इस द्वीप को वर्तमान में ‘रातुपुर’ कहते हैं। यह अर्चन भक्ति का क्षेत्र है।।इस स्थान पर छः ऋतुएं सब समय विराजमान हैं ,इसलिये इस का नाम ‘ऋतुद्वीप’ हुआ है। है।
‘श्रीभक्तिरत्नाकर’ बारहवीं तरङ्ग में कहा गया है-
रातुपुर ग्रामेर निकट गिया कय।
देख ‘ऋतुद्वीप’ ए परम शोभामय॥
पूर्वे वृहद्ग्राम, एबे ग्राम नाममात्र।
एथा छिला कृष्णेर अनेक भक्तिपात्र॥
रातुपुर प्रदेश परम चमत्कार।
एथा गौराङ्गेर अति अद्भुत विहार॥
ओहे श्रीनिवास ऋतुद्वीपाख्या ये-मते।
ताहा कहि’- ये कहये प्राचीन लोकेते॥
एथा छय ऋतु – वर्षा,शरद्, हेमन्त।
शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म सबे मूर्तिमन्त॥
केहो कारू प्रति कहे मधुर भाषाय।
हइब प्रकट कृष्णचन्द्र नदीयाय॥
केह कहे, करिबेन अद्भुत बिहार।
तिले तिले मोद बाड़ाबेन मो – सबार॥
केह कहे, ब्रजेन्द्रनन्दन गौरहरि।
कतदिने मोद जन्माइब अवतरि॥
केह कहे, कलिर प्रथमे अवतार।
श्रीनारदमुनि कैल सर्वत्र प्रचार॥
केह कहे, कह अवतारेर समय।
केह कहे वसन्तेर भाग्य अतिशय॥
हइला वसन्त ऋतु हर्ष अनिवार।
आपनेइ प्रशंसये भाग्य आपनार॥
ऋतुराज वसन्त सहित ऋतुगण।
प्रभु अवतीर्ण चिन्ता करे अनुक्षण॥
ऋतुगण बहु अभिलाषे आराधय।
एइ हेतु ए ‘ऋतुद्वीप’ नाम पूर्वे कय॥
वसन्तादि ऋतुछये प्रभुर विलास।
एबे कि कहिब, आगे हइब प्रकाश॥
एस्थान दर्शने सब ताप दूरे याय।
देखये प्रभुर लीला जन्मि’ नदीयाय॥
रातुपुर ग्राम के निकट जाकर श्रीईशान ने कहा- इस परम शोभामय ऋतुद्वीप को देखो। पहले यहां बहुत बड़ा गाँव था, अभी नाममात्र का छोटा सा गाँव है। यहां श्रीकृष्ण के अनेक भक्त रहते थे। रातुपुर प्रदेश, परम चमत्कार है, यहां श्रीगौराङ्ग की अति अद्भुत भ्रमण लीला हुई थी।
ओहे श्रीनिवास! प्राचीन लोग इसे ऋतुद्वीप क्यों कहते थे, वह मैं कहता हूँ। यहां छः ऋतु वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर, बसन्त एवं ग्रीष्म ,सब मूर्ति रूप से प्रकट होकर आपस मे मधुर भाषा में कहती थीं- ‘श्रीकृष्णचन्द्र नदीया में प्रकट होंगे। कोई कहता थी – अद्भुत विहार करेंगे एवं हम सबों का पद-पद पर आनन्द बढ़ायेंगे।
कोई कहता थी – ब्रजेन्द्रनन्दन गौरहरि अवतार लेकर बहुत दिन तक आनन्द प्रदान करेंगे।
कोई कहता थी कि कलियुग की प्रथम संन्ध्या में अवतार लेंगे, इस प्रकार से श्रीनारद मुनि ने सर्वत्र प्रचार किया है। कोई कहती है कि अवतार का समय तो कहो ?
कोई-कोई कहती थी – वसन्त ऋतु का बहुत भाग्य है। क्योंकि भगवान इसी ऋतु में प्रकट होंगे। वसन्त ऋतु को यह सुनकर बहुत हर्ष हुआ और वह स्वयं ही अपने भाग्य की प्रशंसा करने लगी।
ऋतुराज बसन्त सहित, सब ऋतुएं महाप्रभुजी के अवतीर्ण होने की प्रतीक्षा हमेशा करती रहती थी। बहुत सी अभिलाषा के साथ सभी ऋतुएं यहां पर प्रभु की अराधना करती थी–इसलिये इसको ऋतुद्वीप कहते हैं। बसन्तादि छः ऋतु प्रभु के विलास हैं, अब क्या कहूँगा, आगे सब प्रकाश होगा। इस स्थान के दर्शन से सब ताप दूर हो जाते हैं, एवं नदीया में जन्म लेकर, प्रभु की लीला देखता है।
(क) समुद्रगढ़ – यह स्थान नवद्वीप के दक्षिण में अवस्थितहै। समुद्र यहां पर गंगा जी का आश्रय लेकर श्रीमन महाप्रभुजी की लीला दर्शन के लिये यहां आया था। इसलिये इस का नाम ‘समुद्रगति एवं बाद में ‘समुद्रगड़ि’ हुआ। यह स्थान, साक्षात् श्रीगंगासागर तीर्थ है। ‘श्रीभक्तिरत्नाकर’ की बारहवी तरङ्ग में कहा है-
एकदिन समुद्र कहेन गंगा – प्रति।
जगते तोमा- सम नाइ भाग्यवती॥
पूर्णब्रह्म श्रीगौरसुन्दर नदीयाय।
करिबेन प्रकटविहार सबे गाय॥
तोमार तीरेते हबे अशेष आनन्द।
गणसह सदा विलसिव गौरचन्द्र॥
ब्रजे जलक्रीड़ा यैछे करे यमुनाय।
तैछे क्रीड़ा करिबेन प्रभु गौरराय॥
शुनिया जाह्रवी निज अन्तर प्रकाशे।
समुद्रेर प्रति कहे सुमधुर भाषे॥
मोर ये दुर्भाग्य ता’ कहिव कार काछे।
सुख दिया प्रभु महादुःख दिब पाछे॥
करिब संन्यास प्रभु, छाड़िब नदीया।
तोमार तीरेते वास करिबेन गिया॥
परम अद्भुत लीला तथा प्रकाशिब।
निरन्तर तोमार आनन्द बाड़ाइब॥
तोमार सौभाग्य गाइबेक सर्वजन।
ताहा न कहिया करो मोर विडंबन॥
समुद्र कहेन – तथा जे कहिला बटे।
देखि संन्यासी – वेष या’ते प्राण फाटे॥
सोङरिले से वेष कि करे जानि हिया।
तोमार आश्रय तेञि लइनु आसिया॥
तुमि देखाइबा एइ नदीया – नगरे।
भुवन मोहन गौरचन्द्र नटवरे॥
प्रभुर प्रकटादि लीला देखिवार तरे।
चित्तोद्वेगे सिन्धु कत कहिला गंगारे॥
गंगाश्रय करिया आइसे निति निति।
देखे गौरचन्द्रेर विहार रङ्गे भाति’॥
गंगार सौभाग्य प्रशंसये बारबार।
निति गतागति मात्र आश्रय गंगार॥
गंगासह गतिते ‘समुद्रगति’ नाम।
एबे लोके कहये ‘समुद्रगड़ि’ ग्राम॥
ए समुद्रगड़िग्राम- वास दर्शनेते।
उपजे निर्मलभक्ति श्रीगौरचन्द्रेते॥
‘एक दिन समुद्र ने गंगा के प्रति कहा –तुम्हारे समान जगत कोई भाग्यवती नहीं है। क्योंकि सभी ऐसा कहते है कि- पूर्णब्रह्म श्रीगौरसुन्दर नदीया में प्रकट विहार करेंगे। तुम्हारे किनारे पर सदा श्रीगौरचन्द्र अपने गणसह विशेष आनन्द के साथ विलास करेंगे। व्रज में श्रीकृष्ण ने जैसी यमुना में जलक्रीड़ा की थी वैसी श्रीगौरसुन्दर गंगा जी में क्रीड़ा करेंगे।
यह बात सुनकर, जाह्नवी अपनी ह्रदय की बात सुमधुर भाषा मे समुद्र के प्रति कहने लगी। समुद्र देव !मेरा जो यह दुर्भाग्य है, वह किसके पास कहूँ? पहले सुख देकर, प्रभु पीछे महादुःख देंगे क्योंकि नदीया छोड़कर प्रभु संन्यास ग्रहण करेंगे और तुम्हारे ही किनारे पर वास करेंगे। वहाँ परम अद्भुत लीला प्रकाश करेंगे एवं निरन्तर तुम्हारा आनन्द बढ़ायेंगे। सब लोग तुम्हारे ही सौभाग्य का गान करेंगे।तुम उसे नहीं कहकर मेरी विडंबना करते हो।
समुद्र ने कहा- तुम ने जो कहा सो तो ठीक है, किन्तु प्रभु का संन्यास वेश ( पहनावा ) देखकर मेरा कलेजा काँपता है, कलेजा फट जाता है, न जाने कलेजे में तीर सा लगता है। उसका स्मरण करने से पता नहीं दिल दहलता है। इसलिये मैं तुम्हारे आश्रय में यहाँ आया हूँ। तुम मुझे इस नदीया नगर में भुवनमोहन श्रीगौरचन्द्र जी की विविध लीलाएं करते दिखाओगी।
प्रभु की प्रकटादि लीला देखने के लिये चित्त के उद्वेग के कारण, समुद्र ने गंगा को बहुत कुछ निवेदन किया। गंगा को आश्रय करके समुद्र श्रीगौरचन्द्र जी की लीला देखने के लिये नित्यप्रति आया करता था एवं लीला देखकर मत्त हो जाता था।
समुदर गंगा के सौभाग्य की बार बार प्रशंसा करता था। गंगा को आश्रय करके प्रतिदिन नवद्वीप में आता- जाता रहता था। गंगा जी के साथ समुद्र की गति चलती रहती थी इसलिए इसका ‘समुद्रगति’ नाम हुआ। अब इसे लोग ‘समुद्रगड़ि’ ग्राम कहते हैं। इस समुद्रगड़ि ग्राम में वास एवं दर्शन से, श्रीगौरचन्द्र जी में निर्मल भक्ति उत्पन्न होती है।
इस स्थान का प्राचीन इतिहास यह है – द्वापरयुग में समुद्रसेन नाम के एक कृष्णभक्त राजा यहाँ राज्य करते थे। मध्यम पाण्डव भीम जब बंगदेश पर दिग्विजय के लिये निकले तो उन्होंने समुद्रगढ़ पर आक्रमण किया । समुद्रसेन मन में सोचने लगे कि भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवगण के अत्यन्त प्रिय हैं। इसलिये मैं यदि भीम को भय दिखाकर विपद में डाल दूँगा तब उसकी रक्षा करने के लिये श्रीकृष्ण अवश्य ही यहाँ आयेंगे एवं मैं उनके दर्शन करके कृतार्थ हो जाऊंगा। इस प्रकार विचार करके समुद्रसेन श्रीकृष्ण का स्मरण करते हुए भीम के प्रति अजस्र वाण निक्षेप करने लगा, इससे भीम अत्यन्त भीत होकर अपनी रक्षा के लिये श्रीकृष्ण का स्मरण करने लगे। भीम की आर्तनाद सुनकर श्रीकृष्ण उसकी रक्षा करने के लिये इस स्थान पर आये थे एवं यहीं पर उनहोंने अपने भक्त समुद्रसेन को दर्शन दिया था।
राजा अपने इष्टदेव को देखकर आनन्द में अधीर होकर अविरलधारा से प्रेमाश्रु बहाने लगे। देखते-देखते वह लीला अन्तर्हित हो गईं और वे दिव्य गौर लीला का दर्शन करने लगे।महासंकीर्तन के मध्य, भक्तों के साथ श्रीगौराङ्ग रूप के दर्शन पाकर राजा ने अपने को धन्य मानते हुए श्रीगौराङ्ग के चरणों में पतित होकर, बहुत स्तुति की। इस संबन्ध में ‘श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य’ ग्रन्थ के ग्यारहवें अध्याय में इस प्रकार वर्णित है-
किछु दूर गिया प्रभु बलेन वचन।
एइ ये ‘समुद्रगड़ि ‘ कर दरशन॥
साक्षात् द्वारकापुरी श्रीगंगासागर।
दुइ तीर्थ आछे हेथा देख विज्ञवर॥
श्रीसमुद्रसेन राजा छिल एड् स्थाने।
बड़ कृष्णभक्त, कृष्ण बिना नाहि जाने॥
यबे भीमसेन आइल निज सैन्य ल’ये।
घेरिल समुद्रगड़ि बंगदिग्विजये॥
राजा जाने कृष्ण एक पाण्डवेर गति।
पाण्डव विपदे पैले आइसे यदुपति॥
यदि आमि पारि भीमे देखाइते भय।
भीम-आर्तनादे, हरि हबे दयामय॥
दया करि’ आसिबेन, ए दासेर देशे।
देखिब से श्याम – मूर्ति, चक्षे अनायासे॥
एतभावि निज सैन्य साजाइल राय।
गज – बाजि पदातिक लये युद्धे याय॥
श्रीकृष्ण स्मरिया राजा बाण निक्षेपय।
वाणे जर जर भीम पाइल बड़ भय॥
मने मने डाके कृष्णे विपद देखिया।
रक्षा कर भीमे नाथ श्रीचरण दिया॥
समुद्रसेनेर सह युझिते ना पारि।
भङ्ग दिले बड़ लज्जा ताहा सहिते नारि॥
पाण्डवेर नाथ कृष्ण, पाइ पराजय,।
बड़इ लज्जा – कथा ओहे दयामय’॥
भीमेर करुण-नाद शुनि’ दयामय।
सेइ युद्धस्थले कृष्ण हइल उदय॥
ना देखे से रूप, केह अपूर्व घटना।
श्री समुद्रसेन मात्र देखे एकजना॥
नवजलधर रूप, कैशोर मूरति।
गले दोले वनमाला मुकुतार भाति॥
सर्व अङ्ग अलङ्कार अति सुशोभन।
पीतवस्त्र परिधान अपूर्व गठन॥
से रूप देखिया राजा प्रेमे मूर्च्छा याय।
मूर्च्छा संवरिया कृष्णे प्रार्थना जानाय॥
‘तुमि कृष्ण जगन्नाथ पतिपावन।
पतित देखिया मोरे तब आगमन॥
तब लीला जगज्जन करय कीर्तन |
शुनि’ देखिवार इच्छा हइल कखन॥
किन्तु मोर व्रत छिल ओहे दयामय।
एइ नवद्वीपे तब हइबे उदय॥
हेथाय देखिब तब रूप मनोहर।
नवद्वीप छाड़िवारे ना हय अन्तर॥
सेइ व्रत रक्षा मोर करि’ दयामय।
नवद्वीपे कृष्ण-रूपे हइले उदय॥
तथापि आमार इच्छा अति गूढ़तर।
गौराङ्ग हउन मोर अक्षिर गोचर॥
देखते देखते राजा सम्मुखे देखिल |
राधाकृष्ण – लीलारूप माधुर्य अतुल॥
श्रीकुमुदवने – कृष्ण सखीगण सने।
अपराह्ने करे लीला गिया गोचारणे॥
क्षणेके हइल सेइ लीला अदर्शन।
श्रीगौराङ्ग-रूप हेरे भरिया नयन॥
महासंकीर्तन-वेश सङ्गे भक्तगण।
नाचिया नाचिया प्रभु करेन कीर्तन॥
पुरट – सुन्दर – कान्ति अति मनोहर।
नयन माताय अति काँपय अन्तर॥
सेइ रूप हेरि’ राजा निजे धन्य माने।
बहु स्तव करे तबे गौराङ्ग-चरणे॥
कतक्षणे से सकल हइल अदर्शन।
काँदिते लागिल राजा ह’ये अन्यमन॥
भीमसेन एइ पर्व ना देखे नयने।
भावे राजा युद्धे भीत हैल एतक्षणे॥
अत्यन्त विक्रम करे पाण्डुर नन्दन।
राजा तुष्ट ह’ये कर याचे ततक्षण॥
कर पेये भीमसेन अन्यस्थाने याय।
भीम – दिग्विजय सर्व जगतेते गाय॥
एइ से समुद्रगड़ि नवद्वीप-सीमा।
ब्रह्मा नाहि जाने एइ स्थानेर महिमा॥
कुछ दूर जाकर श्रीनित्यानन्द प्रभु कहने लगे, हे जीव! ‘समुद्रगड़ि’ का दर्शन करो। विज्ञवर! साक्षात् द्वारकापुरी और श्रीगंगासागर दोनों तीर्थों को यहाँ देखो। इस स्थान के राजा श्रीसमूद्रसेन थे, जो बड़े कृष्णभक्त थे। वे श्रीकृष्ण के बिना कुछ नहीं जानते थे। जब भीमसेन ने दिग्विजय करने हेतु अपनी सेना द्वारा समुद्रगढ़ को घेर लिया था ।राजा जानते था कि श्रीकृष्ण ही पाण्डवों की एक मात्र गति हैं। पाण्डवों पर विपद आने पर यदुपति आते हैं। यदि मैं युद्ध में भीम को भय दिखा सकूँ, तब भीम की आर्तनाद पर श्रीहरि दया करके इस दास के देश में आयेंगे। तब अनायासही में उस श्याम – मूर्ति को आँखों से देख सकूँगा। ऐसा विचार करके राजा हाथी, घोड़े एवं पैदल सेना को सजाकर युद्ध करने को गया। श्रीकृष्ण को स्मरण करके राजा बाणों की वर्षा करने लगा। बाणों से पीड़ित होकर भीम को बहुत भय हुआ। विपद देखकर भीम श्रीकृष्ण को मन ही मन में याद करने लगा। हे नाथ! मैं समुद्रसेन से लड़ने में असमर्थ हो रहा हूँ, पराजय होने पर, बहुत लज्जा लगेगी, जो सहन न होगी। हे पाण्डवों के नाथ श्रीकृष्ण! हे दयामय! श्रीचरणों का दर्शन देकर मेरी रक्षा करो।
भीम की करुण – नाद सुनकर दयामय श्रीकृष्ण युद्धस्थल में प्रकट हो गये। परन्तु वहाँ एक अपूर्व घटना हुईकि केवल श्रीसमुद्रसेन ही श्रीकृष्ण का दर्शन कर रहे थे और कोई नहीं। श्रीकृष्ण का नव- मेघ के समान रूप था, कैशोर मूर्ति थी, गले में वनमाला धारण की हुई थी, सर्व अङ्गों में अलङ्कार अति शोभा पा रहे थे, पीतवस्त्र धारण किया हुआ था। शरीर का अपूर्व गठन था। उस रूप को देखकर राजा प्रेम में मूच्छित हो गये।
होश आने पर राजा समुद्रसेन श्रीकृष्ण से प्रार्थना करने लगे। हे श्रीकृष्ण! तुम पतितापावन जगन्नाथ हो। मुझे पतित देखकर ही आपका आगमन हुआ है। जगत्वासी आपकी लीलाओं का कीर्तन करते हैं। यह सुनकर कब से आपको दर्शन करने की इच्छा थी। हे दयामय! किन्तु मेरा व्रत था, कब इस नवद्वीप में, आप प्रकट होंगे, एवं यहाँ आपका मनोहर रूप देखुगाँ। नवद्वीप छोड़ने की मेरी अन्दर से इच्छा नहीं है। हे दयामय! नवद्वीप में श्रीकृष्ण रूप से प्रकट होकर, मेरे इस व्रत की रक्षा करिये। तथापि मेरी एक गुढ़तर इच्छा है – श्रीगौराङ्ग रूप से मेरे सम्मुख प्रकट होइये। साथ ही साथ राजा ने अपने सन्मुख श्रीराधाकृष्णजी की दिव्य लीला रूप अतुल माधुर्य को देखा। श्रीकृष्ण, श्रीकुमुदवन में गोचारण में जाकर गोपियों के साथ अपराह्न में लीला कर रहे हैं। क्षणकाल में वही लीला अदर्शन हो गई एवं श्रीगौराङ्ग रूप को नयन भरकर देखने लगे। महासंकीर्तन वेश में भक्तगणों के साथ प्रभु नाचकर कीर्तन कर रहे हैं। प्रभु की सुवर्ण के समान अति मनोहर कान्ति है जिसको देखकर नयन मत्त हो जाते हैं एवं ह्रदय दिव्य -प्रेम में काँपता है। उस रूप को देखकर राजा अपने को धन्य मानने लगा एवं श्रीगौराङ्ग के चरणों में बहुत स्तव करने लगा। कुछ क्षण के बाद, वह सब लीला अदर्शन हो गई और लीला न देखकर राजा रोने लगा। भीमसेन, यह सब लीला देख नहीं पाया सोचने लगा कि राजा अब युद्ध से डर गया है इसलिए ज़मीन में लोट-पोट हो रहा है ।तब पाण्डव नन्दन भी अत्यन्त विक्रम प्रकाश करने लगा । राजा संतुष्ट होकर उसी समय भेंट देने लगे। भेंट पाकर भीमसेन अन्य स्थान को चले गये। सर्वत्र जगत् भीमसेन की दिग्विजय का गान करने लगे। यह समुद्रगड़ि नवद्वीप की एक सीमा है। स्वयं ब्रह्मा भी इस स्थान की महिमा नहीं जानते हैं।
(ख) चाँपाहाटी – इस ग्राम में गौरपार्षद श्रीद्विज वाणीनाथ का घर था। उनका प्रतिष्ठित श्रीगौर-गदाधर विग्रह इस स्थान पर विराजमान हैं। प्राचीन श्रीपाट की सेवा में नितान्त अनियमितता दर्शन करके, १३ २८ बंगाब्द में, ॐ विष्णुपाद १०८ श्री श्रील भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने श्रीपाट की सेवाभार को ग्रहण करके श्रीपाट का संस्कार करके वहाँ श्रीगौर – गदाधर मठ का स्थापन किया था। अब वहाँ श्रीद्विज वाणीनाथ के प्रतिष्ठित विग्रह श्रीश्रीगौर – गदाधर शास्त्र विधान के अनुसार अर्चित होते हैं।
इस स्थान का पूर्व इतिहास इस प्रकार है – सत्ययुग में एक वृद्ध ब्राह्मण भक्त इस स्थान पर वास करते थे। तब यहाँ प्रचूर परिमाण में चंपाफूलों की पैदावार होती थी, इसलिये यह ग्राम ‘चंपाहाटी’ के नाम से प्रख्यात है। ब्राह्मण नित्यप्रति चंपकहट्ट से चंपाफूल संग्रह करके आनन्द मन से श्रीराधागोविन्द की पूजा करते थे। भक्त-वत्सल श्रीकृष्ण ने विप्र की एकान्तिकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे अपने श्रीगौर रूप से दर्शन दिया था। श्रीकृष्ण के श्रीगौर रूप के दर्शन करके विप्र के अत्यन्त व्याकुल हो जाने पर, उससे कहने लगे- “ ओहे विप्र! तुम, व्याकुल मत हो। मैं,कलियुग में श्रीमायापुर में श्रीजगन्नाथ के पुत्र रूप में अवतीर्ण होऊँगा। उस समय तुम भी चंपकहट्ट ग्राम में आर्विभूत होओगे एवं मेरा यह रूप निरन्तर दर्शन करोगे। यह विप्र ही श्रीगौरलीला में श्रीद्विज वाणीनाथ हुए। इस स्थान के माहात्म्य संबन्ध में — श्रीनवद्वीपधाम- माहात्म्य” ग्यारहवाँ अध्याय में, इस प्रकार से वर्णित है-
तबे नित्यानन्द आइला चम्पाहट्ट ग्राम।
वाणीनाथ – गृहे तथा करिल विश्राम॥
अपराहणे चम्पाहट्ट करय भ्रमण।
नित्यानन्द बले शुन बल्लभनन्दन॥
एइ स्थाने छिल पूर्वे चंपक – कानन।
खदिर वनेर अंश सुन्दर दर्शन॥
चंपकलता सखी नित्य चंपक लइया।
माला गाँथि’ राधाकृष्णे सेवितेन गिया॥
कलि वृद्धि हइले सेइ चंपक – कानने।
मालिगण फूल लय अति हृष्टमने॥
हट्ट करि’ चंपक – कुसुम लये’ वसि।
विक्रय करय, लय यत ग्रामवासी॥
सेइ हइते, श्रीचंपकहट्ट हैल नाम।
चाँपाहाटि सब बले मनोहर धाम॥
इस चंपकहट्ट का पूर्व इतिहास श्रीभक्तिरत्नाकर’ के द्वादश तरङ्ग में इस प्रकार से वर्णित है-
एत कहि ईशान समुद्रगुड़ि हैते।
परम आनन्दे चले चंपकहट्टेते॥
श्रीनिवासे कहे, ए चंपकहट्ट ग्राम।
चाँपाहाटि नाम ए विदित रम्यस्थान॥
एइखाने आछिल चंपक वृक्षवन।
पुष्प आहरण सदा करे मालिगण॥
मालिगण चंपक कुसुम सज्ज करि।
एथाइ वैसये हाट पाति’ सारि सारि॥
महासुखे कतशत ब्राह्मण सज्जन।
किनिया चंपक पुष्प करे देवार्चन॥
चाँपापुष्प-हाटे चाँपाहाटि नाम हय।
इथे से विशेष कहि विज्ञे ये कहय॥
एथा छिल वृद्ध एक विप्र विद्यावान।
श्रीकृष्णे अनन्य भक्ति सर्वाशे प्रधान॥
एकदिन अनेक चंपक पुष्प लइया।
कृष्णपाद-पद्य पूजे महाहर्ष हैया॥
श्यामल सुन्दर रूप धियाय अन्तरे।
देखे गौर रूप से श्यामल कलेवरे॥
गौरकान्ति चाँपापुष्प पुञ्जेर समान।
देखिते देखिते रूप हइल अन्तर्धान॥
गौर रूप अन्तर्धान व्याकुल हियाय।
एकदृष्टे चंपकपुष्पेर पाने चाय॥
चंपकपुष्पपुन्जेर रुचि निरखिया।
वेदादि प्रमाण पाठे उमड़ये हिया॥
कतक्षणे स्थिर हइया शास्त्र – मते कय।
युगमध्ये एइ कलियुग धन्य हय॥
एइ कलियुगे कृष्ण हबे अवतीर्ण।
धरिबेन भुवन- मोहन पीतवर्ण॥
संकीर्तन यज्ञे यजिबेक विज्ञ तारे।
जगत् भासिव प्रभु-लीलार पाथारे॥
शास्त्र विचारिया पुनः करिल निर्धार।
नवद्वीपे हबे ए ना प्रभु अवतार॥
अवतीर्ण हइते बहुदिन आछे जानि।
ना देखिबे से गौरसुन्दर तनुखानि॥
एत कहि’ अति दीर्घ निश्वास छाड़य।
मुख बुक भासे, दुइ नेत्रे धारा बय॥
अत्यन्त व्याकुल, धैर्य धरिते ना पारे।
प्रभुर इच्छाय निद्रा आकर्षिल तारे॥
स्वप्नच्छले देखा दिला प्रभु गौरहरि।
चंपक कुसुम – सम रूपेर माधुरी॥
कोटि कोटि चन्द्रमा जिनिया मुखचाँद।
शिरे चारु चाँचर चिकुर काम फाँद॥
नेत्र, बाहु, वक्षेर उपमा नाइ दिते।
जगत् मोहित करे सर्वाङ्ग भङ्गिते॥
शोभा देखि विप्र, महा उल्लसित मने।
करिल अनेक स्तुति पड़िया चरणे॥
विप्रे कृपा करि, प्रभु अदर्शन हैते।
मूर्च्छित हइया विप्र पड़िल भूमिते॥
कतक्षणे चेतन पाइया विप्रराय।
अनुरागे हइलेन उन्मादेर प्राय॥
चंपककुसुम प्रति कहे बेरि-बेरि।
तुमि स्फुराइला मोरे गौर अवतारि॥
चंपक – प्रशंसा वाक्य-घटा हट्ट मते।
चंपकहट्टाख्या हैल प्रसिद्ध लोकेते॥
प्रभुर इच्छाय विप्र, सुस्थिर हइया।
आज्ञा हैल’ हबे पूर्ण मन ये करिला॥
शुनि’ महानन्दे विप्र, प्रभु – गुण गाय।
सदा चिन्ते’ प्रभुरे देखिब नदीयाय॥
प्रभु – प्रिय विप्रेर शुनिन ये ये क्रिया।
से सकल कहिते नारिनू विस्तारिया॥
तब श्रीनित्यानन्द प्रभु ने चंपाहट्ट ग्राम में आकर श्रीवाणीनाथ के गृह पर विश्राम किया। अपराह्न में चंपाहट्ट भ्रमण करते समय श्रीनित्यानन्द प्रभु ने कहा वल्लभनन्दन! सुनो, इस स्थान पर पहले चंपक कानन था। जो खदिर बन का अंश है। चंपकलता सखी यहां से नित्यप्रति चंपक फूल लेकर माला बनाकर श्रीराधाकृष्ण की सेवा करती थी। कलियुग आने पर इसी चंपक – कानन से माली अति हृष्टमन से चंपक फूल लेकर हाट करके बैठते थे। ग्रामवासी उन से फूल खरीदकर ले जाते थे। तभी से इसका नाम चंपकहट्ट हुआ सब इसे चाँपाहाटी भी कहते हैं।
इस चंपकहट्ट का पिछला इतिहास ‘श्रीभक्तिरत्नाकर’ की बारहवीं तरङ्ग में, इस प्रकार वर्णित है-
इतना कहकर ईशान व श्रीनिवास समुद्रगड़ि से परम आनन्द के साथ चंपकहट्ट को चले गये। वह श्रीनिवास को कहते हैं यह चंपकहट्ट ग्राम है। इसे चाँपाहाटी भी कहा जाता है। यह सुन्दर स्थान है। यहाँ चंपक वृक्षों का वन था। माली यहां के चंपक फूलों को तोड़कर व उसकी माला बनाकर यहीं बेचने को बैठते थे। बड़े आनन्द से कई सौ ब्राह्मण सज्जन चंपक फूल खरीद कर देवार्चन को ले जाते थे। यहां चाँपाफूल का हाट होने पर इस स्थान का नाम चाँपाहाटि पड़ गया।
विज्ञजन जो विशेष कथा कहते हैं उसे कहता हूँ। यहाँ एक वृद्ध विप्र रहता था। उसकी श्रीकृष्ण में अनन्य भक्ति थी। वह एक दिन बहुत से चंपक फूल लेकर महाहर्ष के साथ श्रीकृष्ण के पादपद्मों की पूजा करने लगा। उसने हृदय में श्रीश्यामसुन्दर के रूप का ध्यान करते समय श्यामल कलेवर में श्रीगौर रूप को देखा। चाँपा – पुष्प के समान उनकी गौरकान्ति थी। देखते-देखते रूप अन्तर्धान हो गया। श्रीगौर रूप के अन्तर्धान से विप्र का हृदय व्याकुल हो गया। एक दृष्टि से चंपक फूल को देखा। चंपक फूलों के गुच्छों का पीला रंग देखकर वेदादि शास्त्रों के प्रमाणों को स्मरण करके विप्र का हृदय भर गया। कुछ देर बाद स्थिर होकर शास्त्रमत से कहने लगे-
युगों के बीच में कलियुग धन्य है। इस कलियुग में श्रीकृष्ण भुवन- मोहन पीतवर्ण धारण करके अवतीर्ण होंगे। बुद्धिमानजन संकीर्तन-यज्ञ से उनकी अराधना करेंगे एवं प्रभु के लीलासागर में जगत डूब जायेगा। विप्र ने शास्त्र को विचार करके प्रभु करके पुनः निश्चय किया कि नवद्वीप में ही प्रभु का अवतार होगा। परन्तु उनके अवतीर्ण होने में अभी बहुत दिन अभी बाकी हैं।तब तो मैं श्रीगौरसुन्दर का दर्शन नहीं कर सकूँगा, यह जानकर अति शीघ्र निश्वास छोड़ते हुए उनके दोनों नेत्रों की अश्रु धारा से मुँह एवं छाती भीग गई। वह अत्यन्त व्याकुल हो गये एवं धैर्य धारण नहीं कर सके, तब प्रभु की इच्छा से निद्रा ने उन्हें आकर्षित कर लिया। सपने के छल में महाप्रभु श्रीगौरहरि ने विप्र को दर्शन दिया। पीत चाँपाफूलों के समान उनकी रूप माधुरी थी। उनका श्रीमुख कोटि-कोटि चन्द्रमा को भी जय कर रहा था। सिर पर घुँघराले बाल थे।उनके नेत्र, बाहु व वक्ष की उपमा नहीं दी जा सकती थी। उनकी सर्वाङ्ग भङ्गी, जगत् को मोहित कर रही थी। महाप्रभु की शोभा देखकर बड़े उल्लासित मन से विप्र ने उनके चरणों में पड़कर प्रभु की बहुत सी स्तुति की। विप्र पर कृपा करके जब महाप्रभु अन्तर्हित हुए, तब विप्र मूच्छित होकर भूमिपर गिर पड़े। कुछ क्षण बाद चेतनता पाकर विप्रवर, प्रेम उन्माद में विभोर हो गये। चाँपा फूलों के गुच्छों के प्रति बार-बार कहने लगे तुम्हीं ने श्रीगौर अवतार की मुझे स्फुर्ति कराई है। वह हाट में बेचने वालों की तरह बहु वाक्यों से चांपाफूल की प्रशंसा करने लगे। इसलिये यह स्थान लोगों में चंपकहट्ट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। प्रभु की इच्छा से विप्र सुस्थिर हुए। प्रभु की आज्ञा हुई है कि तुमने मन में जो विचार किया है वह पूर्ण होगा। विप्र यह सुनकर बड़े आनन्द के साथ प्रभु के गुण गाने लगे एवं प्रभु के नदीया में दर्शन होंगे सदा यही चिन्ता करने लगे। प्रभु के प्रिय विप्र की जो कथा सुनी वह सब विस्तार से वर्णन नहीं कर सकता हूँ।
(ग) श्रीजयदेव का पाट- ऐसा कहा गया है कि श्रीगीतगोविन्द के रचयिता, भक्तकवि श्रीजयदेव जी ने लक्ष्मण सेन के राजत्वकाल में इस चांपाहाटी में कुछ दिन वास करके रागमार्ग से श्रीराधागोविन्द की भावसेवा करते-करते पुरटसुन्दरद्युति श्रीगौरसुन्दर के दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त किया था। ‘श्रीनवद्वीपधाम माहात्म्य” के ग्यारहवें अध्याय में, इस प्रकार वर्णित है-
येकाले लक्ष्मणसेन नदीयार राजा।
जयदेव नवद्वीपे हन ताँर प्रजा॥
बल्लालदीर्घिकाकूले बाँधिया कुटिर।
पद्मासह बैसे तथा जयदेव धीर॥
दश अवतार स्तव रचिल तथाय।
सेइ स्तव लक्ष्मेर हस्ते कभु याय॥
परम आनन्दे स्तव करिल पठन।
जिज्ञासिल राजा, स्तव कैल कोन् जन?
गोवर्धन आचार्य, राजारे तबे कय।
महाकवि जयदेव रचयिता हय॥
कोथा जयदेव कवि, जिज्ञासे भूपति।
गोवर्धन बले, एइ नवद्वीपे स्थिति॥
शुनिया गोपने राजा करिया सन्धान
रात्रयोगे आइल तबे जयदेव – स्थान॥
वैष्णववशेते राजा, कुटिरे प्रवेशे।
जयदेव नति करि’ वैसे एकदेशे॥
जयदेव जानिलेन भूपति एजन।
वैष्णववेशेते आइल ह’ये ह’ये अकिञ्चन॥
अल्पक्षणे राजा तबे देय परिचय॥
जयदेव याचे याइते आपन आलय॥
अत्यन्त विरक्त जयदेव महामति।
विषयि-गृहेते येते ना करे सम्मति॥
कृष्णभक्त जयदेव बलिल तखन।
तब देश छाड़ि आमि करिब गमन॥
विषयि-संसर्ग कभु ना देय मंगल।
गंगा पार ह’ये, याब यथा नीलाचल॥
राजा बले शुन प्रभु आमार वचन।
नवद्वीप त्याग नाहि कर कदाचन॥
तब वाक्य सत्य हबे,मोर इच्छा रबे।
हेन कार्य कर देव, मोरे कृपा यबे॥
गंगापारे चंपहट्ट स्थान मनोहर।
सेइ स्थाने थाक तुमि दु एक वत्सर॥
मम इच्छा मते, आमि तथा ना याइब।
तब इच्छा ह’ले, तब चरण हेरिब॥
राजार वचन शुनि,’ महा कविवर।
सम्मत हइया बले बचन सत्वर॥
यद्यपि विषयी तुमि, ए राज्य तोमार।
कृष्णभक्त तुमि, तब नाहिक संसार॥
परीक्षा करिते आमि विषयी बलिया।
संभाषिनु, तबु तुमि सहिले शुनिया॥
अतएव जानिलाम, तुमि कृष्णभक्त।
विषय लइया फिर, ह’ये अनासक्त॥
चंपकहट्टेते आमि किछुदिन रब।
गोपने आसिबे तुमि छाड़िया वैभव॥
हृष्टचित ह’ये, राजा अमात्य द्वाराय।
चंपकहट्टेते गृह निर्माण कराय॥
तथा जयदेव कवि, रहे दिन कत।
श्रीकृष्णभजन करे रागमार्गमत॥
पद्मावती देवी आने चंपकेर भार।
जयदेव पूजे कृष्ण नन्देर कुमार॥
महाप्रेमे जयदेव करये पूजन।
देखिल श्रीकृष्ण हइल चंपकवरण॥
पुरटसुन्दरकान्ति अति मनोहर।
कोटिचन्द्रनिन्दि’ मुख परम सुन्दर॥
चाँचर चिकुर शोभे गले फूलमाला।
दीर्घबाहु रूपे आलो करे पर्णशाला॥
देखिया गौराङ्ग रूप महाकविवर।
प्रेमे मूर्च्छा याय चक्षे अश्रु झर-झर॥
पद्मावती देवी सेइ रूप निरखिया।
हइल चैतन्यहीन भूमेते पड़िया॥
पद्महस्त दिया प्रभु तोले दुइ जने।
कृपाकरि’ बले तवे अमिय- वचने॥
तुमि दोहे, मम भक्त, परम उदार।
दरशन दिते इच्छा हइल आमार॥
अति अल्पदिने एइ नदीया – नगरे।
जनम लइव आमि शचीर उदरे॥
सर्व अवतारेर सकल भक्त सने।
श्रीकृष्णकीर्तने वितरिव प्रेमधने॥
चब्बिश वत्सरे आमि करिया संन्यास।
करिब अवश्य नीलाचलेते निवास॥
तथा भक्तगण संगे महा प्रेमावेशे।
श्रीगीतगोविन्द आस्वादिव अवशेषे॥
तब विरचित गीतगोविन्द आमार।
अतिशय प्रियवस्तु कहिलाम सार॥
एइ नवद्वीप-धाम परम चिन्मय।
देहान्ते आसिब हेथा कहिनु निश्चय॥
एबे तुमि दोहे जाओ यथा नीलाचल।
जगन्नाथे सेव गिया, पाबे प्रेमबल॥
एत बलि’ गौरचन्द्र हैल अदर्शन।
प्रभुर विच्छेदे मूर्च्छा हय दुइजन॥
ओहे जीव, एइ जयदेव – स्थान हय।
उच्च भूमि मात्र आच्छे वृद्धलोके कय॥
जयदेव स्थान देखि’ श्रीजीव तखन।
प्रेमे गड़ागड़ि याय, करय रोदन॥
धन्य जयदेव कवि, धन्य पद्मावती।
श्रीगीतगोविन्द धन्य धन्य कृष्णरति॥
जयदेव भोग कैल, येइ प्रेमसिन्धु।
कृपा करि’ देह मोरे तार बिन्दु॥
जिस समय श्रीलक्ष्मणसेन नदीया (बंगाल) के राजा थे, श्रीजयदेव जी नवद्वीप में ही उनकी प्रजा की तरह रहते थे। बल्लालदीर्घिका के किनारे कुटिर बाँधकर श्रीमती पद्मावती के साथ, धीर-स्थिर भाव से वास करते थे। यही पर रहकर श्रीदशावतार स्तोत्र की उन्होंने रचना की थी। किसी समय यह स्तोत्र लक्ष्मणसेन के हाथ लगा, तब उन्होंने परम आनन्द से इस स्तोत्र का पाठ किया। बाद में राजा जिज्ञासा करने लगे कि, इस स्तव की रचना किसने की है? तब श्री गोवर्धन आचार्य ने राजा को कहा कि महाकवि श्रीजयदेव ही इस स्तव के रचयिता हैं। राजा ने फिर जिज्ञासा की, श्रीजयदेव कहाँ रहते हैं ?
गोवर्धन आचार्य कहने लगे कि नवद्वीप में उनका वास है। यह सुनकर राजा ने गुप्त रूप से उनकी तलाश की। तब वह रात को श्रीजयदेव के स्थान पर आये। वैष्णव वेष में राजा ने कुटिर में प्रवेश किया और श्रीजयदेव को नमस्कार करके एक तरफ बैठ गये। श्रीजयदेव समझ गये कि यह राजा है वैष्णव वेष में अकिंचन होकर आया है। थोड़े समय में राजा ने अपना परिचय दिया एवं श्रीजयदेव से अपने महल में चलने की प्रार्थना की। श्रीजयदेव जी अत्यन्त विरक्त थे, विषयी के घर जाने को सहमत नहीं हुए। श्रीकृष्णभक्त श्रीजयदेव कहने लगे–ज़बरदस्ती करोगे तो मैं तुम्हारे देश को छोड़कर चला जाऊँगा क्योंकि विषयी का संग कभी मंगल दायक नहीं होता है।मैं गंगा पार करके नीलाचल में चला जाऊँगा।
यह सुनकर राजा बोले –कृपया आप नवद्वीप का त्याग मत करिये। आपका वाक्य भी सत्य हो जाय एवं मेरी इच्छा भी रह जाय। हे देव! मुझ पर कृपा करके, ऐसा कार्य करो। गंगा किनारे मनोहर चम्पकहट्ट स्थान है, उस स्थान पर, आप एक दो वर्ष तक वास करें। मैं अपनी इच्छा से वहाँ नहीं जाऊँगा। आप की इच्छा होने आपके चरण दर्शन करूँगा।
राजा के वचन सुनकर, महाकविवर, अपनी सम्मत्ति देकर कहने लगे। राजा! यद्यपि तुम विषयी हो, किन्तु तुम श्रीकृष्णभक्त हो। तुम्हारी संसार में आसक्ति नहीं है। परीक्षा के लिये मैंने तुम्हें विषयी कहकर संम्भाषण किया था। किन्तु तुम ने सुनकर, सहन कर लिया। इससे मालूम हो गया कि तुम श्रीकृष्णभक्त हो। विषय लेकर रहते हुए भी अनासक्त हो। मैं चम्पकहट्ट में कुछ दिन रहूँगा। तुम वैभव छोड़कर गुप्तरूप से मुझसे मिलने आना।
राजा यह सुनकर हर्षित हुआ एवं अपने लोगों द्वारा उसने चम्पकहट्ट में जयदेव जी के लिए गृह का निर्माण करा दिया। वहाँ श्रीजयदेव कवि, कुछ दिन रहकर रागमार्ग से, श्रीकृष्ण- भजन करने लगे। पद्मावती देवी स्वयं चंपाफूल लेकर आती थीं। श्रीजयदेव उससे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की महाप्रेम से पूजा करते थे।
श्रीजयदेव ने देखा कि श्रीकृष्ण चंपाफूल के वर्ण यानी पीतवर्ण के हो गये हैं। सुवर्ण के समान सुन्दर कान्ति अति मनोहर लग रही थी। मुखकमल कोटिचन्द्र को भी तिरस्कार करता हुआ परम सुन्दर था। सिर पर घुँघराले केश शोभा पा रहे थे। गले में फूलों की माला धारण की हुई थी। दीर्घ बाहु थे।वे अपने रूप से झोंपड़ी को आलोकित कर रहे थे। श्रीगौरांग रूप देखकर महाकविवर प्रेम में मूच्छित हो गये एवं आँखों से अश्रु झरने लगे। पद्मावती देवी भी उस रूप को देखकर चेतनाहीन होकर भूमिपर गिर गई।
श्रीमहाप्रभु जी अपने कर-कमलों से दोनों को उठाने लगे एवं कृपा करके अमृतमय वचन कहने लगे–तुम दोनों मेरे परम उदार भक्त हो। इसलिए दर्शन देने की मेरी इच्छा हुईं। अभी कुछ समय बाद ही मैं इस नदीया नगर में श्रीशचीदेवी से उदर से जन्म लूँगा। सर्व अवतारों के सब भक्तगणों के साथ, श्रीकृष्णकीर्तन द्वारा प्रेमधन वितरण करूँगा। चौबीस वर्ष के अन्त में मैं संन्यास ग्रहण करके अवश्य नीलाचल में वास करूँगा। वहाँ भक्तगणों के साथ महाप्रेम के आवेश में मैं तुम्हार द्वारा रचित श्रीगीतगोविन्द का आस्वादन करूगाँ। तुम्हारी विरचित श्रीगीतगोविन्द मेरी अतिशय प्रियवस्तु होगी। यह सारकथा कहता हूँ। यह नवद्वीप धाम परम चिन्मय है। मृत्यु के बाद तुम निश्चय यहाँ आओगे। अब तुम दोनों नीलाचल में जाओ। श्रीजगन्नाथ की सेवा करो तुम्हे प्रेमबल प्राप्त होगा। इतना कहकर श्रीगौरचन्द्र अदृश्य हो गये और प्रभु के विच्छेद में दोनों मूच्छित हो गये।
ओहे जीव! यह, श्रीजयदेव का स्थान है ऐसा वृद्धलोग कहते हैं। श्रीजयदेव का स्थान देखकर श्रीजीव प्रेम में भूमि पर लोटपोट होकर रोने लगे। श्रीजयदेव कवि परम कृतार्थ है। पद्मावती देवी भाग्यशालिनी है। श्रीगीतगोविन्द नामक ग्रन्थ धन्य है। श्रीजयदेव ने जो प्रेमसिन्धु का आस्वादन किया था, कृपा करके उसका एक बिन्दु मुझे भी दो।
(घ) विद्यानगर – यह स्थान, सर्वविद्या का पीठस्वरूप है। इसे ‘सारदापीठ’ के नाम से भी कहा जाता है। ऋषिगण इस स्थान का आश्रय लेकर अविद्या जय करते हैं। इस स्थान पर बाल्मीकि ने काव्यरस धन्वन्तरि ने आयुर्वेद व विश्वामित्र जी ने धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त की थी। इस स्थान पर महामुनि वेदव्यास ने पुराणादि शास्त्र प्रकाश किये थे एवं शौनकादि ऋषिगण वेदमंत्र का उच्च स्वर से गान करते थे। इस उपवन में उपनिषदों ने श्रीगौरसुन्दर की अराधना की थी। श्रीगौरसुन्दर श्रीनवद्वीपमण्डल में आर्विभूत होंगे, यह जानकर देवगुरु बृहस्पति उनकी सेवार्थ श्रीनवद्वीपमण्डल के अन्तर्गत विद्यानगर में श्रीवासुदेव सार्वभौम रूप से अवतीर्ण हुए एवं उन्होनें यहाँ पर एक विद्यालय की भी स्थापना की थी। किन्तु इस सन्देह से कि मैं विद्याजाल में पतित होकर सर्वविद्यापति श्रीगौरसुन्दर की सेवा से वंचित न हो जाऊं वे श्रीगौर भगवान के आविर्भाव से पहले ही नीलाचल में जाकर मायावादी संन्यासियों के गुरु और अध्यापक रूप से मायावाद शास्त्र की व्याख्या करने लगे। श्रीगौरसुन्दर की नीलाचल- लीलाकाल के समय श्रीवासुदेव सार्वभौम ने उनकी कृपा से अविद्याविलास परित्याग करके पराविद्या –शुद्ध भक्ति का आश्रय ग्रहण किया था। श्रीमन्महाप्रभु ने संन्यास ग्रहण के बाद नीलाचल से श्रीनवद्वीपमण्डल में आकर इस विद्यानगर में सार्वभौम के पिता श्रीमहेश्वर विद्याविशारद के घरपर अवस्थान किया था।
इस विद्यानगर का तत्त्व “श्रीनवद्वीपधाम – माहात्म्य” ग्रन्थ के त्रयोदश अध्याय में, इस प्रकार वर्णित हुआ है-
श्रीविद्यानगरे आसि’ नित्यानन्द राय।
विद्यानगरेर तत्त्व श्रीजीवे शिखाय॥
नित्यधाम नवद्वीप प्रलय समये।
अष्टदल पद्मरूपे थाके शुद्ध ह’ये॥
सर्व अवतार आर धन्य जीव यत।
कमलेर एकदेशे थाके कत शत॥
ऋतुद्वीप अन्तर्गत ए विद्यानगरे।
मत्स्यरूपी भगवान् सर्ववेद धरे॥
सर्वविद्या थाके वेद आश्रय करिया।
श्रीविद्यानगर नाम एइ स्थाने दिया॥
पुनः यबे सृष्टि मुखे ब्रह्मा महाशय।
अति भीत हन देखि’ सकल प्रलय॥
सेइकाले प्रभु कृपा हय तांर प्रति।
एइ स्थाने पेये भगवाने करे स्तुति॥
मुख खुलिवार काले देवी सरस्वती।
ब्रह्म-जिह्वा हइते जन्मे अति रूपवती॥
सरस्वती – शक्ति पेये देव चतुर्मुख।
श्रीकृष्णे करेन स्तव पेये बड़ सुख॥
सृष्टि यबे हय माया सर्वदिक् घेरि।
विरजार पारे थाके गुणत्रय धरि॥
माया प्रकाशित विश्वे विद्यार प्रकाश।
करे ऋषिगण तबे करिया प्रयास॥
एइ त’ सारदा-पीठ करिया आश्रय।
ऋषिगण करे अविद्यार पराजय॥
चौषट्टि विध्यार पाठ लय ऋषिगण।
धरातले स्थाने स्थाने करे विज्ञापन॥
ये ये ऋषि, ये ये विद्या, करे अध्ययन।
एइ पीठे से सबार, स्थान अनुक्षण॥
श्रीवाल्मीकि काव्यरस एइस्थाने पाय।
नारद कृपाय तेहँ आइल हेथाय॥
धन्वन्तरि आसि’ हेथा आयुर्वेद पाय।
विश्वामित्र आदि धनुर्विद्या शिखि’ याय॥
शौनकादि ऋषिगण पड़े वेद-मंत्र।
देव-देव महादेव आलोचय तंत्र॥
ब्रह्मा चारिमुख हैते वेद – चतुष्टय।
ऋषिगण – प्रार्थनाय करिला उदय॥
कपिल रचिल सांख्य एइस्थाने बसि।
न्याय तर्क प्रकाशिला श्रीगौतम ऋषि॥
वैशेषिक प्रकाशिला क्रणभुक् मुनि।
पातञ्जलि योगशास्त्र प्रकाशे आपनी॥
जैमिनी मीमांसा – शास्त्र करिल प्रकाश।
पुराणादि प्रकाशिल ऋषि वेदव्यास॥
पंचरात्र नारदादि ऋषि पंचजन।
प्रकाशिया जीवगणे शिखाय साधन॥
एइ उपवने सर्व उपनिषद्गण।
बहुकाल श्रीगौराङ्ग करे आराधन॥
अलक्ष्य श्रीगौरहरि से सबे कहिल।
निराकार बुद्धि तब हृदय दूषिल॥
तुमि सबे श्रुतिरूपे मोरे ना पाइबे।
आमार पार्षद-रूपे यबे जन्म लबे॥
प्रकट-लीलाय तबे देखिबे आमाय।
मम गुण कीर्तन करिबे उभराय॥
ताहा शुनि’ श्रुतिगण निस्तब्ध हइया।
गोपने आछिल हेथा काल अपेक्षिया॥
एइ धन्य कलियुग सर्वयुग सार।
याहाते हइल श्रीगौराङ्ग अवतार॥
विद्यालीला करिबेन गौराङ्गसुन्दर।
गणसह बृहस्पति जन्मे अतः पर॥
वासुदेव सार्वभौम सेइ वृहस्पति।
गौराङ्ग तुषिते यत्न करिलेन अति॥
प्रभु मोर नवद्वीपे श्रीविद्या- विलास।
करिबेन जानि’ मने हइया उदास॥
इन्द्रसभा परिहरि’ निज-गण लये।
जन्मिलेन स्थाने स्थाने आनन्दित ह’ये॥
एइ विद्यानगरीते करि विद्यालय।
विद्या प्रचारिल सार्वभौम महाशय॥
पाछे विद्याजाले डुबे हाराइ गौराङ्ग।
एइ मने करि’ एक करिलेन रंग॥
निज शिष्यगण राखि’ नदीया-नगरे।
गौर – जन्म पूर्वे, तेहँ गेला देशान्तरे॥
मने भावे यदि आमि हइ गौरदास।
कृपा करि’ मोरे प्रभु लइबेन पाश॥
एइ बलि’ सार्वभौम याय नीलाचल।
मायावाद – शास्त्र तथा करिल प्रबल॥
हेथा प्रभु गौरचन्द्र श्रीविद्या – विलासे।
सार्वभौम-शिष्यगणे जिने परिहासे॥
न्याय फाँकि करि’ प्रभु सकले हाराय।
कभु विद्यानगरेते आइसे गौर राय॥
अध्यापकगण आर पडुयारगण।
पराजित ह’ये सबे करे पलायन॥
गौराङ्गर विद्या- लीला अपूर्व कथन।
अविद्या छाड़ये तार ये करे श्रवण॥
श्रीविद्यानगर में आकर श्रीनित्यानन्द प्रभु श्रीजीव गोस्वामी को विद्यानगर के तत्व की शिक्षा देते हैं। श्रीनित्यानन्द जी ने कहा कि ये प्रलय के समय भी अष्टदल पद्मरूप से यह धाम निर्मल रूप से रहता है। सर्व अवतार और जितने धन्य जीव हैं कमल के एक प्रान्त में रहते हैं। ऋतुद्वीप के अन्तर्गत इस विद्यानगर में मत्स्यरूपी भगवान् सर्व वेदों को धारण किये हुए हैं। इस स्थान पर सर्वविद्या ,वेदों को आश्रय करके रहती है। इसीलिए इस स्थान का नाम विद्यानगर हुआ है। जब ब्रह्मा जी पुनः सृष्टि की रचना करने लगे, तब प्रलयजल को देखकर अति भयभीत हुए। उस समय प्रभु की उन पर कृपा हुई इस स्थान को पाकर शान्त हुए और भगवान् की स्तुति करने लगे। स्तुति के लिये मुख खोलते समय, अति रूपवती सरस्वती देवी ब्रह्मा जी की जिह्वा पर प्रकट हो गयी। सरस्वती की शक्ति पाकर ब्रह्मा जी बड़े आनन्द से श्रीकृष्ण का स्तव करने लगे। सृष्टि की जब रचना हुई तब माया ने विरजा के पार रह कर तीन गुणों को धारण करके पूरी पृथ्वी को चारों ओर से घेर लिया। उसके बाद माया द्वारा प्रकाशित विश्व में ऋषियों ने विद्या को प्रकाश करने का प्रयास किया। इसी सारदा पीठ का आश्रय करके ऋषिगण अविद्या को पराजय करते थे। ऋषियों ने चौंसठ विद्या का पाठ ही पृथ्वी पर विशेष रूप से प्रचार किया था। जिन ऋषियों ने जिस जिस विद्या का अध्ययन किया था, उस पीठ में उन सब का हमेशा स्थान है। श्रीनारद की कृपा से, श्रीवाल्मीकि ऋषि ने काव्यरस इस स्थान से पाया था। धन्वन्तरि ने यहाँ आकर, आयुर्वेद शास्त्रज्ञान प्राप्त किया था। विश्वामित्र आदि यहाँ से धनुर्विद्या सीखकर गये थे। शौनकादि ऋषिगण ने यहाँ वेदमंत्र पढ़े थे। देवदेव महादेव ने यहाँ तंत्र की आलोचना की थी। ब्रह्मा के चारों मुख से, ऋषिगणों की प्रार्थना करनेपर, चारों वेदों का उदय हुआ था। कपिल ने इस स्थान पर बैठकर सांख्य की रचना की थी। श्रीगौतम ऋषि ने न्याय – तर्क का प्रकाश किया था। कणभुक् मुनि ने वैशेषिक दर्शन को प्रकाश किया था। पातञ्जली ऋषि ने योगशास्त्र को प्रकाश किया था। जैमिनीजी ने मीमांसा शास्त्र को प्रकाश किया था। पुराणादि को ऋषि वेदव्यास ने प्रकाश किया था। पंचरात्र को नारदादि पाँच ऋषियों ने यहीं पर सभी तरह के ज्ञान को प्रकाशित करके जीव को साधन की शिक्षा दी थी। इस उपवन में सब उपनिषद्गणों ने बहुत काल तक श्रीगौराङ्ग की आराधना की थी।आकाशवाणी के रूप में श्रीगौरहरि ने सबको कहा कि निराकार बुद्धि से तुम सबका हृदय दूषित हो गया है,इसलिए तुम सब श्रुतियां इस रूप से मुझे नहीं पा सकोगी।कलियुग में मेरे पार्षद रूप से जब जन्म लोगी, तब मेरी प्रकट-लीला में मेरा दर्शन कर सकोगी एवं मेरा गुण कीर्तन उच्च स्वर से कीर्तन करोगी। यह सुनकर श्रुतिगण निश्चेष्ट हो गई एवं यहाँ गुप्त रूप से रहकर महाप्रभु जी के प्रकट काल की प्रतीक्षा करने लगीं।
नित्यानन्द जी कहते है कि यह धन्य कलियुग सब युगों का सार है। जिसमें श्रीगौराङ्ग का अवतार हुआ है। श्रीगौरसुन्दर विद्यालीला करेंगे यह जानकर ही बृहस्पति ऋषि ने अपने संगी-साथियों के साथ यहाँ जन्म ग्रहण किया। श्रीवासुदेव सार्वभौम ही बृहस्पति ऋषि हैं जिन्होंने यत्न के साथ श्रीगौराङ्गदेव को सन्तुष्ट किया था।
मेरे प्रभु नवद्वीप में विद्या – विलास करेंगे, यह जानकर बृहस्पति जी ने इन्द्र की सभा को त्याग कर अपने गणों के साथ आनन्दित होकर नवद्वीप के विभिन्न स्थानों पर जन्म ग्रहण किया। इस विद्यानगरी में विद्यालय करके श्रीसार्वभौम महाशय ने विद्या का प्रचार किया था। इस सन्देह से कि विद्या रस से मत्त हो जाने पर कहीं श्रीगौरांगदेव को न भूल जाऊँ; तब मन में विचार करके एक लीला की। मन में यह भावना लेकर कि यदि मैं गौरदास हूँ, तब प्रभु कृपा करके मुझे अपने निकट लायेंगे ही ।अपने शिष्यों को नवद्वीप में रखकर गौर जन्म से पहले ही नदीया नगर को छोड़कर श्रीसार्वभौम भट्टाचार्य जी नीलाचल चले गये एवं वहाँ मायावाद शास्त्र का उन्होंने खूब प्रचार किया। यहाँ श्रीगौरांग महाप्रभु ने विद्या विलास के समय श्रीसार्वभौम के शिष्यों को परिहास में ही जीत लिया था। जब कभी श्रीगौरहरि विद्यानगर में आते थे, तब न्याय की फाँकि अर्थात् पूर्वपक्ष, वितंडा, छल, निग्रह द्वारा, प्रभु सब को आसानी से हरा देते थे। सब अध्यापकगण एवं विद्यार्थीगण श्रीगौरसुन्दर से हारकर, वहां से भाग जाते थे। श्रीगौरांगदेव की विद्यालीला अपूर्व है, जो इसे श्रवण करता है, अविद्या माया उसे छोड़ देती है।