इस स्थान को, वर्तमान में सिमुलिया कहते हैं। यह श्रवण-भक्ति की साधना का क्षेत्र है। इस स्थान पर श्रीपार्वती देवी जी ने श्रीकृष्ण जी के गौरावतार के दर्शन पाये थे तथा उन्होनें यहां पर श्री गौरांग महाप्रभु जी के पादपद्मों में प्रणाम के समय श्रीगौरपदधूलि अपने सिर की माँग में धारण की थीं। इसलिये इसे सीमन्तद्वीप कहते हैं। इस संबन्ध में श्रीलभक्तिविनोद ठाकुर अपने श्रीनवद्वीपधाम- माहात्म्य में लिखते हैं-
सिमुलिया देखि’ प्रभु जीव- प्रति कय।
एइ त’ ‘सीमन्तद्वीप’ जानिह निश्चय ॥
गंगार दक्षिण तीरे नवद्वीपे – प्रान्ते।
सीमन्त नामेते द्वीप बले सब शान्ते ॥
काले एइ द्वीप गंगा ग्रासिवे सकल।
रहिबे केवल एकस्थान सुनिर्मल ॥
यथाय सिमुली नामे पार्वती पूजन।
करिबे विषयी लोक करह श्रवण ॥
कोनकाले सत्यसुगे देव महेश्वर।
श्रीगौराङ्ग बलि’ नृत्य करिल विस्तर ॥
पार्वती जिज्ञासे तबे देव महेश्वरे।
केबा से गौराङ्ग, देव बलह आमारे।।
तोमार अद्भुत नृत्य करि’ दरशन।
शुनिया गौराङ्ग- नाम गले मोर मन ॥
एत ये शुनेछि मन्त्र-तन्त्र एतकाल।
से सब जानिनु मात्र जीवेर जञ्जाल ॥
अतएव बल प्रभु गौरांङ्ग-सन्धान।
भजिया ताँहारे आमि पाइब पराण ॥
पार्वतीर कथा शुनि’ देव पशुपति।
श्रीगौरांङ्ग स्मरि’ कहे पार्वतीर प्रति ॥
आद्याशक्ति तुमि हओ श्रीराधार अंश।
तोमारे बलिब तत्त्वगण – अवतंस ॥
राधाभाव लये कृष्ण कलिते एबार।
मायापुरे शचीगर्भे हबे अवतार।।
कीर्तन – रङ्गते माति’ प्रभु गोरामणि।
बितरिबे प्रेमरत्न पात्र नाहि गणि’ ॥
एइ प्रेमवन्याजले ये जीव ना भासे।
धिक् तार भाग्ये देवि जीवन – विलासे ॥
प्रभुर प्रतिज्ञा स्मरि’ प्रेमे याइ भासि’।
धैरय ना धरे मन, छाड़िलाम काशी ॥
मायापुर अन्तभागे जाह्नवीर तीरे।
गौराङ्ग भजिव आमि, रहिया कुटिरे ॥
धूर्जटिर वाक्य शुनि’ पार्वती सुन्दरी।
आइलेन सीमन्तद्वीपेते त्वरा करि ॥
श्रीगौराङ्ग रूप सदा करने चिन्तन।
गौर बलि’ प्रेमे भासे स्थिर नहे मन ॥
कतदिने गौरचन्द्र कृपा वितरिया।
पार्वतीरे देखा दिला, सगणें आसिया ॥
सुतप्त काञ्चन वर्ण, दीर्घ कलेवर।
माथाय चाँचर केश, सर्वाङ्ग सुन्दर ॥
त्रिकच्छ करिया वस्त्र तार परिधान।
गले दोले फूल-माला अपूर्व – विधान ॥
प्रेमे गद्गद वाक्य कहे गौरराय।
बैल गो पार्वती, केन आइले हेथाय ॥
जगतेर प्रभुपदे पड़िया पार्वती।
जानाय आपन दुःख स्थिर नहे मति ॥
ओहे प्रभु जगन्नाथ! जगत – जीवन!।
सकलेरे दयामय मोरे विड़म्बन ॥
तब बहिर्मुख जीवे बन्धन- कारण।
नियुक्त करिले मोरे पति-पावन ॥
आमि थाकि सेइ काजे संसार पातिया।
तोमार अनन्त प्रेमे वञ्चित हइया ॥
लोके बोले यथा कृष्ण, माया नाहि तथा।
आमि तबे बहिर्मुख हइनु सर्वथा ॥
केमने देखिव प्रभु तोमार विलास।
तुमि ना करिले पथ हइनु निराश ॥
एत बलि’ श्रीपार्वती गौर-पद- धूलि।
सीमन्ते लइल सती करिया आकुलि ॥
सेइ हइते श्रीसीमन्तद्वीप नाम हैल ।
सिमुलिया बलि’ अज्ञजनेते कहिल ॥
( श्रीनवद्वीप धाम माहात्म्य छठा अध्याय)
सिमुलिया ग्राम को देखकर, श्रीनित्यानन्द प्रभु, श्रीजीव गोस्वामी जी को कहते हैं- यह निश्चित रूप से जानना कि यह ‘सीमन्तद्वीप’ है। गंगा के दक्षिण की ओर नवद्वीप के प्रान्त में, सीमन्त नाम से द्वीप है।भक्त लोग ऐसा कहते हैं। काल के प्रभाव से गंगा जी इस द्वीप का ग्रास कर लेगी तब केवल एक सुनिर्मल स्थान ही यहां पर रह जायेगा। यहाँ विषयी लोग, सिमुली नाम से पार्वती की पूजा करेंगे।
इसकी कथा सुनो – किसी सत्ययुग में श्रीमहादेव जी को श्रीगौराङ्ग – श्रीगौराङ्ग कहकर बहुत नृत्य करते हुए देखकर पार्वतीदेवी जिज्ञासा करती हैं कि, हे देव! श्रीगौराङ्गदेव कौन हैं ? आपका अद्भुत नृत्य दर्शन करके एवं श्रीगौराङ्ग का नाम सुनकर मेरा मन भगवद्प्रेम में द्रवित हो रहा है। मुझे ऐसा अनुभव हो रहा है कि अब तक जो मन्त्र, तन्त्र मैंने सुने है, वे सभी जीवमात्र के लिये झंझट ही हैं, हे प्रभु! मुझे बताइये कि मैं श्रीगौराङ्गदेव जी की कैसे प्राप्त करूंगी व कैसे उनका भजन करके मैं प्राण धारण करूँगी?
श्रीपार्वती की कथा सुनकर, श्रीपशुपतिदेव, श्रीगौराङ्गदेव जी का स्मरण करके कहते हैं- देवी! तुम आद्याशक्ति, श्रीराधा की अंश हो! तुम, तत्त्वगणों में शिरोमणि हो। मैं तुम्हें श्रीगौरतत्त्व के विषय में कहता हूँ। इस बार कलियुग में श्रीकृष्ण भगवान श्रीराधा जी के भाव को लेकर श्रीमायापुर में ,श्रीशचीमाता को अवलम्बन करके अवतार लेंगे। श्रीगौरामणि प्रभु, कीर्तनरंग में मत्त होकर पात्र- अपात्र का विचार न करके, प्रेम-धन वितरण करेंगे। इस प्रेमरूपी बाढ़ के जल में जो जीव नहीं बहेगा, उसके भाग्य और जीवन को धिक्कार है। पार्वती!मैं तो प्रभु की इस प्रतिज्ञा को स्मरण करके प्रेम में विभोर हो जाता हूँ। इसलिये मैं काशी छोड़कर, श्रीमायापुर के एक कोने में गंगा के किनारे कुटिया बनाकर श्रीगौराङ्ग का भजन करूँगा।
धूर्जटि के वाक्य सुनकर, श्रीपार्वतीदेवी शीघ्र ही सीमन्तद्वीप में आईं।वहां वह श्रीगौरांङ्ग रूप का सदा चिन्तन करती एवं श्रीगौर नाम का कीर्तन करते-करते प्रेम में विभोर हो जातीं। कुछ दिन बाद, श्रीगौरचन्द्र जी ने कृपा करके,अपने पार्षदों के साथ श्रीपार्वतीदेवी को दर्शन दिया-उस समय तपाये हुये सोने के समान वर्ण, दीर्घ कलेवर, सिरपर चाँचर (घुँघराले) केश थे। उनहोनें त्रिकच्छ वस्त्र धारण किये हुये थे, गले में सुगन्धित फूलों की माला अपूर्व शोभा विस्तार कर रही थी। प्रेम में गद्गद होकर श्रीगौरसुन्दर कहने लगे- पार्वती! कहो, तुम यहाँ कैसे आई हो ? जगत्के प्रभु के चरण-कमलों में पड़कर पार्वती ने अपने दुःख की बात कही।उन्होंने कहा, हे प्रभु जगन्नाथ! जगत के जीवनस्वरुप! सभी पर दया करने वाले, किन्तु आपने मुझे अपनी भक्ति से वञ्चित किया हुआ है। हे पतितपावन! तुम ने बहिर्मुख जीवों को संसार में फंसाये रखने के लिये मुझे नियुक्त किया है। मैं उस कार्य के लिये संसार का विस्तार करते हुए आप के सुदुर्लभ प्रेम से वञ्चित हूँ। लोग कहते हैं, जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ माया नहीं है, इसलिये मैं सर्वथा आपके प्रेम से बहिर्मुख हो गयी हूँ। हे प्रभु! मैं आपकी लीला – विलास को कैसे देखूँगी? आपके पथ नहीं दिखाने से मैं निराश हो जाऊँगी। इतना कहकर श्रीपार्वती ने कातरतासहित श्रीगौर -पदधुलि अपने सीमन्त में धारण की। इसलिए इस द्वीप का नाम श्रीसीमन्तद्वीप हुआ है। आजकल इसे लोग सिमुलिया कहते हैं।
(क) बेलपुकुर – शुद्ध भाषा में इस स्थान का प्राचीन नाम बिल्वपुष्करिणी या बिल्वपक्ष था। जनसाधारण, इसको अपभ्रंश भाषा में बेलपौखरा कहते हैं। इस स्थान पर कुछ तपस्वी ब्राह्मणों ने लगातार 15 दिन तक बिल्वपत्र से पंचमुखी शिव की अराधना करके, शिव की कृपा से कृष्णभक्ति प्राप्त की थी, इसलिये इस स्थान का नाम ‘बिल्वपक्ष’ हुआ। श्रीभक्तिरत्नाकर ग्रन्थ के १२ वी तरंग में इस स्थान का माहात्म्य कुछ इस प्रकार लिखा है।
श्रीनिवासे कहे, बेलपौखेरा ए ग्राम।
कहये प्राचीने बिल्वपक्ष पूर्व नाम ॥
बिल्वपक्ष नाम ए स्थानेर यैछे हय।
ताहा किछु कहिये प्राचीन लोके कय ॥
पञ्चवक्त्र शिवमूर्ति छिलेन एखाने।
ता’र ये महिमा ताहा के कहिते जाने ॥
श्रीकृष्णविषये येवा ये कार्य प्रार्थय।
ताहा पूर्ण करे पञ्चवक्त्र दयामय ॥
एक समयेते कत तपस्वी ब्राह्मण।
मनोरथ – सिद्धि-हेतु करे शिवार्चन ॥
एकपक्ष बिल्वदले पूजिते शिवेरे।
हइलेन शिव महाप्रसन्न अन्तरे ॥
कृपा-दृष्ट्ये चाहि’ पञ्चवक्त्र महेश्वर।
विप्रगणे कहे- ‘लह निजाभीष्ट वर’ ॥
विप्रगण कहे- सर्वश्रेष्ठ कार्य याहा।
अनुग्रह करि – मो सबारे देह ताहा’ ॥
विप्रगण कहे शिव- ‘कहिला आश्चर्य।
कृष्ण-परिचर्या बिनु नाहि श्रेष्ठ कार्य’ ॥
विप्रगण कहे- ‘परिचर्या श्रेष्ठ हय।
किरूपे हइबे लभ्य कह कृपामय’ ॥
पञ्चवक्त्र कहे- ‘किछु चिन्ता ना करिबे।
अनायासे कृष्ण-परिचर्या लभ्य ह’बे ॥
एइ कथोदिने एइ नदीया – नगरे।
कृष्ण अवतीर्ण हइबेन विप्रघरे ॥
तोमराओ से संगे प्रकट हइबा ।
तारे बाल्यावेशे महासुख जन्माइबा ॥
करिया ताँहार स्थाने विद्या अध्ययन ।
जानिबा ताँहारे पूर्णब्रह्म – सनातन ॥
तार प्रिय भक्त-सह सदा कुतूहले।
ताँर परिचर्यारत हइबा सकले ॥
शुनि’ पञ्चवक्त्र महादेवेर वचन।
भूमे पड़ि’ प्रणमिला सकल ब्राह्मण ॥
करिया अनेक स्तुति विदाय हइया।
कृष्णपादपद्म चिन्ते निभृते रहिया ॥
ओहे श्रीनिवास, गौरकृष्णेर इच्छाय।
कथोदिने पञ्चवक्त्र हैला गुप्तप्राय ॥
एकपक्ष बिल्वदले पूजिल ब्राह्मण।
एइ हेतु बिल्वपक्ष नाम विज्ञे के’न ॥
ईशान ने श्रीनिवास को कहा कि यह बेलपोखेरा ग्राम है, पहले प्राचीन लोग इसे बिल्वपक्ष कहते थे। इस स्थान का नाम बिल्वपक्ष कैसे हुआ ? प्राचीन लोग इसे बारे में बताते हैं कि पहले यहाँ पंचमुखी- शिव की मूर्ति थी। उनकी महिमा कौन कह सकता था। श्रीकृष्ण जी की सेवा के लिये यदि कोई भी शिवजी से प्रार्थना करते तो दयामय पंचवक्त्र शिव पूर्ण कर देते थे। एक समय कुछ तपस्वी ब्राह्मणों ने अपने मनोरथ की सिद्धि हेतु शिव जी का अर्चन किया था। एकपक्ष काल तक बिल्वपत्र द्वारा शिव जी की पूजा करने से शिव जी बहुत प्रसन्न हुए। महेश्वर जी प्रकट होकर विप्रगणोंपर कृपा-दृष्टि से देखते हुए कहने लगे- आप मुझसे अभीष्ट वर माँग लो’।
विप्रगणों ने कहा- इस संसार का जो सर्वश्रेष्ठ कार्य है, अनुग्रह करके, हम सब को यही वर दीजिये। शिव जी ने विप्रगणों को कहा- आप सभी ने बड़े आश्चर्य की बात कही है कि “श्रीकृष्ण की सेवा के बिना कोई भी श्रेष्ठ कार्य नहीं है”।
विप्रगणों ने कहा- हम मानते हैं कि श्रीकृष्ण परिचर्या ही सर्वश्रेष्ठ है, हे कृपामय! आप हमें यह बतायें कि वह सेवा हमें किस तरह से प्राप्त हो सकती है?
पंचमुखी शिव ने कहा – ‘कुछ चिन्ता न करना, तुम्हें अनायास में श्रीकृष्ण -परिचर्या लाभ होगी क्योंकि कुछ दिनों बाद नदीया नगर में विप्र के घर श्रीकृष्ण अवतीर्ण होंगे। तुम भी उसके साथ प्रकट होओगे एवं उनकी बाल्यलीला में साथ रहकर उन्हें बहुत सुख दोगे। उनके पास विद्या- अध्ययन करने से, तुम सब जान जाओगे कि वे पूर्णब्रह्म सनातन हैं। उनके प्रिय -भक्तों के साथ तुम सब सदा उनकी परिचर्या में लगे रहोगे।
पंचमुखी महादेव के वचन सुनकर सब ब्राह्मणों ने उन्हें प्रणाम किया तथा अनेक प्रकार से स्तुति करके वहाँ से विदा हुए एवं एकान्त में रहकर श्रीकृष्ण- पादपद्यों की चिन्तन करते लगे। ओहे श्रीनिवास! श्रीगौरकृष्ण की इच्छा से कुछ दिन बाद पंचमुखी शिव, गुप्त प्राय हो गये। लगातार 15 दिनों तक बिल्वदल से ब्राह्मणों ने पूजा की थी, इसलिये विद्वान, इस ग्राम को ‘बिल्वपक्ष’ नाम से कहते हैं।
(ख) गंगानगर — यहाँ निमाइ पण्डित के अध्यापक, श्रीगंगादास पण्डित का घर था। उनके घर में बनी पाठशाला में ही श्रीनिमाइ पण्डित व्याकरण का अध्ययन करते थे। यह स्थान वर्तमान में लुप्त होने पर भी इस स्थान की महिमा के सम्बन्ध में श्रीलभक्तिविनोद ठाकुर ‘श्रीनवद्वीपधाम – माहात्म्य ग्रन्थ के छठें अध्याय में लिखते हैं-
प्रभु बले शुन जीव ए गंगानगर।
स्थापिलेन भगीरथ रघुवंशधर ॥
यबे गंगा भागीरथी आइल चलिया।
भगीरथ याय आगे शंख बाजाइया ॥
नवद्वीपे – धामे आसि’ गंगा हय स्थिर।
भागीरथ देखे गंगा ना हय बाहिर ॥
भयेते विह्वल ह’ये राजा भागीरथ।
गंगार निकटे आइल फिरि’ कत पथ ॥
गंगानगरेते बसि’ तप आरम्भिल।
तपे तुष्ट हय गंगा साक्षात् हइल ॥
भगीरथ बले माता तुमि नाहि गेले।
पितृलोक उद्धार ना हबे कोन काले ॥
गंगा बले शुन बाछा भगीरथ वीर।
किछुदिन तुमि हेथा हये थाक स्थिर ॥
माघ मासे आसियाछि नवद्वीप-धामे।
फालगुनेर शेषे याव तब पितृकामे ॥
याहार चरणजल आमि भागीरथ।
तार निज- धामे मोर पूरे मनोरथ ॥
फाल्गुन – पूर्णिमा- तिथि प्रभु जन्मदिन।
सेइदिन मम व्रत आछे समीचीन ॥
सेइ व्रत उद्यापन करिया निश्चय।
चलिब तोमार संगे ना करिह भय ॥
ए गंगानगरे राजा रघु- कुलपति।
फाल्गुन – पूर्णिमा दिने करिल वसति ॥
येइ जन श्रीफाल्गुन- पूर्णिमा- दिवसे।
गंगास्नान करि’ गंगा-नगरेते वसे ॥
श्रीगौरांग – पूजा करे उपवास करि।
पूर्व पुरुषेर सह सेइ याय तरि ॥
सहस्र पुरुष पूर्वगण संगे करि।
श्रीगोलोक प्राप्त हय यथा तथा मरि ॥
ओहे जीव, ए स्थानेर माहात्म्य अपार।
श्रीचैतन्य नृत्य यथा कैल कतबार ॥
गंगादास गृह आर संजय- आलय।
ऐ देख दृष्ट हय सदा सुखमय ॥
श्री नित्यानन्द प्रभु कहते हैं- जीव, सुनो! इस गंगानगर को रघुवंशधर राजा भगीरथ ने स्थापित किया था। जब गंगा चली आ रही थीं तो राजा भागीरथ आगे-आगे शंख बजाते जा रहे थे। श्रीनवद्वीपधाम में आकर, गंगाजी स्थिर हो गईं। राजा भगीरथ ने देखा कि गंगा और आगे प्रस्थान नही कर रही हैं ,तो भय से विह्वल होकर राजा भगीरथ वापस आकर गंगा के निकट आये एवं गंगानगर में बैठकर उन्होंने तप आरम्भ कर दिया। तप से तुष्ट होकर गंगा साक्षात् प्रकट हुई, तब राजा भगीरथ कहते हैं- माता!आपके नहीं जाने से, पितृगणों का किसी काल में भी उद्धार नहीं होगा।
गंगाजी ने कहा- वीर पुत्र भागीरथ! सुनो, कुछ दिन तुम यहाँ स्थिर भाव से रहो। मैं, श्रीनवद्वीपधाम में माघ के महीने में आई हूँ, फाल्गून महीने के शेष में यहाँ से तुम्हारे पितरों के उद्धार के लिये जाऊँगी। हे भगीरथ! मैं जिनकी चरणजल हूँ, उनके निजधाम में मेरे मनोरथ पूर्ण होंगे। प्रभु की जन्म तिथि फाल्गुनी पूर्णिमा है, उस दिन मेरा व्रत है। उस व्रत का पूरा करके, निश्चय तुम्हारे साथ चलूँगी, तुमें भय नहीं करना चाहिए। रघु-कुलपति राजा ने फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन इस गंगानगर में वास किया। जो व्यक्ति,फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन गंगा नगर में वास करके एवं उपवास करके श्रीगौरांग की पूजा करते हैं, वह अपने पूर्व पुरुषों के साथ तर जाते हैं। जहाँ कहीं भी मृत्यु हो, वह, एक हज़ार पूर्व पुरुषों के साथ श्रीगोलोक को प्राप्त होते हैं। ओहे जीव! इस स्थान का माहात्म्य अपार है, यहाँ श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कितनी बार नृत्य किया है। यहीं पर गंगादास जी का और श्रीसञ्जय जी का घर है। जो सदा सुखमय दृष्ट होते हैं।
(ग) शरडांगा – शूर – राजगण के राजत्वकाल में गौड़ की राजधानी ‘शोरडांगा’ थी,इसे ही वर्तमान में ‘शरडांगा’ नाम से कहा जाता है। इस शरडांगा का नाम ‘शबरक्षेत्र’ भी था। काला पाहाड़ के अत्याचार के कारण से श्रीक्षेत्र से श्रीजगन्नाथदेव की श्रीमूर्ति लाकर, शवरक्षेत्र में स्थापित हुई थी। इस स्थान पर श्रीजगन्नाथदेवजी, शबरगण की कृपा करने के लिये विराजमान हैं, इसलिये यह स्थान अभिन्न पुरुषात्तमक्षेत्र है। एक प्राचीन मन्दिर में श्रीजगन्नाथदेव, श्रीबलराम और श्रीसुभद्रा जी विराजमान हैं। पौराणिक उक्ति के अनुसार पूर्वकाल में रक्तबाहु नाम के एक विष्णुद्वेषी ने दुष्ट आचरण आरम्भ करने पर अर्चावतार श्रीजगन्नाथदेव परम समर्थ होते हुये भी, असमर्थ की लीला आविष्कारपूर्वक भक्तगणों के प्रेमानन्दामृत सिंधु को मन्थन करने के लिये श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र से इस स्थान पर अपने सेवकों के सहित आगमन किया था।
श्रीनवद्वीपधाम- माहात्म्य’ छठे अध्याय में वर्णित है-
श्रीजीवेर बलेन वचन।
ओइ देख शरडांगा अपूर्व दर्शन ॥
श्रीशरडांगा नाम अति मनोहर।
जगन्नाथ बैसे यथा लइया शबर ॥
पूर्वे यबे रक्तबाहु दौरात्म्य करिल।
दयिता सहित प्रभु हेथाय आइल ॥
श्रीपुरुषोत्तम सम ए धाम हय।
नित्य जगन्नाथस्थिति तथाय निश्चय ॥
श्रीनित्यानन्द प्रभु, श्रीजीव को कहते हैं — शरडांगा का अपूर्व दर्शन देखो। श्रीशरडांगा नाम अति मनोहर हैं, जहाँ श्रीजगन्नाथदेव, शबर को साथ लेकर रहे थे। पहले जब रक्तबाहु ने दुष्ट आचरण किया था, तब अपने प्रिय दयिता – सेवकों के साथ, प्रभु यहाँ आये थे। श्रीपुरुषोत्तम के समान यह धाम है, निश्चय यहाँ श्रीजगन्नाथ की नित्य स्थिति है।
(घ) श्रीधर – अङ्गन – श्रीमायापुर के शेष प्रान्त में, एवं चाँदकाजी की समाधि के दक्षिण – पूर्व में, श्रीधर – अंङ्गन अवस्थित है। श्रीधर, श्रीमहाप्रभु के परमप्रिय निष्किंचन भक्त थे। श्रीमहाप्रभुजी से खेल ही खेल में श्रीधर जी के साथ खूब प्रेम से झगड़ा करते थे। श्रीधर कुछ अप्रीति का भाव दिखाते हुए भी, अन्दर से खूब आनन्द पाते थे। श्रीमहाप्रभु ने संकीर्तनदल के साथ, श्रीधर की कुटी में विश्राम किया था। इस कारण से, इस स्थान को विश्राम स्थल भी कहते हैं। श्रीधर, अत्यन्त दरिद्र थे, उनका एक केलों का बाग था। केला, मोचा, थोड़ इत्यादि बेचकर अपनी जीविका निर्वाह करते थे। श्रीमहाप्रभु, श्रीधर के निकट से थोड़, केला, मोचा आदि, बिना मूल्य देकर अथवा कम मूल्य देकर ले लिया करते थे। श्रीमहाप्रभु ने श्रीधर के गृह में, विश्राम के समय, बहु छिद्रयुक्त एक लोहे के बर्तन से जल पान किया था।
इस सम्बन्ध में ‘श्रीनवद्वीप – धाम महात्म्य’ छठे अध्याय में लिखित है-
तबे तन्तुवायग्राम हइलेन पार।
देखिलेन खोलाबेचा श्रीधर – आगार ॥
प्रभु बले एइ स्थाने श्री गौरांग हरि।
कीर्तन विश्राम कैल भक्ते कृपा करि ॥
एइ हेतु श्रीविश्रामस्थान एर नाम।
हेथ श्रीधरेर झारे करह विश्राम ॥
श्रीधर शुनिल यबे, प्रभु आगमन।
साष्टांग आसिया करे प्रभुर पूजन ॥
बले प्रभु बड़ दया ए दासेर प्रति।
विश्राम करह हेथा आमार मिनति ॥
प्रभु बले तुमि हओ अति भाग्यवान्।
तोमारे करिल कृपा गौर भगवान् ॥
अद्य मोरा एइ स्थाने करिब विश्राम।
शुनिया श्रीधर तबे हय आप्तकाम ॥
बहु यत्ने सेवायोग्य सामग्री लइया।
रन्धन कराय भक्त ब्राह्मणेरे दिया ॥
निताइ श्रीवास सेवा हैले समापन।
आनन्दे प्रसाद पाय श्रीजीव तखन ॥
नित्यानन्दे खट्टोपरि कराय शयन।
सवंशे श्रीधर करे पादसंवाहन ॥
श्रीधरेर कलाबाग देखित सुन्दर।
ओहे जीव, ए स्थानेर माहात्म्य अपार ॥
श्रीचैतन्य नृत्य यथा कैल कतबार।
इहार निकटे एक देख सरोवर ॥
एइ सरोवरे कभु करि’ जलखेला।
महाप्रभु हइलेन श्रीधरेर खोला ॥
अद्यावधि मोचा -थोड़ लइया श्रीधर।
श्रीशचीमाताके देय उल्लास अन्तर ॥
श्रीचैतन्यचरितामृत, आ० १०। ६७-६८ में लिखा है-
खोला – बेचा श्रीधर प्रमुख प्रियदास ।
याँहा – सने प्रभु करे नित्य परिहास ॥
प्रभु यार नित्य लय थोड़-मोचा- फल ।
यार फुटा – लौहपात्रे प्रभु पिला जल ॥
तब श्रीनित्यानन्द प्रभु एवं श्रीजीव, जुलाहों के ग्राम से पार हुए और खोला बेचा श्रीधर के गृह को देखा। श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा कि इस स्थान पर भक्तों पर कृपा करते हुए श्रीगौरांग हरि ने नृत्य-कीर्तन में विश्राम किया था। इसलिये इसका नाम विश्राम स्थान हुआ। यहाँ श्रीधर के घर पर हम भी विश्राम करेंगे। श्रीधर ने जब श्रीनित्यानन्द प्रभु के आगमन का समाचार सुनातो उन्होंने उन्हें साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करके श्रीमन् नित्यानन्द का पूजन किया। श्रीधर ने कहा, प्रभु! आपने इस दास पर बड़ी दया की है, मेरी यही विनती है कि आप यहाँ विश्राम करें।
श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा, तुम अति भाग्यवान् हो, क्योंकि तुम पर श्रीगौर भगवान् ने कृपा की थी। ठीक है, आज मैं यहाँ विश्राम करूँगा। श्रीनित्यानन्द जी के विश्राम की बात सुनकर श्रीधर बड़े सन्तुष्ट हुए। बहुत यत्न के साथ सेवायोग्य सामग्री लेकर, भक्त ब्राह्मण द्वारा रसोई बनवाई श्रीनिताइ प्रभु एवं श्रीनिवास पंडित की प्रसाद सेवा समापन होने पर श्रीजीव ने तब आनन्द से प्रसाद पाया। श्री नित्यानन्द प्रभु को चारपाई पर शयन कराकर श्रीधर ने सवंश, प्रभु का पादसंवाहन किया था।
श्रीधर का केले का बाग देखने में बड़ा सुहावना है। इसके निकट एक तालाब को देखो। इस तालाब में जलक्रीड़ा करके श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीधर के खोला ( केले का पेड़ का आवरण) उठा लिया था। और आज भी श्रीधर, अपने बाग का मोचा (केले की फूल), थोड़ (केले के पेड़ का अन्दर का सारांश); श्रीशचीमाता को देते हैं।
श्रीचैतन्यचरितामृत, आ० १०।६७-६८) में कहा है – खोला (केले के पेड़ का आवरण) बेचनेवाला श्रीधर श्रीमन्महाप्रभु प्रभु का प्रियदास था, जिसके साथ प्रभु, नित्य परिहास करते थे। श्रीमन्महाप्रभु, जिनसे रोज़ केला, थोड़ और मोचा लेते थे, एवं श्रीधर के लोहे के फूटे बरतन से जल पान किया करते थे।