तिथि 4-6-97
सर्वप्रथम अपने श्री चरणों में इस अधम का दण्डवत् प्रणाम स्वीकार करें। आपका कृपा पत्र प्राप्त हुआ। प्रभु जी आप श्रील गुरु महाराज जी के निजजन हैं। आपकी आज्ञा का पालन करने का मतलब मैं समझता हूँ कि पतितपावन, परमआराध्यतम् श्रील गुरु देव के और निकट जाना व उनकी कृपा का प्राप्त होना। क्योंकि आपकी हरेक क्रिया श्रील गुरु महाराज जी की प्रसन्नता हेतु ही होती है। अतः श्रील गुरु महाराज जी की महिमा को देखना व अनुभव करना मेरे जैसा अभिमानी, शरीर व शरीर संबंधी व्यक्तियों में आसक्त जीव कैसे कर सकता है? लेकिन जो कुछ भी श्रेष्ठ वैष्णवों से सुनी है व श्रील गुरु देव ने अपनी अहैतुकी कृपा से अनुभव कराई है, उसको याद करने की चेष्टा करता हुआ एवं विष्णुप्रिया की प्रेरणा व सहयोग से लिखने की कोशिश कर रहा हूँ।
1 भगवद् भाव में विभावित होकर भगवान की कथा कीर्तन में रुचिः –
(1) पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति रक्षक नारायण महाराज जी ने बताया था कि जब हमारे श्रील गुरु महाराज जी मंगल व संध्या आरती के बाद जय घोष देते हैं तब ये बात बिल्कुल साफ नज़र आती है। कि वे पूरा Concentrate व तन्मन्य होकर जय घोष देते हैं। इतनी तन्मयता से जय देते हैं कि जैसे वे साक्षात् उनका दर्शन कर रहे हों। और ये बात सच भी है कि श्रील गुरु महाराज जी जय गान वालों का उस समय दर्शन करते हैं व भाव में आकर उन सबकी जय देते हैं
(2) उन्होंने ही बताया था कि नगर संकीर्तन शुरू होने से पहले यह कीर्तन “श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे,
तोमा बिना के दयालु जगत संसारे ।…….
और इसी के बाद “जयदाओ जयदाओ” गाते हुए व दोनों हाथ ऊपर उठाकर ज़ोर से जब यह कीर्तन गाते हैं तो उस समय साक्षात् श्रील परम गुरु देव, श्रील प्रभुपाद, श्री नित्यानंद जी, श्रीमन् महाप्रभु जी व समस्त गौरभक्त वृंद वहाँ पर प्रकट होकर उनके ऊपर अपनी कृपा वर्षा करते हैं। उस समय तो श्रील गुरु जी के सुकण्ठ से यही कीर्तन सुनकर व उनके भाव में उनका रूप देखकर सभी का हृदय गद्गद् हो जाता है व वहाँ पर उपस्थित सभा भक्तों का हृदय द्रवित हो जाता है। और अन्तःकरण इतना आनंद में भर जाता है कि प्रतीत होता है जैसे कि साक्षात् गोलोक वृन्दावन यहीं पर आ गया हो ।
(3) श्री मायापुर धाम की परिक्रमा और श्री ब्रजमण्डल परिक्रमा में साक्षात् देखा कि पूरा पूरा दिन नगर संकीर्तन, पैदल धाम में मीलों चलने के बाद रात को मठ में आकर श्री हरिकथा में बैठना व पूरी Sitting में पूरी तत्परता के साथ श्री हरि कथा को बोलना। वे जब खुद कीर्तन करते हैं तो पूरे शरीर को उसमें एकदम औंक देते हैं। इतने भाव से कीर्तन करते हुए आज तक मैंने किसी को देखा भी नहीं व अनुभव भी नहीं किया। बिना प्रेम के यह सम्भव नहीं है।
(4) भगवान में अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम :-
गोकुल महावन में 1993 में जब श्रीविग्रहों पर प्रहार किया गया था। उस समय यह खबर उनके पास पठानकोट में पहुँची । सुनकर बिना अस्थिर हुए व अपनी पीड़ा को अन्दर में दबाते हुए कुछ वैष्णवों से सलाह-मशविरा करके उन्हें गोकुल के लिये रवाना कर दिया । और कुछ समय पश्चात जम्मू से जब वे खुद गोकुल महावन पहुँचे तब हर खंडित विग्रह को उन्होंने शांति के साथ देखा । तत्पश्चात् सत्संग हाल में आकर उन्होंने श्रीनरसिंह स्तव शुरू किया अपनी पीड़ा को और नहीं दबा सके व इतना ज़ोर से चिल्लाकर उन्होंने रोदन किया कि मानो ब्रह्माण्ड ही फट गया हो। उस रोदन की आवाज को सुनकर वहाँ सभी उपस्थित भक्तों का दिल हिल गया। संसार में अपने प्रियजन व स्वजन के बिछड़ने पर भी कोई इतना नहीं रोता होगा- जितना कि हमारे श्रील गुरु महाराज जी भगवद् विरह में रोये व यही कहते रहे कि हमारे अपराधों की वजह से ही भगवान ने हमें अपनी सेवा से वंचित कर दिया ।
सन् 1996 में रथ यात्रा के दौरान श्रील गुरुदेव के कमर में चोट आने के कारण डाक्टरों ने उनको झुकने के लिए व ज्यादा Movement (नृत्य कीर्तन) करने के लिये मना कर दिया था। उस समय अगरतला में मैंने साक्षात् देखा कि श्रील गुरु महाराज जी जब भी ठाकुर जी के सामने आते थे तो पूरा साष्टांग प्रणाम बहुत तकलीफ के साथ करते थे । मना करने पर कहते थे कि ठाकुर जी के सामने प्रणाम नहीं करने से मन में घमण्ड का भाव रहता है। सुबह शाम आरती परिक्रमा के बाद समस्त वैष्णवों को सबके साथ प्रणाम र थे। रथ के सामने भी नृत्य कीर्तन किये बिना वे नहीं रह सके।
(5) सहनशीलता
‘कृष्ण भक्त निष्काम अतएव शांत’ । शांत चित में कभी क्रोध वास नहीं करता। वे किसी भी परिस्थिति में Unbalance नहीं होते हैं। वे किसी का भी दोष नहीं देखते हैं। वे एक ही बात के ऊपर विश्वास करके चलते हैं कि भगवान तो मंगलमय हैं। वे जो कुछ करेंगे हमारे मंगल के लिये ही करेंगे। इसलिये अगर कोई प्रतिकूल परिस्थिति आती है तो उसको भी भगवान की इच्छा जानकर सहनशीलता के साथ ग्रहण करते हैं। मैंने उन्हीं के मुखारिवन्द से. सुना है कि जब गुरु जी व भगवान तुमको अपनी सेवा में लेना चाहेंगे तो वे हर तरफ से तुम्हें विरुद्ध परिवेश में डाल देंगे। चारों तरफ से बदनामी, लांछन मिलेंगे। तब भी साधक अगर शांत रहता है तो फिर वे उसे अपनी सेवा का अधिकार प्रदान करते हैं। ” श्रील गुरु महाराज जी अपने शारीरिक सुख की परवाह भी नहीं करते । जब नई दिल्ली में छोटा मठ था तो Common Latrine / Bathroom व पानी की इतनी दिक्कत होने पर भी उनको कभी भी चंचल नहीं देखा। वे बहुत शांति के साथ हंसकर व्यवहार करते थे। स्टेशन पर श्रील गुरु महाराज को Receive करने के लिये बहुत बार उनके पहुँचने के बाद हम जाते तो कभी भी उन्होंने गुस्सा नहीं दिखाया । अपितु ऐसी निगाहों से देखते थे जैसे कि हम लोग कितनी तकलीफ उठाकर पहुँचे हों।
(6) सहनशीलता की खान हैं हमारे श्रील गुरुदेव । यह इस बात से पता लगता है। पिता के ऊपर तो पूरे परिवार की जिम्मेदारी स्वाभाविक ही होती है। वे तो प्यार से, डाँट से सबको चलाने की कोशिश करते ही हैं। सब लोग उनकी बात को सुनते भी हैं व मानते भी हैं। लेकिन अगर जब वही जिम्मेदारी पिता के बाद बड़े भाई के ऊपर आ जाये तो उस भाई के लिये सबको सम्भालना व सबको साथ लेकर चलना बहुत मुश्किल है। संसार में खून का रिश्ता होने पर भी लोग छोड़ देते हैं (यानि कि जिम्मेदारी से मुँह मोड़ लेते हैं) बड़े भाई को सबकी बात सुननी पड़ती है, ज्यादा कुछ नहीं कह सकने के कारण कितनी सहनशीलता रखनी पड़ती है, उसका अनुमान लगाना बहुत कठिन है। यह उदाहरण हमारे गुरु जी के जीवन में साक्षात् देखने को मिलती है। सिर्फ अपने श्री गुरुदेव की आज्ञा को शिरोधार्य करके व सिर्फ उनकी ही प्रसन्नता के लिये इस Mission को ( सारे गुरु भाईयों को साथ में लेकर, गुरुवर्गों को भी मानकर ) जिस प्रकार चला रहे हैं, ये भी उनकी सहनशीलता की एक अनूठी मिसाल है। चाहे कोई कितना भी उद्वेग क्यों न दे वे सिर्फ अपने श्री गुरुदेव जी के मनोभीष्ट को पूर्ण करने के लिये उसे सहन करते हैं व उसी उद्वेग- देनेवालों को सम्मान भी करते हैं और समय आने पर उनकी महिमा का कीर्तन भी करते हैं।
(7) अजात शत्रु: सबसे मुख्य बात तो यह है कि श्रील गुरु महाराज जी को आज तक किसी की निंदा करते नहीं सुना । किसी के बारे में कभी कोई Negative बात उनके मुखारबिन्द से ही नहीं सुनी। ये तो सबसे ही अच्छा व्यवहार करते हैं। उनसे तो अनजान आदमी भी मिलकर Impress हो जाता है। अपने इस भक्त परिवार को वे कितना स्नेह करते हैं इसको शब्दों में लिखना असम्भव है। इसलिये उनके सामने भी किसी की निंदा करने की हमारी हिम्मत ही नहीं होती। वे तो दोषों में भी गुण निकाल देते हैं। जैसे सुना है कि अपने रचित ग्रंथ “श्री गोर पार्षद एवं वैष्णव आचार्यों के जीवन चरित्र में श्री रामचंन्द्र पुरी का Character ऐसे लिखा है कि श्री ईश्वर पुरी पाद का Character भी छोड़कर उसे पढ़ने को मन करता है।
(8)
अपने गुरुवर्ग, गुरुभाईयों व वैष्णवों के प्रति सम्मान:- साक्षात देखा है कि जब गुरुमहाराज जी प्रचार में कहीं भी जाते हैं तो सदा ही परम पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद् भक्ति शरण त्रिविक्रम महाराज ( उनके गुरु वर्ग) को सदा आगे रखते हैं। पहले उनको माला पहनवाते हैं, उनकी ही पहले आरती करवाते हैं। कथा में जब वे आसन के ऊपर बैठने के लिये जाते हैं। तो अपने जितना या उससे भी ऊँचा आसन उनके लिये भी लगवाते हैं। कभी ऐसा नहीं होने पर खुद अपना आसन अपने हाथ से निकालकर उनको प्रदान करते हैं। ऐसा ही व्यवहार हम सुनते हैं कि जब उनके गुरुवर्ग वृद्ध पुरी महाराज जी अर्थात परम पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज अथवा परमपूज्यपाद केशव प्रभु या उनके गुरुभाई पूज्यपाद त्रिवण्डिस्वामी श्री श्रीमद् भक्ति ललित गिरी महाराज जी जब कभी प्रचार में साथ चलते थे, तो उनसे करते थे।
(9) चण्डीगढ़ में 1994 की रथ यात्रा के दौरान श्रीलगुरु महाराज जी रथ के आगे प्रणाम करने के लिये आये तो रथ को खींचने वाला रस्सा बीच में पड़ा हुआ था। रस्से की ओर इशारा करते हुए गुरु जी ने कहा कि इसे पहले ऊपर करो अर्थात् रथ को खींचने के रस्से को न लांघ कर उसके नीचे से जाकर प्रणाम किया गुरु जी ने रथ पर विराजित ठाकुर जी को । इसे देखकर वहाँ पर उपस्थित श्री कुलदीप चोपड़ा जी ने कहा था कि ये होती है भक्ति सिद्धान्त की बात ।
( 10 ) दीनता – श्रील गुरु महाराज जी की शुभ आविर्भाव तिथि में श्री गुरु महाराज जी अपनी आरती करवाने के लिये कतई तैयार नहीं होते हैं। बहुत मुश्किल से मनाने पर, अनेक प्रार्थना करने पर वे पहले श्री परम गुरुदेव का आलेख आगे रत्व कर व अपने गुरुवर्ग को व अपने गुरु भाइयों को साथ में लेकर बड़ी दीनता के साथ आरती में खड़े होते हैं। ऐसा लगता है कि दीनता की मूर्ति श्रील गुरुमहाराज जी यह समझते हैं कि में इस लायक ही नहीं हूँ।
(11) श्रील गुरु महाराज हर वस्तु में ये भगवद् वस्तु है, ऐसी बुद्धि रखते हैं। हर वस्तु के व्यवहार में इतना ध्यान रखते हैं कि एक बार उनके सेवक श्रीपाद अनु प्रभु से सन्तोरगढ़ (ऊना) में उनका गमछा छत पर छूट गया। महाराज जी ने उनको बहुत डाँटा । श्रील गुरु महाराज जी का विचार है कि गृहस्थी लोग कितनी मेहनत करके ये पैसा गुरु- वैष्णव भगवान की सेवा के लिये देते हैं इसको बहुत ही सावधानी से व्यवहार करना चाहिये। उनका कहना है कि ये समझना चाहिए कि ये श्री चैतन्य महाप्रभु जी की सम्पत्ति है।
(12) उत्थान एकादशी की शुभ तिथि में व श्री राम नवमी के अवसर पर श्रील गुरु महाराज जी की शुभ आविर्भाव तिथि में जिस समय श्रील गुरु देव सभी उपस्थित अपने गुरुवर्ग गुरुभाई व वैष्णवों को माला, वस्त्र व प्रणामी देते हैं और जिस दीनता के साथ उन्हें प्रणाम करते हैं – ऐसा सम्मान का भाव होना अपने आप में ही एक मिसाल (आदर्श) है। वह दृश्य देखकर तो मन में बहुत उल्लास होता है और मन व बुद्धि कहती है कि ऐसी दीनता भगवद् निजजन के अलावा और किसी के पास देखने को नहीं मिल सकती। तभी यह लाईन याद आती है “उत्तम हैया वैष्णव हवे निराभिमान” ।
(13) बात उस समय की है जब श्री निरीह महाराज जी वृन्दावन स्थित श्री चैतन्य गौड़ीय मठ में नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परमहंस अष्टोतरशत् 108 त्रिदण्डि स्वामी श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी का समाधि मन्दिर बनवाने हेतु Collection में देहरादून गये थे तो वहाँ पर एक माता जी श्रीमती निर्मला देवी के पास ( श्री विष्णुदास प्रभु – देहरादून वासी गृहस्थ भक्त के साथ) पहुँचे और उनसे समाधि मन्दिर की सेवा के लिये भिक्षा माँगी तो माताजी क्षुब्ध होकर बोलीं कि क्या दें, हमारा मन तो किसी मठवासी की घटना से खराब हो गया है। इसलिये देने का मन तो नहीं करता है। चलो ठीक है में जब वृन्दावन आऊँगी तब दे दूंगी। ऐसा कहकर उसने उनको टाल दिया । श्री निरीह महाराज जी ने भी कहा चलो ठीक है और ऐसा कहकर रसीद बुक श्री विष्णु दास प्रभु को देने लगे। रसीद बुक को देखकर अचानक ही वह माता जी बोलीं महाराज जी रुकिये। हाँ, यह रसीद बुक देखकर याद आया कि कुछ ही दिन हुए मैंने स्वप्न में देखा कि श्री परम गुरु देव व हमारे गुरु देव दोनों मेरे पास आये हैं। हमारे गुरु महाराज जी के हाथ में रसीद बुक है । और वे उनसे बोले हाँ माता जी समाधि मन्दिर के लिये क्या सेवा लिखनी है ? श्री परम गुरु देव चुपचाप त्खड़े हैं। यह सुनकर वह अन्दर जाने लगी पैसा लेने के लिये कि तभी उसकी निद्रा भंग हो गयी।
घटना सुनाकर उसने कहा कि आप अभी मुझसे 1100/- रुपए लेकर जाइये। इस घटना को सुना हुए श्री निरीह महाराज जी ने बोला कि जब हमारे श्रील गुरु जी व श्रील परम गुरुदेव स्वयं ही Collection कर रहे हैं तो फिर किसी चीज़ की कमी होगी क्या ? इसलिये मुझे कोई चिन्ता करने की ज़रूरत ही नहीं है।
कहते हैं कि परम गुरु जी श्री निरीह महाराज जी को बहुत स्नेह करते थे और हमारे गुरु देव भी उनसे बहुत प्यार करते हैं। इसी सम्बन्ध में उन्होंने एक घटना सुनायी कि जब श्रील गुरु महाराज ( ॐ विष्णुपाद अष्टोत्तरशत 108 श्री श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी . महाराज जी ) गोकुल महावन में Annual function के दौरान Nov. 95. में वहाँ पर थे तो श्री निरीह महाराज जी की हालत बहुत खराब हो गई थी और वृन्दावन के राम कृष्ण मिशन हस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा । वहाँ ये हमारे गुरु महाराज जी से एक बार मिलना चाह रहे थे। श्रीमति सुरेशी देवी (श्री विनोद वाणी गौड़ीय मठ में रहने वाली) ने यह खबर हमारे गुरुजी को गोकुल महावन में आकर जब सुनाई तो खबर सुनने के साथ-साथ ही श्रील गुरु महाराज जी बहुत ज़ोर से रो पड़े और कहने लगे ” हमारे गुरु जी इनको बहुत प्यार करते थे” और अगले दिन ही प्रोग्राम की इतनी व्यस्तता के बावजूद वृन्दावन किसी भक्त की गाड़ी में गुरु महाराज इनको देखने अस्पताल गये । ये ज्वलन्त घटनाएँ बोलती हैं कि गुरु महाराज जी अपने गुरु भाईयों व गुरुवर्ग के वैष्णवों का किस प्रकार सम्मान करते हैं।
( 14 ) पूज्यपाद श्री भक्ति रक्षक नारायण महाराज जी के मुखारबिन्द से सुना कि एक बार हमारे गुरु जी शायद तब वे ब्रह्मचारी थे, मायापुर में दोपहर के समय श्री परम गुरु देव जी ने उन्हें किसी सेवा के लिये बोला, तो ये तत्काल ही उस सेवा के लिये जाने लगे । उस समय हमारे परम गुरुदेव के कुछ गुरुभाई व अन्य वैष्णव लोग प्रसाद पाने बैठ गये थे। अतः गुरुजी को बोले कि आप भी प्रसाद पा लो। जवाब में गुरुजी ने कहा कि मैंने श्री गुरुजी की सेवा के लिये जाना है। उन लोगों ने कहा कि प्रसाद पाकर ही चले जाओ पता नहीं कि वहाँ कितना वक्त लगेगा। उनकी आज्ञा मानकर गुरुमहाराज जी प्रसाद पाने बैठ गये। जब प्रसाद पा रहे थे तो उसी समय वहाँ पर परम गुरुदेव भी आ गये और बोले – “अच्छा, प्रसाद पा रहे हो। यानि की बहुत ही सहज भाव में कहा । लेकिन हमारे गुरुदेव परम आराध्यतम् श्री ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने इतना सुनते ही ज़ोर ज़ोर से वहीं पर रोना शुरू कर दिया और अपने आप को कोसने लगे कि हाय ! मैं इतना इन्द्रिय तर्पण करने वाला हो गया कि श्रील गुरुदेव जी की सेवा छोड़कर पहले अपनी उदार पूर्ति के लिये बैठ गया ।
हालांकि देखा जाये तो वे श्रेष्ठ वैष्णवों व अपने गुरुवर्गों की आशा को पूर्ण करने के लिये ही बैठे थे, अपनी उदर पूर्ति के लिये नहीं, लेकिन तब भी अपने को ही दोषी मान रहे थे। इससे मालूम पड़ता है कि दीनता व गुरु भक्ति की साक्षात् मूर्ति हैं। हमारे गुरुदेव” ।
( 15 ) उनकी दयालुता
उनकी दयालुता का सबसे बड़ा साक्षात् प्रमाण में खुद ही हूँ क्योंकि मेरे अन्दर जितना कीचड़ भरा हुआ है उसे मेरे इलावा और कोई नहीं जानता। ऐसे मनुष्य को ( जीव को ) हमारे पतितपावन श्रील गुरुदेव, जो कि कितनी ऊँची भूमिका में हैं अर्थात जो साक्षात् श्री राधा कृष्ण मिलित तनु विग्रह श्री गौरांग महा प्रभु के निज जन हैं व मधुर रस ( सर्वश्रेष्ठ रस) के भक्त हैं और बाहरी दृष्टि से भी इतने ऊँचे पद पर विराजमान हैं, ऐसे महापुरुष होते हुए भी इस अभिमानी व प्रतिष्ठाकामी जीव पर सर्वोतम दया करते हैं। किस तरह से मुस्कान के साथ बात करते हैं। मुझे किस प्रकार से छोटी -2 सेवाओं को देकर मेरा उत्साह बढ़ाते हैं और मेरी शारीरिक व मानसिक हालत को देखकर मेरे योग्य जो कुछ भी करणीय है उसे सहज भाव से बतलाते हुए मेरी पारमार्थिक उन्नति हेतु मुझे बड़े प्यार से समझाते हैं। उनके हृदय में हमारी गलतियों के लिये कोई स्थान है ही नहीं । हज़ारों अपराध करते हुए भी वे अदोषदरशी बनकर मेरा मार्गदर्शन करते हैं।
एक बार जनकपुरी उत्सव में किसी कारण से तीन-चार दिन नहीं जा सका तो श्रील गुरु महाराज जी ने अपने सेवक श्रीपाद अचिन्त्य गोविंद प्रभु (अनु प्रभु) से पूछा कि क्या बात है सतीश आया नहीं इतने दिन से ? घर में कोई तकलीफ हो गई क्या ? यह सुनकर मेरा दिल गद्गद् हो गया। जिनकी मुझे रत्तीभर भी चिंता नहीं रहती ऐसे भगवान के शुद्ध भक्त मेरी (मुझ जैसे नीच की) चिंता करते हैं। ये उनकी मेरे ऊपर दयालुता नहीं तो और क्या है ? मुझे किस रास्ते पर लगाने की कोशिश कर रहे हैं, जहाँ मेरा नित्य मंगल होना है।
ऐसे महान दाता परम दयालु श्रील गुरुदेव के श्री चरणों में मेरे अनन्त कोटि साष्टांग दण्डवत प्रणाम् ।
श्री गुरुदासानुदास स्वरूप दामोदर दास
(सतीश अग्रवाल ) दिल्ली