मोदद्रुमद्वीप की महिमा

वर्तमान में इस स्थान को माउगाछि या मामगाछि कहते हैं। मोदद्रुमद्वीप नवद्या भक्ति में से एक ‘दास्य – भक्ति’ का क्षेत्र है। यह वृन्दावन के द्वादश वनों में से ‘भाण्डीर’ वन है। इस स्थान के दर्शन से भक्तों के हृदय में सेवा के आनन्द की वृद्धि होती है। इसलिये इसका नाम ‘मोदद्रुमद्वीप’ पड़ा। भगवान् श्रीरामचन्द्र ने अपने वनवास काल में यहां एक विशाल वटवृक्ष के नीचे कुटिया बनाकर वास किया था

यहाँ श्रीराम उपासक एक विप्र वास करते थे। वह श्रीमहाप्रभु के आविर्भाव के दिन श्रीजगन्नाथ मिश्र के भवन में उपस्थित थे। विप्र, शिशु के अलौकिक रूप के दर्शन से मुग्ध होकर– अपने प्रभु श्रीरामचन्द्र ही नवदुर्वादलश्यामद्युति को ढक करके श्रीजगन्नाथ मिश्र के पुत्र रूप से अवतीर्ण हुए हैं, यह अनुभव करते थे। विप्र, मिश्रतनय को बार-बार दर्शन करके– अपने प्रभु को प्रच्छन्न (गुप्त) भाव से इस रूप से अवतीर्ण होने का क्या कारण है इसका निर्णय न कर सकने पर विशेष चिन्तित हो गये। बाद में मामगाछि से वापस आने पर रात को शयन करते समय श्रीरामचन्द्र की मूर्ति ध्यान करते-करते निद्रित होने पर विप्र ने स्वपन में अपने इष्टदेव को श्रीगौरमूर्ति में दर्शन किये तथा फिर वह उसी मूर्ति को नवदुर्वादलश्याम रूप में दर्शन करके आश्चर्यचकित रह गये। विप्र ने श्रीगौरचरणों में प्रणत होकर इस गूढ़ रहस्य को जानने के लिये प्रार्थना की तो श्रीगौरसुन्दरजी ने अपने भक्त के निकट अपना तत्त्व समझाया एवं इस रहस्य को दूसरे के निकट प्रकाश करने का निषेध करके अन्तर्हित हो गये।

इस स्थान का माहात्म्य ‘श्रीभक्तिरत्नाकर’ के द्वादश- तरङ्ग में, इस प्रकार वर्णित है-

माउगाछि प्रदेशेर शोभा निरखिया।
श्रीनिवास प्रति कहे ईषत् हासिया॥
एइ माउगाछि ग्राम लोकेते प्रचार।
‘मोदद्रुमद्वीप’ नाम पूर्वे से इहार॥
मोदद्रुमद्वीप यैछे नाम व्यक्त हैल।
ताहा कहि, प्राचीनेर मुखे ये शुनिल॥
पालिते पितार सत्य, कौशल्या तनय।
अयोध्या छाड़िया वने करिला विजय॥
छाड़ि’ राजवेश, प्रभु महानन्द मने।
जानकी – लक्ष्मणसह भ्रमे वने वने॥
अति सुकोमल पदे ये पथे चलये।
से पथ कोमल हय, किछु ना बाजये॥
वात वर्षा सुर्यातप सदा अनुकूल।
अद्भुत भ्रमण लीला भुवने अतुल॥
नाना देशवासी स्त्री पुरुषादि यत।
देखि’ रामचन्द्र शोभा सबेइ उन्तत्त॥
ये ये वन पर्वतादि स्थाने कैला स्थिति।
हैल महातीर्थ से से स्थाने व्यक्त कीर्ति॥
अग्रे राम, राजा दशरथेर नन्दन।
मध्ये श्रीजानकी, पाछे ठाकुर लक्ष्मण॥
श्रीराम जानकी लक्ष्मेणर शोभा देखि’।
आनेर की कथा, महामुग्ध पशुपाखी॥
ब्रह्मादिर वन्द्य, राम राजीवलोचन।
चतुर्दिके चाहि’ चले गजेन्द्र गमन॥
कथोदूर हैते नवद्वीप पाने चाय।
मन्द मन्द हासे अति कौतुक हियाय॥
श्रीरामचन्द्रेर देखि’ सहास्य वदन।
जिज्ञासे जानकी, कह हास्येर कारण॥
शुनि’ श्रीसीतार प्रोढ़ वाक्य रसावेशे।
कहये जानकी प्रति सुमधुर भाषे॥
द्वापरेर परे कलियुगेर प्रथमे।
ह’बे महा कौतुक ए नवद्वीप ग्रामे॥
नवद्वीपे करि’ अति अद्भुत विहार।
तदुपरि करिब संन्यास अङ्गीकार॥
एबे येछे भ्रमि,’ ऐछे करिब भ्रमण।
करिते भ्रमण, मने हासिलु एखन॥
शुनिया जानकी निवेदये जोड़ – करे।
कैछे बिलसिवा, प्रभु, नदीया नगरे॥
शुनि’ प्रभु कहे, विप्रवंशेते जन्मिव।
बाल्यकाले विविध चाञ्चल्य प्रकाशिब॥
धरिब अद्भुत पीतवर्ण निरुपम।
आमा पाने चाहिया मातिबे त्रिभूवन॥
हब विद्यावन्त कीर्ति व्यापिव भूवने।
करिब विवाहद्वय पिता अदर्शने॥
एबे यैछे कैलु, पिण्ड प्रदान गयाते।
ऐछे पिण्ड प्रदान करिब लोकरीते॥
नवद्वीप भक्तेर उल्लास बाढ़ाइब।
ब्रह्मादि दुर्लभ संकीर्तन प्रचारिब॥
निजगणे विविध प्रकारे प्रबोधिया।
हईबांग देशान्तरी संन्यासी हइया॥
शुनि’ श्रीजानकी कहे सहास्य वदने।
संन्यास करिबा तबे विवाह वा केने ?॥
इथे अनुचित एइ मोर मने लय।
परम दयालु हैया हइबा निर्दय॥
शुनि’ लज्जायुक्त राम कहे सीता प्रति।
ना जानह सदा मोर नवद्वीपे स्थिति॥
कहिते कहिते ऐछे मधुर गमने।
जानकी लक्ष्मणसह आइला एइखाने॥
एक बृहद्वटद्रुम आछिल एथाय।
तार तले दाँड़ाइला अपूर्व छायाय॥
पुनः श्रीजानकी कहे निज प्राणनाथे।
संकीर्तनानन्द प्रभु कैछे नदीयाते॥
जानकीबल्लभ राम राजीवलोचन।
प्रियापति कहे करो मुद्रित नयन॥
शुनिया जानकी दुइ नयन मुदये।
नवद्वीपे अद्भुत विलास निरिखये॥
गीत-नृत्य-वाद्येर अवधि नदीयाय।
प्रभु-भक्त असंख्य उपमा नाइ ताय।।
परिकर मध्ये गौरविग्रह सुन्दर।
कैशोर वयस महारसेर सागर॥
भुवन मोहये से ना अङ्गभङ्गिमाते।
से शोभा देखिया सीता नारे स्थिर हैते॥
नयन मेलिया चाहे प्राणनाथ पाने।
हासिया श्रीरामचन्द्र स्थिर कैल ताने॥
सर्व-तत्त्व जानेन श्रीसुमित्रानन्दन।
हइला अधैर्य, लीला करिया स्मरण॥
एथा सकलेर मोद वृद्धि अतिशय।
एइ हेतु मोदद्रुमद्वीप पूर्वे कय॥

माउगाछि प्रदेश की शोभा देखकर मुस्कराते हुए श्री ईशान ने श्रीनिवास के प्रति कहा– लोगों में यह स्थान माउगाछि नाम से प्रचारित है। पहले इस का नाम ‘मोदद्रुमद्वीप था। मोदद्रुमद्वीप नाम कैसे हुआ? प्राचीन लोगों के मुख से जो सुना है, वही कहता हूँ। महाराज दशरथ के आदेश को पालन करने हेतु श्रीरामचन्द्र जी अयोध्या छोड़कर वन में गये थे। राजवेश को छोड़कर प्रभु श्रीराम, जानकी – लक्ष्मणजी के साथ, वन-वन में भ्रमण करते थे। अति सुकोमल श्रीचरणों से जिस पथ पर चलते थे, वह पथ कोमल हो जाता था। यहां तक कि,श्रीचरणों में हवा, वर्षा व सूर्यताप नहीं लगता था। श्रीरामचन्द्र की भ्रमणलीला, अति अद्भुत थी। जिसकी भुवन में तुलना नहीं हो सकती थी। विभिन्न देश के स्त्री – पुरुषादि श्रीरामचन्द्र की शोभा देखकर उन्मत्त हो जाते थे। जिस-जिस वन में या पर्वतादि स्थान में श्रीरामचन्द्रजी ने वास किया था वे सभी स्थान महातीर्थ हो गये।

आगे-आगे राजा दशरथ- नन्दन श्रीराम, बीच में जानकी एवं पीछे लक्ष्मण थे। श्रीराम-जानकी – लक्षमण की शोभा देखकर, औरों की क्या बात, जंगल पशु-पक्षी भी मुग्ध हो जाते थे। ब्रह्मादि के वन्दनीय, कमललोचन श्रीराम वन में चारों तरफ देखते हुए हाथी की चाल चल रहे थे। कुछ दूरी से नवद्वीप को कुतूहल हृदय से देखते हुएवे मन्द मन्द हँसने लगे। श्रीरामचन्द्र का सुन्दर हास्य मुख देखकर जानकी जी पूछती हैं कि, हे प्रभो! हास्य का क्या कारण है ?

श्रीसीताजी के वाक्य सुनकर रसावेश में जानकीजी के प्रति श्रीराम सुमधुर भाव से बोले। द्वापर के बाद, कलियुग के प्रारम्भ में, इस नवद्वीपधाम में महान कुतूहल होगा क्योंकि मैं नवद्वीप में अद्भुत विहार करूँगा। उसके बाद संन्यास ग्रहण करूँगा। अभी जिस प्रकार भ्रमण कर रहा हूँ, तब भी ऐसे ही भ्रमण करूँगा। इसलिये मन में हँस पड़ा हूँ। यह कथा सुनकर जानकी ने हाथ जोड़कर निवेदन किया। प्रभो!आप किस प्रकार नदीयानगर में विलास करेंगे ? यह बात सुनकर, प्रभु कहने लगे- मैं, विप्रवंश में जन्म ग्रहण करूँगा। बाल्यकाल में बहुत प्रकार की चंचलता का प्रकाश करूँगा। अद्भुत अतुलनीय पीतवर्ण धारण करूँगा। मुझ को देखकर सारा त्रिभुवन मत्त हो जायेगा। मैं बहुत बड़ा विद्वान बनूंगा एवं मेरी कीर्ति भुवन में फैल जायेगी। पिता के अदर्शन के बाद दो विवाह करूँगा। अभी जिस प्रकार गया में पिता के उद्येश्य से पिण्ड दिया उसी प्रकार, लोक रीति से पिता के उद्येश्य से पिण्ड दूँगा। नवद्वीप में भक्तों के उल्लास को बढ़ाऊँगा एवं ब्रह्मादि के भी दुर्लभ संकीर्तन का प्रचार करूँगा। अपने गणों को विविध प्रकार से समझाकर मैं संन्यास ग्रहण करके नवद्वीप छोड़कर चला जाऊँगा।

यह सुनकर जानकी ने हँसते हुए कहा। जब आप संन्यास ही लोगे, तब विवाह करने का क्या कारण है? मेरे मन में यह अनुचित लगता है। परम दयालु होकर, फिर आप निर्दयी क्यों होंगे ? यह कथा सुनकर लज्जायुक्त श्रीराम ने सीता के प्रति कहा! तुम यह नहीं जानती हो कि नवद्वीप में मेरी हमेशा स्थिति है। इस प्रकार कहकर, चलते-चलते श्रीराम, जानकी, लक्ष्मण के संग यहाँ आये। यहाँ एक बृहद वटवृक्ष था, उसकी अपूर्व छाया देखकर उसके नीचे खड़े हो गये।

पुनः जानकी ने अपने प्राणनाथ श्रीराम से कहा। नदीया में संकीर्तन का आनन्द किस प्रकार होगा ? जानकी बल्लभ, कमलनयन श्रीराम ने, जानकी के प्रति कहा। तुम, अपने नयन बन्द करो। सुनकर जानकी ने दोनों आँखें बन्द कर लीं, तब नवद्वीप का अद्भुत विलास देखने लगीं। उस समय गीत-नृत्य- वाद्य का नदीया में चरम प्रकाश था। असंख्य प्रभु भक्त थे, जिनकी उपमा नहीं दी जा सकती। परिकर के मध्य में अति सुन्दर गौर विग्रह, किशोर अवस्था व संकीर्तन-महारस के सागर विराजमान थे। उनकी अङ्ग-भङ्गी से त्रिभुवन मोहित हो रहा था। वह शोभा देखकर सीताजी स्थिर नहीं रह सकीं व नेत्र खोलकर प्राणनाथ श्रीराम की तरफ देखने लगीं ।तब श्रीराम ने हँसते हुए सीता को स्थिर किया। सुमित्रानन्दन श्रीलक्ष्मण, सब तत्त्व को जानते थे। तब भी श्रीराम जी की संन्यास लीला को स्मरण करके, अधीर हो गये। यहाँ इन सभी का हर्ष अतिशय वृद्धि को प्राप्त हुआ था, इसलिए पहले इसे मोदद्रुमद्वीप कहते थे।

(क) श्रीवृन्दावनदास ठाकुर का श्रीपाट – यह ग्राम ही मामगाछि है। श्रीवास श्रीपंडित की गृहिणी श्रीमालिनीदेवी का पित्रालय एवं श्रीकृष्ण द्वैपायन वेदव्यासावतार श्रीचैतन्यलीला के व्यास, श्रीवृन्दावनदास ठाकुर की आविर्भाव और लीला भूमि, मामगाछि ही थी। उनके जन्मस्थान को कोई नहीं जानता था। किन्तु श्रीगौर और गौरनिजजन के चरणचिह्न द्वारा पवित्र स्थानों एवं लुप्त तीर्थसमूह को पुनः प्रकाशकारी, ॐ विष्णुपाद परमहंस १०८ श्रीश्रीमद्भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के प्रयत्न से श्रीवृन्दावनदास के जन्मस्थान की सेवा, पुनः प्रकाशित हुई थी। यह स्थान गौड़मण्डल का नैमिषारण्य था। यहाँ श्रीवृन्दावनदास ठाकुर के सेवित विग्रह, श्रीगौर – नित्यानन्दजी विराजमान हैं।

(ख) श्रीराधागोपीनाथ विग्रह – इस मामगाछि ग्राम में ही श्रीगौरपार्षद श्रीसारङ्ग ठाकुर के प्रतिष्ठित विग्रह–श्रीराधागोपीनाथ विराजमान हैं। श्रीसारङ्ग ठाकुर, मोदद्रुमद्वीप में गंगा के किनारे निर्जन में भजन करते थे। भगवान् की पुनः पुनः प्रेरणा से शिष्य करने को विवश होकर संकल्प किया कि अगले दिन सर्वप्रथम जिसको देखेंगे उसे ही शिष्य बना लेंगे। घटनाक्रम से अगले दिन प्रातःकाल भागीरथी में स्नान के समय एक मृतदेह उनके चरणों में आ लगी। उसी को ही पुनर्जीवन प्रदान करके शिष्य बना लिया। वही मुरारि’ नाम से प्रसिद्ध हुए। श्रीसारङ्ग नाम के साथ ‘मुरारि’ की कथा जुड़ी रहने से ‘श्रीसारङ्ग मुरारि’ नाम से प्रसिद्धि हुईं। कुछ दिन हुए श्रीवृन्दावनदास ठाकुर के श्रीपाट के दक्षिण में, एक प्राचीन बकुलवृक्ष के सामने श्रीठाकुर सारंग मुरारि’ का एक मन्दिर निर्मित हुआ है, जहाँ, श्रीराधागोपीनाथ विग्रह पूजित होते हैं।

(ग) श्री मदन गोपाल विग्रह – श्रीवृन्दावन दास ठाकुर के श्रीपाट के थोड़ी दूरी पर चट्टग्राम निवासी श्रीमुकुन्द दत्त ठाकुर के भ्राता, अशेष परदुःखदुःखी श्रीगौरपार्षद – श्रीवासुदेव दत्त ठाकुर वास करते थे। उनका प्रतिष्ठित और पूजित श्रीमदन गोपाल विग्रह वर्तमान में श्रीसारङ्ग मुरारि के प्रतिष्ठित श्रीराधागोपीनाथ विग्रह के श्रीमन्दिर में विराजमान होकर पूजित हो रहा हैं।

(घ) श्रीवैकुण्ठपुर व श्रीनारायणपीठ – इस वैकुण्ठपुर का प्राचीन इतिहास, इस प्रकार है: – एक दिन देवर्षि नारद श्रीनारायण के दर्शन के लिये वैकुण्ठ में गये थे। वहाँ उन्होंने देखा कि श्रीवैकुण्ठनाथ, भारत वर्ष में परम रमणीक नवद्वीपनगर में अवतीर्ण होंगे। इस प्रसंग को लेकर, निजगणों के साथ मज़ाक कर रहे थे। नारदजी, उस आनन्द – कोलाहल को देखक वैकुण्ठ से वापसी के समय, वैष्णवश्रेष्ठ श्रीमहादेव के निकट कैलाश पर्वत पर आये। श्रीमहादेव ने नारद को आलिङ्गन किया एवं किस स्थान से आगमन हो रहा है, पूछा। नारद ने, श्रीमहादेव के निकट श्रीनारायण का वही नवद्वीप – प्रसङ्ग वर्णन किया। श्रीशिव श्रीनारद के मुख से सब कथा सुनकर,मन ही मन में श्रीनारायण का ध्यान करने लगे । श्रीनारायण ने कृपापूर्वक उन्हें दर्शन दिया। श्रीनारद प्रेम में विह्वल होकर वीणा की मधुर तान से श्रीनवद्वीपधाम के साथ श्रीनारायण का स्तव करने लगे। श्रीनारायण नारद के निकट श्रीगौरमूर्ति रूप से प्रकट हुए। श्रीनारद नवद्वीपचन्द्र के दर्शन करके प्रेम में अधीर हो गये। श्रीगौरसुन्दर नारद को सुमधुर वचन से कहने लगे कि वे अल्पदिन में ही इस स्थान पर अवतीर्ण होकर, विविध वेदगुह्य लीलाओं का विस्तार करेंगे। इस प्रकार के वाक्यों से नारद को संतुष्ट करके श्रीगौरहरि अन्तर्हित हो गये। इस स्थान पर वैकुण्ठ का ऐश्वर्य प्रकाशित हुआ था, इसीलिये ‘वैकुण्ठपुर’ कहते हैं। इसी स्थानपर नारद ने श्रीनारायण के दर्शन किये थे। विज्ञगण इसे “नारायणपीठ” भी कहते हैं।

इस स्थान का माहात्म्य “श्रीनवद्वीप – धाम – माहात्म्य” ग्रन्थ के पंचदश अध्याय में, इस प्रकार वर्णित है-

श्रीवैकुण्ठपुरे आसि’ प्रभु नित्यानन्द।
श्रीजीवे कहेन तबे हासि’ मन्द मन्द॥
नवद्वीप अष्टदल एक पार्श्वे हय।
एइ त’ वैकुण्ठपुरी, शुनह निश्चय॥
परव्योम श्रीवैकुण्ठ, नारायणस्थान।
विरजार पारे स्थिति एइ त सन्धान॥
मायार नाहिक तथा गति कदाचन।
श्री- भू- लीलाशक्ति- सेव्य तथा नारायण॥
चिन्मय भूमिर ब्रह्म हय त’ किरण।
नारायण देखे, पुनः गौराङ्गसुन्दर।
देखि हेथा कतदिन रहे मुनिवर॥

श्रीनित्यानन्द प्रभु, श्रीवैकुण्ठपुर में आकर श्रीजीव को मन्द मन्द हँसते हुए कहने लगे। नवद्वीप नामक अष्टदल के एक किनारे पर निश्चय ही यह वैकुण्ठपुरी है। श्रीवैकुण्ठधाम, श्रीनारायण का स्थान है। विरजा के पार में, इसकी स्थिति है, यहीं (सन्धान) अनुभूति होनी चाहिये। यहाँ माया की गति नहीं है। श्री – भू – लीलाशक्तियों द्वारा सेवित श्रीनारायण यहाँ विराजमान हैं। यह चिन्मयभूमि है। ब्रह्म इसकी किरण है। सर्वजन, चर्मचक्षु से इसे जड़ देखते हैं। इस नारायणधाम में नारद ने चिन्मय नेत्रों से भगवान् के दर्शन किये है। श्रीनारायण को पुनः श्रीगौर सुन्दर रूप में देखा था ।दर्शन करके मुनिवर नारद ने कुछ दिन यहाँ वास भी किया था।

(ड) महत्पुर – इस स्थान का वर्तमान नाम ‘मातापुर’ है। महत्श्रेष्ठ धर्मराज युधिष्ठिर ने इस स्थान पर वास किया था, इसलिये इस स्थान का नाम ‘महत्पुर हुआ।

इस स्थान के सम्बन्ध में ‘भक्तिरत्नाकर’ ग्रन्थ के द्वादश तरङ्ग में, वर्णित हुआ है:-

एत कहि’ श्रीवैकुण्ठपुरे प्रणमिया।
मातापुरे चले चतुर्दिक निरखिया॥
श्रीनिवासे कहेन श्रीईशान ठाकुर।
एइ आगे देख ग्राम नाम मातापुर॥
पूर्वे श्रीमहत्पुर ग्राम नाम हय।
महत्पुर – प्रसङ्ग कहि, ये लोके कय॥
एकचक्रा हइते पाण्डव पञ्चभाइ।
नवद्वीपे आसि’ उत्तरिला एइ ठाइँ॥
महतरे श्रेष्ठ युधिष्ठिर महाशय।
ताँर वासस्थान हेतु महतपुर कय॥

श्रीईशान ने, इतना कहकर श्रीवैकुण्ठपुर को प्रणाम किया और, चारों ओर निरखते हुए, मातापुर की ओर चले गये। श्रीईशानठाकुर, श्रीनिवास को कहते हैं, यह आगे का ग्राम मातापुर है। पहले इस ग्राम का नाम महत्पुर था। महत्पुर का प्रसङ्ग, जैसे लोगों से मालूम हुआ, कहता हूँ।

एकचक्रा से पाँचों पाण्डव, नवद्वीप में आकर, यहाँ ठहरे थे।

महतों में श्रेष्ठ युधिष्ठिर का यह वासस्थान है इसीलिए इसे महत्पुर कहते हैं।

इस स्थान के संबन्ध में श्रील भक्तिविनोद ठाकुर “श्रीनवद्वीप- धाम माहात्म्य” ग्रन्थ के पंचदश अध्याय में, इस प्रकार लिखते हैं:-

एइरूप पूर्वकथा बलिते बलिते।
सबे उपनीत महत्पुर सन्निहिते॥
प्रभु बले एइस्थाने आछे काम्यवन।
परम भकतिसह कर दरशन॥
पंचवट एइस्थाने छिल पूर्वकाले।
प्रभुर इच्छाय एबे गेल अन्तराले॥
एबे एइ स्थाने मातापुर नामे कय
पूर्व नाम शास्त्रसिद्ध महत्पुर हय॥
द्रौपदीर सह पाण्डुपुत्र पंचजन।
अज्ञातवसेते गौड़े कैल आगमन॥
एकचक्रा ग्रामे स्वप्ने राजा युधिष्ठिर।
नदीया – माहात्म्य जानि’ हइला अस्थिर॥
पर दिन नवद्वीप दर्शनेर आशे।
एक स्थाने आइल सबे परम उल्लासे॥
नवद्वीप शोभा हेरि’ पाण्डुपुत्रगण।
गौड़वासिगण भाग्य करे प्रशंसन॥
कतदिन करिलेन एइस्थाने वास।
असुर राक्षसगणे करिल विनाश॥
युधिष्ठिर-टिला एइ देख सर्वजन।
द्रौपदीर कुण्ड हेथा कर दरशन॥
स्थानेर माहात्म्य जानि’ राजा युधिष्ठिर।
एइ स्थाने कतदिन हइलेन स्थिर॥

इस प्रकार पहले की कथा कहते-कहते सब महत्पुर के निकट पहुँच गये। श्रीईशानठाकुर कहते हैं, यह स्थान काम्यवन है, परम भक्ति के साथ दर्शन करो। पहले यहाँ पाँच वटवृक्ष थे, प्रभु की इच्छा से अब लुप्त हो गये हैं। अब इस स्थान को मातापुर कहते हैं। पहले शास्त्रानुसार इसका नाम महत्पुर था। द्रौपदी के साथ पाँचों पाण्डुपुत्र अज्ञातवास के लिये गौड़ में आये थे। एकचक्रा ग्राम में राजा युधिष्ठिर स्वप्न में नदीया – माहात्म्य जानकर अस्थिर हो गये थे। अगले ही दिन नवद्वीप दर्शन की आशा से, परम उल्लास के साथ, इस स्थान पर आये थे। पाण्डुपुत्र नवद्वीप की शोभा देखकर गौड़वासिगणों के भाग्य की प्रशंसा करने लगे। उन्होंने कुछ दिन इस स्थान पर वास किया एवं असुर राक्षसगण का विनाश किया। सर्वजन, यह युधिष्टर – टिला देखो। यहाँ, द्रौपदी – कुण्ड है, इसका दर्शन करो।इस स्थान का माहात्म्य जान कर, राजा युधिष्ठिर ने कुछ दिन यहाँ वास किया था।

 

Glories of Modadrumadvipa

Arriving at Mamagacchi village, Nityananda explained to Jiva, “ Here, in Modadrumadvipa is Ayodhya. In a previous kalpa, when Rama was banished to the forest, He came to this place with Laksmana and Janaki. He built a hut under a huge banyan tree here and lived happily for some time.”

All glories to Gaurahari, who has manifested Himself as the Panca-tattva! All glories to Navadvipa-dhama, the topmost abode!

Arriving at Mamagacchi village, Nityananda explained to Jiva, “Here, in Modadrumadvipa is Ayodhya. In a previous kalpa, when Rama was banished to the forest, He came to this place with Laksmana and Janaki. He built a hut under a huge banyan tree here and lived happily for some time. Seeing the effulgence of Navadvipa, the son of Raghu began to slightly smile.”

How attractive was that form, green as new grass, with lotus eyes and a graceful bow in hand! Wearing the dress of a brahmacari and His head piled with matted locks, He stole the minds of all living entities. Seeing Rama smiling, Sita, the daughter of Janaka, asked Him the reason.

Listen, Sita, here is one very secret story. When the glorious age of Kali advents, I will display a yellow complexioned form here in Nadia. I will take birth in the womb of Saci in Jagannatha Misra’s house. I will, give all the fortunate souls who see My childhood pastimes the supreme gift of prema. At that time, I will enjoy My beloved educational pastimes and reveal the glories of the holy name. I will then take sannyasa and go to Puri, and My own mother will weep with My wife in her arms.

Hearing this, Sita asked,”O lotus-eyed one, why will You make Your mother cry? Why will You give up Your wife and take sannyasa? What happiness is there in giving sorrow to Your wife?”

Sri Rama replied. “O dear one, you know everything. But you have become ignorant just to teach the living entities. Listen Sita, My devotees relish prema-bhakti in two ways. In union with Me they enjoy sambhoga, and in separation from Me they enjoy vipralambha. My eternal associates desire sambhoga, but mercifully give them vipralambha. The devotees know that distress due to separation from Me is actually the topmost bliss. After separation, when union occurs, they feel happiness so much greater than before, a million times multiplied. That is the explanation of how there can be happiness in separation. You should accept this mood which is described in the four Vedas.”

She who is known as Aditi in the Vedas is now mother Kausalya and will become mother Saci in Gauranga’s pastimes. And you, Sita, will serve Me as Visnupriya. In separation, you will worship My Deity and spread My glories. Separated from you, I will worship a golden Sita Deity in Ayodhya. But this topic is very confidential, Sita. Do not reveal this to the people now.

This Navadvipa is My dear place, even Ayodhya is not equal to it. When Kali-yuga comes, this huge banyan tree, Rama-vata, will disappear from vision and stay here in an unmanifest form.

In this way, Rama passed His time here with Laksmana and Sita. Later He went to Dandakaranya to complete His activities. See here the place where His hut stood.

By the desire of the Lord, Rama’s friend Guhaka took birth here in a brahmana’s family. His name was Sadananda Vipra Bhattacarya. He knew nothing in the three worlds except Rama. He was present in Jagannatha Misra’s house when Gauranga was born. At that time all the demigods came to see the child. The exalted Sadananda realized by the demigods’ presence that his Lord had taken birth. In great delight he returned home, and. while meditating on his worshipable Lord Ramacandra, he saw Gaurasundara.

Lord Gauranga was seated on a throne and surrounded by the demigods, headed by Lord Brahma, who were waving camaras. Then Sadananda saw Ramacandra, green as grass. On Rama’s right was Laksmana, the abode of Ananta. On His left was Sita, and in front was Hanuman. Seeing this, the vipra understood the truth about the Lord.

The vipra went to Mayapur in great ecstasy, and, unseen by anyone. he feasted his eyes on the form of Gauranga. ‘Blessed am I, blessed indeed! Ramacandra is present before me as Gaurachandra!’ Later, when the sankirtana movement started, Sadananda took part by dancing and chanting the name of Gaura.

“O Jiva, here the pure devotees see the Khandiva forest.”

Hearing the topics and seeing the places in the eternal dhama, the devotees surrounded Nityananda and danced. Jiva’s body displayed symptoms of ecstasy as he shouted the name of Gauranga.

That day Nityananda stayed in the house of Narayani. And Narayani, the pure chaste mother of Vedavyasa (Vrndavana Dasa Thakura), served the Vaisnavas. The next morning. after walking some distance, they entered Vaikunthapura.

To carry out the order of Jahnava and Nitai, this worthless wretch sings the glories of Nadia.

From Bhaktivinod Thakur’s book, Navadvip Dham Mahatmya.