‘पतितपावन’ गुरु महाराज जी की जय’
विदेश यात्रा के बाद जब गुरु महाराज जी वापस स्वदेश आये तो दिल्ली के सभी भक्तों में अपार उल्लास था। बातों-बातों में मैंने एक वैष्णव से सुना कि चण्डीगढ़ मठ से गुरु पूजा का अंक छप रहा है जिसमें सभी भक्त गुरुजी की महिमा लिख कर भेज रहे हैं। तभी मैंने सोचा कि गुरुजी की प्रसन्नता के लिये मैं भी क्यों न लिखूं । अतः मैंने चण्डीगढ़ मठ से आये चिद्घनानन्द प्रभु जी को पूछा ‘प्रभु जी, क्या में भी गुरु जी के बारे में लिख सकती हूं ? उत्साह देते हुए उन्होंने मुझे कहा क्यों नहीं, ये तो गुरुजी की महिमा कीर्तन है। शिष्यों का कर्तव्य ही है अपने गुरु जी की महिमा कीर्तन करना ।

मेरे उत्साह को और बल मिला तथा में कागज पैन लेकर दिल्ली मठ के मन्दिर वाले हाल में लिखने बैठ गयी, गुरुजी की कृपा से एक उनके वात्सल्य की व एक उनके ममत्त्व की घटना लिख पायी जो कि निम्न प्रस्तुत हैं-

1996, कार्तिक मास, नन्दगांव

गुरुदेव जी का वात्सल्य

प्रथम बार मुझे अपने पिताजी के साथ ब्रजमण्डल परिक्रमा करने का अवसर प्राप्त हुआ। मन में बहुत उत्साह व उत्सुकता थी । गुरु जी के साथ पूरा ब्रज दर्शन करने की । मैंने बहुत उत्साह से कार्तिक व्रत पालन किया । निरुत्साहित होने से गुरुदेव का ध्यान करने पर उत्साह पुनः जागृत हो जाता था। गुरुदेव सुबह चार बजे से लेकर रात्रि के बाहर बजे तक हमें अपना संग देते थे किन्तु हम अभागे ही ढीले पड़ जाते थे। कोई क्षण नहीं था जब गुरु देव हमारे साथ न हों। चाहे आरती हो, धाम कीर्तन हो, मन्दिर दर्शन हों, प्रवचन हों या पैदल पद यात्रा। मैंने अनुभव किया कि हम लोग थककर आलस्य करते आरती कथा आदि में जाने के लिये परन्तु आलस्य, गुरु जी की स्मृति से ही कहीं भाग जाता था। मन में सदा यही भाव रहता था । कि गुरुदेवजी भी तो उस Programme में होंगे तो हम क्यों नहीं जा रहे हैं? आखिर ये यात्रा गुरुदेव अपने लिये थोड़ी ही कर रहे हैं। वह तो अप्राकृत हैं वह यह सब हम बद्ध जीवों के उद्धार के लिए कर रहे हैं। वे हमारे उद्धार के लिये ही तो पृथ्वी पर आये हैं। यह स्मरण करते ही हम पुनः Fresh हो जाते। गुरुदेव के वात्सल अथवा उनकी ममता पर एक बात याद आई ।

नन्दगांव में होशियारपुर के भक्त श्री विद्यासागर जी जो कि गुरुजी के गुरुभाई हैं, की अचानक तबीयत स्वराब हो गई। वह बिल्कुल उठ भी नहीं सकते थे तो भटिण्डा तथा जालन्धर के तीन चार भक्तों ने उनकी बहुत सेवा की। किन्तु उनकी हालत बहुत ही बिगड़ती चली गई। गुरु जी को उनकी बहुत चिन्ता होने लगी । वे तीन चार बार उनको देखने भी गये। शाम को बरसाना किसी सेवा के लिये गये चिद्घनानन्द प्रभु जी आये तो गुरुजी ने उन्हें अपने कमरे में बुलाया तथा विद्यासागर जी को तुरन्त कोसी ले जाकर किसी अच्छे डाक्टर को दिखाने के लिये कहा । ऐसी जगह थी जहां रात को टैक्सी आदि मिलना बहुत कठिन था। तब भी जैसे तैसे चिद्घनानन्द प्रभुजी कहीं से एक मारूति वैन लेकर आये। काफी सारे भक्त लोग वैन के आस पास खड़े हो गये । कुछ भक्तों ने विद्यासागर जी को उठाया और वैन अन्दर लिटा दिया। कुछ जरूरी सामान पानी की बोतल, गिलास, कम्बल एवं कुछ पहनने के कपड़े लिये गये। चिद्घनानन्द प्रभु जी, जालन्धर के श्री राजेश जी तथा भटिण्डा के श्री अमर नाथ शर्मा जी के पुत्र श्री मनोज जी भी साथ गये । एक अजीब सा खामोश माहौल बन गया वैन के जाने के बाद । सांयकालीन सभा का समय था। गुरु जी कथा में बैठे थे किन्तु उनकी आँखें एकदम लाल थी। उन्होंने भी वैन को जाते हुए देखा था। कीर्तन के बाद गुरु जी ने वन्दना प्रारम्भ की। कथा प्रारम्भ करने के लिए आँखें खोली । मैंने देखा कि उस समय उनकी आँखों में अश्रु थे। गुरुजी ने कथा प्रारम्भ की आज मेरा हृदय बहुत दुःखी है। विद्यासागर जी हमारे गुरु भाई हैं। वे बहुत धनी नहीं हैं किन्तु तन से बहुत सेवा करते हैं। वे निष्काम भक्त हैं। आज उनका स्वास्थ्य ठीक नहीं है।’ वह यह भी बोले कि भक्त बाहर से बहुत दुःखी नजर आता है ऐसा लगता है कि वह बहुत पीड़ित है परन्तु भीतर से ऐसा नहीं होता । केवल बाहर से ही प्रतीत होता है। इतना कहकर उन्होंने भक्तों की कथा प्रारम्भ कर दी। मेरे दिल में यह बात घर कर गई कि गुरुदेव ही सर्वस्व हैं अर्थात पिता माता, भाई बन्धु, भगवान सब यही हैं। मैं सोच रही थी कि देखो विद्यासागर जी के साथ उनके घर का कोई भी नहीं है किन्तु गुरुजी को उनकी कितनी चिन्ता है। इतनी चिन्ता तो शायद घर के लोग भी न कर पायें। मैं गुरुजी का प्रवचन सुन रही थी और अपने आप को कोस रही थी कि गुरुजी जब हमारा इतना ध्यान रखते हैं तो हम क्यों स्वार्थी संसार के पीछे भागते हैं?

गुरुदेव का ममत्व

गुरुदेव अमेरिका के Tour के बाद 16 July को दिल्ली वापस आए । उनका भव्य स्वागत बड़े विशाल, सुसंस्कृत तथा समय की पाबन्दी के साथ हुआ वहां दिल्ली के सम्मानित व्यक्ति आमंत्रित थे जिनमें विशेष रुप से थे श्रीसतीश चन्द्र खण्डेलवाल एम. एल. ए. दिल्ली तथा माननीय न्यायाधीश के रामामूर्ति हाई कोर्ट दिल्ली । गुरुदेव 23 July को नई दिल्ली से कलकत्ता के लिए रवाना हुए। उन्हें Airport तक छोड़ने काफी सारे भक्त गए तथा में भी गई। गुरुदेव जी को नाम संकीर्तन करते हुए सभी भक्तों ने विदाई दी तथा गुरुदेव और उनका एक सेवक वहाँ के प्रवेश द्वार में प्रवेश कर गये। Flight 7 बजे की थी और गुरुदेव ने 6:10 पर प्रवेश किया | 6:30 पर आधे भक्त वापस अपनी गाड़ी से मठ की ओर प्रस्थान कर गए और आधे खड़े रहे कि यदि जहाज के उड़ने से पूर्व कोई आवश्यक सेवा हुई तो हम प्रस्तुत रहें। अचानक 6:40 पर मैंने देखा कि गुरुदेव हवाई अड्डे के प्रवेश द्वार पर खड़े हैं तथा हमारी ओर ममता भरी दृष्टि से अर्थात् मुस्कराते हुए देख रहे हैं। हम लोग भागे, उन्हें प्रणाम किया। गुरुदेव जी ने आशीर्वाद देते हुए मुस्कराते हुए, हाथ जोड़ते हुए एवं हाथ हिलाते हुए व ममता बिखेरते हुए हमारी ओर देख रहे थे। ऐसा प्रतीत होता था जैसे पूरा परिवार अपने पिताजी को छोड़ने आया हुआ हो तथा पिताजी यह कह रहे हों कि बच्चो, अब तुम जाओ तुम्हें मेरी चिन्ता हो रही थी इसलिए मैं बाहर तुम्हें दिलासा देने आया हूँ कि सब ठीक है और अब मैं जहाज में बैठने के लिये जा रहा हूँ ।

इससे प्रतीत होता है कि हमारे गुरु देव कितने उदार हैं, कितने करुणामय हैं, कैसे उनमें माता-पिता का स्नेह मिलता है, कैसे वह हर समय अपने शिष्यों की चिन्ता करते हैं। इतने उच्च कोटि के होते हुए भी वे हम तुच्छ प्राणियों के उद्धार के लिए तत्पर हैं।

वैष्णव पद रज किंकरी
ऊषा बरेजा D/o श्री ओम प्रकाश बरेजा
जनकपुरी, दिल्ली ।