दास श्रीरघुनाथस्य पूर्वाख्या रसमञ्जरी।
अमुं केचित् प्रभाषन्ते श्रीमतीं रतिमञ्जरीम्।
भानुमत्याख्या केचिदाहुस्तं नामभेदतः॥
(गौ. ग. दी. 186)
कृष्णा लीला में जो रस मंजरी, मतान्तर में रति मंजरी अथवा भानुमती1 हैं, श्रीगौर लीला में वे ही श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी के रूप में प्रकट हुई हैं।
अनुमानतः शक सम्वत् 1416 में हुगली ज़िले के अन्तर्गत सप्तग्राम (रेलवे स्टेशन आदि सप्तग्राम) से कुछ दूर, दक्षिण दिशा में, प्राचीन सरस्वती नदी के पूर्वी किनारे पर, श्रीकृष्णपुर ग्राम में, श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी का आविर्भाव हुआ। सप्तग्राम से श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी की प्रकट स्थली एक मील से कुछ अधिक है तथा ये त्रिश बीघा रेलवे स्टेशन से लगभग डेढ मील दूर है। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी के पिता थे—श्रीगोवर्धन मजूमदार। माता का परिचय ज्ञात नहीं हो पाया। श्रीगोवर्धन मजूमदार के बड़े भाई श्रीहिरण्य मजूमदार पुत्रहीन थे। श्रीहिरण्य मजूमदार और श्रीगोवर्धन मजूमदार सप्तग्राम के एक बहुत बड़े ज़मींदार थे। उस समय सप्तग्राम की सीमा यशोहर भैरव नदी से लेकर लगभग रूप नारायण नदी तक फैली हुई थी। सप्तग्राम के कृष्णपुर में श्रील रघुनाथदास गोस्वामी का, शँखनगर में श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी के कुल के चाचा श्रीमन्महाप्रभु के भक्त कालिदास जी का, चाँदपुर में श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी के कुल पुरोहित श्रीबलराम आचार्य का और कुल-गुरु श्रीयदुनन्दन आचार्यजी का निवास था। श्रीयदुनन्दन आचार्य श्रीअद्वैताचार्य प्रभु के ‘अन्तरंग’ शिष्य थे। श्रीचैतन्य महाप्रभु जी इन्हें अपने प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते थे। श्रीवासुदेव दत्त ठाकुर जी के भी ये विशेष कृपापात्र थे। नामाचार्य श्रील हरिदास ठाकुर जी बलराम आचार्य जी के घर में ठहरते थे। श्रील हरिदास ठाकुर जी जब वेनापोल जंगल में, रामचन्द्र खां द्वारा प्रेरित वेश्या का उद्धार करके व वेनापोल को छोड़कर, चान्दपुर में श्रीबलराम आचार्य के घर में ठहरे थे, उसी समय श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को, श्रीहरिदास ठाकुर जी के दर्शन करने का सुयोग हुआ था। ये बात अलग है कि उस समय रघुनाथ दास जी छोटे बालक थे। महाभागवत् हरिदास ठाकुर जी के ये दर्शन और कृपा ही श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी के पास फलीभूत हुई और हरिदास ठाकुर जी के उस दर्शन और कृपा ने ही रघुनाथ दास जी को श्रीमन्महाप्रभु जी का सान्निध्य करवाया—
रघुनाथ दास बालक करेन अध्ययन।
हरिदास-ठाकुरेरे जाइ’ करेन दर्शन॥
हरिदास कृपा करेन ताँहार उपरे।
सेइ कृपा ‘कारण’ हैल चैतन्य पाइबारे॥
(चै.च.अ. 3/168-169)
अर्थात् श्रीरघुनाथ दास जी बचपन में जब पढ़ते थे तब ही उन्होंने हरिदास ठाकुर जी के दर्शन किये थे और श्रीहरिदास जी ने भी उन पर कृपा की थी। उसी कृपा के प्रभाव से उनको श्रीचैतन्य महाप्रभुजी की प्राप्ति हुई थी।
शौक्र कायस्थ कुल में जन्मे श्रीहिरण्य और गोवर्धन मजूमदार की वार्षिक आय तब भी आठ लाख मुद्रा हुआ करती थी। ऐसा सुना जाता है कि उन दिनों एक मुद्रा अथवा एक रुपये से आठ मन चावल मिल जाते थे। अत: उस समय के एक रुपये का मूल्य वर्तमान मूल्य से कई गुणा अधिक था। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी उस विपुल सम्पत्ति के एक मात्र अधिकारी होने पर भी, बचपन से ही विषयों से उदासीन और विरक्त थे। जिस समय श्रीमन्ममहाप्रभु जी संन्यास लेकर शान्तिपुर में आए थे, उस समय श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को उनके दर्शनों का लाभ प्राप्त करने का पहला अवसर मिला था। श्रीमन्महाप्रभु जी के दर्शन करके, उनके चरण कमलों में पड़ने के साथ-साथ ही श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी भाव विभोर हो गए थे। श्रीरघुनाथदास जी के पिता श्रीगोवर्धन मजूमदार, श्रीअद्वैताचार्य प्रभु जी की सदा श्रद्धा-भक्ति के साथ सेवा करते थे। रघुनाथ जी के पिता श्रीगोवर्धन मजूमदार के सम्बन्ध से श्रीअद्वैताचार्य प्रभु का श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी के प्रति बहुत प्यार था। जितने दिन श्रीरघुनाथ दास जी शान्तिपुर में रहे, उनको वे (श्रीअद्वैताचार्य) श्रीमन्महाप्रभु का बचा हुआ प्रसाद देते थे। श्रीमन्महाप्रभु की शान्तिपुर से नीलाचल की ओर यात्रा करने पर रघुनाथ दास गोस्वामी जी स्थिर न रह पाये और महाप्रभु जी के विरह में प्रेमोन्मत्त हो कर ज़ोर-ज़ोर से रोने लगे थे।
श्रीरघुनाथ दास जी की प्रेमोन्मत्त अवस्था देख कर, उन के पिता ने ग्यारह प्रहरियों2 की मदद से उन्हें कड़े पहरे में रखा। फिर भी श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी श्रीमन्महाप्रभु के दर्शनों के लिए जैसे-तैसे बार बार घर से भाग जाते थे और उन के पिता प्रहरी भेज कर बार बार पकड़कर लिवा लाते थे। महाप्रभु जी के दर्शनों से वन्चित रहने के कारण, वे सदा दु:खी रहते थे। पुत्र की ऐसी अवस्था देखकर पिता-माता के मन में शान्ति न थी। श्रीमन्महाप्रभु जी वृन्दावन यात्रा के समय, कानाई की नाटशाला से वापिस लौटते हुए दोबारा शान्तिपुर आए हैं, यह जान कर श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी ने उनके पास जाने के लिए पिता से आज्ञा माँगी। पुत्र को व्याकुल देखकर, पिता ने चिन्तित होकर कई लोगों और पदार्थों के साथ, पुत्र को महाप्रभु जी के पास भेज दिया परन्तु शीघ्र वापिस आ जाने के लिए कहा।
श्रीरघुनाथ दास जी ने शान्तिपुर में महाप्रभु जी का दर्शन करके मानो दोबारा प्राण प्राप्त किए हों। उनसे अपने दु:खों की बात निवेदित की और किस प्रकार उनकी संसार के बन्धनों से मुक्ति होगी, उस के लिए भी जिज्ञासा की। सर्वान्तर्यामी गौरांग महाप्रभु जी ने उन के दिल में छिपे भाव जान लिए, लेकिन उनको शिक्षा देने के उद्देश्य से आश्वासन देते हुए बोले—
स्थिर हञा घरे जाओ’ ना हओ वातुल।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकूल॥
मर्कट-वैराग्य ना कर लोक देखाञा।
यथायोग्य विषय भुञ्ज अनासक्त हञा॥
अन्तरे निष्ठा कर, बाह्ये लोक-व्यवहार।
अचिरात् कृष्ण तोमाय करिबे उद्धार॥
(चै.च.म. 16/237-239)
अर्थात् रघुनाथ जी को समझाते हुए श्रीचैतन्य महाप्रभुजी कहते हैं कि आप स्थिर होकर घर जाओ और पागल मत बनो। लोग धीरे-धीरे ही संसार सागर का किनारा प्राप्त करते है। दुनियाँ को दिखाने के लिए बन्दर जैसा वैराग्य मत करो, अनासक्त होकर यथायोग्य विषयों को ग्रहण करो। हृदय में निष्ठा रखो और बाहर से लोकोचित व्यवहार करो—ऐसा करने से जल्दी ही श्रीकृष्ण तुम्हारा उद्धार कर देंगे। श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी ने श्रीमन्महाप्रभु के उपदेश के तात्पर्य में मर्कट वैराग्य के सम्बन्ध में इस प्रकार लिखा है—
बाहरी तौर पर भोगबुध्दि वाला बन्दर,जिस प्रकार घर व वस्र आदि रहित होने से वैराग्ययुक्त व्यक्ति की तरह लगता है परन्तु वास्तव में वह इन्द्रिय तर्पण से निवृत नहीं हुआ होता, उसी प्रकार की दिखावटी वैराग्य को ही मर्कट वैराग्य कहते हैं। जो वैराग्य शुध्द भक्ति से उत्पन्न न होकर, कृष्णेतर वस्तुओं के प्रति कामना और वासना में बाधा पड़ने पर पैदा हुआ हो, जो शुध्द-भक्ति के अनुकूल रुप से जीवन भर स्थायी न होकर क्षणिक और निरर्थक हो, वो श्मशान वैराग्य या मर्कट वैराग्य है। कृष्ण-सेवा करत हुये अत्यावश्यक विषयों को स्वीकार करके,उन विषयों में आसक्ति रहित भाव से वास करने पर मनुष्य कर्मों के फल के अधीन नहीं होता।
यावता स्यात् स्वनिर्वाहः स्वीकुर्यात्तावदर्थवित्।
आधिक्ये न्यूनतायांच च्यवते परमार्थत:3॥
(भ. र. सि पूर्व विभाग नारदीय वचन 1/2/108)
श्रीभक्ति रासामृत सिन्धु में फल्गुवैराग्य और युक्त वैराग्य किस को कहते हैं, वह बहुत ही स्पष्ट रूप मे लिखा है, जैसे—
प्रापंचिकतया बुध्दया हरि सम्बधि-वस्तुन:।
मुमुक्षुथि परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते॥
अर्थात-हरि सेवाय याहा अनुकूल।
विषय वलिया त्यागे हय भूल॥
अनासक्ततस्य विषयान् यथार्हमुपयुंजत:।
निर्बन्ध: कृष्ण सम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते॥
अर्थात—आसक्ति रहित सम्बन्ध सहित।
विषय समूह सकलि माधव॥
अर्थात भगवान की सेवा के लिए जो-जो भी अनुकूल है, यदि हम विषय समझकर उसे छोड़ेंगे तो यह हमारी भूल होगी। इसके अलावा संसार की आसक्ति से रहित तथा भगवान के साथ सम्बन्ध युक्त होकर देखेंगे तो मालूम पड़ेगा कि सभी विषयों के मालिक तो भगवान माधव ही है।
श्रीमन्महाप्रभु जी के उपदेशों के अनुसार रघुनाथ दास गोस्वामी जी घर वापिस आ गये और घर आकर बाहरी वैराग्य की सनक छोड़कर तथा अनासक्त हो कर विषय-कार्यों में लग गए। रघुनाथ दास गोस्वामी जी के वैराग्य के चिन्हों में शिथिलता देखकर व उनकी संसार के प्रति अनुकूल भावना को देखकर उनके माता-पिता के मन मे बड़ा सुख हुआ। घर के कार्यों आदि में पूरी तरह से लगा देख उनके माता-पिता ने रघुनाथ दास जी के लिए पहरेदार रखने की ज़रूरत नहीं समझी।
इस समय राजा और ज़मींदार के बीच एक बिचौलिया होता था , जो प्रजा से कर वसूल करके, उस का एक चौथाई हिस्सा अपने पास रखकर बाकी ज़मींदार के खज़ाने में जमा करवा देता था। उस ज़माने में उसे चौधरी कहा जाता था।4 श्रीहिरण्य मजूमदार ने बिचौलिया मुसलमान चौधरी को हटा कर सप्तग्राम के मुकुलपति से सीधा सम्बन्ध स्थापित करके कर लेन-देन की स्थायी व्यवस्था कर दी थी। हिरण्य मजूमदार ने बीस लाख वसूल कर के, राजा को उसका एक चौधाई हिस्सा अर्थात पाँच लाख छोड़कर, पन्द्रह लाख जमा करवाने थे परन्तु हिरण्य मजूमदार ने सिर्फ बारह लाख ही दिये जिससे वह मुसलमान चौधरी अपने को मिलने वाले हिस्से से वन्चित हो गया। अपने हिस्से से मिलने वाले धन से वन्चित होने से वह चौधरी हिरण्य-गोवर्धन का कट्टर विरोधी हो गया।
इधर श्रील रघुनाथ दास जी ने अपने घर वापस आकर, श्रीमन्महाप्रभु जी की शिक्षा स्मरण करके युक्त वैराग्य का सहारा लिया। वे अन्दर से वैराग्य के भाव और बाहर से विषयी की भान्ति काम करने लगे थे। परन्तु यह समाचार पाकर कि श्रीमन्महाप्रभु मथुरा से वापस आ गए हैं, श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी उनके पास जाने की तैयारी कर ही रहे थे कि उन्हीं दिनों म्लेच्छ चौधरी ने लाभांश से वन्चित होने पर राजा के पास हिरण्य मजूमदार के खिलाफ शिकायत कर दी जिसके फलस्वरूप कैद होने के डर से हिरण्य और गोवर्धन मजूमदार भाग खड़े हुए। राजा के वज़ीर ने आकर मुसलमान चौधरी की प्रेरणा से रघुनाथ दास गोस्वामी जी को ही कैद कर लिया। मुसलमान चौधरी प्रतिदिन रघुनाथ दास जी को गाली-गलौच करके डराने व धमकाने लगा और उन के ताऊ और पिता कहाँ है, यह बताने के लिए दवाब डालने लगा।
चौधरी जब क्रोधित होकर रघुनाथ दास गोस्वामी जी को मारने जाता व उनके स्निग्ध कमल के समान चेहरे को देखता तो उन्हें मार न पाता था। बाहर से मात्र गाली- गलौच ही कर पाता, कायस्थ कुल में जन्मे श्रीरघुनाथ जी की बुद्धिमत्ता से वह सदा आतंकित रहता था। कारण, मालूम नहीं कि कायस्थ लोग अपने बुद्धि कौशल द्वारा कब कौन सी मुसीबत खड़ी कर देंगे। मधुरभाषी श्रीरघुनाथ दास जी, मुसीबत से छुटने का उपाय सोच कर बड़े प्यार से चौधरी से कहने लगे—मेरे पिता जी और ताऊ जी तुम्हारे दो भाई है। आप भाई-भाई कब झगड़ा करते हैं और कब प्यार करने लगो ,यह जानना बहुत कठिन है। आज आप झगड़ा करते है, कल देखियेगा आप एक साथ मिल जायेंगे। मैं जैसे अपने पिता का पुत्र हूँ, वैसे ही आप का भी पुत्र हूँ। मैं आप का पाल्य हूँ और आप मेरे पालक है। पालक होकर पालित को बुरी तरह डाँटना उचित नहीं है। आप तो सर्वशास्रों के ज्ञाता ज़िंदा पीर है। आप को ज्यादा कहना छोटे मुँह बड़ी बात होगी।
रघुनाथ जी की स्नेहपूर्ण बातें सुनकर प्यार से वह मुसलमान चौधरी रोने लग पड़ा और बोला आज से तुम मेरे पुत्र हो। देखो, जैसे भी हो सकेगा, आज मैं तुमको छुड़ा दूँगा। बस तुम अपने ताऊ से मुझे मिला दो और जिस प्रकार मुझे मेरा हिसाब मिल जाये, उसका इन्तज़ाम कर दो। रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने अपनी मधुर वाणी और चतुराई भरे व्यवहार से पिता और ताऊ के साथ चल रहे उस मुसलमान चौधरी के झगड़े को शान्त करके सबको वश में कर लिया और धीरे-धीरे सब सामान्य हो गया।
कुछ समय बाद रघुनाथ जी के पिता ने रघुनाथ को संसार में बान्धने के लिए, एक बहुत ही सुन्दर लड़की के साथ उनका विवाह कर दिया। कुछ दिनों तक बाहर से सब ठीक ही चलता नज़र आता रहा परन्तु रघुनाथ जी के ह्रदय में तो सांसारिक वैराग्य की आग सुलग रही थी, धीरे-धीरे वह बाहर प्रकट होने लगी। एक साल बीतने पर रघुनाथ दास गोस्वामी जी फिर श्रीमन्महाप्रभु जी से मिलने के लिए व्याकुल होकर घर से भाग खड़े हुए परन्तु उनके पिता उनको पकड़वा लाये। बीच-बीच में ये क्रम चलता रहा। रघुनाथ दास जी घर से भागते और उनके पिता उन्हें पकड़ कर लिवा लाते। रघुनाथ जी की माता ने पुत्र के दिमाग में दोबारा खराबी देख कर रघुनाथ दास जी के पिता को उन्हें बान्ध कर रखने के लिए कहा। श्रीगोवर्धन उसके उत्तर में बोले—
इन्द्रसम ऐश्वर्य, स्री अप्सरा-सम।
ए सब बान्धिते नारिलेख यार मन॥
दड़िर बन्धने ताँरे राखिबा केमते?
जन्मदाता पिता नारे ‘प्रारब्ध’ खण्डाइते॥
चैतन्यचन्द्रेर कृपा हञाछे इँहारे।
चैतन्यप्रभुर ‘वातूल’ के राखिते पारे??
(चै.च.अ. 6/39-41)
अर्थात् इन्द्र के समान ऐश्वर्य और अप्सरा के समान स्री—वह सब जिसके मन को नहीं बान्ध सके, उसे रस्सियो का बन्धन भला कैसे रोक लेगा। सच तो यह है कि जन्मदाता पिता भी अपने पुत्र के प्रारब्ध को नहीं बदल सकता है। इसके ऊपर तो भगवान चैतन्य महाप्रभु जी की कृपा हो गयी है इसलिए श्रीचैतन्य महाप्रभुजी के बातुल (पागल-प्रेमी) को भला कौन रोक सकता है।
श्रीरघुनाथ दास जी सोचने लगे कि वे किस प्रकार संसार से मुक्त होंगे। इसी समय समाचार मिला कि श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु पाणिहाटि में पधारे हैं। पतितपावन—नित्यानन्द प्रभु की कृपा होने पर ही, संसार से मुक्ति सम्भव होगी,यह सोच कर श्रीरघुनाथ दास जी ने पाणिहाटि की ओर यात्रा की और उस स्थान पर पहुँचे जहाँ नित्यानन्द प्रभुजी थे। जिस समय रघुनाथ दास गोस्वामी जी वहाँ पहुँचे, उस समय नित्यानन्द जी गंगा जी के किनारे एक पेड़ के नीचे बने थड़े पर बैठे हुए थे तथा बहुत से भक्त उन्हें घेरे हुए बैठे थे। श्रीमन्नियानन्द प्रभु के दर्शन करके दूर से ही रघुनाथ जी ने उन्हें दण्डवत् प्रणाम किया।श्रीमन्नियानन्द ने कृपा से आर्द्रचित्त होकर, उनको ज़बरदस्ती खींच कर अपने पास बिठा लिया और उनके सिर पर अपने चरण कमल रख दिए। श्रीरघुनाथ जी के मन का भाव जान कर उनकी इच्छा जैसी भी हो, पूरी हो जाये, ऐसा आशीर्वाद दिया तथा उन्हें अपने पार्षदों अर्थात् वैष्णवों की सेवा करने के लिए सुझाव दिया—
निकटे ना आइस, चोरा, भाग’ दूरे दूरे।
आजि लाग्, पाञाछि, दण्डिमु तोमारे॥
दधि, चिड़ा भक्षण कराह मोर गणे।
सुनिया आनन्द हैल रघुनाथेर मने॥
(चै.च.अ. 6/50-51)
अर्थात् मज़ाक में श्रीनित्यानन्द जी रघुनाथ दास जी को सम्बोधन करते हुए कहते हैं कि हे चोर! तुम पास नहीं आते हो, दूर दूर से ही भाग जाते हो। आज पकड़े गये। अतः आज मैं तुम्हें दण्ड दूँगा। दण्ड ये की आप मेरे गणों को दधि-चिड़वे का उत्सव करवाओ। यह सुनकर श्रीरघुनाथ दास मन ही मन बहुत प्रसन्न हुए।
श्रीरघुनाथदास गोस्वामी जी ने श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु के कृपा निर्देश से पाणिहाटि में जो महोत्सव किया था, वह आज भी” पाणिहाटि का चिड़वा दही महोत्सव” के नाम से प्रसिद्ध है। उस महोत्सव में स्वयं भगवान श्रीचैतन्यमहाप्रभु जी और उनकी अभिन्न प्रकाश मूर्ति श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु जी ने अपने पार्षदों के साथ गंगा के किनारे को यमुना पुलिन मान कर भोजन लीला की थी। श्रीमन्महाप्रभु जी व श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु जी तथा उनके पार्षदों , ब्राह्मणों और असंख्य दूसरे लोगों ने, इस महोत्सव में दूध-चिड़वे का सेवन करके परम सन्तोष प्राप्त किया था। इस प्रकार की सेवा का सुयोग पाना कम सौभाग्य की बात नहीं। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी ने दूसरे दिन राघव पण्डित के माध्यम से, श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु से अत्यन्त कातर भाव से यह जिज्ञासा की थी कि उन्हें संसार के बंधनों से कैसे शीघ्रातिशीघ्र छुटकारा मिलेगा व कैसे शीघ्रातिशीघ्र उन्हें महाप्रभु जी के चरणकमलों की प्राप्ति होगी?
कृपा के सागर श्रीमन्नित्यानन्द प्रभु जी श्रीरघुनाथ दास जी के सिर पर अपने चरणकमलों को रखकर बोले—
तुमि ये कराइला एइ पुलिन-भोजन।
तोमाय कृपा करि’ गौर कैला आगमन॥
कृपा करि’ कैला चिड़ा-दुग्ध भोजन।
नृत्य देखि’ रात्र्ये कैला प्रसाद-भक्षण॥
तोमा उध्दारिते गौर आइला आपने।
छुटिल तोमार जत विघ्नादि-बन्धने॥
स्वरुपेर स्थाने तोमा करिबे समर्पणे।
‘अन्तरङ्ग’ भृत्य बलि’ राखिबे चरणे॥
निश्चिन्त हञा जाह आपन-भवन।
अचिरे निर्विघ्ने पाबे चैतन्य-चरण॥
(चै.च.अ. 6/139-143)
अर्थात् रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने संसार बन्धनों से छुटकारा व महाप्रभु जी के चरणों की प्राप्ति के सम्बन्ध में जो प्रशन्न पूछ था, उसके जवाब में नित्यानन्द जी ने रघुनाथ दास जी को कहा की यह पुलिन भोजन, जो तुम ने आज कराया है, आप पर कृपा के लिए श्रीगौरहरी ने आपके इस पुलिन भोजन में आगमन किया है। आप पर कृपा करने के लिये ही उन्होंने दधि-चिड़वे खाये तथा नृत्य देखकर रात्रि में प्रसाद भी पाया है। आप का उद्धार करने के लिए ही श्रीगौरहरि स्वयं यहाँ आए हैं। आपके जितने विघ्न या बन्धन थे, वे आज सब समाप्त हो गये हैं। देख लेना श्रीचैतन्य महाप्रभुजी आपको स्वरूप दामोदर जी के चरणों में समर्पण कर देंगे तथा वे अपना अन्तरंग दास बनाकर आपको अपने पास रख लेंगे। अब तुम चिन्ता रहित होकर अपने घर जाओ। अब जल्दी ही निर्विघ्न आप श्रीचैतन्य महाप्रभु जी के चरणों की प्राप्ति करोगे।
श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी ने श्रील राघव पण्डित से परामर्श करके वैष्णवों की यथा योग्य दक्षिणा द्वारा पूजा की। श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु की कृपा पाकर श्रीरघुनाथ दास जी कृतार्थ हुए। रघुनाथदास जी पाणिहाटि से वापस आकर अन्दर दाखिल नहीं हुए, घर के बाहर ही वाटिका के दुर्गा मण्डप में सो गये। पहरेदार हमेशा जागते हुए श्रीरघुनाथ दास जी का पहरा देने लगे। गौड़ देश के भक्त श्रीमन्महाप्रभु के दर्शनों के लिए नीलाचल जा रहे है, यह सुनकर भी श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी पकड़े जाने के भय से न जा पाये। एक दिन रात्रि के अन्त में यदुनन्दन आचार्य, श्रीरघुनाथ दास के पास आकर बोले कि रघुनाथ! तुमसे मेरा एक ज़रूरी कार्य है।वह ये कि मेरे शिष्य ने ठाकुर जी की सेवा छोड़ दी है, वह तुम्हारी बात मानता है। जैसे-तैसे तुम उसे समझा-बुझाकर ले आओ और उसे पुनः सेवा में लगा दो। उसे सेवा में लगाना ज़रूरी है क्योंकि मुझे और कोई ब्राह्मण पुजारी मिल नहीं रहा है। श्रीरघुनाथ गोस्वामी जी अपने श्रीगुरुदेव के साथ चल पड़े। रात्रि के अन्तिम पहर में पहरेदार सोए हुए थे। श्रीरघुनाथ गोस्वामी ने जब आधे के करीब रास्ता तय कर लिया तो अपने कुलगुरु जी से बोले—आप किसलिए इतनी दूर उस सेवक के पास तक जाएँगे। आपको इतना कष्ट करने की कोई ज़रूरत नहीं, मैं समझा-बुझाकर उसे आपके पास सेवा करने के लिए भेज दूँगा। इतना कहकर रघुनाथ दास जी ने अपने कुलगुरु जी को वापिस भेज दिया और स्वयं उनसे विदा की आज्ञा ली। यहाँ से वे उस पुजारी सेवक के पास न जाकर महाप्रभु जी से मिलने के लिए चल दिये, कोई उन्हें पहचान न ले, इसलिए वे गाँव का रास्ता छोड़कर जंगलों के रास्ते पर चलते रहे। उन्होंने एक दिन में लगभग तीस मील का रास्ता तय किया। शाम को एक ग्वाले की बगीची में ठहरे। रघुनाथ दास जी को भूखा जानकर उस ग्वाले ने उनको दूध दिया।
दूसरे दिन सेवाकों और पहरेदारों से श्रीरघुनाथ दास जी के चले जाने की बात सुन कर, गोवर्धन मजूमदार जी ने शिवानन्द सेन जी के नाम पत्र देकर, दस सेवाकों को पूरी से श्रीरघुनाथ दास जी को वापिस लाने के लिए भेजा। पत्र ले कर जाने वाले सेवक,शिवानन्द सेन से मिले परन्तु उनसे श्रीरघुनाथ दास जी का कोई समाचार न पाकर पुरी से हताश होकर वापिस आ गए। प्रभु प्रेम में आत्महारा होकर श्रीरघुनाथ दास जी भूखे-प्यासे, बिना सोए, बिना विश्राम किए चलते-चलते बारह दिन में पुरुषोत्तम धाम में आ पहुँचे। आश्चर्य यह था कि रास्ते में उन्होंने केवल तीन ही दिन भोजन किया था। श्रीस्वरूप दामोदर के साथ महाप्रभु जी बैठे थे कि इतने में रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने आकर दूर से ही महाप्रभु जी को प्रणाम किया। श्रीमुकुन्द दत्त ने महाप्रभु जी को बताया की श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी आपको प्रणाम कर रहे हैं। श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीरघुनाथ जी को बड़े प्यार से अपने पास आने के लिये कहा। नज़दीक आकर श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी श्रीमन्महाप्रभु जी के चरणों में गिर पड़े। महाप्रभु जी ने कृपा से आर्द्रचित होकर उनका आलिंगन किया और कहा—
कृष्ण कृपा बलिष्ठ सेवा हइते।
तोमारे काड़िल विषय विष्ठा गर्त्त हैते॥
अर्थात् कृष्ण सेवा ही सब से बलवान है, जिसने तुम्हें विषय रूपी विष्ठा के गड्ढे से बाहर निकाल दिया है। श्रीरघुनाथ दास जी उसके उत्तर में मन ही मन बोले—
कृष्ण नाहि जानि।
तब कृपा काड़िल आमा एइ आमि मानि॥
अर्थात् मैं कृष्ण कृपा को तो नहीं जानता हूँ, आपकी कृपा ने ही मुझे निकाला है, मैं तो बस यही मानता हूँ।
श्रीमन्महाप्रभु प्रभु जी के नाना, श्रीनीलान्बर चक्रवर्ती रघुनाथ जी के पिता और ताया को कायस्थ और उमर में छोटा जानकर भैया कह कर बुलाते थे। वे दोनों भी उन ( नीलाम्बर चक्रवर्ती ) को ब्राह्मण और उम्र में बड़ा जान कर दादा कह कर बुलाते थे। बंगाली भाषा में बड़े भाई को दादा कहा जाता है। महाप्रभु जी ने ये सोचकर कि रघुनाथ दास जी के पिता और ताया , उनके नाना ( श्रीनीलाम्बर चक्रवर्ती ) के भाई थे, मज़ाक में यों कहा—
तोमार बाप-ज्येठा-विषयविष्ठा गर्तेर कीड़ा।
सुख करि’ माने विषय-विषेर महा पीड़ा॥
यघपि ब्राह्मण्य करे, ब्राह्मणेर सहाय।
‘शुद्धवैष्णव’ नहे, वैष्णवेर प्राय’॥
तथापि विषयेर स्वभाव-करे महा-अन्ध।
सेइ कर्म कराय, याते हय भव-बन्ध॥
हेन ‘विषय’ हैते कृष्ण उध्दारिला तोमा।
कहन ना याय कृष्ण कृपार महिमा॥
(चै.च.अ. 6/197-200)
रघुनाथ दास जी को महाप्रभु जी मज़ाक- ही- मज़ाक में कहते हैं—रघुनाथ!
तुम्हारे पिताजी व ताऊजी तो विषय रूपी विष्ठा के गड्ढे के कीड़े हैं। वे विषय की महापीड़ा को ही सुख समझते हैं। यद्यपि वे ब्राह्मण-सेवी है तथा ब्राह्मणों की सेवा-सहायता भी करते हैं तब भी वे शुद्ध वैष्णव नहीं है, वे तो वैष्णव-प्राय हैं। विषयों का स्वभाव है कि वह मनुष्य को अन्धा बना देते हैं तथा उससे यह वही कर्म करवाते हैं जिससे कि भव बन्धन हो। इन विषयों से श्रीकृष्ण ने तुम्हारा उद्धार कर दिया है। श्रीकृष्ण की अपार कृपा की महिमा कही नहीं जा सकती।
श्रीभक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी ने श्रीकृष्ण कृपा और विषय-विष की महापीड़ा के सम्बन्ध में लिखा है—
पूर्व जन्म के कर्म-फलों की अपेक्षा कृष्ण-कृपा अधिक बलवान होती है। श्रीकृष्ण कि इसी कृपा ने ही श्रीरघुनाथ दास जी का विषय रूपी विष्ठा के गड्ढे से उद्धार किया है। विषयों का अनुरागी होने से जीव अपनी ताकत से उसका त्याग नहीं कर पाता। हाँ,यह बात शत -प्रतिशत सत्य है कि विशुद्ध कृष्ण-दास जीव के लिये विषय, विष्ठा के गड्ढे की तरह है। श्रीरघुनाथ दास जी को नीर्विषयी मानते हुए भी आर्त्त- विषयी लोगों को शिक्षा देने के लिए, श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने यह कहा कि दुनियाँ के ये विषय भोग अपने भोक्ता को बहुत कष्ट देते हैं, परन्तु फिर भी विषय भोगों में प्रमत्त लोग उन कष्टदायक विषयों में ही सुख मानते हैं। श्रील प्रभुपाद जी ने आगे लिखा कि जड़ इन्द्रियों के भोग्य विषय टट्टी-पेशाब के गन्दे नाले की तरह है तथा विषयों में फँसा हुआ जीव उस गन्दे नाले के घृणित कीड़े की तरह है। अर्थात परमार्थिक दृष्टि से जड़ीय भोक्ता विषयी व्यक्ति उस गन्दे घृणित कीड़े की तरह बड़े आराम से अत्यन्त घृणित विषय रूपी विष्ठा को आस्वादन करने में लगा हुआ है।
श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीरघुनाथ जी को बहुत कमज़ोर देखकर उनको अपने पुत्र और सेवक के रूप में स्वीकार किया तथा उनके सब प्रकार के मंगल व अमंगल का सारा दायित्व श्रीस्वरूप दामोदर जी को अपने ऊपर लेने को कहा। श्रीमन्महाप्रभुजी ने श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को स्वरूप दामोदर जी के सुपुर्द कर दिया। वैद्य रघुनाथ, भट्ट रघुनाथ और दास रघुनाथ इन तीन रघुनाथों में ये रघुनाथ दास गोस्वामी जी स्वरूप के रघु के नाम से प्रसिद्ध हुए।
भक्तवत्सल श्रीमन्महाप्रभु जी ने श्रीरघुनाथ दास जी के आदर और उनके यत्न के लिए अपने सेवक गोविन्द जी को निर्देश दिया। महाप्रभुजी ने श्रीरघुनाथ जी को भी समुद्र स्नान के पश्चात् श्रीजगन्नाथ जी के दर्शनों के बाद ही प्रसाद पाने के लिए आदेश दिया। गोविन्द उनको श्रीमन्महाप्रभु का बचा हुआ प्रसाद( भोजन ) देते थे जिससे श्रीरघुनाथ दास बहुत ही आनन्दित होते। श्रीरघुनाथ दास जी ने केवल पाँच दिन तक स्वरूप दामोदर जी के साथ बैठकर महाप्रभुजी का बचा हुआ प्रसाद ग्रहण किया था। छटे दिन से इस प्रकार प्रसाद ग्रहण करना छोड़कर वे रात्रि में श्री जगन्नाथ जी की पुष्पांजलि सेवा देखकर, सिंह द्वार पर भिक्षा के लिए खड़े हो जाते। रात में श्रीजगन्नाथ जी की सेवा पूर्ण करके अपने घर जाते समय जगन्नाथ जी के सेवक किसी भूखे वैष्णव को वहाँ खड़ा देखकर, प्रसाद दे देते थे। ऐसी प्रसाद दान करने की प्रथा आज भी जगन्नाथपुरी में है। तब निश्किंचन भक्त लोग इस प्रकार की भिक्षा वृत्ति के द्वारा ही अपना जीवन यापन करते थे। महाप्रभु जी के भक्तों में वैराग्य विशेष रूप से देखा जाता है—
महाप्रभुर भक्तगणेर वैराग्य प्रधान।
याहा देखि प्रीत हन गौर भगवान॥
अर्थात श्रीमन्महाप्रभुजी के भक्तों में वैराग्य प्रधान होता है। उसे देख कर ही श्रीगौर भगवान प्रसन्न होते हैं।
जब महाप्रभु जी के सेवक गोविन्द ने महाप्रभु जी को यहा बताया कि श्रीरघुनाथ जी मेरे द्वारा दिया हुआ प्रसाद का सेवन न करके सिंहा द्वार पर खड़े होकर भिक्षा करते हैं तो महाप्रभु श्रीरघुनाथ जी के वैराग्य से सन्तुष्ट होकर बोले—
शुनि’ तुष्ट हञा प्रभु कहिते लागिल।
भाल कैला, वैरागीर घर्म आचरिल॥
वैरागी कारिबे सदा नाम-सङ्कीर्तन।
मागिया खाञा करे जीवन-रक्षण॥
वैरागी हञा जेबा करे परापेक्षा।
कार्यसिद्धि नहे, कृष्णा करेन उपेक्षा॥
वैरागी हञा करे जिह्णार लालस।
परमार्थ याय, आर हय रसेर वश॥
वैरागीर कृत्य-सदा नाम-सङ्कीर्तन।
शाक-पत्र-फल-मूले उदर-भरण॥
जिह्णार लालसे जेइ इति-उति धाय।
शिश्नोदर-परायण कृष्ण नाहि पाय॥
(चै.च.अ. 6/222-227)
रघुनाथ दास जी के वैराग्य से प्रसन्न होकर महाप्रभुजी कहते हैं कि अच्छा किया, रघुनाथ ने वैरागी धर्म का आचरण किया। वैरागी सदा नाम-संकीर्तन करेगा तथा वह भिक्षा करके जीवन की रक्षा करेगा। वैरागी होकर यदि कोई दूसरों की अपेक्षा करे तो श्रीकृष्ण भी उसकी उपेक्षा कर देते हैं। वैरागी होकर अगर कोई जिह्णा का लोभ करता है तो उसका परमार्थ चला जाता है।
वैरागी का कार्य है सदा नाम-संकीर्तन करना तथा शाक, पत्र, फल-मूल आदि से पेट भरना। जो जिह्णा के लोभ से इधर-उधर भागेगा, तो वह भोगी-कामुक और पेट्टू बन जाएगा। परिणाम स्वरूप वह श्रीकृष्ण को प्राप्त नहीं कर पाएगा।
महाप्रभु जी के भक्तों के वैराग्य और वैरागियों की एक मात्र कृत्य—नाम-संकीर्तन के विषय में श्रिल भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर ने लिखा है—
महाप्रभु जी के भक्तों को और अभक्त-विषयी लोगों को पक्षपात रहित होकर अच्छी तरह से देखने पर आसानी से देखा जा सकता है की शुद्ध भक्त लोग दुनियावी भोगों से लिपटे हुए नहीं है। वे तो अपना व अपनों का इन्द्रिय तर्पण छोड़कर तथा दुनियावी भोगों की प्राप्ति के लोभ को परित्याग करके हर समय श्रीकृष्ण की सेवा में लगे हुए हैं। श्रीकृष्ण की सेवा में न लगने वाले विषयों के प्रति शुद्ध भक्त बिल्कुल उदासीन है। हाँ, ये अलग है कि उनकी विषय त्यागपूर्वक अहैतुकी व अप्रतिहता आलौकिकी कृष्णसेवा साधारण दुनियावी दृष्टि से समझ में आने वाली नहीं है। भगवान श्रीगौरसुन्दर जी कृष्णेतर विषयों से विरक्त व्यक्ति के शुद्ध भजन को देख कर व उसकी सेवा करने की चतुरता को देखकर बड़े प्रसन्न होते हैं।
‘हरि भक्ति विलास ‘ में लिखी हुई अनुष्ठानावली गृहस्थ व धनी वैष्णवों के लिए है; सर्वपरित्यागि, विरक्त व एकान्तिक भाव से हरिनाम का आश्रय लिए हुए शुद्ध वैष्णवों के लिए नहीं है। सवेरे, मध्य रात्रि को, दोपहर में और शाम को यानि कि आठों प्रहर ही जो व्यक्ति श्रीहरि का संकीर्तन करते हैं, वे भवसागर से पार हो जाते हैं। एकान्तिक शुद्ध भक्त लोग, परम प्रीति के साथ प्रभु का कीर्तन और ध्यान करते हैं। उनके लिए कीर्तन आदि के सिवाय अन्य कोई और अनुष्ठान नहीं है।
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी, श्रीस्वरूप दामोदर जी और श्रीगोविन्द जी के माध्यम से ही अपनी कहने योग्य बात, श्रीमन्महाप्रभु जी को बताते थे। एक दिन श्रीरघुनाथ दास जी ने अपने कर्तव्य के सम्बन्ध में श्रीमन्महाप्रभु जी के श्रीमुख से उपदेश सुनने के लिए, श्रीस्वरूप दामोदर जी से प्रार्थना की। श्रीस्वरूप दामोदर जी ने वह बात श्रीमन्महाप्रभु जी को बताई , जिस पर महाप्रभु जी श्रीरघुनाथ दास जी से बोले कि वे स्वयं जो कुछ जानते हैं उस से अधिक तो श्रीस्वरूप दामोदर जी जानते हैं।इसलिए साध्य व साधन तत्त्व के सम्बन्ध में तुम्हें जो कुछ जानना हो श्रीस्वरूप दामोदर जी से सुनो। श्रीघुनाथ दास जी का श्रीमन्महाप्रभु जी से ही उपदेश सुनने का आग्रह देखकर बाद में श्रीमन्महाप्रभु जी उनसे बोले कि अगर मेरे वाक्यों में ही तुम्हारी श्रद्धा है तो यह उपदेश ग्रहण करो—
ग्राम्यकथा ना शुनिबे, ग्राम्यवार्त्त ना कहिबे।
भाल ना खाइबे, आर भाल न परिबे॥
अमानी मानद हञा कृष्णनाम सदा लबे।
व्रजे राधाकृष्ण-सेवा मानसे करिबे॥
(चै.च.अ. 6/236-237)
अर्थात स्री-पुरुष से संबंधित अश्लील बातों को न तो सुनना और न ही बोलना तथा न अच्छा-अच्छा खाना और न अच्छा-अच्छा पहनना। स्वयं अमानी होकर सदा कृष्ण-नाम करना और व्रज में श्रीराधा कृष्णा जी की मानसिक सेवा करना।
रथ यात्रा के समय गौड़िय भक्तों के पुरी आने पर वे श्रीरघुनाथ दास जी से भी मिले। श्रीअद्वैताचार्य की कृपा पाकर श्रीरघुनाथ दास जी धन्य हुए। शिवानन्द जी ने श्रीरघुनाथ जी को बताया कि उनके पिता ने उनको खोजने के लिए पुरी में कुछ लोग भेजे थे। चौमासे के बाद, भक्तों को गौड़ देश की वापसी पर श्रीशिवानन्द सेन जी ने गोवर्धन मजूमदार को रघुनाथ दास के बारे में सब समाचार दिया और उनके तीव्र वैराग्य के साथ भजन करने की बात भी बताई। श्रीरघुनाथ जी के माता पिता ने बहुत ही दुःखी होकर एक ब्राह्मण, दो नौकर और चार सौ मुद्राएँ शिवानन्दसेन के हाथ पुरी भिजवाई। साल भर बाद श्रीशिवानन्द सेन ने नीलाचल पहुँच कर, रघुनाथ जी को बताया कि उनके पिता ने उनकी सेवा के लिए, ब्राह्मण, नौकर और मुद्राएँ भेजी थीं। श्रीरघुनाथ दास जी ने उन्हें स्वीकार नहीं किया लेकिन फिर अपने पिता के हित के बारे में सोचकर वे पिता द्वारा भेजें कुछ रुपयों के द्वारा महीने में दो दिन महाप्रभु जी को निमन्त्रित करके उनकी भोजन सेवा करते थे। इस प्रकार दो वर्ष तक निमन्त्रण करने के पश्चात्, श्रीरघुनाथ दास जी ने निमन्त्रण देना बन्द कर दिया। श्रीरघुनाथ जी अब क्यों उन्हें निमन्त्रित नहीं करते हैं, महाप्रभु जी द्वारा यह पूछे जाने पर, श्रीस्वरूप दामोदर ने बताया कि श्रीरघुनाथ दास जी ने मन ही मन में यह विचार किया कि उनके पिता विषयी है जिसके कारण उनके रुपयों से भोजन करवाने पर शायद महाप्रभुजी के मन में प्रसन्नता नहीं हो रही है। परन्तु निमन्त्रण स्वीकार न करने से क्योंकि निमन्त्रणकारी—मूर्खतावश दुःख प्राप्त करता है, इस कारण से महाप्रभु जी निमन्त्रण स्वीकार करते आ रहे हैं, हालांकि मन से वे सुख अनुभव नहीं करते हैं। इस पर महाप्रभु जी ने सन्तुष्ट होकर कहा—
विषयीर अन्न खाइले मलिन हय मन।
मलिन मन हैले, नहे कृष्णेर स्मरण॥
विषयीर अन्न हय ‘राजस’ निमन्त्रण।
दाता, भोक्ता-दुँहार मलिन हय मन॥
इँहार सङ्कोचे आमि एत दिन निल।
भाल हैल,-जानिया से आपनि छाड़िल॥ 5
(चै.च.अ. 6/278-80)
अर्थात महाप्रभु जी कहते है कि विषयी का अन्न खाने से मन मलिन हो जाता है और मन मलिन होने से श्रीकृष्ण का चिन्तन नहीं होता। विषयी का अन्न तो रजोगुण को आमन्त्रित करता है अथवा विषयी व्यक्ति का भोजन के लिए निमन्त्रण राजसिक निमन्त्रण कहलाता है—ये दाता तथा भोक्ता, दोनों का चित्त मलिन कर देता है। इतने दिन मैंने इनके संकोच के कारण ही ये सब ग्रहण किया था, अच्छा हुआ कि वह समझ गया और उसने अपने आप ही मुझे निमन्त्रण करना छोड़ दिया।
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी के वैराग्य की तीव्रता में क्रमशः वृद्धि होने लगी। वे सिंह द्वार पर भिक्षा छोड़कर छत्र में मांग कर खाने लगे हैं। अपने सेवक गोविन्द से यह बात सुनकर महाप्रभु जी ने स्वरूप दामोदर से इस का कारण पूछा।
श्रीस्वरूप दामोदर ने इस के उत्तर में कहा कि सिंह द्वार पर भिक्षा करने पर बहुत समय खर्च होता था, इसलिए रघुनाथ दास जी सिंह द्वार पर भिक्षा करना छोड़कर दोपहर के समय छत्र में मांग कर खाने लगे हैं।
श्रीमन्महाप्रभु जी ने रघुनाथ दास जी के इस कदम की प्रशंसा करते हुए कहा कि सिंह द्वार पर भिक्षा वृत्ति वेश्या के आचार की भान्ति है। वेश्या जिस प्रकार पुरुष की, धानादि के लोभ से प्रतीक्षा करती है, वैरागी द्वारा उसी प्रकार भिक्षा के लिए प्रतीक्षा करने पर, निरपेक्षता की हानि होती है। छत्र में भिक्षा करने से, वह असुविधा नहीं होती क्योंकि समय पर जाने से, जीवन यापन के योग्य भिक्षा (भोजन) मिल जाती है। इससे सदा कृष्ण-कीर्तन की सुविधा प्राप्त होती है।
एक बार श्रीधाम वृन्दावन के श्रीशंकरानन्द सरस्वती जी ने श्रीमन्महाप्रभु जी को गुंजा-माला और गोवर्धन शिला दी थी। श्रीमन्महाप्रभु जी ने गुंजामाला को साक्षात् राधा रानी और श्रीगोवर्धन शिला को श्रीकृष्ण कलेवर मान कर बड़े आदर के साथ उसे ग्रहण किया व अपने पास बड़े यत्न के साथ रखा। श्रीमन्महाप्रभु गोवर्धन शिला को हृदय, आँखों और सिर पर धारण करके बहुत ही आनन्दित होते थे। उन्होंने तीन वर्ष तक उस माला और शिला को अपने पास रखा व बड़ी प्रीति के साथ वे उनकी सेवा पूजा करते थे परन्तु रघुनाथ दास गोस्वामी जी पर प्रसन्न होकर उन्होंने वह माला और शिला रघुनाथ दास जी को दे दी। श्रीरघुनाथ दास जी महाप्रभु के श्रीहस्तों द्वारा दी हुई गुंजामाला और गोवर्धन शिला प्राप्त होने पर उन्हें साक्षात् गान्धर्विका- गिरिधारी जान कर जल और तुलसी द्वारा परम प्रीति के साथ उनकी सेवा करके परमानन्द में लीन हो जाया करते थे। श्रीदास गोस्वामी के इह लीला संवरण करने के पश्चात् आज भी गोवर्धन शिला की वृन्दावन में श्रीगोकुलानन्द मन्दिर में पूजा होती है।
श्रील रघुनाथ दास जी का वैराग्य मानों पत्थर पर लकीर हो। उनके साढ़े सात प्रहर ( साढ़े बाइस घण्टे ) कृष्ण-कीर्तन व स्मरण में बिताते थे। आहार और निद्रा आदि के लिए वे केवल चार दण्ड ( डेढ घण्टा ) का समय ही रखते थे। वे केवल प्राण रक्षा के लिए ही भोजन करते थे। उनका आजन्म जिह्णा से रस का स्पर्श न हुआ था और पूरे जीवन परिधान में केवल एक फटी हुई गुदड़ी रही। श्रीजगन्नाथ जी के महाप्रसाद विक्रेता दो तीन दिन का किचड़ सना महाप्रसाद सिंह द्वार पर फेंक देते थे जिससे बड़ी सड़ान्ध निकलती थी जिसके कारण तैलंगी गौएं ( दक्षिण भारत की गायें) भी उसे नहीं खा पाती थी। लेकिन रघुनाथ दास गोस्वामी रात में सड़े हुए अन्न से कुछ अन्न अपने निवास स्थान पर लाकर तथा उसे जल से धोकर उसमें ( अर्थात जो चावल के अंश बासी होने पर भी अभी बिल्कुल गले नहीं है) उनमें नमक डालकर खाते थे। एक दिन तो श्रीस्वरूप दामोदर जी ने रघुनाथ दास जी को ऐसा करते देख कर उस अन्न को मांग कर व ऐसे चावलों को अमृत के सामान जानकर परमानन्द के साथ खा लिया।
श्रीमन्महाप्रभुजी ने भी गोविन्द जी से जब यह सारा विवरण सुना तो वे भी एक दिन रघुनाथ दास जी के पास जा पहुँचे और ज़बरदस्ती उस अन्न का एक ग्रास खा गये परन्तु दूसरा ग्रास खाते समय, स्वरूप दामोदर जी ने उन को रोक दिया—
खासा वस्तु खाओ सबे, मोरे ना देह’ केने?
एता बलि एक ग्रास करिला भक्षणे॥
आर ग्रास लैते स्वरूप हातेते धरिला।
“तव योग्य नहे” बलि ‘बले’ काड़ि’ निला॥
(चै.च.अ. 6/322-323)
रघुनाथ जी के उन चावलों को देखकर महाप्रभु जी कहते हैं कि आप स्वयं जब बढ़िया खासी वस्तुयें खाते हो तो फिर मुझे क्यों नहीं देते हो और ऐसा कहते-कहते श्रीमन् महाप्रभु जी ने एक ग्रास खा लिया। जब दुबारा ग्रास लेने लगे तो उस समय स्वरूप दामोदर जी ने उनका हाथ पकड़ लिया और ये कहते हुए कि प्रभो, ये आप के योग्य नहीं है, उनसे ज़बरदस्ती छीन लिया।
श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी ने अपने द्वारा लिखे ग्रन्थ ‘स्तवावली’ के ‘ चैतन्यकल्पवृक्षस्तव ‘ में श्रीमन्महाप्रभु जी को करुणा का इस प्रकार वर्णन किया है—
महासम्यद्दावादपि पतितमुदृत्य कृपया।
स्वरूपे य: स्वीये कुजनमपि मां न्यस्य मुदित:॥
उरोगंजाहारं प्रियमपि च गोवर्धन शिलां
ददौ मे गौरांगौ ह्रदय उदयन्मां मदयति॥
इस श्लोक के अर्थ में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी ने लिखा कि रघुनाथ जी कहते हैं कि मेरे बहुत बुरा होने पर भी, उन्होंने कृपा कर के मुझे पतित देख कर मेरा धन और स्री (विषय रूपी दावानल) से उद्धार करके मुझे श्रीस्वरूप के हाथों में अर्पण कर दिया व मुझे बड़ा आनन्द प्राप्त करवाया।वे ही मुझे अपने वक्ष की गुंजा माला और गोवर्धन शिला देकर व मेरे हृदय में उदित होकर मुझे आनन्दित कर रहे हैं।
श्रीस्वरूप दामोदर जी ने अनुगत्य में रह कर, श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी ने श्रीमन्महाप्रभुजी की अन्तरंग सेवा की थी। सोलह साल बाद, श्रीमन्महाप्रभु जी और स्वरूप दामोदर जी के इहलीला संवरण करने के उपरान्त, श्रीरघुनाथ दास जी विरह-संतप्त होकर गोवर्धन पर्वत से कूद कर शरीर त्याग करने का संकल्प लेकर वृन्दावन पहुँचे। वहाँ ये श्रीरूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी जी से भी मिले। श्रीरूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी जी ने बहुत प्रकार से समझा-बुझा कर इन को देह त्याग के संकल्प से हटा लिया और अपने तीसरे भाई के रूप में इन्हें अपने पास ही रख लिया। श्रीरघुनाथ दास जी से निरन्तर श्रीमन्महाप्रभु जी की अमृतमयी लीला कथा सुन कर श्रीरूप गोस्वामी व श्रीसनातन गोस्वामी जी आनन्द प्राप्त करते थे। श्रीदास गोस्वामी जी ने श्रीमन्महाप्रभुजी और राधा कृष्ण के विरह में अन्न और जल त्याग दिया था।वे केवल मात्र थोड़ी सी छाछ पीते थे। रघुनाथ दास गोस्वामी जी प्रतिदिन हज़ार दण्डवत्, एक लाख हरिनाम, रात-दिन राधा कृष्ण की अष्टकालीन सेवा, महाप्रभुजी का चरित्र-कथन तथा तीनों संध्याओं में राधा कुण्ड में स्नान आदि करके, श्रीराधा कृष्ण जी के भजन में साढ़े सात प्रहर व्यतीत करते थे। किसी दिन चार दण्ड नींद लेते तो किसी दिन वह भी नहीं।
सिध्दार्थ के वैराग्य के साथ श्रीरघुनाथ जी के वैराग्य में बाहरी रूप से कुछ सामंजस्य दिखने पर भी श्रीरघुनाथ दास जी के वैराग्य में एक छिपी हुई गम्भीरता और विशिष्टता है। वैराग्य का आम मतलब होता है अनासक्ति किन्तु इसका खास मतलब होता है—परम पुरुष से प्रेम। रघुनाथ दास जी के वैराग्य की विशिष्टता भी श्रीराधा-गोविन्द जी के चरणों में गूढ़ प्रेम के कारण होने वाली विरक्ति थी अर्थात भागवद् प्रेम की अधिकता के कारण उनमें भगवान के अतिरिक्त अन्य वस्तुओं में स्वाभाविक विरक्ति थी। यही यथार्थ वैराग्य है। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी ने दीर्घ जीवन पाया था। श्रीनिवास आचार्य प्रभु वृन्दावन से ग्रन्थ आदि लेकर जब बंगाल आए थे तो बंगाल में आने से पहले उन्होंने श्रीदास गोस्वामी जी की कृपा प्राप्त की थी। श्रीदास गोस्वामी जी का तीव्र वैराग्य और उनके अद्भुत-प्रेम की हालत देख कर श्रीनिवास आचार्य तब हैरान से रह गए थे। श्रीरघुनाथ गोस्वामी जी ने तीन ग्रन्थों—स्तवावली, श्रीदान चरित (दान केली चिन्तामणि ) और मुक्ता चरित की रचना की थी। उन्होंने राधा कुण्ड पर रहने के समय तीव्र भजन किया था। उस समय उन्होंने श्रीमन्नित्यानन्दन प्रभु की शक्ति जाह्रवा देवी जी की कृपा भी पाई थी।
जिस समय श्रीमन्महाप्रभुजी ने आरिटग्राम के धान के खेत में स्थान में स्नान लीला द्वारा राधा कुण्ड व श्याम कुण्ड को प्रकाश किया था तब श्याम कुण्ड व राधा कुण्ड साफ नहीं थे और उनके घाट पक्के भी नहीं थे। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी ने मन ही मन सोचा कि दोनों कुण्डों की सफाई हो जाती तो अच्छा होता पर फिर दूसरे ही क्षण उन्होंने अपने आप को इस इच्छा के लिए धिक्कारा। इधर कोई धनी सेठ बद्री नारायण जी को बहुत सा धन भेंट करने के लिए बद्रीनाथ गया था। बद्री नारायण जी ने उसी सेठ को, मथुरा के आरिट ग्राम में श्रीरघुनाथ गोस्वामी जी की इच्छा अनुसार राधा कुण्ड और श्याम कुण्ड के संस्कार के लिए धन देने के लिए, स्वप्न में आदेश दिया। सेठ जी बद्री नारायण जी का यह आदेश पाकर आरिट ग्राम में आ गये और यहाँ आकर श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को सारी बात बताई। दास गोस्वामी जी की इच्छा के अनुसार, दोनों कुण्डों से कीचड़ निकलवा कर रीति के अनुसार उनका संस्कार हुआ। श्यामकुण्ड के किनारे पाँचो पाण्डव वृक्षों के रूप में रहते हैं। श्यामकुण्ड को समकोण करने के लिए वृक्षों को काटने का संकल्प होने पर युधिष्ठिर महाराज ने स्वप्न में श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी को वहाँ पाँचो पाण्डवों के वृक्षों के रूप में रहने की बात बतलाई। तब श्रील दास गोस्वामी ने वृक्षों को काटने की मनाही कर दी। इसी कारण श्याम कुण्ड समकोण यानि कि चौरस नहीं है।
कहा जाता है कि श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी श्रीरूप गोस्वामी जी द्वारा रचित ललित माधव नाटक का पाठ करके विरह सागर में डूब गए थे। राधा कुण्ड पर राधा रानी के नित्य सान्निध्य में रहने पर भी वे थोड़े समय का विरह भी सहन नहीं कर पाते थे और श्रीराधा जी के विरह मैं बहुत अधिक अस्थिर हो जाते थे और ऐसे में एक दिन विप्रलम्भ रस युक्त ललित माधव ग्रन्थ के पाठ से उनकी विरह अग्नि इतनी बढ़ गई कि उन के प्राणों की रक्षा करनी ही कठिन हो गई। श्रीरूप गोस्वामी जी ने रघुनाथ दास गोस्वामी जी को ऐसी हालत देखकर स्वलिखित व हास परिहास से पूर्व तथा नित्य मिलन करवाने वाला दान केलि कौमुदी ग्रन्थ उन को भिजवा कर ललित माधव ग्रन्थ वापिस मंगवा लिया। दानकेली ग्रन्थ का पाठ करके दास गोस्वामी जी की विरह अग्नि दूर हो गई। राधाकुण्ड पर श्रीदास गोस्वामी जी ने अन्तर्धान लीला की। वहीं पर उनका समाधि मन्दिर भी है।
रघुनाथ दास गोस्वामी जी एक दिन मानसी गंगा में स्नान करके चारों ओर जंगल से घिरे एक वृक्ष के नीचे बैठकर भाव विभोर होकर भजन कर रहे थे कि उस समय एक बाघ वहाँ आया, वहाँ आकर उसने पानी पिया और पानी पीकर चला गया। श्रीसनातन गोस्वामी जी भी उस दिन वहाँ थे। उन्होंने दास गोस्वामी की ऐसी निर्विकार हालत देखकर उन्हें कुटिया में बैठकर भजन करने को कहा। तब से रघुनाथ दास गोस्वामी कुटिया में बैठकर भजन करने लगे। अन्यथा श्रीरघुनाथ दास जी पहले राधा कुण्ड के किनारे, खुले में बिना कुटिया के भजन करते थे। वे मानसी गंगा के तट पर श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी की भजन कुटी में भी कभी कभी जाते थे।
श्रीरघुनाथ दास जी बृज में रहने वाले दास नामक एक आदमी से बहुत स्नेह करते थे, और उसी के हाथों से वे प्रतिदिन एक दोना लस्सी पीते थे। एक बार उस बृजवासी के मन में चिन्ता हुई कि केवल एक दोना लस्सी से रघुनाथ दास जी किस प्रकार अपने जीवन की रक्षा कर सकेंगे। सो, एक दिन उसने ‘ सखी-स्थली ‘ पर जाकर पलाश के बड़े –बड़े पत्ते देखें व सोचा कि वह बड़े पत्तों का बढ़ा दोना बनाकर श्रीदासगोस्वामी जी की सेवा में अधिक लस्सी देगा। अतः बृजवासी दास ने उन पत्तों से एक बढ़ा दोना बनाया और उसमें काफी सारी लस्सी लेकर श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को दी। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी जी इतना बड़ा दोना देखकर आश्चर्य चकित हो गए। उन्होंने पूछा कि इतना बड़ा दोना कहाँ से मिला?
इस पर बृजवासी दास ने ‘सखी-स्थली’6 की बात बताई। सखी स्थली का नाम सुनते ही श्रीरघुनाथ दास जी क्रुध्द हो गए और गुस्से में उन्होंने वहा दोना दूर फेंक दिया। भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में यह कथा इस प्रकार वर्णित है—
कतक्षणे स्थिर हैया कहे दास प्रति।
से चन्द्रावलीर स्थान ना याइवा तिथि॥
इहा शुनि दास व्रजवासी स्थिर हैया।
जानिलेन साधक देहेते सिध्द क्रिया॥
ए-सवार एइ देह नित्यसिध्द हय।
इथे ये पामर सेइ करये संशय॥
(भक्ति रत्नाकर 5/572-574)
‘भक्ति रत्नाकर ‘ में ऐसी एक और अलौकिक घटना की बात लिखी है। वह ये कि एक दिन श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी को अजीर्ण हुआ अर्थात भोजन का ठीक हाज़मा न होने के कारण कुछ आश्वस्थता हुई। श्रीबल्लभपुर के श्रीविट्ठलदास ने साथ-ही-साथ दो चिकित्सक इलाज के लिए बुलाए। उन्होंने जांच करने के बाद बताया कि दूध भात खाने से इन्हें अजीर्ण हुआ है।श्रीविट्ठलदास चिकित्सकों की बात सुनकर आश्चर्य चकित होकर बोले कि यह कैसे सम्भव हो सकता है, क्योंकि रघुनाथ दास गोस्वामी जी तो लस्सी के इलावा अन्य कुछ-लेते ही नहीं। श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी से पूछने पर श्रीलरघुनाथ जी ने सन्देह निवारण करते हुए कहा कि उन्होंने मन ही मन दूध भात खाया था।
श्रील रघुनाथ दास जी आश्विन शुक्ला द्वादशी को अप्रकट हुए थे।
1 (सखी परिचारिका दुती)
2 (5 सिपाही, 4 सेवक तथा 2 ब्राह्मण की)
3 इस श्लोक में स्वनिर्वाहः शब्द के स्थान पर श्रीजीव गोस्वामी प्रभु जी ने दुर्गम संगमनी टीका में स्व-स्व भक्तिनिर्वाहः कहा है।
4 (आजकल उसे नायब बोला जाता है)
5 श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर जी ने उपरोक्त विषय का विश्लेषण करके यह उपदेश दिया—
मैं और मेरे के अभिमान से युक्त प्राकृत विषयी लोग अर्थात दुनियावी भोगी लोग धन द्वारा, जड़ातीत सच्चिदानन्द वस्तु-हरि-गुरु-वैष्णव की सेवा नहीं कर पाते। ऐसी सेवा करने की चेष्टा करके उन्हें केवल मात्र प्रतिष्ठा का ही फल प्राप्त होता है, ऐसे में वास्तविक अप्राकृत हरि-गुरु वैष्णव की सेवा नहीं होती। अत: एकान्त शरणागत होकर अर्थात सम्पूर्ण आत्मनिवेदन पूर्वक तथा सदा अपने मंगल की इच्छा रखकर यदि जीव के स्वयं, अर्जित किए हुए धन के द्वारा हरि-गुरु वैष्णवों की सेवा करे, तब ही उसका मंगल होता है। इसलिए साधकों का अपने मन, वाणी और प्राणों द्वारा अप्राकृत हरि– गुरु-वैष्णवों की सेवा करना कर्तव्य है।
जन्म, ऐश्वर्य, विद्या व सुन्दरता के मद में चूर विषयी आदमी श्रीमूर्ति की तथाकथित सेवा करवा कर, उन श्रीमूर्ति को अर्पित वस्तुओं को प्रसाद मान कर, वैष्णवों को प्रदान करते हैं परन्तु अज्ञानता के कारण वे यह नहीं जानते कि उन की अभक्तिमयी मनो –प्रवृति से दी हुई कोई भी वस्तु अधोक्षज-अजित भगवान, श्रीहरि स्वीकार नहीं करते। इसलिए, कई स्थानों पर वैसे जड़ भोक्ता विषयियों की दुनियावी अभिमान की गन्ध से मिश्रित सहायता विरक्त वैष्णव स्वीकार नहीं करते तथा ऐसे लोगों की गुलामी भी श्रीकृष्ण भजन परायण, निरपेक्ष यानि दुनियावी भोगों से विरक्त वैष्णव लोग स्वीकार नहीं करते। अर्थात जड़ीय भोक्ता विषयियों की दुनियावी अभिमान की गन्ध से युक्त धन-आदि की सहायता भी विरक्त वैष्णव लोग स्वीकार नहीं करते जिसके फलस्वरूप दुनियावी धनवान विषयी लोग, अपनी देह आदि में मैं बुद्धि से पैदा हुई मूर्खता के वशीभूत होकर कभी-कभी वैष्णवों के प्रति विरोध पाल लेते हैं अथवा वैष्णवों के उस व्यवहार से दुःखी होते हैं।
अवैष्णव और प्राकृत सहजिया लोग, विषयी होते हैं। उनके अभक्ति पूर्वक दिए हुए अन्न को ग्रहण करने और भोजन करने से, साधक वैष्णवों का संगदोष होता है तथा उस के फलस्वरूप साधकों का भी उन्हीं की तरह स्वभाव हो जाता है। अवैष्णव प्राकृत सहजिया लोगों के साथ अगर बिन्दुमात्र भी गुप्त प्रेम के साथ भी कोई छः प्रकार का संग—देना (लेना, खाना-खिलाना, मन की गोपनीय बातें कहना व सुनना) करे तो उस से प्राकृत शुद्ध कृष्ण भक्ति के स्थान पर, जड़ेन्द्रियों के तर्पण-मूलक प्राकृत भोग आकर साधकों को कृष्ण भक्ति से अलग कर देते हैं। इसलिए आत्मेन्द्रिय तर्पण परायण, लोगों की कृष्ण सेवा-विमुख भावनाओं से मैले, अशुद्ध मन वाले मनुष्यों का अर्थात साधकों का अप्राकृत श्रीकृष्ण स्मरण आदि कभी भी सम्भव नहीं हो पाता।
विषयी लोगों के राजस निमन्त्रण के सम्बन्ध में श्रील भक्ति विनोद ठाकुर ने लिखा है:
भोजन निमन्त्रण तीन प्रकार के होते हैं-सात्त्विक, राजसिक तथा तामसिक। विशुद्ध वैष्णवों का निमन्त्रण सात्त्विक, विषयी-पुण्यवान व्यक्ति का निमन्त्रण राजसिक और पापी का निमन्त्रण तामासिक होता है।
6 ‘सखी- स्थली’ चन्द्रावली का स्थान था। चंद्रावली राधा रानी का प्रतिपक्ष है चन्द्रावली की गण अर्थात प्रधाना शैव्या सदा राधा जी के कुंज से श्रीकृष्ण को चन्द्रावली के कुंज में ले जाने की चेष्टा करती रहती हैं। राधा रानी के दुःख से, उन के गणों को भी दु:ख होता था। श्रीरघुनाथ गोस्वामी राधारानी के गणों के अनुगत होने के कारण, सदा प्रेममय भूमिका में राधा रानी और उन के गणों के सुख की चेष्टा में ही निमग्न रहते थे। सखी-स्थली का नाम सुनते ही श्रीरघुनाथ दास जी को गुस्सा आ गया। यह प्रेम की पराकाष्ठा की अवस्था का भाव है, जिसे कामातुर, ईर्ष्या परायण लोग समझने में असमर्थ हैं।
स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से