ओंकार सिंह गिल जी द्वारा

बृहन्नारदीय पुराण के अनुसार कलियुग में केवल हरिनाम ही प्रभुप्राप्ति का एक मात्र साधन है, अन्य कोई नहीं। श्रील रूप गोस्वामी पाद जी ने पूर्ण गुरु के पादपद्मों में पूर्ण समर्पण को भक्ति मार्ग की प्रथम सीढ़ी माना है।

आधुनिक समय में पूर्ण वैष्णव गुरु का मिलना बहुत कठिन है, यह बात निरन्तर बढ़ते हुए मत मतान्तरों और बगुला भक्त गुरुओं की भरमार से सिद्ध हो चुकी है। बाल्यकाल से ही मुझे भगवान के अस्तित्त्व में विश्वास रहा है। भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ मुझे बहुत ही आकर्षित करती थीं। मैं विभिन्न मन्दिरों में आयोजित श्रीमद् भागवत पुराण और महाभारत की कथाएँ नियमित रूप से सुना करता था किन्तु अपनी सामाजिक और पारिवारिक मान्यताओं के कारण, में गुरुद्वारों में भी शीश नवाने जाया करता था और सामान्य हिंदुओं की भान्ति देवी देवताओं का भी पूजन किया करता था। इतना होने पर भी मुझे इस बात का विश्वास न हो सका कि गुरु भगवत् भक्ति मार्ग की सीढ़ी होती है जो कि इस मार्ग पर अग्रसर होने कि लिए परम आवश्यक है। मेरा यह भ्रमपूर्ण मत रहा कि पूर्ण एकाग्रता से हरि का नाम लेने पर गुरुके बिना भी भगवत् प्राप्ति हो जाती है।

1980 के दशक के प्रारम्भिक वर्षों में मुझे श्री कृष्ण चैतन्यसन्देश अकस्मात् सांसारिक और पारिवारिक विषयों व क्रिया कलापों में अरुचि हो गई। किसी भी कार्य में मन न लगता था। साथ ही साथ सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक कष्टों का भी मुझे सामना करना पड़ा। उसके कारण बैचेनी, घुटन और मानसिक कष्टों का में अनुभव किया करता था। किन्तु मेरे रोग का कोई निदान न था। अशान्ति के इस दौर में, मैं विभिन्न धार्मिक स्थानों और धर्मों के मुख्यालयों में शान्ति की खोज में भटकता रहा किन्तु शांति आंख मिचौनी खेलती रही। इस खोज के दौरान में केवल एक निकटवर्ती धर्म स्थल में नहीं जा पाया क्योंकि मेरी यह भ्रमपूर्ण धारणा भी कि अन्य धर्म स्थलों के समान यह भी एक सामान्य धर्म स्थान है । अन्तर था तो केवल यह कि इस का निर्माण चण्डीगढ़ के बंगीय समाज ने करवाया था। यह स्थान था सेक्टर 20 का श्री चैतन्य गौड़ीय मठ ।

1992 में मेरी बेचैनी ने सारे तटबन्ध तोड़ डाले । मैं पूर्ण रूप में स्वयं को रिक्त अनुभव करने लगा परन्तु इस रिक्तता को भरने का कोई साधन न था । अन्तर्द्वन्द में मेरी ऐसी दशा हो गई कि आखों की नींद उड़ गई सारी सारी रात टहलते हुए गुज़ार देता अनाप शनाप सोचता रहता था।

एक सौभाग्य लाने वाली रात्रि को न जाने कैसे अकस्मात् प्रभु कृपा से गहरी नींद का झोंका आया जिसने मेरे जीवन का क्रम ही बदल कर रख दिया। मैंने श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के श्री मंदिर के स्वप्न में दर्शन किए ज्यों ही स्वप्न भंग हुआ मुझे लगा कि यह वही स्थान था जिसकी खोज में मैं इतने दिन से भटक रहा था और जहाँ मुझे शांति मिल सकती थी ।

स्वप्न से प्रेरित होकर में 1992 के अंतिम सप्ताह में श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ में पहली बार गया। मेरा वहाँ श्री देवकी नंदन दास (छोटे) और श्री चक्रपाणि वास इन वो ब्रह्मचारियों के साथ साक्षात्कार हुआ। इन महानुभावों ने मुझे श्री मंदिर में नियमित रूप से आने का परामर्श दिया और यह भी बताया कि श्रील गुरुदेव आगामी रामनवमी के दिनों में श्रीमठ के वार्षिकोत्सव के उपलक्ष्य में चण्डीगढ़ पधारेंगे। मैंने उसी समय श्रील गुरुदेव को मिलने का दृढ़ निश्चय कर लिया ।

तदानुसार मुझे श्रील गुरुदेव के चरणों में बैठने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। रामनवमी के बाद वाली एकादशी के दिन जब श्री गुरु और वैष्णवों की अपार कृपा से मुझे हरिनाम ग्रहण करने का दुर्लभ सुअवसर मिला। अपनी बारी आने पर मैं गुरुजी के श्री चरणों में दण्डवत् प्रणाम करने के उपरान्त बैठा । इस प्रक्रिया में ज्योंही श्री गुरुदेव ने मेरी आँखों में गहरे झांका, मैंने उनकी ओजस्वी आखों में आध्यात्मिक प्रेम का अथाह सागर लहराते हुए देखा। मुझे अनुभव हुआ कि एक अलौकिक शक्ति मेरी आत्मा, मन और शरीर में गहरे उतरती जा रही थी । अनिश्चितता अशाँति और दुःख के काले बादलों को श्रीगुरु देव की अपार असीम आध्यात्मिक कृपा के सशक्त झंझावात ने तिरोहित कर दिया था और मैंने अपने को दिव्य अलौकिक शाँति के आयने में समाते हुए महसूस किया । सब और प्रकाश था, अंधेरे का नाम नहीं था। अवरुद्ध कण्ठ से मैंने जैसे तैसे श्री रवीन्द्र नाथ टैगोर जी का यह पद दोहराया ‘आमार माथा नत करे दाओ, हे तोमार चरण धूलार तले, सकल अहंकार हे आमार डुबाओ चोखेर जले ।” और गुरुदेव से करबद्ध प्रार्थना की कि वे हरिनाम के रूप में अपनी असीम कृपा मुझ पर बरसा कर मुझे अनुग्रहीत करें । जब उन्होंने अपना वरंद हाथ मेरे सिर पर रखा और महामन्त्र दान कर मुझे अपनाया तो मुझे अपने आप में बहुत ही हल्का हल्का सा महसूस हुआ। मुझे स्पष्ट अनुभव हुआ कि मेरे सारे पाप, गालों पर लुढ़क कर नीचे गिरते हुए पश्चाताप के आँसुओं में धुलकर बह गए हैं। मुझे असीम शाँति मिली और मेरा खोया हुआ आत्मविश्वास लौट आया ।

अपने गुरुदेव में मुझे साक्षात् भगवान के ही दर्शन हुए। उनका सबैव मुस्कराता हुआ मुख कमल हर समय भक्ति रूपी सौरभ बिखराता रहता है। असीम बुराईयों की भीषण ज्वाला से संतप्त संसार में रहते हुए भी वे उसी प्रकार निर्लेप हैं जैसे एक कमल का फूल अपने जनक पंक से भी लिप्त नहीं होता और अपने सौरभ श्रील गुरुदेव की असीम कृपा से मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा । निरन्तर आगे ही बढ़ता जा रहा हूँ। मैंने उन में दीन दुःखियों के दुःख दर्द को समझने वाले पूर्ण वैष्णव के दर्शन किये हैं उनमें भगवान– श्री कृष्ण की सी भक्त वत्सलता व दयालुता, हिमालय की सी अटलता, बच्चों की सी सादगी और मासूमियत, श्री गौरांग महाप्रभु जी की सी महावदान्यता मीरा बाई जी की सी दीवानगी भक्त देवर्षि नारद का सा अलौकिक भगवद् प्रेम, महर्षि दधीचि के से अपूर्व आत्म बलिदान और देव गुरु वृहस्पति जी की सी अप्रतिम बुद्धिमता के दर्शन किए हैं और क्या कहूँ मेरे गुरुदेव सर्व गुणों से परिपूर्ण हैं।

मेरे गुरुदेव अनन्त समय तक गौरवाणी की अजस्त्रधारा बहाते रहें और भक्ति रूपी मरहम से भवरोग ग्रस्त असंख्य आहत, संतप्त व विदग्ध हृदयों पर हरिनाम रूप शीतलता का विलेपन करते रहें । इसी प्रार्थना और अपनी असंख्य न्यूनताओं और अपराधों के लिए क्षमा याचना के साथ।

श्री गुरु वैष्णवों का दासानुदास
अच्युतानंद दास
(ओंकार सिंह गिल )