजीर्ण करिते नारे बल।
तोर अन्ने अजीर्ण, औषध-तोर जल॥
एत बलि’ धरि’ मुरारि जलपात्र।
जल पिये’ प्रभु भक्तिरसे पूर्णमात्र॥
कृपा देखि’ मुरारि हइला अचेतन।
महाप्रेमे गुप्तगोष्ठी करये क्रन्दन॥
(चै. भा. म. 20/69-71)
[केवल जल-पान में अजीर्ण ठीक करने की शक्ति नहीं है। यह अजीर्ण तेरे अन्न से ही हुआ है। इसलिये औषधि भी तेरा ही जल है। यह कहकर महाप्रभु ने मुरारि का जल-पात्र पकड़ लिया और भक्ति रस पूर्ण उस जल को पीने लगे। श्रीमुरारि, श्रीमन् महाप्रभु जी की कृपा को देखकर मूर्च्छित हो गये और सपरिवार महाप्रेम में रुदन करने लगे।]
चिकित्सा करेन यारे हइया सदय।
देहरोग, भवरोग,-दुइ तार क्षय॥
(चै. च. आ. 10/51)
[महाप्रभु जी ने कहा कि दया करके वे जिसका इलाज करते हैं, उसके देह रोग और भवरोग दोनों क्षय हो जाते हैं।]
मुरारि गुप्ता ने भगवान् के संगोपन की लीला के बारे में विचार किया कि भगवदावतार अपनी लीला को प्रकट कर पुनराय उसे संगोपन कर लेते हैं। रावण के वंश का नाश कर सीता उद्धार करते हैं और पुनः उसका परित्याग कर देते हैं, प्राणप्रिय यदुकुल के ध्वंस की व्यवस्था करते हैं। इसलिये महाप्रभु भी कब लीला संवरण करें, ठीक नहीं। अत: उससे पहले ही अर्थात् उनके प्रकट रहते-रहते अपना शरीर समाप्त कर देना ही ठीक है—इस प्रकार विचार कर उन्होंने एक दराँती लेकर रख ली। अन्तर्यामी श्रीगौरसुन्दर को सब पता लग गया और उन्होंने साथ-साथ उनसे वह दराँती मांग ली।
उपरोक्त लीला श्रीनरहरि सरकार ठाकुर जी द्वारा रचित ‘भक्ति रत्नाकर’ ग्रन्थ की द्वादश तरंग में भी वर्णित है। ये मुरारि गुप्त भी प्रतिवर्ष गौड़ीय वैष्णवों के साथ पुरुषोत्तम धाम में जाते थे। ये अपनी पत्नी के साथ पुरी जाकर महाप्रभु को विभिन्न प्रकार के भोज्य द्रव्यों का भोजन करवाते थे।
श्रीजगन्नाथ देव जी की रथयात्रा के समय सात सम्प्रदायों के अन्तर्गत तृतीय सम्प्रदाय में, जहाँ पर मूलगायक मुकुन्द तथा नर्त्तक श्रीहरिदास थे, वहीं पर ये दोहार रूप से कीर्त्तनिया थे।
श्रीमुरारि गुप्त जी के माध्यम से महाप्रभु जी ने इष्टनिष्ठा की शिक्षा प्रदान की तथा ये भी बताया कि आराध्यदेव में निष्ठा के बिना प्रेम बढ़ता नहीं। हनुमान जी के अवतार मुरारि गुप्त जी महाप्रभु जी का राम रूप से दर्शन करते थे। उनकी इष्ट निष्ठा की परीक्षा लेने के लिये महाप्रभु जी ने उनसे कहा ‘सर्वाश्रय, सर्वांशी, स्वयं भगवान् , अखिल रसामृत मूर्ति-व्रजेन्द्र नन्दन श्रीकृष्ण के भजन में जो आनन्द है, भगवान् के अन्य स्वरूपों की आराधना में वह आनन्द नहीं है।’ श्री मुरारि गुप्त श्रीमन्महाप्रभु जी को कृष्ण-भजन करने का वचन देने पर भी घर में आकर यह सोचकर कि भगवान् श्रीरघुनाथ जी के पादपद्मों को त्याग करना होगा, अस्थिर हो उठे। सारी रात जाग कर ही बिता देने पर, दूसरे दिन प्रात: महाप्रभु जी के पादपद्मों में निवेदन करते हुये बोले —
रघुनाथेर पाय मुञी बेचियाछों माथा।
काड़िते न पारि माथा, मने पाइ व्यथा॥
श्रीरघुनाथ-चरण छाड़ान ना याय।
तव आज्ञा-भङ्ग हय, कि करि उपाय!॥
ताते मोरे एइ कृपा कर, दयामय।
तोमार आगे मृत्यु हउक, याउक संशय॥
(चै. च. म. 15/149-151)
श्रीनाथे जानकी नाथे चाभेदे परमात्मनि।
तथापि मम सर्वस्वः रामः कमललोचनः॥
[अर्थात् मैंने अपने इस मस्तक को श्रीरघुनाथ जी के चरणों में बेच दिया है। परन्तु अब मैं पुनः वहाँ से इस सिर को नहीं उठा सकता हूँ। अब इस दुविधा में मैं दुःख पा रहा हूँ कि श्रीरघुनाथ जी के चरण मुझसे छोड़े नहीं जाते हैं। किन्तु यदि नहीं छोड़ता तो आपकी आज्ञा भंग होती है। कुछ समझ में नहीं आता, क्या करूँ? आप दयामय हैं, मेरे ऊपर ऐसी कृपा करो कि आपके सामने ही मेरी मृत्यु हो जाये, तब यह संशय समाप्त हो जायेगा।]
श्रीमन्महाप्रभु मुरारि गुप्त के इष्टनिष्ठायुक्त वाक्य सुनकर परम सन्तुष्ट होकर बोले—
साक्षात्-हनुमान तुमि श्रीराम-किङ्कर।
तुमि केने छाड़िवे ताँर चरण-कमल॥
(चै. च. म. 15/156)
(अर्थात् तुम तो श्रीराम जी के किंकर साक्षात् हनुमान हो तुम भला उनके चरण कमलों को कैसे छोड़ सकते हो?)
जीवगोस्वामी जी के पिता श्रीअनुपम जी की जिस प्रकार राम निष्ठा थी, मुरारि गुप्त की भी उसी प्रकार राम चन्द्र जी के प्रति निष्ठा थी—श्रीमन्महाप्रभु की उक्ति से यह जाना जाता है।
गोसाञि कहेन,-एइमत मुरारिगुप्त।
पूर्वे आमि परीक्षिलुँ तार एइ रीत॥
सेइ भक्त धन्य, जे ना छाड़े प्रभुर चरण।
सेइ प्रभु धन्य, जे न छाड़े निजजन॥
(चै. च. अ. 4/45-46)
[महाप्रभु जी कहते हैं सचमुच वह भक्त धन्य है, जो किसी भी परिस्थिति में अपने प्रभु के चरण नहीं छोड़ता है और वही प्रभु धन्य हैं, जो कभी भी अपने जन को नहीं छोड़ते हैं।]
श्रीकृष्ण की शारदीय-रासयात्रा की पूर्णिमा तिथि को श्री मुरारि गुप्त जी ने तिरोधान लीला की थी।
1 – भगवान् मुरारि इनके हृदय में गुप्त रूप से निवास करते हैं इसलिये इनका ‘मुरारि गुप्त’ नाम युक्ति युक्त ही है।
2 – श्री मुरारि, जो कि भव-रोग के वैद्य हैं, ये वैष्णव श्रीहट्ट में आविर्भूत हुये।
3 – [श्रीमुरारिगुप्त की शाखा प्रेम का भण्डार है। उनका दैन्य भाव देखकर महाप्रभु का हृदय द्रवित हो जाता था।]
4 – मुरारि गुप्त के हृदय में महाप्रभु जी के प्रति अथाह प्रेम भरा था तथा श्रीमन् महाप्रभुजी के हृदय में भी मुरारि गुप्त के प्रति लबालब प्रेम था, ठीक उसी प्रकार जैसे भगवान राम के हदय में हनुमान जी के प्रति था।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से