श्रील प्रभुपाद का चरणाश्रय ग्रहण
श्रीमद्भक्तिविचार यायावर गोस्वामी महाराज के पूर्वज मूलतः उड़ीसा से थे, किन्तु उनके पितामह के स्थानान्तरित होने के कारण उनका जन्म पश्चिम बङ्गाल के मेदिनीपुर जिले के अन्तर्गत दुर्मुठ नामक स्थान में हुआ। अपनी युवावस्था में ही श्रील महाराज (उस समय श्रीसर्वेश्वर पण्डा) की जगन्नाथ पुरी में श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के आश्रित श्रीमद्भक्तिप्रसून बोधायन गोस्वामी महाराज से भेंट हुई थी। श्रीमद्भक्तिप्रसून बोधायन गोस्वामी महाराज से श्रील प्रभुपाद की शिक्षाओं एवं महिमा को श्रवण करने के पश्चात् श्रीसर्वेश्वर पण्डा ने जगन्नाथ पुरी स्थित श्रीपुरुषोत्तम मठ में श्रील प्रभुपाद के चरणकमलों का आश्रय ग्रहण किया तथा उन्हें दीक्षा के पश्चात् श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी नाम दिया गया।

एक ज्योतिषी की भविष्यवाणी
एक समय एक अत्यन्त प्रसिद्ध एवं प्रतिष्ठित ज्योतिषी ने श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी एवं एक अन्य ब्रह्मचारी की हस्त रेखाओं को देखकर दृढ़तापूर्वक कहा, “तुम दोनों का विवाह होकर ही रहेगा तथा तुम गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करोगे। कोई उसे टाल नहीं सकता।”

श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी की कीर्तन करने में दक्षता एवं गौड़ीय वैष्णव सिद्धान्त में गहन प्रवेश के कारण श्रील प्रभुपाद की उन्हें नवयुवक होने पर भी संन्यास देने की इच्छा थी किन्तु ज्योतिषी की भविष्यवाणी के कारण श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी संन्यास लेने से भयभीत थे कि कहीं विवाह करने की कामना उनके हृदय में सुप्त अवस्था में न हो। श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी की संन्यास लेने में अरुचि को समझकर श्रील प्रभुपाद ने कहा, “संन्यास अर्थात् सम्पूर्ण रूप से श्रीकृष्ण के चरणकमलों में शरणागत होना। भगवान् श्रीकृष्ण के अभयचरणारविन्द में शरण लेने में भय कैसा?”

“यदि किसी की श्रीकृष्ण में दृढ़ भक्ति हो तो उसकी भक्ति का बल विधाता के लेख को फाड़कर टुकड़े-टुकड़े कर देता है।”

श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी ने १९३६ ई० में संन्यास ग्रहण किया एवं वह श्रील प्रभुपाद के अन्तिम संन्यासी शिष्य थे। उन्हें श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज नाम प्रदान किया गया।

अन्य ब्रह्मचारी के विषय में ज्योतिषी की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई तथा उन्हें विवाह के बन्धन में बंधना पड़ा किन्तु श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने विवाह नहीं किया। बहुत समय के पश्चात् जब उस ज्योतिषी की पुनः श्रील यायावर गोस्वामी महाराज से भेंट हुई तो इनकी हथेली को देखकर उन्होंने कहा, “मुझे समझ नहीं आ रहा कि क्या कहूँ? आपकी हस्त रेखाओं के साथ-साथ आपके भाग्य का भी परिवर्तन हो गया है। मैंने वैष्णवों से श्रवण किया है, ‘कृष्ण भक्ति यदि हय बलवान्। विधिर कलम काटि करे खान-खान अर्थात् यदि किसी की श्रीकृष्ण में दृढ़ भक्ति हो तो उसकी भक्ति का बल विधाता के लेख को खण्ड-खण्ड कर देता है।’ इससे पूर्व मुझे वैष्णवों के इस वचन पर दृढ़ विश्वास नहीं था किन्तु अब इसकी सत्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण मेरे समक्ष है। भक्ति वास्तव में किसी के भी भाग्य को परिवर्तित कर सकती है।”

किसी की प्रशंसा करने में शीघ्रता मत करो
श्रील यायावार गोस्वामी महाराज भविष्य में होने वाली घटनाओं को स्पष्ट रूप से देखने में सक्षम थे। उनकी दूरदर्शिता के विषय में मैं यहाँ पर केवल एक ही प्रसङ्ग का वर्णन कर रहा है। १९६० ई० में गुरु महाराज ने हमारे वृन्दावन स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के श्रीगौराङ्ग महाप्रभु एवं श्रीश्रीराधा-गोविन्द के विग्रहों की प्रतिष्ठा के उपलक्ष्य में एक विराट उत्सव का आयोजन किया तथा उसमें श्रीमद्भक्तिविचार यायावर गोस्वामी महाराज सहित अपने अनेकानेक गुरुभ्राताओं को निमन्त्रित किया।

उत्सव में आने वाले भक्तों की संख्या बहुत अधिक होने के कारण किसी एक ही स्थान पर सभी के रहने एवं प्रसाद की व्यवस्था करना सम्भवपर नहीं था। इसलिये विभिन्न धर्मशालाओं में वैष्णवों के ठहरने एवं वहीं पर उनके प्रसाद की व्यवस्था की गई।

उत्सव के समय हुई धर्म-सभा में एक अत्यन्त युवा नवीन संन्यासी ने अत्यन्त सुशिक्षित एवं विद्वान् होने के कारण अंग्रेजी भाषा में हरि-कथा का परिवेशन किया तथा अपने वक्तव्य में शास्त्रों से बहुत से श्लोकों को उद्धृत किया। सभी इस प्रकार अत्यन्त सुन्दर पद्धति से प्रस्तुत वक्तृता को सुनकर अत्यधिक प्रभावित हुए।

अगले दिन प्रसाद के समय जब श्रील प्रभुपाद आश्रित श्रीमद्भक्तिविकास हृषीकेश गोस्वामी महाराज ने उस युवक संन्यासी की प्रशंसा करनी प्रारम्भ की तब श्रील यायावर गोस्वामी महाराज एवं श्रीपाद कृष्ण केशव ब्रह्मचारी वहीं पर उपस्थित थे। चूँकि उनके प्रसाद की सेवा का दायित्व मुझ पर चा इसलिये मैं भी वहीं पर था।

प्रशंसा को सुनकर श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने श्रील हषीकेश गोस्वामी महाराज को रोककर गरजते हुए कहा, “इस समय इस युवक संन्यासी की प्रशंसा करने की कोई आवश्यकता नहीं है। यद्यपि निश्चित रूप से उसने बहुत सुन्दर प्रकार से हरि कथा का परिवेशन किया किन्तु नवीन भक्त होने के कारण कौन कह सकता है कि उसने उस कथा को कितना धारण किया है? कथा कहना एक बात है किन्तु उसे पालन करने में वह कितना दृढ़ है? पहले उसे वैष्णव जगत् में जीने तो दो, प्रशंसा करने के लिये बहुत समय पड़ा है।

“एक बंगाली कहावत है, ‘मोरले यदि उदले छाइ, तवे सतीर गुण गाइ अर्थात किसी सती स्त्री के सतीत्व का तब तक गुणगान नहीं करना चाहिये जब तक उसकी मृत्यु एवं संस्कार के उपरान्त उसके शरीर की राख न उड़ जाए।’ इसी प्रकार जब तक कोई व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन उचित आचरण एवं शिष्टता का प्रदर्शन नहीं करता तब तक मात्र उसके सुन्दर हरि-कथा परिवेशन करने जैसे अन्य गुणों को देखकर उसकी प्रशंसा करना बुद्धिमानी नहीं है। सांसारिका विद्वान् भी अच्छा बोलते हैं किन्तु प्रायः हम देखते हैं कि उनका श्रीहरि, गुरु, वैष्णव में विश्वास नहीं होता। इसलिये इस प्रकार के लोगों में जो गुण देखे जाते हैं वह जड़ीय होते हैं।

इस प्रसंग से पूर्व में श्रील यायावर गोस्वामी महाराज को अत्यन्त मृदुभाषी के रूप में ही जानता था। यह सरल एवं स्पष्ट वक्ता थे तथा जो उन्हें अनुभव हुआ, यही उन्होंने कहा।

१९६२ ई में हरिद्वार में कुम्भ-मेले के समय यह ज्ञात हुआ कि वह युवा संन्यासी भक्ति मार्ग में दृढ़ नहीं था तथा वही वह स्त्रियों से घनिष्ठता से मिला जिसके कारण उसने गौड़ीय मठ के भक्तों के संग का त्याग कर दिया। इसके उपरान्त उसने सबकी निन्दा प्रारम्भ कर दी।

“जब तक कोई व्यक्ति सम्पूर्ण जीवन उचित आचरण एवं शिष्टता का प्रदर्शन नहीं करता तब तक मात्र उसके कुछ गुणों को देखकर उसकी प्रशंसा करना बुद्धिमानी नहीं है।”

गुरुभ्राता के लिये स्नेहमयी चिन्ता
एक समय श्रील यायावर गोस्वामी महाराज कालना गये। उस समय वहाँ पर श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज श्रीअनन्त वासुदेव मन्दिर में सेवा कार्य कर रहे थे। जब श्रील यायावर गोस्वामी महाराज श्रील पुरी गोस्वामी महाराज से मिले तो उन्होंने कहा, “आपने इस मन्दिर का सेवा-दायित्व अपने ऊपर लिया है तथा साथ-ही-साथ श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की विभिन्न सेवाओं का दायित्व भी आप पर है। आप अकेले इन सब दायित्वों का निर्वाह किस प्रकार करेंगे? अपने समय एवं ऊर्जा को सम्पूर्ण हृदय से एक स्थान पर ही सेवा में लगाने से अच्छा होगा।” उनके परामर्श को स्वीकार करते हुए श्रील पुरी गोस्वामी महाराज ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति को श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ की सेवाओं में नियुक्त किया।

केवल कीर्त्तन करो
एक दिन श्रील यायावर गोस्वामी महाराज के मेदिनीपुर स्थित श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ के ब्रह्मचारी ठाकुरजी के लिये भोग लगाने के लिये मठ में तनिक भी चावल न होने पर दुःखी थे। जब उन्होंने अपनी चिन्ता का कारण श्रील यायावर गोस्वामी महाराज के समक्ष व्यक्त किया तो उनकी परिस्थिति को शीघ्र ही समझते हुए श्रील महाराज ने उन्हें सान्त्वना प्रदान करते हुए कहा, “चिन्ता मत करो।” तब मन्दिर के द्वार को भीतर से बन्द करके चाबी को अपने पास रखते हुए उन्होंने ब्रह्मचारियों को आदेश देते हुए कहा, “भगवान् की प्रसन्नता के लिये कीर्तन एवं कथा का परिवेशन करो। आपको किसी भी विषय में चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, कारण, आप लोग भक्त हैं।” इसके पश्चात् उन्होंने मठ के द्वितीय तल पर स्थित अपने कक्ष की ओर प्रस्थान किया तथा वहाँ पर उच्च स्वर में हरिनाम करने लगे।

कुछ समय के पश्चात् एक व्यक्ति मन्दिर के द्वार पर आकर किसी को द्वार खोलने के लिये पुकारने लगा किन्तु ब्रह्मचारियों के द्वारा मन्दिर के हॉल में उच्च स्वर से होने वाले कीर्तन के कारण कोई भी उसकी पुकार को नहीं सुन सका। अन्त में श्रील महाराज ने अपने कक्ष से लक्ष्य किया कि कोई द्वार के बाहर खड़ा है। एक कीर्त्तन के पूर्ण होने के पश्चात् तथा दूसरा कीर्तन प्रारम्भ होने से पूर्व श्रील महाराज ने द्वितीय तल से चाबियों गिराते हुए एक ब्रह्मचारी को द्वार खोलकर देखने के लिये कहा कि कौन आया है। जब उन्होंने द्वार खोला तो देखा कि एक व्यक्ति चावल की एक बहुत बड़ी बोरी के साथ-साथ अन्य वस्तुओं को लेकर खड़ा था।

जब मठवासियों ने इन खाद्य सामग्रियों के खरीददार के विषय में जिज्ञासा की तो उस व्यक्ति ने कहा, “मैं नहीं जानता। में मात्र इतना ही जानता है कि किसी ने मुझे इन सामग्रियों को मठ में पहुँचाने के लिये कहा था, किन्तु वह कौन था यह मैं नहीं जानता।”

ब्रह्मचारियों ने पूछा, “क्या उस व्यक्ति ने तुम्हारे रिक्शे का किराया दिया है?” “हाँ”, उस व्यक्ति ने कहा।

श्रील यायावर गोस्वामी महाराज सम्पूर्ण रूप से भगवान् के प्रति शरणागत थे इसीलिये भगवान् को भोग निवेदन नहीं कर पाने के कारण उनके अन्तहृदय में हो रही पीड़ा को देखकर भगवान् ने सेवा के लिये उपयोगी समस्त आवश्यक वस्तुएँ उपलब्ध करा दी।

सदैव कीर्त्तन करो
श्रील यायावार गोस्वामी महाराज अन्य से बहुत ही मधुर कीर्तन करते थे। एक समय जब वह कीर्तन कर रहे थे तो बिजली चली गयी। इस परिस्थिति में क्या कर्त्तव्य है यह सुनिश्चित नहीं कर पाने के कारण वहाँ उपस्थित भक्त व्याकुल हो गये। श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने शीघ्र ही प्रतिक्रिया करते हुए उन्हें अशान्त न होने के लिये कहा तथा स्वयं उन्होंने कीर्त्तन प्रारम्भ किया, “भजहुँ रे मन, श्रीनन्दनन्दन, अभय चरणारविन्द रे हे मेरे मन ! तुम श्रीनन्दनन्दन के अभय अर्थात् समस्त प्रकार के भर्यो का विनाश करने वाले श्रीचरणकमलों का भजन करो।”

उनका आचरण उनकी भगवान् के प्रति सम्पूर्ण शरणागति को लक्षित करता था। इस प्रकार वह कभी भी किसी भी वस्तु के लिये चिन्ता नहीं करते थे तथा चाहते थे कि अन्य भी न करें।

सर्वशक्तिमान चिकित्सक
एक समय एक भक्त ने पूर्व में हाथ में लगी चोट के कारण होने वाले संक्रमण के सम्बन्ध में एक चिकित्सक से विचार-विमर्श किया। भक्त की जाँच करने के पश्चात् चिकित्सक ने यह निर्धारित किया कि संक्रमण से बचने के एकमात्र उपाय स्वरूप भक्त की एक अङ्गुली काटनी पड़ेगी। उन्होंने भक्त को कुछ दिनों के पश्चात् शल्य चिकित्सा करवाने हेतु पुनः आने के लिये कहा।

चिकित्सक के पास अङ्गुली कटवाने के लिये जाने से पूर्व वह भक्त श्रील यायावर गोस्वामी महाराज के दर्शन के लिये गया। श्रील महाराज को प्रणाम करने के पश्चात् उसने बताया कि एक अथवा दो दिन के पश्चात् उसे अपनी अङ्गुली कटवाने के लिये जाना है। यह सुनने के पश्चात् श्रील महाराज ने कहा, “तुमने अवश्य ही कोई वैष्णव अपराध किया है जिसके परिणामस्वरूप तुम्हें अपनी अङ्गुली गैवानी पड़ रही है। शीघ्रतापूर्वक जाओ तथा जिन वैष्णव के चरणों में अपराध किया है उनसे क्षमा प्रार्थना करो।”

भक्त ने गम्भीर होकर स्वीकार किया, “हाँ, मैंने एक शुद्ध भक्त के चरणों में अपराध किया है। किन्तु वह भक्त देह त्यागकर चले गए हैं। मुझे क्या करना चाहिये?”

श्रील यायावार गोस्वामी महाराज ने उससे कहा, “जहाँ उस भक्त का दाह संस्कार हुआ था उस स्थान पर जाकर उनसे कातरता-पूर्वक क्षमा प्रार्थना करो।”

उस भक्त ने श्रील महाराज के निर्देशों का पालन किया तथा अङ्गुली कटवाने से पूर्व जब उस भक्त ने पुनः चिकित्सक से एक अन्तिम जाँच करवायी तो चिकित्सक ने आश्चर्य प्रकट करते हुए उस भक्त से पूछा, “आपने कौन सी औषधि ली है तथा आपने किससे इस प्रकार की औषधि प्राप्त की?”

उस भक्त ने कहा, “मैंने किसी भी प्रकार की औषधि नहीं ली है तथा आप यह प्रश्न क्यों पूछ रहे हैं?”

चिकित्सक ने कहा, “यह अविश्वसनीय है। इससे पूर्व जब मैंने आपका परीक्षण किया था उस समय अङ्गुली काटने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प नहीं था किन्तु अब ऐसा कुछ करने की आवश्यकता नहीं है। आपका हाथ स्वतः ही ठीक हो जायेगा।”

एकमात्र ‘माधव’, कोई अन्य नहीं
प्रत्येक वर्ष श्रीनवद्वीप धाम परिक्रमा के पूर्ण होने के पश्चात् श्रील प्रभुपाद के प्रायः समस्त शिष्यगण कोलद्वीप स्थित श्रीमद्भक्तिरक्षक श्रीधर गोस्वामी महाराज के मठ में एकत्रित होते एवं प्रसाद सेवन करते थे। एक बार जब गुरु महाराज यहाँ अपने गुरुधाताओं से मिले, उन्होंने सबको इम सम्वाद से अवगत कराया कि श्रीजगन्नाथ पुरी स्थित श्रील प्रभुपाद की जन्म स्थानी को संग्रह करने का सुअवसर उपस्थित हुआ है एवं यह सुझाव दिया कि हम सब मिलकर उस स्थान को खरीद लें।

परस्पर इस विषय पर विचार-विमर्श करने के पश्चात् उनके कुछ गुरुधाताओं ने अपने सामर्थ्यानुसार कुछ धन प्रदान करने की सहमति दी, परन्तु यह समस्त राशि भी आवश्यक निधि की तुलना में नगण्य थी। गुरु महाराज ने व्यता का अनुभव करते हुए कहा, “हमें आवश्यक धन संग्रह करने का कोई अन्य उपाय सोचना पड़ेगा।”

उस समय श्रीमद्भक्तिविचार यायावर गोस्वामी महाराज ने श्रीनृसिंह पुराण के इस श्लोक का उल्लेख किया

माध्यो माधवो वाचि, माधको माधवो हृदि।
स्मरन्ति माधवः सर्वे, सर्वकार्येषु माधवम् ॥

[‘माधव’ नाम सबके मुख पर है। माधव सभी के हृदय में हैं। समस्त साधुगण अपने सभी कार्यों को करते हुए श्रीलक्ष्मीजी के स्वामी श्रीमाधव को सदा स्मरण करते हैं।]

यद्यपि इस श्लोक में ‘माधव’ नाम भगवान् श्रीकृष्ण के लिए प्रयुक्त हुआ है. परन्तु ील यायावर गोस्वामी महाराज ने यह श्लोक गुरु महाराज के सन्दर्भ में कहा था एवं उनका अभिप्राय था. “सभी गुरुभ्राताओं के वचनों में एवं हृदय में श्रीमहा उपस्थित हैं। सभी गुरुधाता श्रीमाध्यमहाराज को स्मरण करते हैं, कारण वे ति आवश्यकता हो, उतनी ही लक्ष्मी (अर्थात् चन) संग्रह कर सकते हैं। सभी गुरुचाला अपने समस्त कार्यों में श्रीमाधव महामान को स्मरण करते हैं, अतः जब वे उपस्थित है. तब सभी कार्य पूर्णतया सम्भव है। किसी अन्य पर निर्भर होने की क्या आवश्यकत है?”

यह सुनकर गुरु महाराज समझ गए कि उनके सभी गुरुधाता इस महत् कार्य कर दायित्व केवल उन्हें ही सौंपकर उन पर कृपा कर रहे हैं, इसलिए उन्होंने उन सभी को साक्षात् दण्डवत् प्रणाम ज्ञापन किया। इस प्रकार अत्यन्त हर्षपूर्वक उन्होंने बील प्रभुपाद के जन्म स्थान को संग्रह करने का सम्पूर्ण दायित्व स्वीकार किया।

उनकी सेवा निष्ठा
श्रील प्रभुपाद की आविर्भाव स्थली संग्रह करने के उपरान्त जिस समय मठ का निर्माण कार्य हो रहा या, गुरु महारान ने वहीं पर १९७९ई में श्रील प्रभुपाद की आविर्भाव तिथि के उपलक्ष्य में एक उत्सव का आयोजन किया। गुरु महाराज ने अपने समस्त गुरुभ्राताओं को स्वहस्तलिखित निमन्त्रण पत्र भेजा जिसमें लिखा था. “कृपया इस उत्सव में उपस्थित होकर हमें आशीर्वाद प्रदान करें। जो उत्सव में भाग लेने में समर्थ थे वे उत्सव से प्रायः एक या दो दिन पूर्व पहुंच गये। लपायावर गोस्वामी महाराज को ओर से कोई नहीं हुआ था इसलिये गुरु महाराज को लगा कि डाक के माध्यम से भेजा गया निमन्त्रण पत्र खो गया है तथा उन्होंने शीघ्र ही उन्हें तार के माध्यम से निमन्त्रण भेजा। जैसे ही श्रील यायावर गोस्वामी महाराज को तार मिला उन्होंने अपना सामान बौधा एवं उत्सव में योगदान देने हेतु जगन्नाथ पुरी के लिये चल पड़े।

साधारणतया जब भी कोई अतिथि अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है तो सर्वप्रथम वह यह जानना चाहता है कि अपना सामान कहाँ रखे, वह कहाँ स्नान करे तथा उसके रहने की व्यवस्था कहाँ पर है? किन्तु श्रील यायावर गोस्वामी महाराज का इस प्रकार का स्वभाव नहीं था। जब वह उत्सव में पहुंचे तब आने के साथ-ही-साथ अपने सामान को एक ओर रखकर उन्होंने सर्वप्रथम कीर्त्तन में योगदान दिया। उनका विचार था, “जब तक मठ में पहुँचकर में कोई सेवा नहीं करता हूँ, तब तक मुझे अपने रहने के लिए स्थान अथवा अपने सामान तक को रखने के स्थान की अपेक्षा करना किस प्रकार युक्तिसङ्गत है? सर्वप्रथम मुझे सेवा करने दो उसके उपरान्त ही अपने रहने के स्थान के लिये पूछना उचित है।” उनकी इस प्रकार की सेवावृत्ति थी।

सदैव कृपा वितरण करना
जब कोई भी श्रीमद्भक्तिविचार यायावर गोस्वामी महाराज के दर्शन करने हेतु आता था तो वह उनके आने के साथ-ही-साथ उन्हें प्रसाद देते थे। एक समय वह एक ऐसे स्थान में रह रहे थे जहाँ आस-पास कहीं भी मौसमी नहीं मिलती थी। वहाँ एक दर्शनार्थी उनके लिये बहुत दूर से कुछ मौसमी फल लेकर आया। यद्यपि यह फल विशेष रूप से उनके लिये ही लाये गये थे किन्तु उन्होंने साथ-ही-साथ उसे टुकड़ों में काटकर उपस्थित भक्तों में वितरित कर दिया। उनका इस प्रकार का वैशिष्ट्य था।

चित्त-निर्मलकारी कीर्तन
श्रील प्रभुपाद द्वारा अपने शिष्यों को प्रदत्त अन्तिम उपदेशों में से एक यह था कि सब एक साथ मिलकर रूप-रघुनाथ की वाणी का प्रचार करें। इस उपदेश को ध्यान में रखते हुए गुरु महाराज प्रायः अपने गुरुभ्राताओं को कहते थे, “विधाता की इच्छानुसार हम सभी भिन्न-भिन्न स्थानों में रहने तथा विभिन्न संस्थान स्थापित करने के लिये बाध्य हुए हैं। किन्तु श्रील प्रभुपाद की इच्छा को पूरा करने के लिये जब कभी भी सम्भवपर हो हमें मिलना चाहिये।” इस प्रकार जब भी गुरु महाराज मठ में किसी उत्सव का आयोजन करते तो वह सदैव अपने गुरुधाताओं को निमन्त्रित करते थे तथा सभी को श्रील प्रभुपाद की शिक्षाओं एवं महिमा का कीर्तन करने का सुयोग प्रदान करते थे।

ऐसे ही एक उत्सव के समय सभापति पद पर आसीन श्रीदुर्गानाच वसु नामक एक गणमान्य न्यायाधीश ने अपने आसन से उठकर गुरु महाराज को बताया कि उसे किसी अन्य कार्यक्रम के लिये जाना पड़ेगा। अतएव रात्रि की सभा समाप्त होती है।

गुरु महाराज ने मुझे न्यायाधीश के साथ उनकी कार तक जाने का आदेश दिया तथा उन्हें कुछ प्रसाद देने के लिये भी कहा। न्यायाधीश ने ठाकुरजी एवं उपस्थित वैष्णवों को प्रणाम किया तथा उसके पश्चात् हम एक साथ उनकी कार की ओर चल पड़े। इसी बीच गुरु महाराज ने श्रील यायावार गोस्वामी महाराज को कीर्तन करने के लिये प्रार्थना की, कारण, समय के अभाव के कारण उन्हें कथा परिवेशन का सुयोग नहीं मिला था। गुरु महाराज की प्रार्थना को स्वीकार करते हुए श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने खड़े होकर ‘नारद मुनि, बजाय वीणा’ कीर्तन का सुमधुर गान करना प्रारम्भकिया। तब तक न्यायाधीश कार में बैठ चुके थे तथा जाने के लिये प्रस्तुत थे। किन्तु श्रील महाराज का कीर्तन श्रवण करने के उपरान्त वह इस प्रकार से सम्मोहित हो गये कि कार से बाहर निकलकर सभा में अपने स्थान पर आकर बैठ गये।

कीर्तन समाप्त होने के उपरान्त न्यायाधीश ने गुरु महाराज से प्रार्थना करते हुए कहा, “कृपया कल इन संन्यासी को मेरे घर लेकर आइये। मैंने इससे पूर्व कभी भी कीर्तन को सुनकर इस प्रकार के आनन्द का अनुभव नहीं किया जैसा मुझे अभी प्राप्त हुआ है। यह अत्यन्त मार्मिक एवं चित्त को निर्मलता प्रदान करने वाला कीर्त्तन था तथा मैं अपने सम्पूर्ण परिवार को इस आनन्द की अनुभूति करवाना चाहता हूँ। में कल कार भिजवा दूंगा। आप सभी कल कृपा करके इन महाराज के साथ कीत्तंर्त्तन के लिये मेरे घर पर पधारिये।”

‘जीव’ शब्द का अर्थ’
एक समय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ कोलकाता में आयोजित धर्मसभा में श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने विवेकानन्द द्वारा प्रचारित वाक्य ‘जीवे प्रेम करे जेइ जन सेइ जन सेविछे ईश्वर अर्थात् जीव से जो व्यक्ति प्रेम करता है वास्तव में वही व्यक्ति ईश्वर की सेवा कर रहा है।’ के विषय में अपना व्याख्यान प्रस्तुत किया।

श्रील महाराजने कहा, “क्या इस वाक्य में जीव शब्द मात्र मनुष्यों अर्थात् स्त्रियों एवं पुरुषों के लिये ही प्रयुक्त हुआ है? क्या बकरी, मुर्गी, मछली, पक्षी तथा अन्य प्राणी जीव नहीं हैं? क्या उनके कर्ण एवं चक्षु नहीं हैं? क्या आहत करने पर उनके देह से रक्त प्रवाहित नहीं होता? क्या वे मनुष्यों की भाँति आहार, निद्रा, भय तथा मैथुन नहीं करते? यद्यपि वे जल एवं वन जैसे भिन्न-भिन्न स्थानों में वास करते हैं किन्तु उनमें भी प्राण हैं। अतएव विवेकानन्द के अनुगतजन ऐसे प्राणियों को क्यों खाते हैं? क्या वे अस्पताल एवं विद्यालय मात्र मनुष्यों के लिये इसलिये ही बनाते हैं क्योंकि उनका विचार है कि मनुष्य ही प्रेम का उपयुक्त अधिकारी है? वास्तव में चेतनता प्राप्त प्रत्येक प्राणीमात्र ही जीव है। जब कोई भगवान् के तत्त्व को भली-भाँति समझ लेता है तो वह सरलता से यह अनुभव कर सकता है कि समस्त प्राणी भगवान् के अंश हैं। तब वह मात्र मनुष्यों से ही नहीं अपितु स्वाभाविक रूप से समस्त प्राणियों से प्रेम करता है।”

श्रील यायावर गोस्वामी महाराज के कथा परिवेशन के उपरान्त एक सज्जन व्यक्ति खड़ा हुआ एवं कहने लगा, “विवेकानन्द आप साधुओं से भिन्न था। वह सभी लोगों के मङ्गल के उद्देश्य से अस्पताल एवं विद्यालय निर्माण कार्य तथा अन्य प्रकार के दान-पुण्य आदि कार्यों में व्यापक स्तर पर सम्मिलित था। किन्तु हम गौड़ीय मठ के साधुओं को इस प्रकार के धर्मार्थ कार्य करते हुए कभी नहीं देखते।”

“जब कोई भगवान् के तत्त्व को भली-भाँति समझ लेता है तो वह सरलता से यह अनुभव कर सकता है कि समस्त प्राणी भगवान् के अंश हैं।”

श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने तब सभापति के पद पर आसीन विश्वविद्यालय के प्राध्यापक श्रीनारायण गोस्वामी को इन सज्जन व्यक्ति की टिप्पणी का उत्तर प्रदान करने हेतु उन्हें थोड़ा और समय देने के लिये कहा। तथापि श्रीनारायण गोस्वामी ने कहा, “दोनों पक्षों के लिये तटस्थ होने के कारण मेरे द्वारा इनके व्याख्यान पर आलोचना करने से अच्छा होगा।” उस सज्जन व्यक्ति को सम्बोधित करते हुए श्रीनारायण गोस्वामी ने कहा, “विवेकानन्द द्वारा प्रचारित वाक्य में आप जीव शब्द किसके लिये प्रयुक्त करते हो? बङ्गालियों के लिये जीव शब्द का एक अर्थ जिह्वा भी होता है तो क्या जिह्वा के स्वादानुसार इसको सब कुछ देकर इसकी सेवा करके आप भगवान् की सेवा कर रहे हो? मात्र मनुष्य ही नहीं अपितु समस्त प्राणी ही जीव हैं। तो फिर विवेकानन्द के अनुगतजन यदि समस्त जीवों से प्रेम करते हैं तो अण्डे, मौस, मछली इत्यादि का सेवन क्यों करते हैं?

“यदि विवेकानन्द के अनुगतजनों के लिये जीव शब्द का अर्थ मात्र मनुष्य है तो फिर बन्दीगृहों की क्या आवश्यकता है? क्या हमें सभी बन्दीगृहों को बन्द करके समस्त कैदियों को उनकी इच्छानुरूप उन्हें मद्यपान, नशीले पदार्थ इत्यादि उपलब्ध करवाकर उनकी सेवा नहीं करनी चाहिये? क्या यह वास्तविक जीव सेवा है? क्या यह भगवान् की सेवा के समान होगी? मैं आशा करता है कि विवेकानन्द का विचार अपनी इन्द्रियों के वशीभूत अथवा अन्य प्राणियों को दुःख देने की अपनी दृष्कामनाओं पर नियन्त्रण नहीं रखने वाले व्यक्तियों की सेवा करने का नहीं होगा। बहुत समय पूर्व जब विवेकानन्द का जन्म भी नहीं हुआ था तब श्रीचैतन्य महाप्रभु ने शारवों का सम्पूर्ण सार प्रदान किया, “जीवे दया, कृष्ण-नाम, सर्व-धर्म-सार अर्थात् जीवों के प्रति दया एवं कृष्ण-नाम करना ही समस्त शास्त्रों का सार है।”

जिस व्यक्ति ने श्रील यायावर गोस्वामी महाराज की कथा पर विरोध प्रकट किया था जब उसने श्रीनारायण गोस्वामी की व्याख्या को श्रवण किया तो उसने क्षमा प्रार्थना की तथा यह स्वीकार किया कि वह शास्त्रों के गूढ़ अर्थ को नहीं समझ पाया था तथा ठीक से समझे बिना ही विवेकानन्द द्वारा प्रचारित शास्त्र विरुद्ध विचार के प्रति आकर्षित हो गया था।

उनका रन्धन एवं जगन्नाथ प्रसाद के प्रति प्रेम
यदि श्रील महाराज को यह ज्ञात होता कि कोई भक्त जगन्नाथ पुरी से आया है तो वह उनसे पूछते कि क्या वह अपने साथ कुछ प्रसाद लाया है तथा प्रसाद कही है? उन्हें विशेष रूप से जगन्नाथ के चावल एवं दो दिन तक भी ठीक रहने वाला राहिनि-दाल प्रसाद अति प्रिय था। जब भी हमारा जगन्नाथ पुरी जाना होता तो उनके जगन्नाथ प्रसाद के प्रति प्रेम को जानकर उनकी सेवा के उद्देश्य से हम उनके लिये प्रसाद अवश्य ले आते थे।

श्रील महाराज रन्धन सेवा में भी अत्यन्त निपुण थे। जब उनके पास रन्धन के लिये कोई सामाग्री नहीं होती तो भी वह कुछ-न-कुछ ढूँढ़कर तथा जो कुछ भी उपलब्ध होता उसी से रसोई कर देते। एक समय जब उनके पास चटनी बनाने हेतु उचित सामग्री नहीं थी तब उन्होंने एक पत्तों से युक्त वृक्ष को देखकर पूछा, “यह कौन सा वृक्ष है?” जब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह इमली का वृक्ष है तो उन्होंने उसी के पत्तों से चटनी बना दी।

सभी को भगवत्-सेवा में नियुक्त करना
ओल यायावर गोस्वामी महाराज सभी को उनकी योग्यता एवं गुणों के आधार पर सेवा में नियोजित करते थे। जब भी कोई संन्यासी अथवा ब्रह्मचारी मठ में आला तो वे उसे हरि-कथा के परिवेशन हेतु कहते, जिसमें में भी सम्मिलित था। श्रील महारान हमसे अत्यधिक ज्येष्ठ थे इस कारण हमें उनके समक्ष कया कहने में सोच होता था। हमारे सङ्कोच को लक्ष्यकर वह कहते. चिन्ता मत करो। में यहाँ पर उपस्थित नहीं रहूँगा। ऐसा कहकर वह ऊपर अपने कक्ष में चले जाते। बाद में वह हमें कहते कि उन्होंने हमारे द्वारा परिवेशिल सम्पूर्ण कथा का श्रवण किया। उनका यह दृढ विश्वास था कि जिस किसी से भी भेंट हो उन्हें शीघ्र ही भगवत् सेवा में नियोजित कर देना चाहिये।

मुझे आशीर्वाद एवं उत्साह प्रदान करना
एक समय श्रील यायावर गोस्वामी महाराज ने मेरे विषय में एक धर्मसभा में कहा, “यह भक्त किसी के भी प्रति ईष्यां, द्वेष अथवा शत्रुता का भाव नहीं रखता है। यह निर्मत्सर साधु है।”

यद्यपि वास्तविकता में मुझमें इस प्रकार के गुण नहीं हैं तथापि उन्होंने ऐसा कहकर मुझे एक दिन ऐसा बनने हेतु आशीर्वाद प्रदान किया है। गुरु महाराज की कृपा से मुझे श्रील याचावर गोस्वामी महाराज की सेवा का सुयोग प्राप्त हुआ। सेवा के माध्यम से मुझे उनका सङ्ग, उनके आचरण का समोप से दर्शन तथा उनका स्नेहमय आशीर्वाद प्राप्त हुआ।

यायावर महाराज का नित्यलीला में प्रवेश

श्रीमद्भक्तिप्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज द्वारा सम्पादित

श्रील प्रभुपाद के स्नेहपात्र
यह हमारे मर्मान्तक दुःख का विषय है कि श्रील नरोत्तम दास ठाकुर महाशय की तिरोभाव-तिथि पूजा के दिन अस्मदीय परमाराध्यतम श्रीश्रीगुरुपादपद्म के परम प्रियतम स्नेहपात्र हमारे सतीर्थवर परम पूज्यपाद त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज इस संसार को त्यागकर नित्य लीला में प्रविष्ट हो गये हैं। श्रील प्रभुपाद के अन्तिम संन्यासी शिष्य श्रील महाराज, सन्ध्या में प्रायः छः बजे मेदिनीपुर स्थित श्रीश्यामानन्द गौड़ीय मठ में अपने आश्रित मठवासी भक्तों के द्वारा उच्च स्वर में किये जा रहे महासङ्कीर्तन के मध्य चेतनायुक्त अवस्था में श्रीश्रीगुरुगौरांग गान्धर्विका गिरिधारी” के श्रीचरणों का स्मरण करते-करते नित्यलीला में प्रवेश कर गये।

श्रीगुरुपादपव्य की कृपा-प्राप्ति
पूज्यपाद महाराज ने स्वयं सम्पादित ‘श्रीश्रीभागवत गीतामृत’ ग्रन्थ में ‘श्रीगुरुकृपालाभ’ नामक गीतामृतमें लिखा है-

“सद्गुरु सम्बन्ध आर भागवतगाया।
पुरीधामे गिया आमि पाइनु सर्वथा ॥
जगन्नाच दीनबन्धु पतितपावन।
आमा’ आकर्षिया दिला सगुरु चरण॥
आमा बिना गति नाइ जानिनु जखन।
सगुरु अन्वेषणे छुटिनु तखन ॥
जगन्नाथ धामे मोर श्रीगुरुचरण।
तेरश’ तेतिश साले पाइनु दरशन ॥
ॐ श्रीभक्तिसिद्धान्त सरस्वती विष्णुपाद।
तिनिइ आमार गुरु श्रील प्रभुपाद ॥

[पुरीधाम में जाने पर मुझे सब कुछ अर्थात् एक सद्गुरु के साथ सम्बन्ध एवं भगवद्-कथा श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। श्रीजगन्नाथ दीनों के बन्धु एवं पतितपावन हैं। मुझ को आकर्षित कर उन्होंने मुझे सद्गुरु के श्रीचरणों की सेवा प्रदान की। जब मुझे यह अनुभव हुआ कि सद्गुरु के बिना सद्गति सम्भव नहीं है, तब में सद्गुरु को ढूँढ़ने में रत हुआ था। वर्ष १३३३ बङ्गाब्द अर्थात् १९२६ ई में सर्वप्रथम मुझे अपने गुरुदेव ॐ विष्णुपाद श्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती प्रभुपाद के श्रीचरणों का साक्षात्कार हुआ।]

उनके द्वारा रचित उक्त कविता से हम जान सकते हैं कि वह सद्गुरु के चरणों का अन्वेषण करते-करते श्रीजगन्नाथ क्षेत्र में आकर साक्षात् जगदीश्वर श्रीजगन्नाथदेव के श्रीचरणों में शरणागत हुए थे। शरणागत-वत्सल परमकरुणामय श्रीजगन्नाथदेव ने ही उन्हें सगुरु का सन्धान प्रदानकर अपने अभिन्न प्रकाश-विग्रह परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों के सान्निध्य में पहुँचाने की व्यवस्था कर दी-

“गुरु कृष्णरूप हन शास्त्रेर प्रमाणे।
गुरुरूपे कृष्ण कृपा करेन भक्तगणे॥
चैच (आदि-लीला १.४५)

[शास्त्र के प्रमाणानुसार श्रीगुरु कृष्ण का ही स्वरूप हैं तथा कृष्ण श्रीगुरु के रूप में भक्तों पर कृपा करते हैं।]

आविर्भाव एवं बाल्यकाल
श्रओल महाराज मेदिनीपुर जिले के अन्तर्गत कौथि उपमण्डल के दुरमुठ नामक ग्राम में एक स्वधर्मनिष्ठ ‘पाण्डा’ उपाधिविशिष्ट ब्राह्मण-परिवार में आविर्भूत हुये थे। भगवद्भक्त माता-पिता शिशुकाल से ही पुत्ररत्न के स्वभावसिद्ध भगवद्-अनुराग का दर्शन करके अत्यन्त विस्मित होते थे तथा भगवान् के श्रीचरणों में सर्वदा उनके भक्तिमय दीर्घ जीवन की प्रार्थना करते थे।

यथासमय उन्होंने विद्या अभ्यास आरम्भकिया। बालक की असामान्य प्रतिभा को देखकर शिक्षक और अभिभावक सभी मुग्ध हो जाते थे। कुछ वर्षों तक इसी प्रकार विद्यानुशीलन करते-करते बालक की स्वतःसिद्ध भगवद्-भजन की स्पृहा अत्यन्त प्रबल हो उठी। मानो भगवद्-प्रेरित होकर ही उन्होंने श्रीपुरुषोत्तम धाम में उपस्थित होकर वहाँ श्रीपुरुषोत्तम जगन्नाथदेव की अपार कृपा से उनके निजजन एक सद्गुरु के श्रीचरणों के आश्रय का सौभाग्य प्राप्त किया। श्रीहरि वाञ्छाकल्पतरु हैं तथा अपने भक्त की आन्तरिक इच्छा को कदापि अपूर्ण नहीं रखते, अपितु शीघ्रातिशीघ्र ही उसे पूर्ण कर देते हैं।

एक सुदृढ़ साधक का आदर्शमय चरित्र
१९२६ ई० में श्रीधाम मायापुर में परममङ्गलमय श्रीश्रीगौराविर्भाव तिथि के शुभदिन श्रीगुरुदेव से श्रीहरिनाम महामन्त्र और इष्टमन्त्र दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् श्रील महाराज श्रीसर्वेश्वर ब्रह्मचारी के नाम से परिचित हुए। श्रील महाराज दीक्षा प्राप्ति के पश्चात् श्रील प्रभुपाद के निर्देशानुसार श्रीधाम मायापुर में स्थित आकर मठराज श्रीचैतन्य मठ के मूल-मन्दिर में श्रीश्रीगुरु-गौराङ्ग-गान्धर्विका-गिरिधारी की त्रिसन्ध्या अर्चनादि सेवा को विशेष निष्ठा के साथ सम्पादन करने में नियुक्त हुये। साथ ही वे उक्त मठ में स्थित पराविद्या पीठ में श्रीहरिनामामृत व्याकरण आदि शास्त्रों का भी विशेष रुचि के साथ अध्ययन करने लगे। निद्रा आलस्य, प्रजल्प आदि में वृचा समय नष्ट नहीं करके श्रीगुरु के द्वारा प्रदत्त भजन-क्रिया के अनुष्ठान में, श्रीहरि गुरु-वैष्णव सेवा और श्रीगीता-भागवतादि भक्तिशास्त्रों के अनुशीलन में अपना समस्त समय व्यतीत करते हुए उन्होंने नैष्ठिक ब्रह्मचर्य का महत्-आदर्श प्रदर्शित किया है।

वह परम निर्मल पवित्र चरित्र, शान्त-सौम्य मधुर मूर्ति थे एवं सबके साथ ही उनका सरलतापूर्ण सुकोमल व्यवहार था। मठवासी वैष्णव एवं आगन्तुक भगवद्-कथा श्रवण के इच्छुक सज्जन उनके श्रीमुख से सरल भाषा में सम्बन्ध-अभिधेय-प्रयोजन तत्त्व के विषय में सद्-शास्त्र सिद्धान्त श्रवणकर बहुत आकृष्ट होते थे। वह अति सुकण्ठ से युक्त थे। उनके मधुमिश्रित कण्ठ से मधुमयी महाजन-गीति को श्रवण करके श्रोता अत्यन्त मुग्ध और आकृष्ट-चित्त हो जाते थे।

अनन्त वैष्णव गुणों से मण्डित
शास्त्र कहते हैं- ‘कृष्णभक्ते कृष्णेर गुण सकलि सञ्चरे कृष्ण अपने भक्त में अपने समस्त गुणों का सञ्यार करते हैं’। वस्तुतः श्रील महाराज वैष्णवोचित अशेष गुणोंसे अलंकृत थे। शास्त्रों के सुकठिन दार्शनिक तत्त्वों की वह इस प्रकार सुन्दर, सरल भाषा में व्याख्या करते थे कि उनके श्रीमुख से अपूर्व भाषण अथवा गीता-भागवतादि शास्त्र ग्रन्थों का पाठ और व्याख्या श्रवण करके पण्डित अपण्डित सभी श्रोता अत्यन्त मुग्ध हो जाते थे तथा पुनः-पुनः श्रवण करने की आकाङ्गा प्रकाशित करते थे। दक्षिण कोलकाता में स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में निमन्त्रित विद्वत्जन-मण्डित महती सभा में हमने देखा है कि पूज्यपाद यायावर महाराज की वक्तृता सभापति, प्रधान-अतिथि और सारग्राही श्रोतावृन्द सभी का चित्त विशेष रूप से आकर्षित करती थी।

उनके द्वारा रचित ग्रन्थ विशेष रूप से अनुशीलन-योग्य
श्रील महाराज ने अपनी अस्वस्थ-लीला प्रकाश के समय में भी अपने सुपण्डित शिष्यों की सहायता से कुछ ग्रन्थों का प्रकाशन किया। उनके द्वारा सम्पादित ग्रन्थों में ‘श्रीश्रीभागवत गीतामृत’ नामक ग्रन्थ अन्यतम है, जिसकी प्रथम एवं द्वितीय धारा में उनकी स्वरचित गीति प्रकाशित हुयी है। उसमें गीता एवं चतुःश्लोकीय भागवत की कविता के रूप में व्याख्या सभी के लिये ही अनुशीलन योग्य है।

महादुर्दिन, महादुर्दैव
आज वास्तव में ही उनके समान एक अति शून्यता का अनुभव हो रहा है। गौडीय परमभक्त सुहत्वर के अभाव में हृदय में वैष्णवजगत् क्रमशः भक्तिरसपात्र भक्त-भागवतों शुद्धभक्ति-सिद्धान्तवाणी के सारग्राही वक्ताओं से शून्य हो रहा है। श्रीमन्महाप्रभु की जगत् के लिये महाक्षति, महादुर्दिन, महादुर्दैव और श्रोताओं की संख्या का कम होना है। इस हानि की पूर्ति मानो असम्भव है, इस दुर्दिन का अन्त एवं सुदिन का समागम बहुत दूर प्रतीत होता है।

क्षति की पूर्ति नितान्त असम्भव
निजजनों को आकर्षित करके उन्हें नित्यलीला कृष्ण कृपापूर्वक अपने जिन समस्त में प्रविष्ट करा रहे हैं, पुनः कृष्ण के ही द्वारा कृपा करके उन्हें यथासमय इस मर्त्यधाम में प्रेरित नहीं करने पर माया द्वारा आबद्ध जगत् के जीवों के ये दुर्दिन अन्य किसी प्रकार से भी समाप्त नहीं होंगे। ठाकुर हरिदास के अप्रकट लीला प्रकाश विह्वल होकर कहा था-करनेपर श्रीमन्महाप्रभु ने उनके विरह में

‘कृपा करि कृष्ण मोरे दियाछिल संगा।
स्वतन्त्र कृष्णेर इच्छा हेल संग भंग॥
चे० च० (अन्त्य-लीला ११.९४)

[श्रीकृष्ण ने अतिकृपापूर्वक मुझे (श्रील हरिदास ठाकुर का) सङ्ग प्रदान किया था। आज श्रीकृष्ण की स्वतन्त्र इच्छा से ही मेरा सङ्ग भङ्ग हो गया।]

हरिदास आछिलो पृथ्वीर रत्न-शिरोमणि।
ताहा बिना रत्न-शून्या हइल मेदिनी ॥’
चै० च० (अन्त्य-लीला ११.९७)

[श्रील हरिदास पृथ्वी पर विराजित सर्वोत्तम रत्न-स्वरूप थे, हरिदास के बिना यह पृथ्वी रत्न से शून्य हो गयी है।]

वास्तव में ही नित्यलीलाप्रविष्ट त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज, नित्यलीलाप्रविष्ट त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिहृदय वन महाराज, नित्यलीलाप्रविष्ट श्रीमद् कृष्णदास बाबाजी महाराज एवं नित्यलीलाप्रविष्ट त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिविचार यायावर महाराज आदि वैष्णव समस्त विश्व के उद्धारक हैं तथा उनके अभाव की पूर्ति सर्वथा असम्भव है। उनकी तुलना केवलमात्र उनसे ही हो सकती है।

मुझसे कोटि गुणा अधिक श्रेष्ठ
श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के प्रतिष्ठाता नित्यलीलाप्रविष्ट पूज्यपाद त्रिदण्डिगोस्वामी श्रीमद्भक्तिदयित माधव महाराज एवं पूज्यपाद यायावर गोस्वामी महाराज परस्पर घनिष्ठ मित्र थे। पूज्यपाद माधव महाराज के समस्त मठों में आयोजित होने वाले सभी विशिष्ट उत्सवों में श्रील यायावर गोस्वामी महाराज उपस्थित होते थे तथा कृपापूर्वक अपने गुरुभ्राताओं एवं उनके शिष्यों को अपने संग से आनन्द प्रदान करते थे। विशेषकर हमारे कोलकाता स्थित मठ में वे उत्सवों के अतिरिक्त भी आवागमन करते थे तथा हमें अपने दिव्य सङ्ग का सौभाग्य प्रदान करते थे। आज उनके अन्तरहृदय के निष्कपट स्नेहयुक्त समस्त वचनों का स्मरणकर हृदय अत्यन्त व्याकुल, अधीर हो रहा है। हम श्रील महाराज को परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के ‘कनिष्ठ पुत्र’ के रूप में मनन करते थे, जिनको श्रील प्रभुपाद विशिष्ट आदर एवं हार्दिक स्नेह प्रदान करते थे। अप्रकट के समय श्रील महाराज की आयु प्रायः ७८ वर्ष थी। यद्यपि आयु में वे मुझसे कुछ कनिष्ठ थे परन्तु ज्ञान, गुणों एवं साधन-भजन में वे मुझसे कोटि गुणा अधिक वरिष्ठ थे।

उनके श्रीचरणों में सकातर प्रार्थना
हाय! श्रील महाराज इतना शीघ्र ही हमें चिरकाल के लिये दुःख के सागर में निमज्जित कर चले जायेंगे, यह दुर्भाग्यवश हम कभी कल्पना भी नहीं कर पाये। में इसी कारण उनके अन्तिम दर्शनों से भी वञ्चित हो गया।

समस्त गुरुभ्राताओं के प्रति निश्चित ही उनकी समान दृष्टि थी परन्तु मुझ समान दीन-दरिद्र दुर्भाग्ययुक्त अधम जीव के प्रति उनकी स्नेहमयी दृष्टि मानो कुछ अधिक परिमाण में थी। अदोषदर्शी वैष्णव शिरोमणि श्रील महाराज हमारी जानबूझकर अथवा अज्ञानतावश की गयी समस्त त्रुटि विच्युतियों का संशोधन कर हम पर अपनी अलौकिक कृपा वर्षण करें, यही उनके श्रीचरणों में हमारी सकातर प्रार्थना है।

श्रील महाराज परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के निजजन हैं, श्रील प्रभुपाद ने निश्चय ही उनको श्रीराधागोविन्द की नित्यलीला में प्रवेशाधिकार प्रदान किया है। श्रील महाराज से प्रार्थना है कि वे इस अधम के लिये भी करुणामय श्रील प्रभुपाद के श्रीचरणों में उनकी करुण कृपा कटाक्ष प्रदान करने के लिये प्रार्थना कर दें।

उनके जीवन का लक्ष्य एवं उसके लिये यत्न
परमाराध्य श्रील प्रभुपाद के अप्रकट के पश्चात् उनके शिष्य हम गुरुभ्राताओं में परस्पर मतभेद उत्पन्न हो गये तथा एकजुट रहने का भाव क्षीण होने के कारण अनेक गुटों का निर्माण हो गया। परन्तु श्रील महाराज ने अपने सम्पूर्ण जीवन भर श्रील प्रभुपाद का मनोऽभीष्ट पूर्ण करने के लिये सतत प्रयास किया। श्रील प्रभुपाद का निर्देश था, “आप अभी अद्वय-ज्ञान तत्त्व की अप्राकृत इन्द्रियतृप्ति के उद्देश्य से आश्रय-विग्रह के आनुगत्य में परस्पर मिलजुलकर रहना।” इस वाणी का अनुसरण किस प्रकार से सम्भवपर हो सकता है, श्रील महाराज उसके विषय में सतत चिन्तायुक्त एवं चेष्टापरायण रहते थे।

शुद्ध राग-भक्ति के प्रति उनकी सुदृढ़ निष्ठा
श्रील महाराज की नामभजन के प्रति निष्ठा नितान्त आदर्श-स्वरूप थी। अत्यन्त अस्वस्थ-लीला-अभिनय के समय भी उन्होंने प्रतिदिन एक लाख हरिनाम ग्रहण करने का आदर्श स्थापित किया। परमाराध्य श्रील भक्तिविनोद ठाकुर एवं श्रील प्रभुपाद दोनों महाजनों ने ही नाम में रुचि के आधार पर ही वैष्णवता का तारतम्य निर्धारित करने का निर्देश दिया है। उन दोनों ने ही नाम-भजन-निष्ठा रहित रागानुगा भक्ति के अभिनय को कदापि राग-भक्ति के रूप में स्वीकार नहीं किया।

भजन में उत्साह प्रदान करने के लिये प्रार्थना
श्रील महाराज के अभाव में उनके द्वारा स्थापित मठ-मन्दिर मानो निष्प्राण हो गये हैं। हम भी उनके समान एक वैष्णव-सुहत् के अभाव में मृतप्राय ही हो गये हैं। उनके श्रीचरणों में यही एकान्त प्रार्थना है कि अदृष्ट रहते हुये भी वे अपने आश्रित जनगण में शक्ति का सञ्चार कर उन्हें पुनर्जीवित करें तथा हमको भी अपना कृपा-कटाक्ष प्रदानकर भजन के प्रति उत्साह प्रदान करें। पूज्यपाद माधव गोस्वामी महाराज जो उनके परम सुहत् गुरुभ्राता हैं, उनके चरणाश्रित उनके समस्त शिष्यवर्ग, उनके मठ के वर्तमान अध्यक्ष आचार्य ये सभी ही पूज्यपाद यायावर गोस्वामी महाराज के स्नेहपात्र हैं। वे सभी उनके विरह में कातर होकर उनकी कृपा की प्रार्थना कर रहे हैं। उन सभी के प्रति वे अपने नित्यधाम से ही स्नेहाशीर्वाद वर्षण करें, यही सभी द्वारा सकातर प्रार्थना है।

श्रीचैतन्यवाणी (वर्ष २४, संख्या १०) में प्रकाशित एक लेख से अनुवादित
मेरे परमस्नेही प्रभुवर