ग्रन्थ भागवत और भक्त भागवत दोनों की सेवा
संन्यास ग्रहण करने से पूर्व श्रील भक्त्यालोक परमहंस महाराज का नाम श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी था। श्रील प्रभुपाद के प्रकट काल में श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी कृष्णानगर में भागवत प्रेस के ‘मैनेजर’ (प्रबन्धक) थे, जहाँ पर श्रील प्रभुपाद के श्रीमद्भागवतम् ग्रन्थ का मुद्रण कार्य होता था। वास्तव में ‘मैनेजर’ (प्रबन्धक) उपाधि भक्तों के लिए उपयुक्त नहीं है, कारण, एक भक्त सदैव अपने आपको एक सेवक ही समझता है। परन्तु, श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी की समस्त सेवाएँ एक मैनेजर की ही भाँति थीं इसलिए उनका इस प्रकार से उल्लेख किया गया है। वे श्रील प्रभुपाद के श्रीमद्भागवतम् तथा अन्य समस्त ग्रन्थों के प्रेस में मुद्रण के लिये सम्पूर्ण व्यवस्था करते थे।

ग्रन्थों की प्रकाशन सेवा के लिए श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने एक स्टेनोग्राफर एवं एक टाइपिस्ट को नियुक्त किया था। एक समय नदिया के राजा को प्रशासनिक कार्य सम्बन्धित कुछ प्रकाशित करने की आवश्यकता उपस्थित हुई किन्तु उनके पास डिक्टेशन लेने (सुनकर लिखने) तथा टाइपिङ्ग के लिये कोई भी व्यक्ति सेवा में नहीं था। राजा की आवश्यकता के अनुरूप श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने भागवत प्रेस के स्टेनोग्राफर एवं टाइपिस्ट की सेवाएँ उन्हें प्रदान की तथा उनकी प्रतिलिपि को प्रकाशित करने के लिए भी प्रस्तुति व्यक्त की। भागवत प्रेस प्रायः बाहर के ग्राहकों के लिये भी मुद्रण कार्य करती थी।

उन्होंने राजा के समक्ष एक उत्तम कोटि की मुद्रित पुस्तिका प्रस्तुत की, जो पूर्णतया मुद्रण सम्बन्धी किसी दोष-त्रुटि से रहित थी। पुस्तिका की उच्च गुणवत्ता और भागवत प्रेस के भक्तों द्वारा विशेष सावधानीपूर्वक उसे मुद्रित करने की शैली से राजा अत्यन्त प्रभावित हुए तथा यह निर्णय लिया कि भविष्य में मुद्रण के लिये किसी भी पुस्तक को कोलकाता नहीं भेजेंगे बल्कि एकमात्र भागवत प्रेस की सेवाओं का ही उपयोग करेंगे। इस प्रकार श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी के प्रयासों के फलस्वरूप प्रेस ने प्रचुर ख्याति लाभ कर ली। आसपास के समस्त नगरवासी यह जान गए कि वे भागवत प्रेस के भक्तों की योग्यता पर सम्पूर्ण विश्वास कर सकते हैं और यदि दैववश कभी कोई त्रुटि हो भी जाती है तो प्रेस तत्काल उसका संशोधन कर देगी।

एक अन्य सेवा जिसे श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी सम्पादित करते थे वह थी मठ के लिये भूमि संग्रह करना। चूँकि वे गौड़ीय मठ के लिये विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ क्रय करने की सेवा करते थे इसलिए उन्हें ‘केनाराम’ नाम प्रदान किया गया अर्थात् ऐसा व्यक्ति जो सब कुछ खरीदता है। इस विषय में ‘केनाराम’ उपाधि उनके लिये प्रयुक्त हुई है, जो भक्त भागवत की सेवा के लिये सब कुछ खरीदता है, निज इन्द्रिय तृप्ति के लिये नहीं।

सूक्ष्म संकेत, विशाल सेवा
नवद्वीप स्थित चम्पक हट्ट ग्रामवासियों की श्रील प्रभुपाद के प्रति अगाध श्रद्धा थी और उनमें से कुछ लोगों ने उनका शिष्यत्व भी ग्रहण किया। श्रील प्रभुपाद के प्रति विशेष श्रद्धायुक्त होने के कारण ग्रामवासियों ने उन्हें वह भूमिखण्ड प्रदान कर दिया जिसमें श्रीजयदेव गोस्वामी का पूर्व निवास स्थान भी सम्मिलित था। इसी स्थान पर वर्त्तमान में श्रीगौर गदाधर गौड़ीय मठ स्थापित है।

उस गाँव में एक सम्मानित व्यक्ति था जिसकी दो कन्याएँ हाल ही में विधवा हुई थीं। दुर्भाग्यवशतः, कन्याओं के ससुराल वाले उनकी निजी पैतृक सम्पत्ति को हस्तान्तरित करने के अनिच्छुक थे, इसलिए दोनों स्त्रियाँ अपना जीवन निर्वाह करने में असमर्थ थीं। जब श्रील प्रभुपाद को इन स्वियों की दुर्दशा के बारे में पता चला तो उन्होंने साधारण तौर पर ही कहा, “वे अपना जीवन निर्वाह कैसे करेंगी?” अपने गुरु महाराज के साधारण जिज्ञासा रूपी शब्दों को आदेश मानते हुए श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने रानाघाट के स्थानीय न्यायालय में स्त्रियों के ससुराल वालों के विरुद्ध अभियोग दाखिल कर दिया और अन्ततः उनकी पैतृक सम्पत्ति का उनके लिए संरक्षण करने में सफलता प्राप्त की।

बुद्धिमत्तापूर्वक सेवा
श्रील प्रभुपाद के निशिकान्त सन्याल नामक एक शिष्य थे, जो कटक के रॉवेनशॉ महाविद्यालय में प्राध्यापक थे। अपने पूरे परिवार की देखरेख की जिम्मेदारी श्रीसन्याल पर ही थी। तब भी वे अपना सम्पूर्ण मासिक वेतन श्रील प्रभुपाद को समर्पित कर देते थे, जबकि श्रील प्रभुपाद ने उनसे कहा था-“यदि तुम इस प्रकार से अपना पूरा वेतन मुझे प्रदान करते रहोगे तब तुम्हारे परिवार का निर्वाह कैसे होगा? अपने परिवार के भरण-पोषण के लिये कुछ बचाकर रखने से अच्छा है।”

श्रीसन्याल के परिवार के प्रति अकृत्रिम चिन्ताविशिष्ट श्रील प्रभुपाद ने श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी को कहा, “चूँकि निशिकान्त सन्याल अपना समस्त वेतन हमें समर्पित कर रहा है. इसलिये उसके परिवार की देखरेख का दायित्व हमारा है। मैं चाहता है कि आप उनके परिवार के निर्वाह का सम्पूर्ण प्रबन्ध कर दिया करें।” श्रील प्रभुपाद के आदेश पर श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने कई वर्षों तक श्रीसन्याल के परिवार की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यवस्था की। उन्हें जिस किसी भी वस्तु की आवश्यकता थी जैसे कि शिक्षा, उनकी सन्तानों के विवाह इत्यादि, सब कुछ उनके द्वारा व्यवस्थित किया गया।

बाह्यदृष्टि से ऐसा प्रतीत होता है कि ये सब व्यवस्थाएँ करना असङ्गत है। एक गृहस्थ परिवार की आवश्यकताओं को देखना त्यागी व्यक्ति का कर्त्तव्य नहीं है तथा उसे सदैव श्रीहरि-गुरु-वैष्णव की सेवा में नियुक्त रहना चाहिये। तथापि इस परिस्थिति में दो विचार हैं। प्रथम, श्रील प्रभुपाद की ओर से उन्हें उस परिवार की देखरेख का प्रत्यक्ष आदेश था और गुरु के आदेश का पालन करने में कोई दोष नहीं होता, बल्कि गुरु का आदेश पालन करना ही शिष्य का कर्त्तव्य है। द्वितीय, श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने बुद्धिमत्तापूर्वक सब कुछ इस प्रकार से व्यवस्थित किया कि उन्हें इन सेवाओं के लिये कभी भी व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं पड़ी। उन्होंने सेवाओं के दायित्व को भिन्न-भिन्न लोगों में कुछ इस प्रकार से विभाजित कर दिया कि उन्हें एक बार भी परिवार को देखने नहीं जाना पड़ा।

मेरे द्वारा उनकी सेवा
श्रील प्रभुपाद के अप्रकट होने के कुछ समय पश्चात् श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने मायापुर में गङ्गा घाट से थोड़ी सी दूरी पर क्षेत्रपाल शिव के निकट में कुछ भूमि संग्रह की। अन्ततः बङ्गलादेश से आये कुछ शरणार्थियों ने उस भूमि पर आधिपत्य करना प्रारम्भकर दिया और उसे छोड़ने से मना कर दिया। उनकी सेना की तरह कार्य करते हुये, बहुत से भक्तों और मैंने मिलकर उन शरणार्थियों को उस भूमि से भगा दिया।

श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी के गुरुभ्राता श्रील भक्तिसौरभ भक्तिसार गोस्वामी महाराज मायापुर आये और मायापुर में ठहरने के लिये अपना एक स्थान होने सम्बन्धी इच्छा प्रकट की, तो श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी ने उन्हें अपनी आधी भूमि दे दी।

संन्यास ग्रहण करना
श्रील प्रभुपाद आश्रित श्रील भक्तिस्वरूप पर्वत गोस्वामी महाराज का खीरचोरा गोपीनाथ के निकट, उदाला, उड़ीसा में ‘वार्षभानवी-दयित गौड़ीय मठ’ नाम से एक मठ था। उनके अप्रकट के पश्चात् कई भक्त चाहते थे कि वह मठ मेरे गुरु महाराज श्रीमद्भक्तिदयित माधव गोस्वामी महाराज को दिया जाये और वह श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ का ही शाखामठ बन जाये।

उस समय श्रील प्रभुपाद के शिष्यों ने विचार-विमर्श किया और निर्णय लिया कि क्योंकि श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी का अपना कोई स्थान नहीं है इसलिये श्रीवार्षभानवी-दयित गौड़ीय मठ उनको दिया जाना चाहिये और उन्हें श्रील भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज से संन्यास ले लेना चाहिये। उन्होंने अपने गुरुभ्राताओं का प्रस्ताव स्वीकार किया और इसके बाद से वे श्रीवार्षभानवी दयित गौड़ीय मठ, उदाला के आचार्य श्रीभक्त्‌यालोक परमहंस महाराज, के रूप में प्रसिद्ध हुए।

उनकी सेवा प्रवृत्ति
जब गुरु महाराज ने पुरी में श्रील प्रभुपाद की आविर्भाव स्थली को संग्रह करने का दायित्व स्वीकार किया, तब बहुत से आवश्यक प्रपत्र (documents) उड़िया भाषा में थे। उस समय एक उड़िया भक्त, श्रीपाद भक्तिसुन्दर सागर महाराज श्रीवार्षभानवी-दयित गौड़ीय मठ में रह रहे थे। गुरु महाराज ने श्रील परमहंस महाराज से पूछा, “महाराज, यदि आपके लिये कोई असुविधा न हो तो. हम आपसे प्रार्थना करते हैं कि सागर महाराज कुछ समय के लिये हमारे साथ रहें और श्रील प्रभुपाद की आविर्भाव स्थली को ग्रहण करने में हमारी सहायता करें।”

परमहंस महाराज ने उत्तर दिया, “मैं इतना अधिक स्वार्थी नहीं हूँ कि इतनी महत्त्वपूर्ण सेवा में बाधा डालूँ। मेरे स्वयं के लिये असुविधा होने पर भी में श्रीसागर महाराज को आपके साथ अवश्य भेजूंगा। श्रील प्रभुपाद के लिये कोई छोटी सी सेवा करना भी बहुत आनन्द और सम्मान का विषय होगा।”

हमने व्यक्तिगत रूप से अनुभव किया है कि श्रील परमहंस महाराज परम स्नेही और सरल थे। जब भी मेरी उनसे भेंट होती, मैं उन्हें पूर्ण साष्टाङ्ग दण्डवत् प्रणाम करता। यद्यपि में उनके शिष्यतुल्य था, तब भी वे मुझे सदैव आलिङ्गन करते। उनका स्वभाव ऐसा था कि वे किसी को भी अपने से कनिष्ठ नहीं समझते थे, अपितु सभी भक्तों का इस विचार से सम्मान करते थे कि वे सभी भक्ति-मार्ग के पथ पर चल रहे हैं।

“श्रील प्रभुपाद के लिये कोई छोटी सी सेवा करना भी बहुत आनन्द और सम्मान का विषय होगा।”

त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्त्‌यालोक परमहंस महाराज का नित्यलीला में प्रवेश

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित

उनका शुभाविर्भाव
पूज्यपाद श्रील महाराज का आविर्भाव १८९३ ई० में रविवार, वैशाख मास की शुक्ला प्रतिपदा तिथि के दिन अश्विनी नक्षत्र में हुआ। अर्थात् उनके आविर्भाव काल सम्बन्धित मास, वार, तिथि एवं नक्षत्र-सभी प्रथम हैं।

पृथ्वी के अमूल्य रत्नस्वरूप
श्रील महाराज एक अत्यन्त नामभजन-परायण वैष्णव थे। प्रायः समस्त वैष्णवोचित सगुण ही उनमें विराजमान थे। वस्तुतः सभी भुवनपावन वैष्णव हो पृथ्वी पर महामूल्य रत्नस्वरूप हैं। “तौहा बिना रत्न शून्या हइल मेदिनी उनके अभाव में मेदिनी अर्थात् पृथ्वी रत्न से शून्य हो गई है’।”

‘भक्यालोक’
परमाराध्य श्रील प्रभुपाद ने अपने चरणाश्रित श्रील महाराज के पूर्वाश्रम का ‘महेन्द्र’ नाम परिवर्तन करके उनका दीक्षा-उपरान्त नाम रखा था ‘श्रीमहानन्द ब्रह्मचारी’। कछ समय पश्चात् श्रील प्रभुपाद ने उन्हें ‘भक्त्यालोक अर्थात् भक्ति की आभा से देदीप्यमान’ इस भक्तिसूचक उपाधि से भूषित किया था। श्रील प्रभुपाद के अप्रकट के पश्चात् उन्होंने पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर महाराज से संन्यास ग्रहण किया था। उनका संन्यास उपरान्त नाम हुआ – त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्त्‌यालोक परमहंस महाराज।

श्रील प्रभुपाद की महती कृपा के पात्र
परमाराध्य श्रील प्रभुपाद ने पूज्यपाद महाराज को उनकी ब्रह्मचारी अवस्था में कृष्णनगर स्थित भागवत प्रेस एवं उसके पश्चात् श्रीधाम मायापुर में स्थित श्रीचैतन्य मठ के प्रबन्धन का भार प्रदान किया था। वे उन सभी सेवाओं को विशेष कृतित्व के साथ सम्पादनपूर्वक श्रील प्रभुपाद के प्रचुर कृपाशीष-भाजन हुए हैं। उनके समान एक शुद्ध भजनपरायण आदर्श वैष्णव के अभाव की पूर्ति असम्भव है।

आचार्य के रूप में नियुक्ति
उड़ीसा प्रदेश के अन्तर्गत मयूरभञ्ज जिले के उदाला उपमण्डल में स्थित श्रीवार्षभानवी दयित गौड़ीय मठ के प्रतिष्ठाता श्रील भक्तिस्वरूप पर्वत गोस्वामी महाराज के नित्यलीला में प्रवेश करने के पश्चात् पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिगौरव वैखानस महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज, पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज, पूज्यपाद श्रीमद् महानन्द ब्रह्मचारी आदि श्रीमद्भक्तिस्वरूप पर्वत महाराज के सतीर्थगण एवं उनके अनुगत शिष्यों और सदस्यों की उपस्थिति में पूज्यपाद श्रीमद् वैखानस महाराज के प्रस्ताव के अनुसार सर्वसम्मति से पूज्यपाद श्रीमद् महानन्द ब्रह्मचारी उदाला मठ के आचार्यपद पर अधिष्ठित हुए। अगले वर्ष, १९५८ ई० में वह संन्यास ग्रहण करने के उपरान्त त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् परमहंस महाराज के नाम से परिचित हुए।

उनके अन्तिम वचन
पूज्यपाद महाराज ने अपनी अप्रकटलीला की पूर्व सन्ध्या में अनेक बार बहुत उच्च स्वर से श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ प्रतिष्ठान के प्रतिष्ठाता नित्यलीलाप्रविष्ट परमपूजनीय श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज एवं उनके शिष्य वत्र्त्तमान मठाध्यक्ष आचार्य श्रीमद्भक्तिवल्लभतीर्थ महाराज का नाम उच्चारण किया था। इससे पूर्व भी समय-समय पर उनके श्रीमुख से इनका नाम श्रवण किया जाता था क्योंकि उनका हृदय उन दोनों के ही प्रति विशिष्ट प्रीतियुक्त था।

श्रीचैतन्यवाणी (वर्ष २३, संख्या १० एवं वर्ष २४, संख्या १) में प्रकाशित एक लेख से अनुवादित
मेरे परमस्नेही प्रभुवर