गुरु जी ने किस प्रकार अपने ग्रन्थों के माध्यम से मेरे हृदय में उनकी सेवा करने की प्रेरणा दी है। इन्हीं ग्रन्थों के माध्यम से नित्य प्रति गुरु महाराज की वाणी वैभव की महिमा का दर्शन किस प्रकार होता है, इस लेख में वर्णित है।
पतितपावन परमकरूणामय गुरुदेव ने मुझे निजचरणों में स्वरचित ग्रन्थों एवं पुस्तकों के माध्यम से आकर्षित किया। गुरु जी के द्वारा लिखित एक पुस्तक, Harikatha and Vaishanva aparadha, का अध्ययन करने पर, गुरु जी की दिव्य वाणी ने मेरे अन्तःकरण में इस प्रकार प्रवेश किया कि मैंने केवल यह पुस्तक पढ़ने मात्र से ही गुरुदेव के चरणों का आश्रय लेने का दृढ़ निश्चय कर लिया था। यद्यपि मैंने तब तक गुरुदेव का साक्षात् दर्शन भी नहीं किया था। मैं इस बात से भी अनभिज्ञ था कि गुरुदेव उस समय अपनी अंतरग लीला में निमग्न, सांसारिक दृष्टि से अस्वस्थ लीला कर रहे थे।
गुरुदेव के प्रथम दर्शन मुझे अपनी हरिनाम दीक्षा के समय कोलकाता मठ में उनकी भजन कुटीर में हुए। भले ही गुरुदेव से मेरा साक्षात् संवाद कभी नहीं हुआ, किन्तु गुरुदेव अपनी वाणी के माध्यम से सदैव मेरा मार्गदर्शन कर रहें हैं एवं कर्णेंद्रियों से ही अपनी निकटता का भी अनुभव कराते हैं। गुरुदेव से मेरा सम्बन्ध उनकी वाणी एवं उनके ग्रन्थों के माध्यम से ही क्रमशः प्रगाढ़ हुआ है।
श्रील गुरुदेव के नित्य लीला में प्रवेश करने के उपरान्त, गुरुदेव की वाणी और उनके ग्रन्थों को आश्रय लेकर ही मैं, गुरुदेव के द्वारा ही रोपित भक्ति-लता बीज का सिंचन करने में समर्थ हो सका हूं। इसलिए ही गुरु जी के ग्रन्थों के प्रसार के लिए भी मेरी विशेष रुचि रही है।
एक डेंटल क्लीनिक, जहां मैं कार्य करता हूं, वहां मैंने गुरुदेव के सभी ग्रन्थों का संग्रह किया है। जब रोगी या उनके सम्बन्धी चिकित्सा के लिए प्रतीक्षा करते हैं तो इन पुस्तकों, विशेषकर हिन्दी पुस्तकें, ‘भगवान की ओर’ एवं ‘स्नेहमयी शिक्षा’ को पढ़ते हैं। और बहुत बार ऐसा होता है कि वे इन्हें पढ़ते हुए इतने मग्न हो जाते हैं कि हस्पताल में होने की अपनी चिन्ता को भूल ही जाते हैं।
जब मैं उनसे पूछता हूं कि क्या आपको यह पुस्तक अच्छी लगी तो प्रायः मुझे उत्तर कुछ इस प्रकार मिलता है— ‘बहुत ही अच्छी हैं! क्या मैं इसे रख लूं!’ और तो और किसी-किसी ने तो अपने सम्बन्धियों को देने के लिए मुझसे एक अतिरिक्त पुस्तक की मांग भी की। और जब मैं प्रसन्नता से उन्हें गुरुदेव की पुस्तक भेंट करता हूं, तो वे इसे माथे से छूकर, अपना आभार व्यक्त करते हैं। इस प्रकार गुरुदेव की वाणी के तेज से पुस्तकों का प्रसार-प्रचार स्वतः ही होता है।
गुरुदेव की वाणी एक अनभिज्ञ व्यक्ति के हृदय को कैसे छू लेती है, इसका निदर्शन हमें अनेकों बार हुआ है। कोई कहता है कि, मेरे बहुत से प्रश्नों का उत्तर इसमें है! कोई-कोई अपने पारमार्थिक संशयों को मेरे साथ सांझा करते हैं। और इस प्रकार मुझे अपने ही अन्तःकरण की शुद्धि के लिए, गुरुदेव की वाणी का अनुकीर्तन करने का भी अवसर प्राप्त होता है!
एक अवसर पर, इस्कॉन से सम्बन्धित एक भक्त ने जब प्रतीक्षा कक्ष में बैठे हुए ‘भगवान की ओर’ पुस्तक को पढ़ा और इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने रथ यात्रा उत्सव में अपनी भगवद् गीता के साथ-साथ गुरुदेव की पुस्तकों का भी वितरण किया। न केवल यह हिन्दी पुस्तकें बल्कि गुरु जी के अन्य सभी ग्रन्थ—गौर पार्षदावली, पौराणिक चरितावली, भक्त प्रह्लाद, भक्त ध्रुव, अन्य इंग्लिश ग्रन्थ, Affectionately yours इत्यादि भी हमने उनको भेंट किए, जोकि उन्होंने सहर्ष स्वीकार किए। इतना ही नहीं इन पुस्तकों, जैसे कि, ‘भगवान की ओर’ एवं ‘गौर पार्षदगण के जीवन चरित्र’ इत्यादि का वे अपने गुरुकुल के शिष्यों को नियमित अध्ययन भी कराते हैं। जब वे पुनः-पुनः श्रील गुरुदेव के प्रति अपनी कृतज्ञता ज्ञापन करते हैं, तो मैं भी उन्हें आभार प्रकट करता हूं कि उन्होंने मुझे गुरुवाणी की सेवा का अवसर दिया।
मैंने गुरु जी के मुखारविंद से श्रवण किया है कि भक्त प्रह्लाद एवं भक्त ध्रुव के चरित्र बालकों को विद्यालय में ही अध्ययन कराना उचित है। क्लीनिक में चिकित्सा के लिए आने वाले शिक्षकों के माध्यम से हमने विभिन्न विद्यालयों के पुस्तकालय में भी इन पुस्तकों को रखवाने का भी यथासंभव प्रयास किया है। मेरा दृढ़ विश्वास है कि गुरु जी की वाणी का सर्वत्र वितरण एवं प्रचार करने से हम गुरु जी के मनोभीष्ट को अवश्य ही पूर्ण कर सकेंगे और साथ ही गुरुपादपद्मों की सेवा में नियोजित हो सकेंगे।
जय गुरुदेव
श्रील भक्ति वल्लभ तीर्थ वाणी वैभव की जय! जय! जय!
अजीत गोविन्द दास