चन्द्रशेखर आचार्यश्चन्द्रो ज्ञेयो विचक्षणै:।
श्रीमानुद्धवदासोऽपि चन्द्रावेशावतारकः॥
(गौ.ग.दी. 112)

विद्वान् लोग चन्द्रशेखर आचार्य को चन्द्र एवं उद्धव दास को चन्द्रावेशावतार रूप से जानते हैं—

‘आचार्यरत्न’ नाम धरे बड़ एक शाखा।
ताँर परिकर, ताँर शाखा-उपशाखा॥
आचार्यरत्न नाम ‘श्रीचन्द्रशेखर’।
याँर घरे देवी-भावे नाचिला ईश्वर॥
(चै.च.अ. 10/12-13)

श्रील भक्ति सिध्दान्त सरस्वती ठाकुर ने लिखा है कि श्रीचन्द्रशेखर नवनिधियों में से एक हैं अथवा चन्द्र हैं। इन चन्द्रशेखर आचार्य का घर ही आजकल ‘व्रज-पत्तन’1 नाम से प्रसिद्ध है।

श्रील भक्ति विनोद ठाकुर द्वारा लिखित अमृतप्रवाह भाष्य में लिखा है—श्रीचन्द्रशेखर आचार्यरत्न को किसी-किसी ग्रन्थ में श्रीमन् महाप्रभु के मौसा के रूप में उल्लेखित किया गया है।

श्रीगौड़ीय अभिधान में और भी स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है कि-“ये महाप्रभु के मौसा हैं अर्थात् शचीदेवी की बहन श्रीमति सर्वजयादेवी देवी, श्रीचन्द्रशेखर की धर्मपत्नी थीं।”

शाखानिर्णयामृत में श्रीश्रीचन्द्रशेखर आचार्य का स्वरूप परिचय इस प्रकार दिया गया है:-

पौर्णमासी पृथुप्रेमपात्रं श्रीचन्द्रशेखरम्।
अपार करुणापूर पौर्णमासीति संज्ञकम्॥

श्रीचन्द्रशेखर आचार्य का आधिभाव स्थान श्रीहट्ट है—

श्रीवास-पण्डित, आर श्रीराम-पण्डित।
श्रीचन्द्रशेखर-देव-त्रैलोक्य-पूजित॥
भवरोग-वैद्य श्रीमुरारि-नाम याँर।
‘श्रीहट्टे’ ए-सब वैष्णवेर ‘अवतार’॥
(चै.भा.आ 2/34-35)

श्रीमन् महाप्रभु के आविर्भाव से पहले उनके नित्यसिद्ध पार्षदों का आविर्भाव हो चुका था, यथा—

निगूढ़े अनेक आर वैसे नदीयाय।
पूर्वे सबे जन्मिलेन ईश्वर-आज्ञाय॥
श्रीचन्द्रशेखर, जगदीश, गोपीनाथ।
श्रीमान्, मुरारि, श्रीगरुड़, गङ्गादास॥
(चै.भा.आ. 2/98-99)

श्रीमायापुर में श्रीजगत्राथ मिश्र के घर के निकट ही श्रीचन्द्रशेखर आचार्य का निवास था। (जिस स्थान पर श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने श्रीचैतन्य मठ की स्थापना की है।) श्रीमन् महाप्रभु के आविर्भाव के बाद श्रीचन्द्रशेखर आचार्य तथा उनकी पत्नी हमेशा श्रीजगन्नाथ मिश्र के घर आकर श्रीचैतन्य महाप्रभु के दर्शन करने आते थे तथा जगन्नाथ मिश्र की देखरेख में सेवा-कार्य करते थे। श्रीजगन्नाथ मिश्र ने जब नित्यलीला में प्रवेश कर लिया तो उसके बाद शचीमाता के घर की देखभाल का सम्पूर्ण दायित्व चन्द्रशेखर आचार्य पर आ गया था।

गया धाम से नवद्वीप में लौटने के बाद श्रीमन् महाप्रभु जब भक्तों के साथ कीर्त्तन-विलास में प्रमत्त होते तो प्रति रात्रि कीर्त्तन या तो श्रीवास के मन्दिर में होता या चन्द्रशेखर के भवन में।

सर्व-वैष्णवेर हइल शुनिया उल्लास।
आरम्भिला महाप्रभु कीर्तन-विलास॥
श्रीवास-मन्दिरे प्रति निशाय कीर्तन।
कोनदिन हय चन्द्रशेखरे भवन॥
(चै.भा.म. 8/110-111)

जगाई-मधाई पवित्र ब्राह्मण कुल में जन्म ग्रहण करते हुए भी डाकूगीरी करते थे। महाप्रभु ने अहैतुकी कृपा परवश होकर उनके तमाम पापों को मर्जन करके उन्हें वैष्णवों के साथ संकीर्त्तन का अधिकार प्रदान किया था। महाप्रभु के अलौकिक कार्यों का जिन-जिन पार्षदों ने दर्शन किया था, उनमें से श्रीचन्द्रशेखर आचार्य भी एक है–

वक्रेश्वर पण्डित, चन्द्रशेखर आचार्य।
ए सब जानेन चैतन्येर सब कार्य॥
(चै.भा.म. 13/240)

श्रीचन्द्रशेखर के भवन में श्रीमन् महाप्रभु ने ब्रज लीला का अभिनय किया था। इस प्रसंग को श्रील वृन्दावन दास ठाकुर ने स्वरचित श्रीचैतन्य भागवत् ग्रन्थ के मध्यखण्ड के अट्ठारहवें अध्याय में विस्तृत रूप से वर्णन किया है। श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी ने भी श्रीचैतन्य चरितामृत में इस विषय को संक्षेप में लिखा है।

तबे आचार्येर घरे कैल कृष्णलीला।
रूक्मिण्यादि-रूप प्रभू आपने हइला॥
कभु दुर्गा, लक्ष्मी हय, कभु वा चिच्छक्ति।
खाटे बसि’ भक्तगणे दिला प्रेम-भक्ति॥
(चै.च.आ. 17/241-42)

श्रीचैतन्य भागवत् में जो लिखा है उसका संक्षिप्त सार इस प्रकार से है—एक दिन महाप्रभु ने भक्तों से व्रज -लीला का अभिनय करने के अभिप्राय को कहा तथा लीलाभिनय में कौन-सा पार्षद कौन-सा वेश ग्रहण करेगा, यह भी श्रीसदाशिव बुद्धिमन्त खान2 को बता दिया। प्रभु के आदेशानुयायी बुद्धिमन्त खान द्वारा यथायथ रूप से सभी को सजा देने पर (संवार देने या तैयार कर देने पर) महाप्रभु बहुत प्रसन्न हुये। श्रीमन् महाप्रभुजी स्वयं लक्ष्मीवेश में नृत्य करेंगे, ऐसी इच्छा व्यक्त करते हुये महाप्रभु कहने लगे कि, देखो जो जितेन्द्रिय हैं वे ही इस लीला को देख सकेंगे। महाप्रभु ने जब इस प्रकार कहा तो श्रीअद्वैताचार्य एवं श्रीवास पण्डित आदि सब भक्त दु:खित होकर कहने लगे कि हम तो अजितेन्द्रिय हैं इसलिए नृत्य दर्शन करने के अधिकारी नहीं है।

भक्तों की बात सुनकर महाप्रभु ने मन्द-मन्द मुस्कुराते हुए कहा कि आप सभी महायोगेश्वरत्व प्राप्त कर लेंगे, किसी को भी मोह नहीं होगा। महाप्रभु के लक्ष्मी वेश में नृत्य को देखने की आकांक्षा से शचीमाता विष्णुप्रिया को लेकर तथा सभी वैष्णव अपने-अपने परिवार को साथ लेकर वहाँ उपस्थित हो गये। श्रीअद्वैताचार्य महाविदूषक के वेश में,हरिदास ठाकुर चौकीदार के वेश में तथा श्रीवास नारद के रूप में सज्जित हुये। श्रीमुकुन्द ने कृष्णा-कीर्तन आरम्भ किया। हरिदास डण्डे को घुमा-घुमा कर सभी नृत्य दर्शन करने वालों को सावधान करने लगे। श्रीवास जो नारद के भाव में कहने लगे की, श्रीकृष्ण के दर्शनों की आकांक्षा से अनन्त ब्रह्माण्डों में घूमते-घूमते वे वैकुण्ठ गये, परन्तु वहाँ उन्हें सभी घर-द्वार जनशून्य अवस्था में दिखाई दिये। बाद में उन्होंने सुना कि ‘कृष्ण’ का तो नदिया में आगमन हो चुका है। अतः, यह सुनकर ही वे नवद्वीप में आये है।श्रीवास के अपूर्व भाव को देखकर जब शचीमाता मूर्च्छित होकर गिर पड़ी तो अन्यान्य स्रियों ने कृष्ण नाम सुनाकर शचीमाता की मूर्च्छा भंग की।

संकीर्तनावेशे एथा शचीर तनय।
सदाशिव बुद्धिमन्त खाने डाकि कय॥
आजि चन्द्रशेखर आचार्येर गृहे गिया।
लक्ष्मी आदि वेशेते नाचिव सबे लैया॥
शंख, शाड़ी, काँचुली, स्वर्णादि अलंकार।
योग्य-योग्य वेशे सज्ज करह सवार॥
एत कहि गौरचन्द्र प्रियगण सने।
एइ पथे गेला चन्द्रशेखर-भवने॥
(भक्ति रत्नाकर 12/1949-52)

बाद की लीला में विश्वम्भर ने रुक्मिणी का वेश धारण किया। रुक्मिणी के भाव में विभाजित होकर वे स्वयं को “विदर्भसुता” समझ कर-रुक्मिणी के द्वारा कृष्ण को भेजे पत्र विषयक श्लोकों का उच्चारण करने लगे। श्लोक उच्चारण करते हुए उनके नेत्रों से अश्रु धारायें बहने लगीं। इस लीला का दर्शन करके सभी वैष्णव प्रेमानन्द में विभोर हो गये।

द्वितीय प्रहर में श्रीगदाधर पण्डित गोस्वामी व्रजगोपी का वेश धारण करके प्रेम विह्वल चित्त से लक्ष्मी के आवेश में नृत्य करने लगे। महाप्रभु आद्याशक्ति तथा श्रीनित्यानन्द राधाजी की नानी का वेश धारण करके रंग-स्थल में उपस्थित हुये। उस समय महाप्रभु को सभी भक्त अपने-अपने भावों के अनुरूप कोई कमला, कोई लक्ष्मी, कोई सीता तथा कोई-कोई महामाया के रूप में दर्शन करने लगे। जिन्होंने जन्म से महाप्रभु को देखा था वे भी उन्हें पहचान न सके। यहाँ तक की शचीमाता भी महाप्रभु को न पहचान पायी। महाप्रभु ने लीला का अभिनय करने के बहाने अपनी तमाम शक्तियों को प्रकट किया तथा सभी शक्तियों को यथायोग्य मर्यादा प्रदान करनी चाहिए, ऐसी भी शिक्षा दी। आद्यशक्ति के वेश में महाप्रभु का नृत्य देखकर नित्यानन्द प्रभु मूर्च्छित हो गये तथा भक्त लोग उच्च स्वर से क्रन्दन करने लगे।

महाप्रभु ने एक और अलौकिक लीला की, वह ये कि वे गोपीनाथ के विग्रह को गोद में लेकर महालक्ष्मी के भाव में सिंहासन के ऊपर बैठ गये। ऐसा देखकर भक्त लोग उनका स्तव करने लगे, तभी अचानक रात्रि समाप्त हो गयी और प्रभात हो आयी-ऐसा देखकर व महानन्दमयी लीला के दर्शनों से वन्चित हो जाने के कारण सभी भक्तगण विषादग्रस्त हो गये। भक्तों को अत्यन्त विषादग्रस्त अवस्था में देख कर महाप्रभु ने अत्यन्त वात्सल्यभाव से युक्त होकर जगत-जननी के भाव में सभी को गोद में लेकर स्तन-पान कराया जिससे भक्तों के सभी दुःख दूर हो गये।

श्रीमहाप्रभुजी की अचिन्त्य शक्ति के प्रभाव से चन्द्रशेखर आचार्य के घर में सात दिन तक अद्भुत ज्योती विद्यमान रही, लोगों का सामर्थ्य नहीं था की आँख खोल कर उक्त ज्योती का दर्शन भी कर लें। वैष्णवों द्वारा इसका कारण पूछने पर महाप्रभु कुछ भी जवाब नहीं देते, सिर्फ मुस्कुरा देते।

चाँद काजी के उद्धार की लीला के समय महाप्रभु ने भक्तों को साथ लेकर जो नगर-संकीर्त्तन शोभा-यात्रा निकाली थी, उस समय चन्द्रशेखर आचार्य भी महाप्रभु के साथ थे। काटोया में श्रीमन् महाप्रभु के संन्यास ग्रहण के समय भी श्रीचन्द्रशेखर आचार्य वहाँ उपस्थित थे तथा महाप्रभुजी के निर्देशानुसार उनके संन्यास के तमाम कर्मांग आप ही ने सम्पन्न किये थे—

एत बलि’ भारती गोसाञि काटोयाते गेला।
महाप्रभु ताहा याइ’ संन्यास करिला।।
संङ्गे नित्यानन्द, चन्द्रशेखर आचार्य।
मुकुन्ददत्त-एइ तिन कैल सर्व कार्य॥
(चै.च.आ.17/272-273)

संन्यास के बाद जब श्रीमन् महाप्रभु उन्मत्त हो उठे तथा वृन्दावन की ओर दौड़ पड़े तो नित्यानन्द की चातुरी से वे शान्तिपुर में गंगा के किनारे लाए गये। श्रीचैतन्य महाप्रभु के संन्यास लेने की बात श्रीचन्द्रशेखर आचार्य ने ही शान्तिपुर व नवद्वीप वासियों को बतायी थी—

शिशु सब गङ्गातीरपथ देखाइल,
सेइ पथे आवेशे प्रभु गमन करिल॥
आचार्यरत्नेरे कहे नित्यानन्द-गोसाञि,
शीघ्र जाइ तुमि अद्वैत आचार्येर ठाञि॥
प्रभु लये जाब आमि ताँहार मन्दिरे।
सावधाने रहेन जेन नौका लैञा तीरे।।
तबे नवद्वीपे तुमि करिह गमन,
शची-माता लैञा आइस, आर भक्तगण॥
(चै. च. म. 3/19-22)

श्रीनित्यानन्द के निर्देशानुसार श्रीचन्द्रशेखर आचार्य शचीमाता को पालकी पर बैठाकर नवद्वीप से अद्वैत भवन में लाये थे। 3 (चै.च.म. 3/137)

श्रीमन् महाप्रभु के दक्षिण भारत से वापस पुरी पहुँचने के सम्वाद को गौड़देश में भेजने के लिये महाप्रभु ने काला कृष्णदास को श्रीनित्यानन्द आदि पार्षदों के साथ भेजा तो उसी समय श्रीचन्द्रशेखर आचार्य के साथ काला कृष्णदास का मिलन हुआ था। चन्द्रशेखर आचार्य गौड़ीय भक्तों के साथ चातुर्मास्य के समय पुरुषोत्तम धाम में आते थे व वहाँ ठहरते थे। पुरुषोत्तम धाम में श्रीगुण्डिचा मन्दिर मार्जन की लीला व नरेन्द्र सरोवर में हुई जलकेलि आदि लीलाओं के समय भी चन्द्रशेखर आचार्य महाप्रभु के साथ थे।


1 व्रज पतन – महाप्रभु का देवीभाव में व्रज लीला नाटक का अभिनय स्थान, अन्य भाषा में इसे वरजपोता कहा जाता है।
2 सदाशिव बुद्धिमन्त खान एक ही व्यक्ति का नाम है।

3 प्रभातो आचार्यरत्न दोलाय चढ़ाइया। भक्तगण-संगे आइला शचीमाता लैया।

श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ ‘गौर-पार्षद’ में से