दशावतारों के बीच में परशुराम जी का षष्ठ अवतार है। लीलावतार अनन्त हैं जिनमें मुख्य 25 लीलावतारों के नाम मत्स्यावतार वर्णन के प्रसंग में उल्लेखित हुए हैं। 25 लीलावतारों में से भार्गव परशुराम अवतार 19वां अवतार है। श्री चैतन्य-चरितामृत, मध्य लीला के 20वें परिच्छेद के 240वें पयार के अनुभाष्य में परशुराम जी की शक्त्यावेशावतार में गणना की गई है। परशुराम जी में दुष्टदमन शक्ति का आवेश है। श्री कृष्ण द्वारा देवकी के गर्भ में प्रविष्ट होने पर ब्रह्मा, शिव, नारद व अन्यान्य देवताओं ने जो गर्भ स्तुति की उसमें उन्होंने परशुराम जी का श्री कृष्ण के अवतार के रूप में स्तव किया है।
मत्स्याश्वकच्छपनृसिंहवराहहंस-
राजन्यविप्रविबुधेषु कृतावतार: ।
त्वं पासि नस्त्रिभुवनं च यथाधुनेश
भारं भुवो हर यदूत्तम वन्दनं ते ॥
(श्रीमद्भागवत 10/2/40)
हे प्रभो! आप मत्स्य, अश्वग्रीव (हयग्रीव), कच्छप, नृसिंह, वराह, हंस, दाशरथी, परशुराम व वामन इत्यादि रूपों में विविध अवतार लेकर हमारा और त्रिभुवन का प्रतिपालन करते हैं। हे यदूत्तम! हम आपकी वन्दना करते हैं। हे ईश्वर! अब भी आप इस पृथ्वी का भार ग्रहण कीजिए।
– ठाकुर भक्ति विनोद
राजन्यः क्षत्रियः – रामचन्द्र ओ परशुराम।
अवतारे षोडशमे पश्यन् ब्रह्मद्रुहो नृपान्।
निःसप्कृत्वः कुपितो निःक्षत्रामकरोन्महीम्।
(श्रीमद्भागवत 1/3/20)
भगवान विष्णु ने अपने 6वें अवतार परशुराम के रूप में अवतीर्ण होकर, क्षत्रिय राजाओं को देवद्विज-विद्वेषी देख उनके प्रति क्रुद्ध होकर पृथ्वी को 21 बार क्षत्रिय शून्य किया था। श्रील सूत गोस्वामी जी ने शौनकादि ऋषियों के प्रश्न के उत्तर में जिन 22 अवतारों की कथा कीर्तन की है, उनमें से षोडशवें अवतार परशुराम जी हैं। श्रीमद्भागवत के नवें स्कन्ध के 15वें व 16वें अध्याय में श्री वेदव्यास मुनि जी ने परशुराम जी के चरित्र का वर्णन इस प्रकार किया है –
गर्भोदकशायी विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी का आविर्भाव हुआ। ब्रह्मा के पुत्र अत्रि, अत्रि के पुत्र सोम (चन्द्र), चन्द्र के पुत्र बुद्ध, बुद्ध से इला और इला के गर्भ से पुरूरवा का जन्म हुआ। पुरूरवा या ऐलवंश में जह्नुमुनि का आविर्भाव हुआ। जह्नुमुनि से पुत्रपौत्रादि के क्रम से कुश का जन्म हुआ। कुश से कुशाम्बु, कुशाम्बु से गाधि का जन्म हुआ। गाधि की सत्यवती नाम की एक कन्या थी। द्विजवर ऋचीक मुनि1 की गाधि की कन्या सत्यवती के साथ विवाह की इच्छा हुई, पर गाधि ने दहेज के रूप में एक हजार अश्वों (विशेष लक्षणों से युक्त अश्व-शरीर पाण्डु वर्ण, वर्ण में रक्त वर्ण और बाहर से श्याम वर्ण) की इच्छा प्रकट की, ऋचीक मुनि ने वरुण देव से एक हजार अश्व लाकर गाधि को दिये व सत्यवती के साथ विवाह किया।
एक बार सत्यवती एवं उसकी मां ने ऋचीक मुनि से पुत्र के लिए चारु की प्रार्थना की, तो ऋचीक ने अपनी पत्नी के गर्भ से ब्राह्मण, गुणशाली एवं गाधि की पत्नी के गर्भ से क्षत्रिय गुण सम्पन्न पुत्र के लिये दो चारु निर्माण करके उनको दे दिये, किन्तु ब्राह्मण ऋचीक के स्नान करने के लिए जाने पर सत्यवती की जननी ने मन-मन में विचार किया कि अपनी स्त्री के प्रति ही पति का अधिक स्नेह होता है, इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी के लिये जो चारु निर्माण किया है वही श्रेष्ठ होगा, उतः उसने जो चारु कन्या के लिए निर्मित किया था, कन्या से वह चारु मांग लिया। कन्या ने माता के लिए निर्मित चारु ग्रहण किया। स्नान से वापस आकर मुनि को जब उक्त घटना का पता लगा तो वे असंतुष्ट होकर बोले – ‘सत्यवती का पुत्र दण्डधारी क्षत्रिय होगा और सत्यवती की जननी का पुत्र ब्रह्मतत्त्वविद् (विश्वामित्र) होगा। ये ठीक है कि बाद में सत्यवती के विनम्र प्रार्थना करने पर ऋचीक मुनि बोले कि ठीक है सत्यवती का गर्भजात पुत्र क्षत्रिय भावापन्न न होने पर भी उसका पौत्र क्षत्रिय भावापन्न होगा। सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि के साथ रेणु की कन्या रेणुका का विवाह हुआ। जमदग्नि की संतानों में कनिष्ठ पुत्र ‘परशुराम’ नाम से विख्यात हुआ।
यमाहुर्वासुदेवांशं हैहयानां कुलान्तकम् ।
त्रि:सप्तकृत्वो य इमां चक्रे नि:क्षत्रियां महीम् ॥
( भा० 9/15/14)
पंडित लोग इन्हीं राम को कार्त्तवीर्यकुलान्तक एवं भगवान वासुदेव के अंश समझ कर कीर्तन करे हैं। इन्होंने ही पृथ्वी को 21 बार निःक्षत्रिय किया था।
हैहयवंश के अधिपति कार्त्तवीर्यार्जुन दत्तात्रेय की आराधना के द्वारा प्रचुर शक्ति और ऐश्वर्य प्राप्त करके प्रबल प्रतापी हो गया था। कार्त्तवीर्यार्जुन इस प्रकार महाबलशाली था कि एक बार वीर रावण दिग्विजय के लिए निकला तो नर्मदा नदी के किनारे वह देवार्चन कर रहा था, परन्तु कार्त्तवीर्यार्जुन के द्वारा पानी को हिलाने-डुलाने से विघ्नित हो गया और क्रोधित होकर कार्त्तवीर्यार्जुन को दण्ड देने को उद्धत हुआ; परन्तु कार्त्तवीर्यार्जुन से युद्ध में बुरी तरह हार गया और बन्दर की तरह बांधा गया। बाद में कार्त्तवीर्यार्जुन ने रावण को दीन दुर्बल समझ कर छोड़ दिया।
एक दिन कार्त्तवीर्यार्जुन शिकार के लिए निकले और भ्रमण करते-करते देवात् जमदग्नि के आश्रम में पहुंच गए। मुनि जमदग्नि ने राजा को यथोचित सम्मान देकर उसका, उसकी सेना, उसके मंत्रियों व उसके सेवकों का कामधेनु की सहायता से परितृप्ति के साथ भोजनादि के द्वारा सत्कार किया। कामधेनु का अपनी अपेक्षा अधिक ऐश्वर्य देखकर राजा की कामधेनु को प्राप्त करने की लालसा हुई। वह जमदग्नि की अग्निहोत्र धेनु का बलात् अपहरण कर नर्मदा नदी के तटवर्ती, अपने स्थान महिष्मति की ओर चल दिया। बछड़े के साथ अपहृत कामधेनु के सकातर क्रन्दन से जमदग्नि व्यथित हुए। परशुराम जी ने जब ये सब सुना तो वे बहुत क्रोधित हो गये और हाथ में धनुष लेकर जैसे शेर, हाथी के ऊपर आक्रमण करता है, उसी प्रकार कार्त्तवीर्यार्जुन पर झपटे। कार्त्तवीर्यार्जुन अभी महिष्मतिपुर में प्रवेश करने ही वाले थे कि उसी समय उन्होंने देखा की सूर्य के समान दीप्तिमान कृष्णसार मृग का चमड़ा पहने जटायुक्त धनुर्धारी भीषण पुरुष बाण, परशा और अस्त्र लेकर अति वेग से उसकी ओर आ रहा है तो उसने भयभीत होकर हाथी, रथ, अश्व, गदा, बाण वाले व पैदल योद्धाओं को युद्ध के उपकरणों से युक्त सप्तदश अक्षोहिणी2 सेना परशुराम को रोकने के लिए भेजी, परन्तु अकेले भगवान परशुराम जी ने सारी सेना, हाथी, अश्वादि का वध कर दिया।
मन और वायु के समान वेगवान परशुराम ने परशे के आघात से विपक्षी सेना को छिन्न-भिन्न कर गिराया। रणभूमि सेना के रुधिर से भीग गयी। जिसको देखकर कार्त्तवीर्यार्जुन युद्ध के क्षेत्र में आ गया और अपनी सहस्त्र बाहुओं से एक साथ 500 बाण छोड़े; किन्तु परशुराम जी ने धनुष धारण कर मुर्हूत में ही उन सब बाणों व तूणों को ध्वंस कर दिया। अस्त्रों के ध्वंस होने से कार्त्तवीर्यार्जुन पर्वत, वृक्षादि उखाड़ कर युद्ध करने लगा। परशुराम ने कुठार के द्वारा पहले तो अर्जुन की भुजाएं, तत्पश्चात् पहाड़ की चोटी की तरह उसके मस्तक का छेदन कर दिया। कार्त्तवीर्यार्जुन के मारे जाने पर उसके 10 हजार पुत्र भय से भाग गये। परशुराम जी ने अग्निहोत्र गाय लाकर पिता जमदग्नि जी को दे दी।
कार्त्तवीर्यार्जुन की मृत्यु का संवाद सुनगर जमदग्नि दुःखित होकर पुत्र को कहने लगे – हे महाबाहो राम! तुमने सब देवताओं को अधिष्ठान रूप राजा का वध करके पाप किया है। हम ब्राह्मण है, ब्राह्मण क्षमागुण के द्वारा ही सब का पूज्य हुआ है। लोक गुरु ब्रह्मा जी ने क्षमागुण के द्वारा ही परमेष्ठी पदवी प्राप्त की है। क्षमाशील पुरुषों के प्रति भगवान अति शीघ्र प्रसन्न होते हैं। सार्वभौम राजा का वध, ब्राह्मण के वध की अपेक्षा गुरुत्तर है। श्री अच्युत, श्री कृष्ण में चित्त को समर्पण करके तीर्थ सेवा द्वारा इस पाप को दूर करो। परशुराम जी पितृ आदेश को शिरोधार्य करके एक संवत्सर काल तक तीर्थ पर्यटन के पश्चात् आश्रम में वापस लौटे।
एक बाद जमदग्नि के निर्देश से उनकी पत्नी रेणुका जल लाने के लिए गंगा पर गयी। वहां जाकर उसने देखा कि गन्धर्वराज पद्मपाली (चित्ररण) के साथ अप्सरायें क्रीड़ा कर रही हैं। क्रीड़ा देख उसके मन में संग प्राप्त करने की थोड़ी सी लालसा हुई, जिससे वह उद्भ्रान्त सी हो गयी और भूल गयी कि उसके पति का होम का समय बीता जा रहा है। प्रकृतिस्थ होने पर उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। मुनि के श्राप से अत्यन्त भयभीत होकर वह पति के पास हाथ जोड़कर खड़ी हो गयी। मुनि, पत्नी के व्याभिचार को समझ गये। उन्होंने पुत्रों को उसकी हत्या करने का आदेश दिया। पुत्रों ने उसे अस्वीकार कर दिया। तब जमदग्नि ने अपने कनिष्ठ पुत्र परशुराम को अपनी पत्नी रेणुका का व आज्ञा-उल्लंघनकारी पुत्रों की हत्या का निर्देश दिया। पिता की महिमा को जानने वाले परशुराम जी ने सोचा कि वे पितृ आदेश का पालन नहीं करते तो वे अभिशप्त होंगे और यदि वे पिता की आज्ञा के अनुसार कार्य करेंगे तो पिता जी प्रसन्न होकर वर देंगे। उसी वर के द्वारा वे अपनी जननी व भ्राताओं को जीवित कर सकेंगे। अतः उन्होंने अपनी जननी व भ्राताओं की हत्या कर दी। जमदग्नि के संतुष्ट होकर वर देने की इच्छा करने पर परशुराम ने जननी और भ्राताओं के पुनः जीवन की प्रार्थना की और साथ-साथ यह भी प्रार्थना की कि उसने जो उनका वध किया था, वह उनको याद ही न रहे। जननी और भ्राताओं ने निद्रा से उठे के समान पुनर्जीवन प्राप्त किया। परशुराम जी अपने पिता जी की तपस्या के प्रभाव से अवगत थे, इसलिए उन्होंने अपने आत्मियों का वध करने का संकल्प लिया था।
कार्त्तवीर्यार्जुन के पुत्र प्राणों को बचाने के भय से भाग तो गये परन्तु पिता के वध की बात वे भूले नहीं। उनके अंदर प्रतिशोध की स्पृहा जागृत हुई और एक दिन जब परशुराम जी अपने भाईयों के साथ वन में गये हुये थे तो इस अवसर का फायदा उठाने के लिए अर्जुन के पुत्रों ने जमदग्नि के आश्रम में प्रवेश किया और भगवद् ध्यान में रत जमदग्नि की, रेणुका के सकातर प्रार्थना करने पर भी निष्ठुर भाव से हत्या कर दी और उसके कटे हुए मस्तक को साथ लेकर भाग गये। जननी का आर्त्तनाद सुनकर परशुराम शीघ्र आश्रम लौट आये और आकर पिता को मृतावस्था में देख कुछ समय विलाप किया। तत्पश्चात् देह की रक्षा का भार भाइयों को देकर क्षत्रिय वंश को ध्वंस करने का संकल्प लिया। परशुराम ने ब्रह्मघातक दोष से श्रीहत महिष्मतीपुरी में जाकर अर्जुन के पुत्रों की हत्या करके उनके मस्तकों से वृहद् पर्वत तैयार किया। अर्जुन पुत्रों के रक्त से एक ब्रह्मद्वेषी नदी तैयार हुई। परशुराम ने इसी प्रकार पृथ्वी को 21 बार निःक्षत्रिय किया था और उनके रक्त के द्वारा समन्तपंचक में नौ हृद तैयार हुए। परशुराम जी ने अपने पिता जमदग्नि के मस्तक को उनकी देह के ऊपर संयोजित कर कुशा के ऊपर स्थापित किया और यज्ञ के द्वारा सर्ववेदमय वासुदेव की पूजा की। यज्ञ की समाप्ति पर परशुराम जी ने होता को पूर्व दिशा की तरफ, ब्रह्मा जी को दक्षिण की तरफ, अधवर्यु को पश्चिम की तरफ, उद्गाता को उत्तर की तरफ एवं अन्यान्य ऋत्विजों को ईशान, अग्नि, नैऋत और वायु दिशाएं दक्षिणा स्वरूप दीं। कश्यप को मध्य देश, उपदृष्टा को आर्यावर्त्त और सदस्य वर्ग को अवशिष्ट स्थान प्रदान किये।
यज्ञ के अन्त में स्नान जल में समस्त पापों को अच्छी तरह धोकर परशुराम जी सरस्वती के किनारे मेघशून्य आकाश में सूर्य के समान दीप्तिमान होकर विराजित हुए। परशुराम द्वारा इस प्रकार पूजित होकर जमदग्नि जी स्वीय देह प्राप्त करके ऋषि मण्डल में सप्त ऋषि3 के रूप में परिगणित हुए।
जामदग्न्योऽपि भगवान् रामः कमललोचनः।
आगामिन्यन्तरे राजन् वर्त्तयिष्यति वै वृहत्।।
आस्तेऽद्यापि महेन्द्राद्रौ न्यस्तदण्डः प्रशान्तयीः।
उपगीयमानचरितः सिद्धगन्द्धर्वचारणैः।
एवं भृगषु विश्वात्मा भगवान् हरिरीश्वरः।
अवतीय परं भावं भुवोऽहन् बहुशोनृपान्।।
(श्रीमद्भागवत 16/25-27)
भगवान जमदग्नि के पुत्र कमललोचन परशुराम भविष्य मन्वन्तर में वेद प्रवर्तक और सप्त ऋषियों में एक होंगे। क्षत्रियों को निधनादि दण्ड देने का कार्य परित्याग करके परशुराम जी आज भी प्रशान्त चित्त से महेन्द्र पर्वत पर अवस्थान कर रहे हैं। सिद्ध, गन्धर्व, चरण उनका पूत चरित्र सदागान कर रहे हैं। इस प्रकार विश्वात्मा भगवान ईश्वर श्री हरि ने भृगुवंश में अवतीर्ण होकर पृथ्वी के भार स्वरूप बहुत से नृपतियों का वध किया था। महाभारत के शान्ति पर्व और वन पर्व में परशुराम जी का चरित्र वर्णित हुआ है। महाभारत के वन पर्व में ऋचीक को भृगु के पुत्र के रूप में निर्देशित किया है। वहां इस प्रकार लिखा है कि भृगु ने ही सत्यवती और उसकी जननी को चारु दिया था। सत्यवती पुत्र जमदग्नि के साथ राजा प्रसनेजित की कन्या रेणुका का विवाह हुआ। रेणुका के गर्भ से पांच पुत्र हुए। उनमें से कनिष्ठ परशुराम जी हैं। पांच पुत्र – यमन्वान, सुषेण, वसु, विश्वासु और कनिष्ठ परशुराम हैं। मतान्तर में वसु, विश्वासु, वृहद्भानु, वृहत्कन्व और राम हैं। परशुराम जी ने गन्धमादन पर्वत पर महादेव जी को संतुष्ट करके उन्हीं के वर से अति तेजमय परशु व अस्त्र प्राप्त किये थे, इसलिए उनका नाम परशुराम हुआ –
पशुना कुठाराथ्यशस्त्रेण रामः रमणं यस्य।
कार्त्तवीर्यार्जुन के बाण से उत्पन्न अग्नि से जब वशिष्ठ जी का आश्रम जल गया था तो उन्होंने उसे अभिशाप दिया था कि जमदग्नि के पुत्र परशुराम जी उसकी सहस्त्र भुजाओं का छेदन करेंगे। इक्कीस बार निःक्षत्रिय करने के पश्चात पितामह ऋचीक के निषेध के कारण परशुराम ने क्षत्रिय वध का कार्य बन्द कर दिया था।
परशुराम के अन्य नाम हैं – जामदगन्य, पर्शूराम, परशुरामक, भार्गव, भृगुपति व भृगुलापति।
विष्णु पुराण, मत्स्य पुराण व कालिका पुराण और सह्याद्रिखण्ड में परशुराम जी का चरित्र वर्णन हुआ है। ग्रंथों में ऊपर किए गए वर्णन में कुछ-कुछ पार्थक्य दिखाई देता है। वहां पर इस प्रकार लिखित है कि मातृ हत्या के पाप से परशु, परशुराम जी के हाथ से जुड़ा हुआ था एवं उक्त पाप के प्रायश्चित के लिए ही उन्हें तपस्या के लिए कैलाश पर जाना पड़ा था। मातृ हत्या के कारण हाथ परशु से संयुक्त होने के कारण ही ये परशुराम कहलाएं। सह्याद्रिखण्ड में इस प्रकार लिखित है कि जमदग्नि ने इक्ष्वाकु वंशीय रेणुराज की कन्या रेणुका से विवाह किया था।
रामायण के आदि काण्ड में परशुराम के प्रसंग का उल्लेख हुआ है। शिव जी का धनुष टूटने के पश्चात् श्री रामचन्द्र द्वारा सीता जी को लेकर पिता जी के साथ अयोध्या लौटते समय परशुराम जी ने उनका रास्ता रोका था। उन्होंने श्री राम को कहा था – ‘तुमने हर धनुष को तोड़ा है, सुनकर मैं एक और धनुष लाया हूं। इस धनुष का नाम वैष्णव धनुष है। यह उस शैव धनुष से किसी भी प्रकार कम नहीं है। यह धनुष विष्णु से मेरे पितामह ऋचीक ने, पितामह से पिता ने और उनसे मैंने प्राप्त किया है। तुम यदि इस धनुष पर बाण साध सकोगे तब मैं आपके साथ द्वन्द्व युद्ध करूंगा।’
श्री रामचन्द्र जी ने उक्त धनुष को धारण करके कहा – ‘इसके द्वारा समस्त विपक्ष का मैं संहार कर सकता हूं। बोलो तो इसके द्वारा आपकी तपस्या से अर्जित सकल लोकों को ध्वंस कर दूं या आपकी आकाश गति को रोक दूं।
तब जामदगन्य परशुराम वीर्यहीन और स्तम्भित होकर बोले- ‘मैंने कश्यप ऋषि को समस्त पृथ्वी का दान किया है, तब से मैं इस पृथ्वी पर रात्रि को वास नहीं करता। अतएव मेरी गति को नाश न करके मेरी तपस्या से अर्जित समस्त लोकों का नाश कर दीजिए।’ श्री राम ने परशुराम के तपोबल से अर्जित समस्त लोकों का नाश कर दिया। जामदगन्य भगवान राम के पास से इस प्रकार पूजित होकर महेन्द्र पर्वत की ओर चल दिये।
भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में परशुराम के स्थिति स्थान काम्यकवन में एवं महाप्रभु के प्रयास से गोकुल आगमन से पहले अग्रवन के रेणुका ग्राम में परशुराम जी का जन्म स्थान उल्लिखित हुआ है।
परशुराम – स्थितिस्थान करह दर्शन।
एथा सिंहासने बसिलेन नारायण।
(भक्ति रत्नाकर 5/876)
प्रयाग हइते क्रमे आसि अग्रवने।
आइलेन शीघ्र जमदग्निर आश्रमे।।
ताँर भार्या रेणुका, ‘रेणुका’ नामे ग्राम।
यथा जन्म लभिलेन श्री परशुराम।।
रेणुका हइते शीघ्र ‘राजग्राम’ दिया।
एइ वृक्षतले रहे गोकुले आसिया।।
(भक्ति रत्नाकर 5/1793-95)
क्षत्रिय रूधिरमये जगदपगतपापं।
स्नपयसि पयसि शमितभवतापं।
केशवघृत भृगुपति रूप जय जगदीश हरे।।
(श्री जयदेव कृत दशवतार स्तोत्र से)
हे केशव! क्षत्रिय रुधिर मय सलिल के द्वारा जगत आप्लुत करके जगत के पापहरणकारी, परशुराम मूर्तिधारी, जगदीश्वर श्री हरि, आपकी जय हो।
1 – ऋचीक मुनि – ब्रह्मा के मानसपुत्र भृगुः के वंश में पुत्र के रूप में जन्म ग्रहण किया।
2 – अक्षोहिणी – 1, 09,350 पैदल सैनिक, 65,610 घोड़े, 27, 870 हाथी एवं 2,870 रथ, कुल मिलाकर 2,8,700, इतनी बड़ी सेना ।
एकेभैकरथा त्रयश्वा पत्ति: पंचपदातिका |
पत्यगैंस्तिगुणे: सर्वे: क्रमादाख्या यथोतरम् ।
सेनामुखं गुल्मगणौ वाहिनी पूतना चमुः ।
अनीकीनी दशानीकिन्य क्षौहिणी ||
-अमर कोष
1 हाथी, 1 रथ, 3 घोड़े और 5 पैदल सैनिक के समूह के सम्बन्ध का नाम पत्ति, इस पत्ति-इसके प्रत्येक को तीन गुणा कर देने पर 3 हाथी, 3 रथ, 9 घोड़े, 5 पैदल सैनिकों का नाम सेना मुख; सेना मुख तीन गुणा गुल्म, गुल्म का तीन गुणा वाहिनी, वाहिनी का तीन गुणा पूतना, पूतना का तीन गुणा चमू, चमू का तीन गुणा अनीकिनी, अनीकिनी का दस गुणा अक्षौहिणी-आशुतोष देव के नवीन बंगला शब्दकोश से।
3 – कश्यप, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, भारद्वाज -तत्र जमदाग्निरेव – सप्तम ऋषिरर्भूत: ।
– विश्वनाथ चक्रवर्ती