आपका 29/5/97 का लिखा हुआ मिला जबाब में देरी का कारण मेरा भठिण्डा में कम रहना है। पहले मैं कलकत्ता में होमयोपैथिक उपचार हेतु गया था और उस के बाद दो बार दिल्ली में G. B. Panth Hospital में अपने को Check व कुछ Test करवाने गया था। पत्र में देरी का सबसे बड़ा कारण आप के पत्र का अन्तिम पहरा (कि मैं यह उत्तर न दूं कि प्रभु जी हम बद्ध जीव हैं गुरु जी की महिमा का क्या बरवान कर सकते हैं।) है।
श्री गुरु महाराज जी व अन्य वैष्णवों के मुखार विन्द से कई बार सुना है कि भगवान तथा गुरु- वैष्णव की महिमा बखान उसी भूमिका में हो सकती है जिस में वे हैं। मेरा तो उस भूमिका में प्रवेश असम्भव है फिर भी वैष्णव आज्ञा शिरोधार्य करने के लिये कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा चाहे वह जागतिक दृष्टि से ही श्रील गुरु महाराज जी के सम्बन्ध में ही क्यों न हो। आप की ओर से लिखे गये गुणों के बारे में एक-एक दो-दो दृष्टान्त दे रहा हूं।
श्रील गुरु महाराज जी की सहनशीलता
(1) श्रील गुरु महाराज जी ने एक बार एक ब्रह्मचारी को उसका नाम लेकर अमुक कीर्तन करने को कहा परन्तु हैरानी वह ब्रह्मचारी कीर्तन न कर चुपचाप बैठा रहा तो मैंने यह समझा कि उसने गुरुदेव जी की बात सुनी नहीं। मैंने उस ब्रह्मचारी का नाम लेकर कहा “प्रभु जी गुरु महाराज जी आप को अमुक कीर्तन करने को कह रहे हैं ।” बड़बड़ाते हुए कहा उसने कि महाराज जी नहीं सोचते कि कौन सा कीर्तन किस जगह पर होना चाहिये। तभी ब्रह्मचारी ने अपनी इच्छा के अनुसार अन्य कीर्तन शुरु किया। तब मैंने कहा प्रभु जी महाराज जी ने तो अमुक कीर्तन करने को कहा है। तब वे बहुत क्रोध में बोले कि यह पकड़ो माईक और आप ही करो कीर्तन । यह सुन कर में हक्का-बक्का रह गया और मुझे कुछ समझ न आया कि मैं क्या करूं ? कुछ समय उपरान्त वही कीर्तन जो वे कर रहे थे, शुरू कर दिया उन प्रभु जी ने । श्रील गुरु महाराज जी ने यह सारी घटना सुन व देख कर भी अनसुनी व अनदेखी कर दी जैसे कुछ हुआ ही न हो तथा तन्मय हो कर कीर्तन करने लगे। मेरे मन में आया कि श्रील गुरु महाराज जी की सहनशीलता का प्रमाण इससे बढ़ कर और क्या होगा ? यह प्रसंग मैंने घटना वश लिख दिया है परन्तु उन वैष्णवों से क्षमा का प्रार्थी हूं कि वे मेरा कोई अपराध न लें ।
(2) हमारे मठ आश्रित होने से पहले मायापुर मठ परम गुरुदेव अखिल भारतीय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के संस्थापक नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी के समाधि मन्दिर की प्रतिष्ठा हुई थी। इस सम्बन्ध में गुरु वर्ग से सुना गया कि प्रतिष्ठा के उपरान्त कुछ सन्यासी व ब्रह्मचारी लोगों ने यह कहना शुरू किया कि श्रीमूर्ति जो प्रतिष्ठित की गई है वह गुरुदेव जैसी नहीं है, इसे बदला जाना चाहिये । इस विषय के सम्बन्ध में हस्ताक्षर अभियान शुरू कर दिया लेकिन यह असफल रहा क्योंकि हमारे सुरुदेव जी का कहना था कि अब प्राण प्रतिष्ठा हो चुकी है और इस श्री मूर्ति में गुरुजी विराजमान हैं इसे बदलना ठीक नहीं सुनने में आया है कि उन्होंने अपनी तेजस्वी गर्जनादार वाणी में सभी को अपने प्रवचन में समझाया जरूर, परन्तु इतना कुछ होने के बाद भी वे विचलित नहीं हुये ।
श्री. गुरु महाराज जी की दयालुता :-
(1) अक्सर देखने में आता है कि कलकत्ता आदि मठों की सभा में अगर एक दो मूर्ति भी हिन्दी भाषा वाले हों तो श्रील गुरुदेव अपना प्रवचन में हिन्दी में करते हैं अथवा हिन्दी या बंगला दोनों भाषा में जिस से बंगला भाषा समझने वाले प्राणियों का मन भगवान में लगा रहे। कई बार यह देखने को मिला कि बंगाली भक्तों ने कहा कि महाराज जी बंगला में बोलिये तो गुरुदेव जी यह कहकर उन का समाधान किया कि ये लोग उत्तर भारत से इतनी दूर चल कर आये हैं। अत: इन्हें बंगला समझ नहीं आती जबकि आप लोग तो हिन्दी समझ लेते हैं।
(2) में श्री गुरु महाराज जी के पास जा रहा था तो बठिंडा के भगत वृन्दों ने मुझे कहा कि गुरु महाराज जी से बात करके आना कि अगर कोई सन्यासी या ब्रह्मचारी, जो गुरु महाराज जी के मठ से सम्बन्ध नहीं रखता और बठिंडा में आता है तो हमें क्या करना चाहिये ?
मैंने जब श्री गुरु महाराज जी से बात की तो वे मुस्कराये और कहने लगे कि महात्मा या बह्मचारी जो भी कोई आता है उसके आने का कारण जानना चाहिये अगर वह प्रचार के लिये आता है तो अच्छा है। हाँ, अगर उसका मूल कारण सिर्फ रूपया इकट्ठा करना है तो ऐसा ठीक नहीं। ऐसे सन्यासी या ब्रह्मचारी को आप लोग बोल सकते हैं कि गुरुदेव महाराज जी के साथ अपने आने का प्रोग्राम बनाया करें तो अच्छा है और साथ में श्रील गुरु महाराज जी ने यह भी कहा कि अगर वह महात्मा आपके पास से रूपया इकट्ठा करने की बजाय मुझ से कहे तो मैं उस की कुछ सहायता कर सकता हूँ ।
(3) पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी भक्ति प्रसाद प्रमार्थी महाराज ब्रज परिक्रमा में जो 1996 में हो रही थी हमारे पास आये और कहने लगे कि आप को आप के
के पास गया था और मैंने उन्हें बताया कि कल मेरे गुरु महाराज परम पूज्यपाद श्रीधर महाराज की अविर्भाव तिथि है। मैं इस उपलक्ष में उत्सव करना चाहता हूँ और आप की आज्ञा लेने आया हूं। यह सुन कर आप के गुरु जी बहुत प्रसन्न हुये और अपने पास से यह कहते हुए एक हजार रूपये दिये कि इन्हें भी उत्सव में डाल देना । ये है तुम्हारे गुरुजी की दयालुता व गुरु सेवा करने के लिए उत्साह वर्धन।
(4) श्री गुरु महाराज जी कहीं भी हों उन को अपने प्रत्येक शिष्य पर कितना स्नेह है इस का प्रमाण में उनके विदेश से आये पत्र के कुछ अंश लिख कर बता रहा हूं।
(a) I want to know your present health condition after taking Homoeopathic medicine as per doctors prescription of calcutta alongwith Allopathic medicine
(b) I am anxious to get the news of your well being by return post or phone.
28 फरवरी 1997 को कुछ हृदय की तकलीफ हुई जिस कारण डाक्टर ने मुझे आराम करने को कहा । मार्च 1997 को मायापुर धाम की परिक्रमा थी और हमने टिकट की रिजर्वेशन पहले से करवा रखी थी मगर तकलीफ को देखते हुए मेरे भाई बन्धु नहीं चाहते थे कि मैं यात्रा करूँ । मेरे विरोध करने पर भाई बन्धुओं ने कहा कि गुरु महाराज जी से पूछ लो जैसा वे कहेंगे, कर लेना। मैंने गुरु महाराज जी से इस सम्बन्ध में टेलीफोन पर बात की तो उन्होंने कहा ” आने से अच्छा है आराम से आना और परिक्रमा रिक्शा पर हो जायेगी अगर न हो सकी तो मठ में रहना हरिकथा तो सुनने को मिलेगी।”
(5) हमारे मन में जब कभी कोई प्रश्न गुरु महाराज जी से पूछने की इच्छा हुई तो उनके पास बैठने से पूछे बगैर ही उस प्रश्न का समाधान अक्सर हो जाता है। एक बार गुरुदेव जी बठिंडा में थे तो घर बात हुई कि गुरु महाराज पूछा जाये कि आप का मठ में आना घर भाग कर हुआ या माता पिता की आज्ञा से हुआ। जब हम सोचकर गुरुदेव जी के कमरे में पहुँचे तो वहां पर जालन्धर से पाण्डे जी अपनी स्त्री सहित बैठे थे। पाण्डे जी की स्त्री रो रही थी क्योंकि उनके बेटे भगवान दास प्रभु मठ वासी हो गये थे। माता जी की इच्छा थी कि अभी वह घर में रहे तो अच्छा है। श्री गुरुदेव जी ने उन को समझाते हुआ कहा कि रोने की कोई बात नहीं वह भगवान की सेवा के लिये ही तो आया है। मैं भी तो घर से भाग कर मठ में आया था और अपनी सारी कथा विस्तार से कह सुनाई ।
श्रील गुरु महाराज जी की सभी प्राणियों में अहैतुकी मंगल करने की कामना :-
महाराजश्री की 1997 की विदेश यात्रा व पूरे वर्ष स्वदेश में होने वाली यात्रा अपने आप में सभी प्राणियों पर अहेतुकी भाव से मंगल करने का मुंह बोलता उदाहरण हैं। जबकि महाराजश्री पहले विदेश जाना नहीं चाहते थे परन्तु वैष्णवों के अनुरोध पर और गुरु वर्ग की आज्ञा से विदेश जाने के लिये सहमत हुये ।
श्री गुरु महाराज जी का किसी के प्रति शत्रु भाव न होना :-
जैसा कि सबको विदित है कि मठ में कुछ विवाद रहा लेकिन गुरुदेव जी के मुखारविन्द से कभी भी किसी के प्रति कोई अपशब्द नहीं सुने एक बार कलकत्ता मठ में इस सम्बन्ध में एक आम सभी बुलाई गई जिस में गुरु जी में सभी ने आस्था प्रकट की और शत्रु पक्ष के बारे में कोई कठोर कदम उठाने का निर्णय लिया गया । परन्तु देखने में आया कि गुरुदेव जी उस सभा में उपस्थित ही नहीं हुये। मेरे गुरु वर्ग वैद्य ओम प्रकाश जी का कहना कि उन्होंने गुरुदेव जी को उन के कक्ष में जाकर प्रार्थना की कि महाराज जी आप को शासन करना चाहिये लेकिन गुरुदेव श्री ने उत्तर में कहा कि मैं तो भजन करने के लिये मठ में आया हूं। शासन तो मेरे गुरुदेव करेंगे। यहां जो कुछ भी हो रहा है वह सब गुरुदेव जी की इच्छा से ही हो रहा है। इस से हमें विचलित नहीं होना चाहिये।
श्री गुरु महाराज जी का अपने गुरु वर्ग, गुरु भाई व वैष्णवों के प्रति सम्मान भाव :-
( 1) दामोदर मास ( कार्तिक मास ) का व्रत मायापुर धाम में किया जा रहा था। एक दिन स्थानीय इस्कोन के मठ रक्षक पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी जय पताका महाराज जी के आमंत्रण पर श्रील गुरु महाराज जी अपने मठ आश्रित भक्त वृन्द के साथ नगर संकीर्तन करते हुए इस्कोन मन्दिर में पहुंचे। श्रील गुरु महाराज जी के साथ उनके गुरु वर्ग पूज्यपाद त्रिदण्डि स्वामी भक्ति शरण त्रिविक्रम महाराज जी भी थे। पूज्यपाद जय पताका महाराज जी, इस्कोन के अन्य महात्मा एवम् भक्त वृन्दों में श्रील गुरु महाराज जी का भव्य स्वागत किया । प्रवचन हाल में जहां सभा आयोजित की गई थी। वहां श्रील गुरु महाराज जी के बैठने के लिये एक अति सुन्दर सिंहासन लगाया हुआ था जो दर्शकों को बहुत आकर्षित कर रहा था। ऐसा लग रहा था कि महाराज श्री जब इस पर विराजमान होंगे तो इसकी सुन्दरता और अधिक बढ़ जायेगी । पूज्यपाद जय पताका महाराज जी ने श्रील गुरु देव महाराज जी को उस सिंहासन पर बैठने का अनुरोध किया परन्तु गुरुदेव जी ने पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी भक्ति शरण त्रिविक्रम महाराज जी को उस सिंहासन पर बिठाया और स्वयं फर्स पर लगे हुए आसन पर बैठ गये । श्रील गुरु देव जी का अपने गुरु वर्ग के प्रति ऐसा भाव देख कर उपस्थित वैष्णवों का मन आत्मविभोर हो गया और ऐसा सुना गया कि ऐसा आचरण एक शुद्ध वैष्णव का ही हो सकता है।
(2) श्रील गुरु महाराज जी प्रचार हेतु अपनी मण्डली के साथ उत्तर भारत में वर्ष में दो-तीन बार आते हैं और कुछ समय पहले उनके साथ उनके ज्येष्ठ भ्राता पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद् ललित गिरि महाराज जी भी आया करते थे तब भी ऐसा देखने में आता था कि गुरु देव जी उनका बहुत मान करते थे और भक्त वृन्दों से भी अपेक्षा करते थे कि उन के सम्मान में कोई कमी न करे ।
(3) प्राचीन वैष्णवों से ऐसा सुनने में आता है कि परम. गुरुदेव नित्य लीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भविन दयित माधव गोस्वामी महाराज अपनी आविर्भाव निवि पूजा महोत्सव पर अपने गुरु वर्ग, गुरु भाई व अन्य वैष्णव गण एवम् ब्रजवासियों को फूलमाला और वस्त्र आदि देने समय उन सब के प्रति सम्मान भाव रखते हुये सब को अलग अलग प्रणाम करते हैं। ऐसा ही दृश्य गुरु देव जी की अपनी अविर्भाव तिथि (रामनवमी) को व परम गुरुजी की आविर्भाव तिथि उत्थान एकादशी को देखने में प्रतिवर्ष आता है।
भगवान में अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम :-
(1) श्रील गुरुदेव प्रचार हेतु तथा कुछ सुकृतिवान जीवों का मंगल करने हेतु विदेश गये हुए थे जब वे न्यू जर्सी में थे तो मुझे उनसे टेलीफोन पर बात करने का अवसर मिला । गुरुदेव जी ने कहा कि चिकित्सों ने (Heart Problem) बतायी तथा कुछ औषधी (ऐलोपैथिक) दी। जिसे का सेवन करने से गुरुदेव बहुत कमजोरी महसूस करने लगे तथा नृत्य कीर्तन में बाधा आने लगी। ऐसा देख कर उन्होंने औषधी जो वे ले रहे थे, बन्द कर दी और डोमयोपेथिक औषधी लेनी शुरू कर दी। जिस से नृत्य कीर्तन में रूचि होने लगी। मेरा ऐसा विचार है कि गुरुदेव श्री ने मुझे शिक्षा दी है कि भगवान की सेवा में जब किसी प्रकार की रूकावट आये तो इस नश्वर शरीर की चिन्ता किये बगैर उस रूकावट का त्याग कर देना चाहिए ।
(2) हमारी एक गुरु बहन का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। उसमें कभी कभी किसी प्रेत आत्मा का प्रवेश हो जाता था। एक बार वह अपने पति के साथ देहरादून मठ के वार्षिक सम्मेलन में गये थे तो वहां भी उस बहन में प्रेत आत्मा का प्रवेश हो गया तो उसका पति जो हमारा गुरु भाई है श्रील गुरु महाराज जी के पास गया और अपनी पत्नी की हालत की सारी कथा पूछने लगा कि गुरु जी क्या हमें इसे किसी ओझा को दिखाना चाहिये तो गुरु देव जी ने कहा- “विश्वास से हरिनाम करो और नृसिंह स्तुति करो। ऐसा करने से लाभ होगा, मुझे और किसी बात पर विश्वास नहीं है।”
(3) गुरु वर्ग पूज्यपाद वैद्य ओम प्रकाश जी के मुखार विन्द से परम गुरुपादपद्म और गुरुपादपद्म के बारे में कुछ सुनने को मिला। उन्होंने कहा कि गुरुदेव नित्य लीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी की गुरु निष्ठा और भगवान के प्रति सुदृढ़ प्रेम वैष्णव समाज में सर्व विदित है। इसी प्रकार परम पूज्यपाद श्री श्री मद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी की भी गुरु एवं भगवान में सुदृढ़ निष्ठा है। उन्होंने आगे बताया कि स्वरूपतः गुरुदेव और परम पूज्यपाद भक्ति बल्लभ तीर्थ महाराज जी में कोई भेद नहीं है। पूज्यपाद वेद्य जी ने बताया कि उनके गुरुदेव परम पूज्यपाद भक्ति दयित माधव महाराज जी के अन्तर्ध्यान के बाद जब पूज्यपाद भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी कीर्तन मण्डली के साथ बठिण्डा आये तो में उनके प्रवचन सुनने के लिये गया। महाराजश्री आसन पर विराजमान थे और में भी प्रणाम करके आगे ही बैठ गया। मैं अपने गुरु महाराज जी को स्टेज पर न देख कर रो रहा था तभी ऐसा लगा कि पूज्यपाद तीर्थ महाराज की आखों में भी आँसू हैं। शायद उन्होंने मेरे रोने का कारण जान लिया प्रवचन के उपरान्त में घर गया और सो गया। नींद में स्वप्न में मैं देखता हूं कि मेरे गुरुदेव परम पूज्यपाद भक्ति दयित माधव महाराज जी का मेरे घर में पदार्पण हुआ। मैंने बड़े प्रेम से उन का स्वागत किया और बैठने के लिये आसन दिया तथा स्वयं सामने बैठ गया तत्पश्चात क्या देखता हूं कि उस आसन पर पूज्यपाद तीर्थ महाराज जी विराजमान हैं। मैं हैरान हुआ कि आसन पर तो गुरु जी बैठे थे, तभी ऐसा लगा कि ये गुरु देव ही हैं और देखते ही देखते वहां पूज्य पद तीर्थ महाराज जी नज़र आये। ऐसा कई बार हुआ और मेरा स्वप्न भंग हो गया। मेरा समाधान हो चुका था तथा तीर्थ महाराज जी को मैं गुरु रूप में अनुभव कर चुका था।
गुरु वैष्णव भगवान की सेवा के लिये अपने दुनियावी कर्मों व सगे सम्बन्धियों का त्याग :-
एक बार हम पति पत्नी कलकत्ता मठ में थे शाम को जब हम गुरुदेव जी के कक्ष में प्रणाम करने गये तो उन्होंने कहा कि कल सुबह एक वकील के घर कीर्तन है क्या आप चलोगे ? हम ने कहा जैसी आप की आज्ञा तो गुरु महाराज जी ने कहा, चलने से अच्छा है। अगले दिन हमने दो टैक्सी ली और वकील साहब के घर, जो काफी दूर था, चल पड़े। कीर्तन और प्रवचन के पश्चात् टैक्सी में ही वापस आये। जिस टैक्सी में हम थे उन का किराया मैंने दे दिया। शाम को जब महाराज जी के कमरे में हम गये तो गुरु महाराज जी ने कहा कि टैक्सी का किराया आप ने दिया था, वह ले लो। मेरे मना करने पर गुरुदेव जी ने कहा कि जो कीर्तन के लिये लेकर गये थे, किराया तो वे ही देंगे। मैंने कुछ न लिया और कह दिया कि महाराज जी अगर ऐसा है तो यह सेवा के लिये रख लीजिये। श्री गुरु महाराज जी मुस्करा दिये। यह वकील साहब जिनके घर कीर्तन था, श्री गुरु महाराज जी के सगे बहनोई थे । मैंने अनुभव कि वैसा तो उनका दुनियावी * लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं है और यदि कुछ है भी तो सिर्फ पारमार्थिक सम्बन्ध ।
भगवद् भाव में विभावित रह कर भगवान की कथा कीर्तन में रूचि :-
इस विषय में हमारे गुरुदेव जी का एक दृष्टांत है। मैंने देखा कि वे किसी भी अवस्था में क्यों न हों। उन की भावमय रूचि सदैव कथा कीर्तन में ही रहती है। यह हमारे लिये ग्रहणीय शिक्षा भी है। मायापुर धाम में दामोदर मास चल रहा था। श्रील गुरुदेव एक दिन निशांत याम कीर्तन के लिये अपने घर से बाहर आये, बाहर अभी अन्धेरा ही था जब वे सीढ़ियां जो दो तीन ही थी, उतरने लगे तो उन का एक पादपद्म सीढ़ी पर बैठे कुत्ते के ऊपर रखा गया जो शायद वैष्णव चरण अपने शरीर पर लेने हेतु ही वहां बैठा था। उसे क्या मालूम था कि इस तरह मेरे मंगल होने वैष्णव को कष्ट भी हो सकता है। श्री गुरुदेव गिर पड़े। जब तक हम लोग वहां पहुंचे तब तक वे उठ कर खड़े हो चुके थे। पूछने पर श्रील गुरु महाराज जी ने कहा कि सब ठीक है। लेकिन उनके चरण कमलों में चोट लगी थी । जिस कारण उन को चलने में बहुत कष्ट होता था। इस चोट की तकलीफ गुरु महाराज जी को दो-तीन महीने तक रही परन्तु देखा गया कि गुरुदेव जी नगर संकीर्तन और धाम कीर्तन में नियम अनुसार ही आते रहे। दीपावली के शुभ अवसर पर श्री गुरुदेव जी के घर की सज्जा करनी थी जो उन के घर में होने पर ही हो सकती थी । इस लिये मैंने और श्रीपाद दामोदर दास ने उस दिन का एक समय का याम कीर्तन छोड़ दिया और सज्जा करने लग गये। जब श्रील गुरु देव अपने घर में आये तो हमें वहां देख कुछ शासन करते हुये कहने लगे कि इस छोटे से काम के लिये आप ने नियम भंग किया, यह अच्छा नहीं किया। गुरु देव जी का शासन हम को बहुत अच्छा लगा। अगले याम कीर्तन में श्री गुरु महाराज जी ने सब उपस्थित वैष्णवों एवम् भक्त वृन्दों से कहा कि इन लोगों ने एक तुच्छ काम के लिये नियम सेवा भंग की है, यह अच्छा नहीं किया। गुरु देव जी के ऐसा कहने से देखा गया कि सब लोग ही समय पर याम कीर्तन में पहुंचने लगे ।
श्री गुरु वैष्णव दासानुदास पार्थ सार्थी दास
(ओम प्रकाश लुम्बा), भटिण्डा