यह द्वीप वर्तमान काल में ‘माजिदा’ के नाम से प्रसिद्ध। यह स्मरण-भक्ति का क्षेत्र है। इस स्थान पर एक समय मरीचि, अत्रि अङ्गिरा, पुलह, पुलस्त वशिष्ठ और क्रतु – इन सप्त-ऋषियों ने श्रीगौरहरि के गुणों से मुग्ध होकर, उनके दर्शनों की प्रार्थना की थी। सप्त-ऋषियों की साधना व लम्बे समय तक श्रीगौरहरि जी के श्रीपादपद्यों का चिन्तन करने पर भक्तवत्सल प्रभु ने एक दिन मध्याह्न के समय उन्हें दर्शन दिया था। चूंकि मध्याह्नकाल में यह घटना हुई थी; इसलिये इस स्थान का नाम ‘मध्यद्वीप’ हुआ।
श्रीभक्तिरत्नाकर’ बारहवीं तरङ्ग में वर्णन हुआ है-
श्रीनिवास-प्रति कहे ए माजिदा ग्राम।
कहये प्राचीन पूर्वे मध्यद्वीप नाम॥
प्रभुर परमाद्भुत लीला मध्यद्वीपे।
मध्यद्वीप नाम यैछे कहिये संक्षेपे॥
एथा सप्तऋषि प्रभुगुणे मग्न हइया।
नानाकथा कहे नवद्वीप निरखिया॥
ऐछे महानन्दे कत कहि’ परस्पर।
प्रभु – पादपद्य – चिन्ता करे निरन्तर॥
अति अनुरागे ऋषिगण आराधय।
भकतवत्सल प्रभु अधैर्याऽतिशय॥
मध्याहेर सूर्यसम मध्याह कालेते।
हइला साक्षात् शोभा के पारे वर्णिते॥
भुवनमोहन भङ्गि करिते दर्शन।
हैल अनिमिष ऋषिगणेर नयन॥
व्यापिल पुलक अङ्ग, नेत्रे अश्रुधार।
भूमि पड़ि’ प्रभुरे प्रणमे बार- बार॥
करिल अनेक स्तुति कहिले ना हय।
करि’ प्रदक्षिण पुनः प्रभुरे कहय॥
ओहे प्रभु, बहु अभिलाष मो सबार।
नेत्रे भरि’ देखि एइ नदियाविहार॥
नवद्वीप ध्यान येन करिये सदाइ।
निरन्तर तोमार भक्तेर गुण गाइ॥
ऐछे कत प्रभु आगे कहि’ ऋषिगण।
प्रभुके देखिते वाञ्छे सहस्रलोचन॥
ऋषिस्तुतिवशे प्रभु कहे ऋषिगणे।
हइवेक पूर्ण सबे ये करिला मने॥
नवद्वीपलीला मोर अति गोप्य हय।
राखिबे गोपने इथे मोर सुखोदय॥
शुनि’ ऋषिगण कहे — कि बलिब प्रभु।
करतले सूर्य कि आच्छन्न हय कभु॥
ऐछे ऋषिगण कत कहये उल्लासे।
शुनि गौरचन्द्र प्रभु मने – मने हासे॥
ऋषिगणे मनेर आनन्दे कृपा करि।
हइलेन अन्तर्धान प्रभु गौरहरि॥
प्रभु अदर्शनेते व्याकुल ऋषिगण।
एथा हैते मध्याहन करिला गमन॥
गंगातीरे कुमारहट्टेर – सन्निधाने।
देखिया अपूर्व स्थान रहे सेइखाने॥
यथास्थिति कैला ताहा प्रसिद्ध आछाय।
सप्तऋषिघाट अद्यापिह लोके कय॥
ओहे श्रीनिवास मध्यद्वीपेर प्रसङ्ग।
अल्पे जानाइनु’ एथा हइल महारङ्ग॥
मध्याह्नेर सूर्यसम मध्याह्न – समय।
देखा दिला प्रभु, तेञि ‘मध्यद्वीप’ कय॥
श्रीईशान ने श्रीनिवास के प्रति कहा – यह ‘माजिदा’ ग्राम है। प्राचीनकाल में पहले इसे ‘मध्यद्वीप’ नाम से कहते थे। श्रीमन्महाप्रभु की जैसी परमाद्भुत – लीला मध्यद्वीप में हुई थी, उसे संक्षेप में कहता हूँ। यहां सप्तऋषिगण ने प्रभु के गुणों में मग्न होकर नवद्वीपधाम को देखा था।
इस प्रकार सप्तऋषिगण महानन्द में परस्पर भगवद्-गुणगान करते हुए निरन्तर प्रभु – पादपद्मों की चिन्ता करते थे। अति अनुराग के साथ ऋषिगण आराधना करने पर भक्तवत्सल प्रभु अतिशय करुणा करके मध्याह्नकाल में सूर्य के समान तेजस्वी रुप में प्रकट हुए। उस शोभा को कौन वर्णन कर सकता है? भुवन मोहन के हाव-भाव के दर्शन करके ऋषिगणों के नयन खुले के खुले रह गये। उनके अङ्गों में पुलकावली व्यापने लगी, नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी भूमिपर पड़कर महाप्रभु जी को बारबार प्रणाम करने लगे। उन्होंने अनेक प्रकार से स्तुति की व प्रदक्षिणा करके पुनः प्रभु को कहने लगे – हे प्रभो! हम सभी की बहुत अभिलाषा है कि हम नेत्र भरकर आपके नवद्वीप धाम का दर्शन करें। आपके श्रीनवद्वीप का सदा ध्यान करें एवं निरन्तर आपके भक्तों के गुण गाते रहें।
इस प्रकार ऋषिगण ने प्रभु के पास बहुत कुछ कहा एवं प्रभु के दर्शन करने हेतु, सहस्रलोचन की वाञ्छा करने लगे। ऋषियों की स्तुति के वश में होकर महाप्रभुजी कहने लगे,हे ऋषिमुनिगण! तुमने मन में जो सोचा है, वह सब पूर्ण होगा। मेरी नवद्वीपलीला अति गोपनीय है, मेरे सुख के लिये तुम सभी उसे गोपन रखना।
यह सुनकर, ऋषियों ने कहा- क्या कहा प्रभो! क्या भला हाथों के द्वारा भी सूर्य कभी आच्छादित हो सकता है ?
इस प्रकार ऋषिगणों ने उल्लास से बहुत कुछ कहा जिसे सुनकर, श्रीगौरचन्द्र प्रभु मन-मन में हँसे। ऋषिगणों को आनन्द मन से कृपा करके श्रीगौरहरि अन्तर्धान हो गये। महाप्रभु जी के अदर्शन से ऋषिगण व्याकुल हो गये एवं तभी वहाँ से चले पड़े तथा गंगा के तीर पर कुमारहट्ट के निकट एक अपूर्व स्थान देखकर वहीं रहने लगे। जहाँ ठहरे थे वह स्थान आज भी सप्तऋषिघाट के नाम से प्रसिद्ध है। हे श्रीनिवास! श्रीमध्यद्वीप का प्रसङ्ग संक्षेप मे मैंने आपको बताया है, जहां मध्याह्न के समय श्रीगौरहरि ने सप्तऋषिगण को दर्शन दिया था, इसलिये इसे ‘मध्यद्वीप’ कहते हैं।