श्री वारुणी-रेवतवंशसम्भवे
तस्य प्रिये द्वे वसुधा च जाह्नवी।
श्रीसुर्यदासस्य महात्मनः सुते
ककुद्मिरूपस्य च सूर्यतेजसः॥
केचित् श्रीवसुधादेवीं कलावपि विवृण्वते।
अनङ्गमञ्जरीं केचिज्जाह्नवीञ्च प्रचक्षते।
अभयन्तु समीचीनं पूर्वान्यायात् सतां मतम्॥
(गौ.ग.दी. 65-66)
‘पहले जो बलदेव जी की पत्नियाँ वारुणी और श्वेतवंश में उत्पन्न रेवती थीं, वे ही इस अवतार में वसुधा एवं जाह्नवा नाम से नित्यानन्द की दोनों पत्नियाँ हुईं। यह दोनों सूर्य के समान तेजस्वी थी वह सूर्यदास की कन्याएँ थीं। यह सूर्यदास ही पहले रेवती के पिता ककुद्मी थे। कोई-कोई व्यक्ति कलियुग में श्रीवसुधादेवी को अनंगमंजरी और कोई-कोई श्रीजाह्नवादेवी को भी आनंगमंजरी कहते हैं। सज्जन व्यक्तियों के अनुसार पहले की भाँति यह दोनों ही प्रशंसा के योग्य हैं।’
श्रीजाह्नवा माता के पिता थे-श्रीसूर्यदास सरखेल। श्रीगोडी़य वैष्णव अभिदान में श्रीजाह्नवा माता की जननी रूप से ‘भद्रवती’ उल्लिखित हुई हैं। नवद्वीप से थोड़ी ही दूर शालिग्राम1 में ही श्रीसू र्यदास सरखेल का श्रीपाठ है। सूर्यदास2 सरखेल श्रीकंसारी मिश्र के तीसरे पुत्र थे।
श्रीकंसारी मिश्र के पहले और दूसरे पुत्र का नाम था-श्रीदामोदर और श्रीजगन्नाथ। सूर्यदास सरखेल के छोटे तीन भाई थे-श्रीगौरीदास, श्रीकृष्णदास सरखेल और श्रीनरसिंह चैतन्य।
नवद्वीप हइते अल्पदूर शालिग्राम।
तथा वैसे पण्डित सूर्यदास नाम॥
गौडे़ राजा यवनेर कार्ये सुसमर्थ।
सरखेल’-ख्याति, उपार्जिल बहु अर्थ॥
सूर्यदास-चरिभ्राता अति शुद्धाचार।
सर्वत्र विदित ताहा काहिब कि-आर॥
श्रीसूर्यदासेर गुण कहिल ना हय।
वसुधा, जाह्मवा-नामे ताँर कन्याद्वय॥
(भक्तिरत्नाकर 12 तरंग 3875-3878)
अर्थात नवद्वीप के नज़दीक ही शालिग्राम नाम का एक गाँव है जहाँ सूर्यदास जी रहते हैं। ये गोड़ देश के राजा के लगभग सभी कार्यों में बड़े सुनिपुण थे। वहीं से इन्होंने काफी धन कमाया तथा वहीं से इन्हें ‘सरखेल’ की उपाधि तथा प्रसिद्धि मिली। सूर्यदास जी के चार भाई थे जिनका आचरण बड़ा शुद्ध था। इनके भाइयों के विशुद्ध आचरण का चारों और प्रचार तो था ही किन्तु सूर्यदास जी में भी गुणों की कमी न थी। इनकी वसुधा और जाह्नवा नाम की दो कन्याएँ थीं।
सूर्यदास जी के भाई कृष्ण दास जी को श्रीनित्यानन्द जी के प्रति बड़ा प्रेम और दृढ़ विश्वास था। सूर्यदास जी को बताकर गौरीदास जी गंगा जी के किनारे अम्बिका में आकर रहने लगे थे –
सूर्यदास सरखेल, ताँर भाइ कृष्णादास।
नित्यानन्दे दृढ़ विश्वास, प्रेमेर निवास॥
(चै.च.आ 11/25)
सरखेल सूर्यदास पण्डित उदार।
ताँर भ्राता गोरीदास पण्डित प्रचार॥
शालिग्राम हैते ज्येष्ठ भ्राताय कहिया।
गंगातीरे कैला वास अम्बिका आसिया॥
(भक्तिरत्नाकर-7/330-31)
ऊपर कहे भक्तिरत्नाकर-ग्रन्थ के वर्णन अनुसार जाना जाता है कि श्रीसूर्यदास सरखेल का निवास ‘शालिग्राम’ में ही था। उनकी आज्ञा लेकर श्रीगौरीदास पण्डित अम्बिका कलना में आकर रहे थे।
श्रीनरहरि चक्रवती ठाकुर द्वारा रचित भक्तिरत्नाकर ग्रन्थ में श्रीजाह्नवादेवी का पावन चरित्र वर्णित हुआ है। विष्णु- तत्वमात्र की ही तीन शक्तियां विद्यमान हैं- ‘श्री’ ‘भू’ और ‘नीला’ या ‘लीला’। भगवद तत्व-श्रीनित्यानन्द प्रभु में भी उक्त तीन शक्तियों का प्रकाश दिखाई देता है। नरलीला के अनुरूप श्रीनित्यानन्द प्रभु की विवाहलीला का विशेष विवरण भक्तिरत्नाकर ग्रन्थ के द्वादश तरंग में लिपिबद्ध हुआ है। उकत वर्णन की संक्षिप्त सारकथा यह है- शालिग्राम के पास बड़गाछि ग्रामनिवासी कायस्थ कुल में उत्पन्न श्रीहरिहोड़ के पुत्र श्रीकृष्णदास ने श्रीनित्यानन्द प्रभु के विवाह की व्यवस्था की थी। श्रीसूर्यदास सरखेल को अपनी दो कन्याओं के विवाह के लिए चिन्तित देखकर एक वृद्ध ब्राह्मण ने उनकी दोनों कन्याओं के योग्य पात्र के विषय में बताने के लिए वहाँ पहुँचकर कहा- ‘राढ़देश के एकचक्रा धाम में विप्रश्रेष्ठ श्रीहाड़ाइ पण्डित और उनकी पत्नी पद्मावती देवी रहते हैं जो कृष्णलीला में श्रीवासुदे व रोहिणी थे। बलदेव जी से अभिन्न नित्यानन्द प्रभु उनके पुत्ररूप से प्रकट हुए हैं। नित्यनन्द प्रभु ने बहुत-से तीर्थों में भ्रमण और तपस्या की है, वे महाविद्वान और चैतन्य महाप्रभु के प्रियतम है। श्रीनित्यानन्द प्रभु आपकी दोनों कन्याओं के नित्य पति हैं।‘ सूर्यदास सरखेल ने उक्त ब्राह्मण के निर्देश के अनुसार अपने दोनों कन्याओं-वसुधा और जाह्नवा को नित्यानन्द प्रभु के पादपद्मों में समर्पित कर दिया तथा विवाह के बाद नित्यानन्द प्रभु की कृपा से वसुधा, जाह्नवा को नित्यानन्द जी के बाँए और दाँये वारुणी और रेवती रूप में- जिसे उन्होंने पहले स्वप्न में दर्शन किया था, उसे पुनः साक्षात् रुप से दर्शन किया व परमानन्द से आत्म विस्मृत हो उठे –
वसु-जाह्नवारे देखे वारूणी रेवती।
अंगछटा कनक कुंकुमपुंज जिति॥
बलदेव वामे दक्षिणेते किल क्लिसय।
विचित्र वसन भूषणादि शोभामय॥
भक्ते सुख दिते महा-ऐश्वर्य प्रकाश।
देखि आत्मविस्मरित हैला सूर्यदास॥
(भक्तिरत्नाकर 12/3908-10)
श्रीकृष्णदास सरखेल के घर मे विवाह का अधिवासकृत्य एवं सूर्यदास सरखेल के घर शालिग्राम मे ही विवाह कार्य समपन्न हुआ। बड़गाछि और शालिग्राम के ब्राह्मण व सज्जनगण विवाह उत्सव मे समुपस्थित थे।
लोक शास्रमते सुर्यदास भाग्यवान्।
नित्यानन्दचन्द्रे दुई कन्या कैल दान॥
(भक्तिरत्नाकर 12/3987)
दुनियावी दृष्टि से व शास्रों की दृष्टि से सूर्यदास जी महाभाग्यवान हैं क्योंकि उन्होंने अपनी दोनों कन्याएँ नित्यानन्द जी को समर्पित कर दीं।
श्रीनित्यानन्द शक्ति श्रीजाह्नवा देवी की कृपा के बिना कोई भी भवसागर से उतीर्ण नहीं हो सकता। श्रीजाह्नवा देवी की कृपा के बिना कोई भी श्रीनित्यानन्द की सेवा तथा उनके ही आराध्य श्रीगोरहरि और श्रीराधा-कृष्णा की प्रेम-सेवा प्राप्त नहीं कर सकता,
ओगो श्रीजाह्नवा देवि! ए दासे करूणा।
कर आजि निजगुणे घुचाओ यन्त्रणा॥
तोमार चरणतरी करिया आश्रय।
भवार्णव पा’र हब क’रेछि निश्चय॥
तुमि नित्यानन्द-शक्ति कृष्णाभक्ति-गुरु।
ए दासे करह दान पदकल्पतरु॥
कत कत पामरेरे क’रेछ उद्धार।
तोमार चरणे आज ए काङ्गाल छार॥
(कल्याणकल्पतरू)
अर्थात स्वरचित भजन मे श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि हे जाह्नवा देवी जी! आप इस दास पर करूणा कीजिए तथा आज ही अपनी कृपा से इसे तमाम दुःखों से बचा लीजिए। मुझे पूरा विश्वास है कि जो भी आपके चरणों का आश्रय लेगा, आप उसे भवसागर से पार कर देंगी। आप श्रीमन् नित्यानन्द जी की शाक्ति हो तथा कृष्णा-भक्ति की गुरु हो। आप कृपा करके तमाम इचछाओं को पूर्ण करा देने वाले अपने चरण-कल्प-तरूओं को मुझे प्रदान कर दीजिए। आपने न जाने कितने पतितों का उद्धार किया है इसलिए आज ये तुच्छ कंगाल भी, आपके चरणों में प्रर्थना कर रहा है।
भक्तवर श्रीकृष्णदास ने अपने रचित ‘जय राधे जय कृष्णा जय वृन्दावन’ कीर्तन में कृष्णनाम, कृष्ण धाम और कृष्ण-पार्षदगण की महिमा के समय, अन्त में श्रीजाह्नवा देवी की इस प्रकार से कृपा प्रार्थना की है –
श्रीजाह्नवा-पादपद्म करिया स्मरण।
दीन कृष्णदास कहे नामसंकीर्तन॥
अर्थात कृष्ण दास जी कहते हैं कि श्रीजाह्नवा देवी के पादपद्मों को स्मरण करता हुआ ये दीन कृष्णदास हरिनाम संकीर्तन करता है।
श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु ने विवाह लीला के बाद श्रीशचीमाता की इच्छानुसार शान्तिपूर में श्रीअद्वैताचार्य के घर में व पश्चात् सप्तग्राम में श्रीउद्धारण दत्त ठाकुर के भवन में कुछ समय अवस्थान करके, गंगा के पास ही खड़दह में आकर निवास किया था। श्रीजाह्नवा देवी की कोई सन्तान न हुई। श्रीक्षीरोदकशायी विष्णु एवं साक्षात् श्रीगंगादेवी ही श्रीनित्यानन्द शक्ति श्रीवसुधा को अवलम्बन करके पुत्र और कन्या रूप में प्रकट हुये-पुत्र श्रीवीरभद्र गोस्वामी या श्रीवीरचन्द्र गोस्वामी तथा कन्या श्रीगंगा।
3गौरगणोद्देशदीपिका के वर्णनासार श्रीगंगा के पति श्रीमाधवाचार्य साक्षात् श्रीशान्ततनु राजा के अवतार हैं। श्रीवीरचन्द्र प्रभु श्रीजाह्नवा माता की कृपाशक्ति प्राप्त, दीक्षित शिष्य है। श्रीनित्यानन्द दास द्वारा रचित प्रेमविलास ग्रन्थ के वर्णन के अनुसार जाना जाता है कि वीरचन्द्र प्रभु को श्रीजाह्नवा माता जी का चतुर्भुज रूप में दर्शन हो गया जिससे उनका मन बदल गया तथा उन्होंने जाह्नवा माता जी से दीक्षा ले ली।
खेतुरीधाम में फाल्गुनी-पूर्णिमा तिथि पर हुए श्रील नरोत्तम ठाकुर के श्रीविग्रह प्रतिष्ठा महोत्सव में श्रीजाह्नवादेवी उपस्थित थी एवं उनके ही निर्देशानुसार प्रतिष्ठा का सब कार्य सम्पन्न हुआ था। श्रीजाह्नवादेवी ने स्वयं रसोई बनाकर भगवान को भोग निवेदन किया तथा महन्तगणों को स्वयं परिवेशन करके खिलाया था –
श्रीजाह्नवा ईश्वरी परम हर्ष हैया।
प्रातः काले करिलेन स्नानाह्निक क्रिया॥
परम उत्साहे कैल अपूर्व रन्धन।
अन्न व्यंजनादि यत ना हय वर्णन॥
(भक्तिरतनाकर 10/686-87)
अर्थात श्रील नरोत्तम ठाकुर जी के विग्रह-प्रतिष्ठा महोत्सव में जाह्नवा देवी जी ने बड़ी प्रसन्नता के साथ प्रातः उठकर अपना स्नान व अह्निक आदि क्रियाएँ पूर्ण कीं। उनके बाद उन्होंने बड़े उत्साह के साथ महोत्सव के लिए रसोई की। इस महोत्सव में उन्होंने कितने प्रकार के व्यंजन बनाए, उनका वर्णन करना बड़ा मुश्किल है।
गोड़देशे गौराङ्गेर प्रिय परिकर।
नरोत्तमे देखि सबे आनन्द अन्तर॥
श्रीजाह्नवादेवी सूर्यपण्डित-दुहिता।
नित्यानन्द-प्रेयसी ये जगते पूजिता॥
प्रेमभक्तिरत्न-प्रदाने प्रवीणा येह।
श्रीठाकुर महाशय नामे हृष्ट तेंह॥
देखिया अलौकिक प्रेम वैराग्य प्रबल।
श्रीजाह्नवादेवी महा-आनन्दे विह्णल॥
कृपा-करि श्रीखेतरी ग्रामेते आसिया।
करये सबारे तृप्त सन्दर्शन दिया॥
श्रीमती जाह्नवादेवीर अनुग्रह यत।
मो छार पामर ताहा वर्णिव वा कत॥
(भक्तिरत्नाकर 1/429-34)
श्रीभक्तित्नाकर के एकादश तरंग में श्रीजाह्नवा देवी का भ्रमण वृत्तान्त लिखित हुआ है। उन्होंने खेतुरीधाम से वृन्दावन जाने के रास्ते में पड़ने वाले बद्विष्णु ग्राम में एक पाखण्डी डाकू को कृष्णप्रेम प्रदान करके उसका उद्धार किया था। श्रीजाह्नवादेवी ने वृन्दावन में पहुँचकर गौरीदास पण्डित की समाधि देखकर क्रन्दन किया था।
गोरीदास पण्डितेर समाधि देखिते।
वहे वारिधारा नेत्रे, नारे निवारिते॥
(भक्तिरतनाकर 11 तरंग)
अर्थात गौरीदास पण्डित जी की समाधि को देखकर श्रीमती जाह्नवा देवी जी इतना रोईं कि कोशिश करने से भी उनके नेत्रों से अश्रुधाराएँ नहीं रुक पा रही थीं।
श्रीजाह्नवा देवी के वृन्दावन में शुभ पदार्पण करने पर श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी, श्रील भूगर्भ गोस्वामी, श्रील लोकनाथ गोस्वामी, श्रील श्रीजीव गोस्वामी तथा श्रील मधु पण्डित आदि प्रमुख गोस्वामीगणों ने श्रीईश्वरी- जाह्नवादेवी को बहुत सम्मान प्रदान किया था। उसके बाद श्रीजाह्नवादेवी गोस्वामीगणों को लेकर श्रीमदनमोहन, श्रीगोविन्द व श्रीगोपीनाथ जी के दर्शनों के पश्चात् श्रीराधाकुण्ड में पहुँची थीं। वहाँ पर सर्वक्षण श्रीनामसंकीर्तन में रत दुबले-पतले श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी के साथ श्रीजाह्नवा देवी का साक्षात्कार हुआ। श्रीजाह्नवा देवी जी ने श्रीराधा कुण्ड में तीन दिन तक रहकर भजन किया था। श्रीजाह्नवादेवी जी कुण्ड के किनारे वंशीध्वनि श्रवण करके और श्रीकृष्ण का दर्शन प्राप्त करते प्रेमाविश्व हो उठी थी। श्रीजाह्नवादेवी जी श्रीराधाकुण्ड के जिस घाट पर ठहरी थीं व जिस घाट पर उन्होंने स्नान किया था, वह घाट आज भी जाह्नवाघाट के नाम से प्रसिद्ध है। श्रीजाह्नवा देवी जी वैष्णवों को लेकर श्रीब्रजमण्डल परिक्रमा करती थीं। परिक्रमा के समय उन्होंने श्रीजीव गोस्वामी से श्रीवृहद्भागवतामृत श्रवण किया था। श्रीब्रजमणडल परिक्रमा के बाद उन्होंने गौड़देश में वापस आकर गौड़मण्डल के विभिन्न स्थानों पर भ्रमण किया। वे खेतुरीधाम में 3-4 दिन ठहरीं तथा बुधुरी(मुर्शिदाबाद), नित्यानन्द प्रभु की बालयलीलास्थली एकचक्राग्राम, श्रीमन् महाप्रभु की संन्यासलीला का स्थान काटोया, याजिग्राम,श्रीखण्ड, प्राचीन नवद्वीप, श्रीधाम मायापुर, अम्बिका, सप्तग्राम व उद्धारण दत्त ठाकुर के घर के दर्शन करके खड़दह में लौट आई। उन्होंने वसुधादेवी और श्रीवीरभद्र प्रभु को समस्त भ्रमण वृत्तान्त यथाक्रम से वर्णन करके सुनाया था। गौड़मण्डल में भ्रमण के समय श्रीजाह्नवादेवी का कटोया में श्रीयदुनन्दन आचार्य और श्रीनिवासाचार्य के साथ तथा याजिग्राम में श्रील नरोत्तम ठाकुर, श्रील रामचन्द्र कविराज एवं श्रीखण्ड के रघुनन्द ठाकुर के साथ साक्षात्कार हुआ था।
श्रीनित्यानन्द पार्षद श्रीपरमेश्वरी दास ठाकुर ने श्रीजाह्नवादेवी की कृपा से वृन्दावन में श्रीराधारानी के साथ श्रीगोपीनाथ जी के मिलन का दर्शन किया था। परमेश्वरी दास ठाकुर ने खड़दह में जाकर श्रीवसुधा और श्रीजाह्नवादेवी को प्रणाम करके उक्त अलौकिक घटना सुनाई तो सारी घटना सुनकर श्रीजाह्नवादेवी प्रेमाविष्ट हो उठीं। उन्होंने आँटपुर में श्रीराधागोपीनाथ के विग्रह की सेवा शीघ्र प्रकाशित करने के लिये परमेश्वरी ठाकुर को आदेश प्रदान किया। श्रीजाह्रवादेवी ने श्रीयदुनन्दन आचार्य की दो कन्याओं- श्रीमती और श्रीनारायणी के साथ वीरचन्द्र प्रभु की विवाह लीला भी सम्पादन की थी। श्रीवीरचन्द्र प्रभु की दो शक्तियाँ- श्रीमती और श्रीनारायणी भी बाद में श्रीजाह्नवादेवी की शिष्या हो गई थीं।
वैशाख मास की शुक्ल नवमी तिथि को अवलम्बन करके श्रीनित्यानन्द शक्ति श्रीजाह्नवादेवी की आविर्भाव लीला हुई।
1 – (पूर्वी रेलवे के मुरादाबाद स्टेशन के बिलकुल नज़दीक)
2 – श्रीगोड़ीय वेष्णव अभिधान (शब्दार्थ कोष) के वर्णन से जाना जाता है कि सूर्यदास सरखेल ने बाद में कालना में अपना निवास रखा था।
3 – ‘सङ्कर्षणस्य यो व्युहः पयोब्दिशायिनामकः। स एव वीरचन्द्रोऽभूच्चैतन्याभिन्नविग्रहः॥’ (गौ. ग. दी.67)
पयोब्दिशायि नामक संकर्षण के जो व्यूह थे, वे चैतन्य के अभिन्न विग्रह हैं तथा अभी वे ही नित्यानन्दात्मज वीरचन्द्र के नाम से परिचित हुये है।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से