“ॐ विष्णुपाद 108 जी श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज की जय”

मैं और मेरी पत्नी श्रीमति शान्ता गुप्ता दोनों ही श्री हरिनाम महामंत्र और दीक्षा लेने से पहले लगभग चौबीस वर्षों से सद्गुरु की आवश्यकता महसूस कर रहे थे। हम शिमला के नाभा हाउस क्षेत्र में, जो रेलवे स्टेशन के पास है, एक सरकारी मकान में रहते थे। उक्त क्षेत्र में श्री राधा गोपीनाथ का मन्दिर भी है। यहाँ कभी-कभी सन्त महात्मा तथा और प्रवचन करने वाले आते रहते थे। बहुत लोगों ने उनसे गुरु मन्त्र लिये हुए थे व लेते थे परन्तु हम दोनों की इच्छा होते हुए भी सम्भव न हुआ । समय निकलता गया और मन में सुई जैसी चुभन होती रहती कि हमने गुरु मन्त्र नहीं लिया। कभी कभी तो हम पति-पत्नी में इसी बात पर बहस भी हो जाती कि एक ने अमुक महात्मा से गुरु मन्त्र लेने का आग्रह करना तो दूसरे ने उसमें सहमति नहीं देनी ।

श्री हरि की इच्छा से हम दोनों को सन् 1993 में चार्तुमास्य व्रत के दौरान कार्तिक मास के दिनों 84 कोस ब्रजमण्डल यात्रा में जाने का मौका प्राप्त हुआ। श्री मथुरा धाम पहुँचने पर हम दोनों ने सर्वप्रथम धर्मशाला के एक कमरे में एक स्वामी जी के दर्शन किए और उन्हें औरों को देखते हुए साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया। वहाँ कुछ देर बैठने पर स्वामी जी के दर्शन करते करते मेरे शरीर में कुछ अजीब सा रोमान्च हुआ और अन्तः करुण से ऐसी आवाज़ आई कि ये ही तो मेरे गुरु देव हैं। महाराजश्री ने कई बार मेरी ओर देखा । फिर उन्होंने मुझसे पूछा- “आप कैसे आए हैं ? मैंने उत्तर दिया, “आपकी कृपा चाहिए।” इस पर महाराज श्री ने कहा कि, “अभी परिक्रमा कर लो ” सच पूछो तो मुझे सन्त महात्माओं के साथ बात करने का तरीका भी पता नहीं था कि कैसे बात करनी है। इस लिए मैं चुप रहता था परन्तु हाँ, महाराज जी के दर्शनों के लिए उनके कक्ष में कभी-कभी चला जाता था।

यात्रा के अंतिम चार्म में श्री चैतन्य गौड़ीय मठ श्री वृन्दावन में साधु शिरोमणि परम कृपालु पतितपावन ॐ विष्णुपाद परमहंस 108 श्री श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थगोस्वामी महाराज ने हम दोनों को श्री हरिनाम महामंत्र दे कर अपनी कृपा से अभिषिक्त कर दिया । तदनन्तर चन्डीगढ़ स्थित श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के वार्षिक उत्सव तथा श्री गुरुदेव के जन्मोत्सव के समय पर सन् 1994 में हम दोनों को दीक्षा भी दे दी ।

अक्तूबर, 1993 के पश्चात वर्ष में तीन या चार बार श्री गुरुदेव जी के दर्शन प्राप्त होते हैं परन्तु थोड़े समय मंु मन नहीं भरता। ऐसी तबीयत करती है कि दर्शन करते ही रहें । श्रील गुरुमहाराज गुणों के भण्डार हैं। उनमें इतनी सहनशीलता है कि इसका वर्णन नहीं किया जा सकता । महाराजश्री पूरे वर्ष का तो कहना ही क्या चौबीस घण्टे ही व्यस्त रहते हैं भगवान की सेवा में। मैंने उनके चेहरे पर कभी क्रोध नहीं देखा। उनके गुरु वर्ग, गुरुभाई, वैष्णव व शिष्य गुरु जी की कृपा प्राप्ति के लिए श्री गुरुदेव जी के कमरे में चले ही रहते हैं परन्तु गुरुजी सब से बात करते हैं और प्रत्येक व्यक्ति यही समझता है कि मुझ से इन्होंने विशेष रूप से बात की। प्रत्येक व्यक्ति उनके दर्शन करने के पश्चात कमरे से प्रसन्न होकर निकलता है। ऐसी सहनशीलता किसी साधारण जीव में नहीं देखी जाती । प्रवचन में कभी-कभी रात के बारह बज जाते हैं। प्रवचन उपरान्त श्रील गुरु महाराज को काफी समय तक उसी स्थान पर रुकना पड़ता है क्योंकि भक्तगण वन्दना करने हेतु रास्ता ही रोक लेते हैं। ऐसे समय पर भी श्रील महाराज सहनशील स्वभाव में देखे जाते हैं। मैंने उन्हें कभी ऐसे समय पर बल पूर्वक पांव उठा कर आगे बढ़ते हुए नहीं देखा। श्री गुरु महाराज जी की सहनशीलता की उपमा के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं।

सन् 1995 के कार्तिक व्रत, नियम सेवा के दिनों हम जालन्धर में श्री हरि बोल मन्दिर में लगभग पैंतीस यात्रा के अन्तिम चरण में श्री चैतन्य गौड़ीय मठ दिन रहे। वहाँ श्रील गुरु महाराज जी ने एक दिन प्रवचन में कहा कि Class XII वाले विद्यार्थी को चाहिए कि वह Class III के विद्यार्थी को प्यार से समझाये। कितनी दयालुता भरी बात है यह । इससे श्री गुरुदेव के महा महावदान्य होने का पता लगता है कि वह हम जैसे दीन-हीन व्यक्तियों पर कितनी दया भावना रखते हैं। वैसे तो बहुतों ने उक्त प्रवचन को एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दिया होगा, परन्तु मेरे चित्त में इस प्रवचन की बहुत गहरी छाप हो गई है। श्रील गुरुदेव की दयालुता का आभास तो मुझे उसी दिन से हो गया था जिस दिन उन्होंने मुझ जैसे दीन-हीन-साधन हीन- अधम व्यक्ति को भी शिक्षा दीक्षा देकर भक्ति रूप अंजन के द्वारा, हृदय के नेत्रों को खोल कर मेरे अज्ञानरूप अन्धकार को दूर करके अपने परम कोमल चरण कमलों का आश्रय दिया तथा मुझे श्री राधाकृष्ण की प्रेम भक्ति के मार्ग में लगाया ।

श्री गुरु महाराज शिष्य वत्सल हैं। उनकी सभी प्राणियों में अहेतुकी भाव से मंगल करने की भावना है। महाराजश्री मंगल करने की भावना से ही पूरे वर्ष प्रवचनादि के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान का भ्रमण करते रहते हैं। इस कार्य के लिए महाराजश्री कभी विघ्न नहीं पड़ने देते, भले ही उनका स्वास्थय ठीक न हो। सभी प्राणियों पर मंगल करने की भावना का परिचय मिलता है महाराजश्री द्वारा अंग्रेज़ी हिन्दी व बंगला भाषा में लिखे लेखों, पाठ कीर्तन व प्रवचनादि से यह सब प्रशंसनीय कृति प्राणियों के मंगल के लिए ही है। मैंने अनुभव किया कि महाराजश्री जीवों की कल्याण भावना के कारण ही भ्रमण करने से नहीं रुकते; चाहे पंजाब जैसे स्थानों में भरी ग्रीष्म ऋतु हो या शिमला जैसे स्थानों में सर्दी हो। सभी प्राणियों के मंगल करने की भावना को तो मैं श्रील गुरु देव जी में माता से भी अधिक वात्सल्यगुण से परिपूर्ण देखता हूँ ।

यद्यपि श्री गुरु महाराज के साथ मेरा थोड़े वर्षों से सम्पर्क है परन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता है जैसे हमारा एक दूसरे से जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध हो । मुझे अपने आपको ऐसा प्रतीत होता है कि मैं श्रील गुरु महाराज के अधिक निकट हूँ परन्तु ऐसी बात नहीं है, जो भी व्यक्ति उनसे मिलता है उसे ऐसा ही प्रतीत होता है। जिनमें ऐसे अद्भुत गुण हों उनमें किसी के प्रति भी शत्रु भाव होना असम्भव है । गुरु महाराज जी में सहनशीलता, दयालुता और सभी प्राणीयों की मंगलभावना आदि गुणों का होना कोई साधारण जीव का काम नहीं है। मैंने उत्सवों में तथा यात्राओं में और कार्तिक व्रत नियम सेवा के दिनों में ऐसा देखा कि श्रील गुरु महाराज जी के अपने गुरु वर्ग, गुरु भाई तथा शिष्यों के अतिरिक्त अन्य वैष्णव तथा गृहस्थी भी आते हैं। उन्हें मैंने कहते हुए सुना है कि श्रील गुरु महाराज कोई साधारण जीव नहीं हैं।

मैंने ऐसा देखा कि श्रील गुरु महाराज अपने श्री गुरुदेव की सेवा में एवं श्रीकृष्ण के पवित्र नाम रूप गुण लीला आदि के कथन में सदैव निमग्न रहते हैं। इसमें उनका शान्त स्वभाव देखने को मिलता है। महाराजश्री का जीवन बड़ा आदर्शमय है। उनकी सहनशीलता से, उनकी दयालुता से, उनकी सभी प्राणीयों के मंगल करने की भावना का व उनके शान्त स्वभाव का परिचय मिलता है। सन् 1997 के चण्डीगढ़ स्थित श्री चैतन्य गौड़ीय मठ के वार्षिक उत्सव के अन्तिम चरण में मैं एक रात जब श्रील गुरु महाराज के कमरे में गया। उस समय रात के बारह बज चुके थे। शिष्यवत्सल श्रील गुरु महाराज जी का शान्त स्वभाव देख कर मुझे ऐसा प्रतीत ही न हुआ कि मैं आधी रात में गुरुदेव जी के कमरे में आ गया। इससे अधिक शान्त स्वभाव का परिचय और क्या हो सकता है? मैंने श्री कृष्ण चैतन्य सन्देश की किसी पत्रिका में पढ़ा है कि श्रील गुरुदेव बचपन से ही शान्त व विरक्त स्वभाव के हैं। श्रील गुरु देव जी मेरे विचार से, जैसा मैंने उन्हें निकट से देखा है, असाधारण विद्वान होते हुए भी सरल स्वभाव के हैं तथा इसीलिए शान्त स्वभाव के हैं।

मुझे श्रील गुरुमहाराज जी के चरणकमलों का आश्रय मिले हुए अभी ( जून 1997 तक) लगभग साढ़े तीन वर्ष हुए। इस थोड़े से समय में मैंने देखा कि महाराज श्री सन्यासी व ब्रह्मचारियों को साथ ले कर वर्ष भर भारत के कोने कोने में जा कर जात पात, ऊँच-नीच, अमीर गरीब का तथाकथित धार्मिक झगड़ों से रहित आत्मधर्म का सनातन धर्म का व वैष्णव धर्म का प्रचार करते हैं और अपने गुरु वर्ग, गुरु भाई व वैष्णवों के प्रति अति सम्मान भाव रखते हैं। सज्जन वृन्द महाराज जी के सम्पर्क में आने पर निष्पक्ष भाव से स्वयम् ऐसा अनुभव करते हैं। कोई भी सज्जन जो महाराज श्री के दर्शन करने या उनसे मिलने, अकेले में या अपने साथियों सहित, जाता है वह अनुभव करता है कि महाराज जी का उनके प्रति सम्मान भाव है। मैंने श्री चौरासी कोस ब्रजमण्डल की 1993 और 1996 की परिक्रमाओं में स्वयं अनुभव किया कि श्रील गुरु महाराज जी बीमार व्यक्तियों को स्वयं देखते तथा उपचार के लिए ऐसे रोगी व्यक्तियों को उचित स्थान पर भेजते थे। देर रात होने पर कुछ व्यक्ति भोजन प्रसाद पाये बिना सो जाते थे। जब भोजन प्रसाद वितरण होता तो श्रील गुरु महाराज जी स्वयं ऐसे व्यक्तियों को भोजन प्रसाद पाने को कहते। यह मैंने स्वयं देखा है कि जब तक सभी के ठहरने का प्रबन्ध ठीक न हुआ हो तब तक वह अपने कक्ष में नहीं जाते। मेरे इस अनुभव से तो मैं कह सकता हूँ कि महाराज श्री का अपने गुरुवर्ग, गुरुभाई व वैष्णवों के प्रति ही नहीं बल्कि सभी सज्जनों के प्रति सम्मान भाव है। श्रील गुरु महाराज का भगवान में अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम है। श्रील गुरु देव इसी का प्रचार कर रहे हैं। पूज्यपाद महाराज जी वर्तमान युग में एक अनन्य कृष्ण भावनाभावित अर्थात भक्ति के श्रेष्ठ आचार्य हैं व अनन्य कृष्ण भक्ति के सेवा में रत जीवन है स्वभाव, सहनशील, अमानी भास्कर हैं। रात दिन कृष्ण महाराज जी का विनम्र साधु मानद स्वभाव में प्रतिष्ठित वैष्णव सिद्धान्त तत्त्ववेत्ता, प्रभावशाली शुद्ध कृष्ण भक्ति के प्रचार में आकर्षक प्रचारक आचार्य हैं। इनके आचार विचार और प्रचार से आकर्षित और प्रभावित हो कर भारत वर्ष के प्रान्त प्रान्त के हज़ारों लोग शुद्ध कृष्ण भक्ति के साधक हो कर इनके आनुगत्य में हरि भजन कर रहे हैं। श्रील गुरु देव जी का भगवान में अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम के द्वारा ही यह सब कुछ हो रहा है।

महाराज जी ने गुरु- वैष्णव व भगवान की सेवा के लिए अपने संसारिक कर्मों का व सगे सम्बंधियों का त्याग कर दिया । मैंने या तो कहीं पढ़ा है या किसी प्रवचन में सुना है कि ऐसा त्याग हजारों में किसी एक जीव का सुनने को मिलता है। मैंने किसी श्रीकृष्ण चैतन्य सन्देश में पढ़ा है कि विद्यार्थी जीवन में जब भी महाराजश्री अपनी बहनों को पत्र लिखते थे तो उसमें हरिभजन की बात अवश्य लिखते थे। साथ ही मैंने यह भी पढ़ा है कि श्री कृष्ण चैतन्य सन्देश पूज्य महाराज जी अनन्य गुरु भक्ति के भीष्म पितामह हैं। वे एक निष्ठावान प्रेरणादायक गुरु भक्ति में प्रतिष्ठित आचार्य हैं तथा विशेष गुरु कृपा प्राप्त वैष्णव आचार्य हैं। पूज्य महाराज जी भारत के कोने कोने में कृष्ण भक्ति का प्रचार करते हैं । यह दुनियावी कर्मों और सगे सम्बन्धियों को त्यागने पर ही सम्भव हुआ है। नित्य वस्तु की प्राप्ति के लिए अनित्य वस्तु का त्याग महाराजश्री जैसे भक्त ही कर सकते हैं।

श्री गुरुदेव को मैंने सदा भगवद् भाव में ही देखा । श्री गुरु महाराज कहते हैं “पहले श्रवण करो, फिर कीर्तन करो । कीर्तन करने से स्मरण होता है। महाराजश्री के प्रवचन में मैंने सुना है कि यह तभी सम्भव है यदि रुचि हो, निष्ठा हो । किसी एक श्री कृष्ण चैतन्य सन्देश में मैंने श्रील गुरु महाराज जी के बारे में कुछ पढ़ा है जिसकी कुछेक घटना मुझे याद है। महाराजश्री ने एमए परीक्षा पास करके श्रील गुरुदेव के चरणों में 1947 में आश्रय ग्रहण किया। प्रारम्भ से ही वे मन और वचन के द्वारा अनन्य भाव से गुरु जी की इच्छानुसार भगवान की सेवा में अनुरक्त रहे । महाराजश्री ब्रह्मचारी अवस्था से ही श्री गुरु वैष्णव और भगवान की सेवा को बड़े भाव विभोर होकर करते हैं

इस प्रकार के महा महावदान्य श्री गुरुदेव ने मुझ जैसे दीनहीन पापहीन साधनहीन पराधीन अधम व्यक्ति को भी शिक्षा दीक्षा दे कर, भक्ति रूप- अंजन के द्वारा मेरे हृदय के नेत्रों को खोल कर, मेरे जन्म जन्मान्तरों के अज्ञानरूप अन्धकार को दूर करके, अपने परम कोमल चरण कमलों का आश्रय देकर मुझे श्री राधा-कृष्ण की प्रेमभक्ति के मार्ग में जो अपनाया है, यह उनकी अहैतुकी आपार करुणा है। ऐसे परम कृपालु श्री गुरुदेव मुझे जन्म-जन्मान्तर में मिलते रहें, मेरी यही आन्तरिक अभिलाषा है।

श्री गुरु कृपा प्रार्थी ( प्रद्युम्न दास )
ओम प्रकाश गुप्ता
शिमला