यह द्वीप ‘सख्य’ – भक्ति का क्षेत्र है। रुद्रद्वीप को चलती भाषा में ‘रादुपुर’ कहते हैं। इस रुद्रद्वीप का प्राचीन इतिहास इस प्रकार है– सुवर्णवर्ण श्रीगौरहरि नदीया में प्रकट होंगे, यह जानकर श्रीरुद्रदेव पहले से अपने गणों के साथ यहाँ आकर बड़े उल्लास के साथ नृत्य कीर्तनादि करने लगे। उनका नृत्य – कीर्तनादि दर्शन करके, स्वर्गलोक से देवगणों ने पुष्पवृष्टि की थी। श्रीरुद्रदेव, श्रीगौर -गुणगान में आत्मविस्मृत होकर जब हुंकार करते थे, तब पाषण्ड गणों का हृदय मर्माहत होता था। श्रीगौरसुन्दर ने श्रीरुद्रदेव के हृदय की मनोव्यथा देखकर, उन्हें साक्षात् दर्शन दिया एवं कहा कि, वे शीघ्र ही श्रीमायापुर में श्रीशचीगर्भ से आविर्भूत होकर उनकी अभिलाषा पूर्ण करेंगे। श्रीरुद्रदेव ने विचित्र स्तव द्वारा श्रीगौरहरि की आरती करनेपर श्रीगौरहरि ने श्रीरुद्रदेव को आलिङ्गन करके अन्तर्हित हो गये।
नील तथा लोहितादि एकादश रुद्रों ने यहाँ श्रीगौरहरि का भजन किया था, इसलिए यह स्थान ‘रुद्रद्वीप’ के नाम से विख्यात है। इस स्थान पर ही शुद्धाद्वैतवादगुरु श्रीविष्णुस्वामी जी ने श्रीरुद्रदेव की कृपा प्राप्त की थी। इस स्थान पर ही श्री श्रीधर स्वामीपाद ने श्रीगौरहरि की कृपा प्राप्त की थी।
‘श्रीभक्तिरत्नकार’ के विवरण से मालूम होता है कि श्री श्रीनिवास आचार्य प्रभु के भ्रमण – काल के समय यह रुद्रद्वीप व रुद्रपाड़ा गङ्गा के कटाव से लुप्त हो गया था। बाद में इसका अवस्थान गङ्गा के पूर्वपार में हुआ। इस संबन्ध में “श्रीभक्ति रत्नाकर” के द्वादश तरङ्ग में वर्णित है: –
गंगार पूर्व पारे रादुपुर ग्राम हय।
केहो केहो रादुपुरे रुद्रद्वीप कय॥
श्रीईशान ठाकुर से रादुपुरे गिया।
श्रीनिवास- प्रति कहे ईषत् हासिया॥
एइ रादुपुर, पूर्वे ‘रुद्रद्वीप’ नाम।
ग्राम लुप्त हैल एबे आछे मात्र स्थान॥
रुद्रद्वीप नाम यैछे प्रचार लइल।
ताहा किछु कहि, विज्ञमुखे ये शुनिल॥
गौरचन्द्र प्रकट हइब नदीयाय।
इथे श्रीरुद्रदेव महा उल्लास हियाय॥
निजगणसने रुद्रदेव एइखाने।
हइला उन्मत्त गौर – चरित्र कीर्तने॥
प्रभु ना जन्मिते, रुद्र प्रभुगण गाय।
एबे प्रभु अवश्य जन्मिब नदीयाय॥
देखि’ प्रभु – जन्मलीला जुड़ाब’ नयन।
एत कहि’ स्वर्गे ओ नाचये देवगण॥
प्रभुगुणगाने रुद्र आत्म-विस्मरित।
हइला अधैर्य प्रभु देखि ‘ रुद्ररीत॥
अन्य – अलक्षित रुद्रदेवे देखा दिया।
रुद्रदेवे करे स्थिर ऐछे प्रबोधिया॥
तोमार ये मनोवृत्ति सफल करिब।
अति अविलम्बे गणसह प्रकटिब॥
प्रभुवाक्ये रुद्र स्थिर हैया महानन्दे।
विविधप्रकारे स्तुति करे गौरचन्द्रे॥
श्रीगौरसुन्दर रुद्रदेवे आलिङ्गिया।
हइलेन अदर्शन प्रेमाविष्ट हइया॥
प्रभु- अदर्शने रुद्र व्याकुल हियाय।
कतक्षणे स्थिर हैला प्रभुर इच्छाय॥
निजगणसह रुद्र वसि’ एइखाने।
करे सुधावृष्टि गौर चरित्र कथने॥
ओहे श्रीनिवास, ए परम पुण्य स्थान।
श्रीरुद्र विलासे तेञि ‘रुद्रद्वीप’ नाम॥
गंगा के पूर्व पार में रादुपुर ग्राम है। कोई-कोई रादुपुर को रुद्रद्वीप भी कहते हैं। श्रीईशान ठाकुर रादुपुर में जाकर श्रीनिवास के प्रति कुछ हँसकर कहने लगे कि यह रादुपुर ग्राम है। पहले इसका रुद्रद्वीप नाम था। ग्राम लुप्त हो गया है अब सिर्फ स्थान है। इसका रुद्रद्वीप नाम कैसे नाम पड़ा ? विज्ञजनों के मुख से जो सुना है, वह कहता हूँ। श्रीगौरचन्द्र नदीया में प्रकट होंगे, यह सुनकर श्रीरुद्रदेव के चित्त में महा उल्लास हुआ। पने निज जनों के साथ श्रीरुद्रदेव यहाँ आकर श्रीगौरगुण गान में उन्मत्त हुए थे।
जब श्रीगौरहरि प्रकट भी नहीं हुए थे और श्रीरुद्रदेव जी श्रीगौरहरि के गुण गाते थे। अब प्रभु नदीया में अवश्य जन्मग्रहण करेंगे, स्वर्ग में देवगण यह कहकर नृत्य करने लगे कि प्रभु की जन्मलीला देखकर हम अपने नयनों को सार्थक करेंगे। प्रभु के गुणगान में श्रीरुद्र आत्म-विभोर हो गये, श्रीरुद्र की ऐसी अवस्था देखकर, प्रभु अधीर हो गये तथा स्वयं ही श्रीरुद्रदेव को दर्शन देने चल पड़े। इस प्रकार प्रबोधन देकर रुद्रदेव जी को स्थिर किया और कहा कि मैं तुम्हारी मनोवृत्ति को सफल करूँगा एवं शीघ्र ही पार्षदों के साथ डनवद्वीप में प्रकट होऊँगा।
प्रभु के वाक्य सुनकर श्रीरुद्रदेव जी स्थिर हो गये एवं विविध प्रकार से वे श्रीगौरचन्द्र की स्तुति करने लगे। श्रीगौरसुन्दर ने प्रेमाविष्ट होकर श्रीरुद्रदेव को आलिङ्गन किया और अदृश्य हो गये। प्रभु के अदर्शन से श्रीरुद्रदेव का चित व्याकुल हो गया किन्तु प्रभु की इच्छा से कुछक्षण बाद स्थिर हो गये। अपने गणों के साथ इस स्थानपर श्रीरुद्रदेव ने वास किया और श्रीगौरचरित्ररूपी सुधावृष्टि करने लगे।
ईशान ठाकुर जी ने कहा-ओहे श्रीनिवास यह परम पुण्य स्थान है, श्रीरुद्रदेव ने यहाँ वास किया था, इसीलिये इसे ‘रुद्रद्वीप’ कहते हैं।
श्रील भक्तिविनोद ठाकुर इस संबन्ध में “श्रीनवद्वीप – धाम माहात्म्य” ग्रन्थ के पंचदश अध्याय में इस प्रकार लिखते हैं:-
एइसब पूर्वकथा बलिते बलिते।
रुद्रदीपे उपनीत देखिते देखिते॥
प्रभु नित्यानन्द बले एइ रुद्रखण्ड।
भागीरथी प्रभावे हइल दुइ खण्ड॥
लोकवास नाहि हेथा प्रभुर इच्छाय।
पश्चिमेर द्वीप देख पूर्व पारे याय॥
हेथा हइते देख ऐ श्रीशंकरपुर।
शोभा पाय गंगातीरे देख कतदूर॥
शंकर आचार्य यबे करे दिग्विजय।
नवद्वीप जये तथा उपस्थित हय॥
मनेते वैष्णवराज आचार्य शंकर।
बाहिरे अद्वैतवादी मायार किंकर॥
निजे रुद्र – अंश सदा प्रतापे प्रचुर।
प्रच्छन्न बौद्धेर मत प्रचारेते शूर॥
प्रभुर आज्ञाय रुद्र एइ कार्य करे।
आइलेन यबे तेहँ नदीया नगरे॥
स्वपने प्रभु गौरचन्द्र दिला दरशन।
कृपा करि बले तारे मधुर वचन॥
तुमि त’ आमार दास मम आज्ञा धरि।
प्रचारिछ मायावाद बहु यत्न करि॥
एइ नवद्वीपधाम मम प्रिय अति।
हेथा मायावाद कभु ना पाइबे गति॥
वृद्धशिव हेथा प्रौढ़ामायारे लइया।
कल्पित आगमगणे देन प्रचारिया॥
मम भक्तगणे द्वेष करे येइ जन।
ताहारे केबल तेहँ करेन वञ्चन॥
एइस्थाने साधारणे मम भक्त हय।
दुष्टमत प्रचारेर स्थान इहा नय॥
अतएव तुमि कर अन्यत्र गमन।
नवद्वीप – वासिगणे ना कर पीड़न॥
स्वपने नवद्वीप-तत्त्व जानिया तखन।
भक्त्यावेशे अन्य देशे करिल गमन॥
एइ रुद्रद्वीप हय रुद्रगण स्थान।
हेथा रुद्रगण गौर – गुण करे गान॥
श्रीनील-लोहित रुद्रगण – अधिपति।
महानन्दे नृत्य हेथा करे निति निति॥
रुद्रनृत्य देखि ‘ आकाशेते देवगण।
आनन्देते करे सबे पुष्प – वरिषण॥
कदाचित् विष्णुस्वामी आसि दिग्विजये।
रुद्रद्वीपे रहे रात्रे शिष्यगण ल’ये॥
हरि हरि बलि’ नृत्य करे शिष्यगण।
विष्णुस्वामी श्रुति-स्तुति करेन पठन॥
भक्ति आलोचना देखि’ ह’ये हरषित।
कृपा करि’ देखा दिल श्रीनील-लोहित॥
वैष्णव- सभाय रुद्र हेल उपनीत।
देखि’ विष्णुस्वामी अति हैल चमकित॥
कर युड़ि’ स्तव करे विष्णु ततक्षण।
दयार्द्र हइया रुद्र बलेन वचन॥
तोमरा वैष्णवजन मम प्रिय अति।
भक्ति आलोचना देखि’ तुष्ट मम मति॥
वर माग, दिब दिब आमि हइया सदय।
वैष्णवे अदेय मोर किछु नहि हाय॥
दण्डवत् प्रणमिया विष्णु महाशय।
कर युड़ि ‘ वर मागे प्रेमानन्दमय॥
एइ वर देह प्रभु आमा सबाकारे।
भक्ति-संप्रदाय-सिद्धि लभि अतः परे॥
परम आनन्दे रुद्र वर करि’ दान।
निज संप्रदाय बलि’ करिल आख्यान॥
सेइ हइते विष्णुस्वामी स्वीय संप्रदाय।
श्रीरुद्र नामेते ख्याति दिया नाचे गाय॥
रुद्र- कृपाबले विष्णु ए स्थाने रहिया।
भजिल श्रीगौरचन्द्र प्रेमेर लागिया॥
स्वपने आसि’ श्रीगौराङ्ग विष्णुरे बलिल।
मम भक्त – रुद्र – कृपा तोमारे हइल॥
धन्य तुमि नवद्वीपे पाइले भक्तिधन।
शुद्धाद्वैत- मत प्रचारह एइक्षण॥
कतदिने हबे मोर प्रकट- समय।
श्रीबल्लभभटरूपे हइबे उदय॥
श्रीक्षेत्रे आमारे तुमि करि’ दरशने।
संप्रदाय सिद्धि पाबे गिया महावने॥
ओहे जीव! श्रीबल्लभ गोकुले एखन।
तुमि तथा गेले पाबे तार दरशन॥
इस प्रकार पहले की कथा कहते हुये श्रीमन् नित्यानन्द जी तथा जीव गोस्वामी जी रुद्रद्वीप में आ गये। श्रीनित्यानन्द प्रभु कहते हैं- यह रुद्रखण्ड है। भागीरथी नदी के प्रभाव से दो खण्डों में विभक्त हो गया है। प्रभु की इच्छा से यहाँ लोगों का वास नहीं है। यहाँ से श्रीशंकरपुर को देखो जो कुछ दूरी पर गंगा के किनारे शोभा पा रहा है। शंकराचार्य जब दिग्विजय कर रहे थे तब नवद्वीप को जय करने के लिये उपस्थित हुए थे। वैसे आचार्य शंकर वैष्णवराज हैं किन्तु बाहर में अद्वैतवादी माया के किंकर की तरह थे। प्रभु की आज्ञा से श्रीरुद्र मायावाद का प्रचार कर रहे थे। जब वह नदीयानगर में आये श्रीगौरचन्द्र ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिया। उन पर कृपा करके श्रीगौरचन्द्र जी मधुर वचन में बोले– शंकर !तुम मेरे दास हो तथा मेरी आज्ञा को धारण करके बहुत यत्न के साथ मायावाद का प्रचार कर रहे हो। यह नवद्वीप धाम मेरा अति प्रिय है। यहाँ, मायावाद स्थान नहीं पा सकता है। यहाँ वृद्धशिव, प्रौढ़ामाया को लेकर वेदादि शास्त्रों के कल्पित अर्थ का प्रचार करते हैं। मेरे भक्तगणों से जो जन द्वेष करते हैं, वृद्धशिव केवल उनकी वंचना करते हैं। इस स्थान पर साधारण लोग भी मेरे भक्त हैं, दुष्टमत प्रचार के लिये यह स्थान नहीं है। अतएव तुम कहीं और जाओ, मेरे नवद्वीपवासियों को पीड़ा मत दो। तब स्वप्न में नवद्वीप- तत्त्व को जानकर भक्त्यावेश में शंकराचार्य अन्य देश की ओर चले गये।
यह रुद्रद्वीप, रुद्रगणों का स्थान है। यहाँ रुद्रगण हमेशा श्रीगौर – गुणगान करते हैं। श्रीनील – लोहित रुद्रगणों के अधिपति महादेव जी महानन्द में यहाँ नित्यप्रति नृत्य करते हैं। रुद्रगणों का नृत्य देखकर आकाश से देवगण आनन्द में पुष्पों की वर्षा करते हैं। एक समय श्रीविष्णुस्वामी दिग्विजय करते हुए शिष्यगण के साथ रुद्रद्वीप में रात को रहे थे।यहां उनके शिष्यगण हरि- हरि बोलकर नृत्य करने लगे एवं विष्णुस्वामी जी वेद- स्तुति पाठ करने लगे। भक्ति की चर्चा देखकर हर्षित होकर श्रीनील-लोहित आदि रुद्रों ने विष्णुस्वामी जी को दर्शन दिया। वैष्णव सभा में श्रीरुद्रदेव को देखकर विष्णुस्वामी जी अति चमत्कृत हुए एवं हाथ जोड़कर स्तव करने लगे। दयार्द्र होकर श्रीरुद्र कहने लगे- तुम वैष्णवजन मेरे अति प्रिय हो। भक्ति की चर्चा देखकर मैं सन्तुष्ट हुआ हूँ। मुझ से वर मांगो। वैष्णव के लिये ऐसा कुछ नहीं है, जो मैं नहीं दे सकता।
विष्णुस्वामी ने दण्डवत् प्रणाम करके हाथ जोड़कर कहा- हे प्रभो! यह वर दो कि हम सब की भक्ति-संप्रदाय में सिद्धि लाभ हो। परम आनन्द से रुद्र ने वर प्रदान करके उन्हें अपने संप्रदाय में स्वीकार कर लिया। तब से विष्णुस्वामी ने अपने संप्रदाय को श्रीरुद्र-संप्रदाय की ख्याति देकर प्रचार करने लगे। श्रीरुद्र की कृपा से विष्णुस्वामी ने इस स्थान पर रहकर भगवद्-प्रेम प्राप्ति हेतु, श्रीगौरचन्द्र का भजन किया था तथा स्वप्न में श्रीगौरांगदेव जी विष्णुस्वामी को बोले – मेरे भक्त रुद्र की तुम पर कृपा हुई है। तुम धन्य हो। नवद्वीप में तुमने भक्ति – धन को पाया है। अब शुद्धाद्वैत – मत का प्रचार करो। कुछ दिन बाद मेरे प्रकट के समय श्रीवल्लभ भट्ट नाम से तुम जन्म लोगे। श्रीक्षेत्र में तुम मेरा दर्शन पाओगे। महावन में जाकर तुम्हारे संप्रदाय की सिद्धि होगी | श्रीनित्यानन्द प्रभु कहते हैं ओहे जीव! श्रीवल्ल्भ भट्ट अभी गोकुल में हैं, तुम वहाँ जाने पर उनके दर्शन पाओगे।