तिथि 30-6-97
सबसे पहले पूज्यपाद श्री निष्किंचन महाराज जी एवं अन्य सभी मठ वासी वैष्णवों को दण्डवत् प्रणाम।। आपका कृपा पत्र शुक्रवार दिनांक 6-6-97 को प्राप्त हुआ था, आपका पत्र पाकर मन बहुत प्रसन्न हुआ कि एक विषयासक्त जीव पर कृपा हेतु श्रीहरि के शुद्ध भक्तों ने याद किया है और श्रील गुरुदेव जी को एवं उनके गुणों को याद करने को कहा है। अधिक समय तक मन श्रील गुरुदेव जी को याद कर सके, इसलिये श्रील गुरुदेव जी के गुणानुवाद करने को कहा है। प्रभु जी, यथार्थ बात तो यहीं है कि मन सदा विषयों के बारे में ही चिन्तन करता रहता। है। आप जैसे वैष्णवों की कृपा से ही मेरा मंगल हो सकता है।
जैसा कि आपने स्वयें ही पत्र में लिख दिया है बृद्धजीव अप्राकृतिक गुणों से निहित व्यक्तित्त्व के बारे में क्या लिख सकता है? बात तो यही सत्य है श्रील गुरुदेव जी के एक 2 गुण के बारे में लिखना है। अतः जो कुछ देखा अथवा वैष्णवों के मुखारविन्द से सुना है उसके विषय में लिखने की चेष्टा कर रहा हूँ।
श्रील गुरु महाराज जी की सहनशीलता :-
प्रभु जी, श्रील गुरुदेव जी की सहनशीलता के विषय में कोई संशय नहीं है कि परमकरुणामय गुरुदेव जी सहनशीलता की मूर्ति साक्षात् हैं, परन्तु साक्षात् अनुभव तब हुआ जब कलकत्ता में जनरल मीटिंग हुई थी। वहाँ पूज्यपाद और पूज्यपाद जी द्वारा जो Court में श्रील गुरुदेव जी पर झूठे दोषारोपण किये गये थे वह वहाँ पर पढ़ने का मौका मिला और बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने गम्भीर और निर्मूल दोष लगाये गये। यहाँ तक कि चरित्र पर भी दोषारोपण किया गया था उस समय वह दोषारोपण पढ़ कर बहुत क्रोध भी आया था और आश्चर्य भी हुआ था। कि इतने वरिष्ठ वैष्णवों ने क्या सोचकर और किस उद्देश्य से यह सब किया। सभी गृहस्थ वैष्णवों ने वहाँ पर सभा में अपने-अपने विचार व्यक्त करके अपने क्रोध को शान्त कर लिया था, लेकिन वहाँ देखा कि श्रील गुरुदेव जी ने किसी के भी विरुद्ध बोलना अच्छा नहीं समझा और उनके विरुद्ध कुछ भी न बोलकर बस यही कहा कि जो गुरुजी एवं भगवान करेंगे अच्छा ही होगा इतनी सहनशीलता देखकर मैं तो हैरान रह गया था।
2. दयालुता :-
श्रील गुरुदेव महाराज जी की दयालुता के विषय में तो बार-बार अनुभव में आया है और साक्षात् देखा है कि किसी भी गृहस्थ वैष्णव द्वारा कोई भी प्रार्थना करने पर श्रील गुरुदेव जी ने दया परवश होकर उसी की इच्छा पूरी की है। एवं हर प्रकार उस पर दया की है। खुद मैंने जब भी किसी तरह से श्री गुरुदेव जी से कोई प्रार्थना की तो गुरुमहाराज जी ने दया करके मेरी हर इच्छा पूर्ण की है। तीन-चार बार घर में पधारे और अपने पत्रों द्वारा भी मेरे मंगल के लिये अपना समय निकालकर पत्र लिखे और हर तरह की शंका का समाधान कर कृतार्थ किया। यह उनकी दयालुता नहीं तो और क्या है ?
3. उनकी सभी प्राणियों पर अहेतुकी असे मंगल करने की भावना :-
हर जीव के प्रति गुरुजी का स्नेह, उनकी बात को सुनना तथा उसका शंका समाधान करना, उनके पास बैठने पर कोई प्रश्न न करने पर भी श्री हरि के विषय में, भजन के विषय में बोलना – हर जीव के प्रति मंगल की भावना ही स्पष्ट करता है। जगह 2 पर नगर संकीर्तन का उद्देश्य प्राणी मात्र पर मंगल की भावना ही है। सबसे बड़ी बात जो सभी के सामने स्पष्ट है वह ये कि श्रील गुरुदेव जी का इस अवस्था में भी सारा साल गाड़ियों में सफर करके देश के कोने-2 में जाकर हरि कथा कहने का कारण केवल मात्र सभी प्राणियों का अहैतुकी भाव से मंगल करने की भावना ही है। हम लोग अगर थोड़ा सा सफर भी करते हैं तो फिर एक दो महीने कहीं जाने का मन नहीं करता। सफर में इतनी परेशानियों को झेलते हुये श्रील गुरुदेव महाराज जी कितने सालों से लगातार सफर कर रहे हैं, सोचकर भी बहुत आश्चर्य होता है । यह सब श्रील गुरुदेव हम विषयासक्त जीवों के मंगल के लिये नहीं तो किसलिये कर रहे हैं ?
4. उनका किसी के प्रति भी शत्रु भाव न होना :-
श्रील गुरुदेव जी महाराज जी को मैंने 11-12 सालों में किसी के प्रति भी कटु वाक्य कहते नहीं सुना। बहुत बार गुरुजी के पास बैठने का मौका मिला, लेकिन कभी किसी के प्रति शत्रुता भाव रखकर कोई बात करते नहीं देखा । मैंने तो उन्हें हर एक घटना को भगवान की इच्छा समझकर स्वीकार करते देखा। बार-2 यही सुना कि सभी दु:ख व सुख अपने कर्मों के फल हैं। सभी अपने द्वारा किये गये कर्मों के फल के वाहक हैं।
5. शान्त स्वभाव :-
कई बार सम्मेलनों में देखा कि श्री गुरुदेव जी को एक 2 दिन में इतने 2 प्रोग्राम करने पड़े कि गुरुजी का सारा -2 दिन हरि कथा में व्यतीत हो गया और विश्राम का कोई समय नहीं मिला लेकिन गुरुजी के मुखारविन्द से सदा यही सुना कि वैष्णवों ने मेरा मन भगवान में लगाने के लिये इतने प्रोग्राम रख दिये, ताकि मेरा मन संसार में न लग जाये, कोई समय संसार का चिन्तन न कर सकूँ। लेकिन कभी भी किसी व्यवस्थापक से शिकायत नहीं की कि उन्होंने एक दिन में इतने सारे प्रोग्राम क्यों रख दिये ? उन्हें मैंने शान्त स्वभाव में ही सदा बात करते देखा है। हर क्रिया को भगवान की इच्छा समझकर वे हमेशा शान्त बने रहते हैं। कभी भी मन अस्थिर हुआ हो ऐसा न तो मैंने अपने पारमार्थिक जीवन में देखा और न ही सुना ।
6. उनके अपने गुरुवर्ग, गुरुभाई व वैष्णवों के प्रति सम्मान भाव :-
इस विषय में बहुत नज़दीक से गुरुजी को अपने गुरुवर्ग, गुरुभाई व वैष्णवों के प्रति सम्मान भाव को देखा है। इस बार जब श्रील गुरु देव जी 5-12-96 को मानसा में हमारे घर पर पधारे तो श्रील गुरुदेव जी की आरती करते समय जब में परम पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी और श्रील गुरुदेव जी की आरती के पश्चात चरणों में फूल अर्पण करके रुक गया तो श्रील गुरुमहाराज जी ने इशारा किया कि सभी अन्य महात्माओं (पूज्यपाद आचार्य महाराज तथा ज्योति महाराज) के चरणों में भी फूल अर्पण करो। मैं समझ नहीं पा रहा था कि गुरुजी के समक्ष ऐसा करूँ या न करूँ फिर जैसे तैसे मैंने उनके चरणों में भी पुष्प दिये जो हो, गुरुजी का अन्य वैष्णवों के प्रति सम्मान को देखकर मैं आश्चर्य चकित रह गया ।
तत्पश्चात हरि कथा का आयोजन छत पर था तो वहाँ जो स्टेज बनाई गई थी वो सारी समान थी। पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज का आसन भी श्री गुरुदेव जी के आसन के बराबर था लेकिन जब गुरुमहाराज जी ऊपर हरि कथा के लिये आये तो श्रील गुरुदेव जी अपना आसन छोड़कर पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी के आसन पर बैठ गये और पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी को अपना आसन ( जो ऊँचा समझ रहे थे) पर बैठने को कहने लगे। सभी वैष्णवों ने कहा कि सभी आसन समान हैं और वे अपने आसन पर बैठें लेकिन श्री गुरुजी महाराज नहीं बैठे और कहने लगे कि पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी का आसन ऊँचा होना चाहिये, तब नीचे से एक और गद्दा लेकर पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी के आसन के नीचे देने पर उनका आसन अपने आसन से ऊंचा करवा कर तब गुरुजी अपने आसन पर बैठे। सभी आश्चर्य चकित रह गये तथा गुरुमहाराज ने कथा में भी सभी वैष्णवों का उनके प्रति यथा उचित सम्मान देने पर विशेष जोर दिया ।
7 भगवान में अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम :-
भगवान में अनन्यता तो है ही, इसकी व्याख्या में ज़रूरी नहीं समझता क्योंकि जिस किसी ने भी श्रील गुरुदेव जी महाराज को देखा है वे जानते हैं कि महाराज श्री नन्दनन्दन कृष्ण की ही भक्ति में विभावित रहते हैं। कोई भी उनकी अनन्यता के प्रति किन्तु परन्तु नहीं कर सकता। हाँ, जहाँ तक सुदृढ़ प्रेम के सम्बन्ध में बात है भगवान के नाम, स्वरूप विग्रह में उनका जितना सुदृढ़ प्रेम देखा है अपनी छोटी सी जिन्दगी में कहीं नहीं देखा । श्रील गुरुदेव जी के राजपुरा के वार्षिक सम्मेलन में जाने को कई बार मौका मिला। श्रील गुरुदेव जी का सुबह का प्रोग्राम श्री सत्यनारायण मन्दिर में था, जब गुरुजी महाराज वहाँ पहुंचे तो देखा कि फर्श पर कुछ जगह पर दरी आदि नहीं बिछी थी और सारे फर्श पर नाम खुदे हुये थे। गुरुजी ने कहा कि इनमें बहुत से नाम भगवान के नाम पर हैं और उन पर कैसे चला जाये। फर्श पर नाम नहीं खुदवाने चाहिये। ये पत्थर, दीवार पर लगवाने चाहिये थे, लेकिन अब फर्श उखाड़ना तो सम्भव नहीं है कम से कम फर्श नंगा नहीं होना चाहिये हर जगह दरी बिछी हो ताकि भगवान के नाम पर पैर न स्पर्श हों। ऐसी नाम में सुदृढ़ता शायद ही कहीं देखने को मिले।
8. गुरु वैष्णव व भगवान की सेवा के लिये अपने दुनियावी कर्मों का व सगे सम्बन्धियों का त्याग :-
श्रील गुरुदेव जी के बारे में जो भी जानते हैं कोई यह कह नहीं सकता कि गुरुदेव महाराज जी द्वारा किसी वैष्णव की सेवा में कोई कमी रखी गई है। हर वैष्णव को यथायोग्य सम्मान श्रील गुरुजी द्वारा दिया जा रहा है। अपने गुरुमहाराज की सेवा में गुरुजी दिन रात तत्पर दिखाई देते हैं। कोई भी कार्य हो रहा है तो गुरु जी की कृपा से हो रहा है। जो कुछ भी करते हैं गुरुजी को स्मरण करके उनकी कृपा प्रार्थना करते हुये करते हैं। मैंने जब श्रील गुरुदेव महाराज से हरिनाम एवं दीक्षा ली तो गुरुजी ने यही कहा कि तुम्हारे गुरुजी परम पूज्यपाद ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव महाराज जी हैं, मैं तो उनकी आज्ञा का पालन कर रहा हूँ, मेरी कोई योग्यता नहीं गुरु बनने की गुरु तुम्हारे माधव महाराज जी ही हैं। ऐसी गुरु भक्ति तो शायद ही कहीं देखने को मिले। एक बार मेरी जप माला वाला बैग चोरी हो गया और गुरुजी को पत्र लिखा तो गुरुजी ने माला के प्रति सचेत रहने को कहकर श्री धाम वृन्दावन में नई माला देने को लिखा। जब मैंने माला प्राप्त कर गुरुजी को अपराध क्षमा करने की प्रार्थना कर प्रणाम किया तो गुरुजी ने स्पष्ट शब्दों में कहा, अपने गुरुजी (माधव महाराज जी) के कमरे में जाकर प्रणाम करो एवं उनसे अपराध क्षमा करने की प्रार्थना करो। ऐसी गुरुभक्ति देखकर मैं बहुत आश्चर्य चकित हुआ ।
श्रील गुरुदेव जी महाराज ने भगवान की सेवा के लिये ही तो अपने सगे सम्बन्धियों को छोड़ा है और यह भी स्पष्ट है कि वे जो कुछ भी करते हैं सब भगवान के लिये ही करते हैं।
9 भगवद् भाव में विभावित रहकर भगवान की कथा कीर्तन में रुचि :-
श्रील गुरुदेव जी महाराज द्वारा भगवान की कथा कीर्तन ही सुनने को मिलता है। हर बात कोई कुछ भी पूछता है, का जवाब सिर्फ भगवान से ही सम्बन्धित होता है भगवान के विषय में बोलना, याद करना और कीर्तन करना एकमात्र यही काम है श्रील गुरुदेव जी का यही उपदेश भी है। चाहे दिन में कितने भी प्रोग्राम क्यों न हों श्रील गुरुदेव जी ने कभी यह नहीं कहा कि यह प्रोग्राम नहीं हो सकता या इतना समय में नहीं दे सकता । अपने स्वास्थ्य का बिल्कुल ध्यान न रखते हुये श्री भगवान की कथा में हर प्रोग्राम में स्वयं जाकर कथा कहना, भगवान के कथा कीर्तन में रूचि बिना तो हो नहीं सकता । सभी गुणों की स्वान है – श्रील गुरुदेव जी ।
मेरी कोई योग्यता नहीं हैं कि श्रील गुरुदेव जी के बारे में लिखूँ । मैं विषयासक्त निर्गुण गुरुमहाराज जी के विषय में कह ही नहीं सकता। जो कुछ भी लिखा, सब गुरुमहाराज जी के गुणों के समक्ष नगण्य है। मेरी बुद्धि गुरुजी के गुणानुवाद करने में असमर्थ है। जितना गुरुमहाराज जी ने प्रकाशित करवाया है उतना लिखा है। योग्यता ही नहीं है कुछ लिखने की । गुरुजी में शरणागति नहीं हैं। सेवा में रुचि नहीं है। गुरुजी के जो समर्पित है वही उनके बारे में विस्तृत लिख सकता है। मैं तो गुरुजी के उपदेशों पर चल नहीं रहा, उनके कहे मुताबिक भजन कर नहीं रहा । तो मैं कैसे लिख सकता हूँ। बस, आपकी आज्ञा पालन करने के लिये अनाधिकार चेष्टा की है।
आपके चरणों में प्रार्थना है कि आप मुझ जैसे विषयासक्त जीव पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखें। आप जैसे वैष्णवों की कृपा दृष्टि से ही मेरा मंगल हो सकता है। आपकी कृपा दृष्टि के योग्य तो नहीं हूँ लेकिन सुना है वैष्णव बहुत दयालु होते हैं। आपके चरणों में बार-बार यही प्रार्थना है कि इस अधम जीव पर अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखें।
आपका वैष्णव कृपा प्रार्थी
(विश्वम्भर दास)
B.L.Chotani