कृपया दण्डवत् प्रणाम स्वीकार करें ।
आपका आदेशात्मक कृपा पत्र प्राप्त कर कृतार्थ हुआ हूँ । मेरे परमाराध्यतम् श्रील गुरु महाराज जी की वाणी है कि वैष्णवों के आदेश को मानने से ही भक्ति होती है। अत: नितान्त असमर्थ व अयोग्य होते हुए भी में प्रयत्न कर रहा हूँ। मेरे लिये यह संतोषप्रद है कि आप जैसे वैष्णवों की दृष्टि में तो हूँ !
आपका आदेश श्रील गुरु महाराज जी के अप्राकृत गुणानुवर्णन के लिये है। इसके लिये अप्राकृत भूमिका प्रविष्ट व्यक्ति ही समर्थ हो सकता है। मैं तो अभी तक श्रील गुरु महाराज जी का अयोग्य शिष्य भी नहीं बन पाया हूँ। आप जैसे निष्ठावान गुरु सेवा में समर्पित वैष्णवों के अनुग्रह से ही गुरु सेवा के लिये कोई इच्छा, योग्यता प्राप्त हो सकेगी। अभी तक तो श्रील गुरु महाराज जी के चरणाम्बुजों में स्वयं को लेश मात्र भी समर्पित नहीं कर सका हूँ । अतः उनके दिव्य गुणों का अनुभव भी प्राप्त नहीं सका हूँ। जब जब भी श्रील गुरु महाराज जी के सुखद सानिध्य में जाने का सुअवसर हुआ, मेरी घोर तयोगुणी बुद्धि भी साथ ही गयी । अतः उस घोर तमोगुणी बुद्धि से जो देखा सुना उसमें से कुछ लिखने का प्रयत्न कर रहा हूँ यद्यपि आपके किसी उद्देश्य में तो मैं कोई योगदान नहीं कर पाऊँगा ।
साधु के तमाम लक्षण हमारे श्रील गुरुदेव जी में स्पष्ट रूप से विराजमान हैं। आपने लिखा ही है। निःसन्देह इन गुणों (लक्षणों) की पराकाष्ठा हैं हमारे श्रील गुरु महाराज जी । आपने Particularise कर ही दिया लिखने के लिए सो गुरुपादपद्मों को स्मरण करता हुआ लिखने जा रहा हूँ ।
श्रील गुरुदेव जी की सहनशीलता
मेरे श्रील गुरु महाराज जी में तितिक्षा तो साक्षात् रूप से मूर्तिमान होकर स्वनाम को सार्थक कर रही है। मेरे गुरु जी का यह गुण अनन्त है। अतः अनन्त काल तक ही इसका गुणगान किया जा सकेगा । बुद्धि द्वारा देखा सुना ही स्मरण मात्र भर कर रहा हूँ मैं तो। तितिक्षा तितिक्षा में भी अन्तर है। बाध्य होकर सहना, दु:खी होकर सहना, सुख दुःख विहीन हो कर सहना आदि। जहाँ भी श्रील गुरु महाराज जी ने अपने इस गुण को प्रकाशित किया । वहाँ उन्होंने भगवद् प्रसाद रूप समझ कर ही कष्टों, परिस्थितियों को सहा है, ग्रहण किया है सब सह लेना ही पर्याप्त नहीं, उन्होंने सब कष्ट सहते हुए भगवद् नियम सेवा में कहीं कोई ढील नहीं आने दी । यह Additional गुण देखा जाता है मेरे गुरु जी में ।
श्रीधाम मायापुर में कार्तिक मास नियम सेवा काल में एक दिन प्रातः काल लगभग 31⁄2 बजे गुरु महाराज जी अपने कमरे से बाहर आये। कमरे के बाहर बने चबूतरे की सीढ़ियों पर एक कुत्ता सोया हुआ था। अंधेरा था। कुत्ता दिखाई नहीं पड़ रहा था। गुरु जी द्वारा सीढ़ी पर पाँव रखते ही कुत्ते पर रखा गया और इस प्रकार अचानक Balance बिगड़ने से धड़ाम से गुरु जी का पूरे का पूरा श्रीविग्रह बुरी तरह गिरा । मैं सामने नल पर खड़ा हाथ आदि धो रहा था। मैंने गुरु जी को स्पष्ट गिरते देखा । मैं भागा मेरे पहुँचने से पहले ही गुरु जी संभल कर खड़े हो गये थे। अत्याधिक चोट आई थी उनके पाँव पर एक दम पाँव सूज गया और एक कदम चलना भी दुश्वार हो गया । उस समय की असहनीय पीड़ा को गुरु जी ने कैसे सहा, वह दृश्य अभी भी मेरी आँखों के समक्ष है । बाद में अन्दर कमरे में Doctor ने जब दवाई लगाने की चेष्टा की तो मैंने देखा इतनी पीड़ा थी. कि हल्का सा स्पर्श भी पीड़ा वर्धन करता था । उस असहनीय तीव्र वेदना को शान्त भाव से सहते। देखा मैंने गुरु जी को में हैरान रह गया जब मैंने गुरु जी को दामोदर मास नियम सेवा में यथावत् आते देखा । रात की सभा में गुरु जी का पाँव इतना अधिक सूज गया था कि आसन पर चौकड़ी नहीं लगाई जा पा रही थी कुर्सी लाई गई । पर गुरु जी ने कुर्सी पर बैठने से यह कर इन्कार कर दिया “भागवत तो साक्षात् श्री कृष्ण हैं । भागवत के सामने ऊंचे आसन पर बैठना ठीक नहीं ।” इतनी वेदना के रहते भी नियमित रूप से नगर संकीर्तन में गुरु जी जाते रहे ।
लगभग दो मास बाद गुरु जी भटिण्डा सम्मेलन* में पधारे। Sh. Kundan Lal Dharmshala के First Floor पर वे विराजित थे। हमारे किसी गुरु भाई के घर पाठ कीर्तन पर जाने के लिये जब में उन्हें लिवा लेने गया तो मैंने देखा उन्होंने जुराबें पहनी हुई थीं तथा जुराबों समेत उन्होंने खड़ाऊँ (पादुका) पहन लीं। मुझे पता था कि गुरु जी खड़ाऊँ के साथ जुराबें पहनने से परहेज करते हैं क्योंकि उससे पैर फिसलता है। अतः मैंने गुरु जी से निवेदन किया कि महाराज जी ! जुराबें पहन कर खड़ाऊँ धारण करने से पैर फिसलेगा, आगे सीढ़ीयां उतरनी है तब गुरु जी ने बताया कि कार्तिक मास की चोट और सूजन अभी भी काफी श्री कृष्ण चैतन्य सन्देश है अतः जुराबें उतारने से दीखेगी। दीखेगी तो सब भक्त बार-बार पूछेंगे क्या हुआ ? क्या हुआ ? इसलिये जुराब से ढक कर रखा है में स्तब्ध रह गया । हम लोग ज़रा से कष्ट में सबसे अपेक्षा रखते हैं कि वे हमारा हाल चाल पूछें नहीं तो नाराज़ पर मेरे गुरु जी के विचार सर्वथा विपरीत। सब कष्ट पीड़ा सहते हुये अविरल भगवद् सेवा प्रचार में रत । उनके श्री चरणों में मेरा कोटिशः नमन् ।
लगभग 10-20 वर्ष पहले हुई व्रजे मण्डल परिक्रमा में श्रील गुरु महाराज जी को काम्यवन में श्री गोपाल मन्दिर में न ठहरा कर श्री जगन्नाथ मन्दिर की प्रथम मंजिल के अत्यन्त संकरे से कमरे (मिआनी) में ठहराया गया था। नीची छत थी। पंखा भी नहीं था और हवा आने के लिए कोई रास्ता भी नहीं था। सुबह सुबह जब में श्रील गुरु महाराज जी को प्रणाम करने गया तो गुरु जी बैठे हाथ पँखा स्वयं चला रहे थे। उनसे ही पता चला कि सारी रात इसी प्रकार बैठ कर ये हाथ से पखा करते रहे थे तथा सारी रात सो नहीं पाये थे । बाहर से भी देखें तो इतने सारे बड़े बड़े मठों के सर्वोच्च पदाधिकारी और इस प्रकार की असुविधा । पर गुरु जी के मुखारविन्द पर कोई उद्वेग नहीं था । सहिष्णुता भरी मुस्कान ने आसन लगा रखा था उनके श्री मुख कमल पर ।
श्रील गुरु महाराज जी को अपमान भी सहना पड़ता है, यह कभी चिन्ता भी नहीं कि थी मैंने। सतीर्थों की तो बात ही छोड़ दीजिये गुरु जी के शिष्यों द्वारा उनके सम्मुख प्रत्यक्षतः उनकी अवमानना करते हुये देखने का दुर्भाग्य भी मेरा हुआ है। परन्तु मेरे गुरु जी की सहिष्णुता की भी- कोई सीमा नहीं । गामूली मामूली से शिष्यों द्वारा प्रत्यक्ष अवमानना, उत्तर प्रति उत्तर व अभद्र व्यवहार से भी गुरु जी क्रोधित नहीं हुये। धन्य हो गया में ऐसे अदोषदर्शी गुरु को पाकर ऐसी एक
नहीं अनेकों घटनायें मेरी आखों के समक्ष हैं जब प्रत्यक्षतः श्रील गुरु महाराज जी की अवमानना की गई और उनके सामने ही सभा में कठोर कटाक्ष उन पर कसे गये व अभद्र भाषा का प्रयोग किया गया । परन्तु गुरु महाराज जी ने लेश मात्र भी प्रतिक्रिया नहीं की । (उनके सतीर्थों का नाम लिखने में मुझे संकोच होता है कि कहीं अनाधिकार चेष्टा न हो जाये ।)
हम लोगों ने श्रील गुरु जी का चरण आश्रय किया । अतः सदाचार आचरण के लिये हम लोग बाध्य हैं। परन्तु ऐसा होता नहीं है। गुरु महाराज जी को हमारा असदाचार व पापाचार भी सहना पड़ता है, झेलना पड़ता है में अपनी बात बोलता हूँ। घर की बात तो जाने दीजिये मठ में जाकर मुझसे इस प्रकार का पापाचरण दुराचरण हुआ है कि बाल पकड़ कर धक्के दे दे कर मुझे मठ से निकाल देना चाहिये था। गुरु जी तो सर्वज्ञ हैं सब कुछ जानते हुये भी उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा बल्कि हरि कथा कहते हुये प्यार से समझाया। ऐसे कई उदाहरण मेरे समक्ष हैं जब श्रील गुरु महाराज जी को साक्षात् रूप से मुझ जैसे लोगों के दुराचरण के बारे में बताया गया। पर गुरु जी ने चुपचाप सुन कर बरदाश्त कर लिया। हमेशा उनका Positive Attitude ही रहा है । उनको यही कहते सुना गया कि संस्कार वश ऐसा हो गया है। उनकी इस सहिष्णुता व दयालुता को देख कर ही बहुत से लोगों में सुधार हुआ है।
ऐसी अनेकों घटनायें मेरे सामने हैं जब श्रील गुरु महाराज जी शारीरिक और मानसिक रूप से व्यथित हुये पर शान्त रह कर सहा उन्होंने । शिमला में स्वटमलों से भरे बिस्तरे पर, देहरादून में मच्छरों से भरे मंच पर वे प्रसन्न थे। तेज़ बुखार व पैरों में छाले होते हुए भी अविचलित रूप से चलते देखा है मैंने उन्हें घण्टों धूप में बिना पानी के अत्यंत प्यासे होते हुए भी अव्याकुल ही पाया मैंने उन्हें । उन्हें शौच और लघुशंका जाने के लिये घण्टों इन्तज़ार करते हुऐ मैंने देखा है। दूसरों की सुविधा ही देखते रहते हैं गुरु जी । उन्होंने अपने एक पत्र में पूज्यपाद राज कुमार जी को लिखा कि वे कालका मेल में दिल्ली से कलकत्ता जाते समय अत्यधिक भीड़ के कारण रास्ता नहीं मिलने से 10 घण्टे तक लघुशंका के लिये नहीं जा सके। गुरु महाराज जी का स्वभाव अत्यधिक Adjust करने का है। विपरीत से विपरीत परिस्थितियों में भी गुरु जी आसानी से अपने आप को Adjust कर लेते हैं। “तत्तेनुकम्पा” श्लोक की शतप्रतिशत implication हमारे गुरु महाराज जी में है। सहिष्णु व्यक्ति ही हर हाल में Adjust- ment देखते हैं।
ऐसे तो गुरु महाराज जी कष्टों में रहते ही पर यात्रा में तो उनके कष्ट कई गुणा बढ़ जाते हैं। भीड़ भरे कलकत्ता रेलवे प्लेटफार्म पर सैकड़ों लोगों की धक्कमपेल में स्वयं Reserva tion Chart देखते हुये खड़ाऊँ पहने उनके नंगे श्री चरणों पर लोगों के बूटों के प्रहार होते हुए मैंने स्वयं देखा है। IInd Class में यात्रा करते हुये भीड़ भरे डिब्बों में घण्टों सिमट कर बैठे हुये और समान का ध्यान भी स्वयं रखते हुऐ मैंने पाया है उन्हें गाड़ी में भक्ष्य अभक्ष्य खाते लोगों, ताश खेलते तथा सिगरेट का धुआं उड़ाते लोगों, शराब की दुर्गन्ध फैलाते लागों में भी मैंने उनकी अपूर्व Adjustment देखी है।
मठवासी पुराने वैष्णवों से मैंने सुना है किं परम गुरु महाराज जी के समय में पुरी मठ के स्थान सबंधी झगड़े के लिये गुरु महाराज जी को दीर्घ काल तक पुरी रहना पड़ा। वहाँ पर जो किरायेदार थे वे अत्यंत खूँखार थे और ये भी कई । जब गुरु जी लघु शंका के लिये बैठते थे तो वे ऊपर से थूकते थे, स्वाई हुई मछली के बचे कांटों को फेंकते थे। गुरु सेवा कार्य के लिये सब चुपचाप सह लिया हमारे गुरु जी ने तपस्या मिश्रित सहिष्णुता भी तितिक्षा ही है। श्रील गुरु महाराज जी के मुखारविन्द से ही सुना कि वे गोदुम द्वीप स्थित स्वर्ण बिहार में कुछ महीने कैसे रहे थे। तब हमारे श्रील परमगुरु महाराज जी श्री चैतन्य मठ में ही थे। स्वर्ण बिहार तब एकदम निर्जन वन था। आस पास कोई गाँव भी नहीं था। भिक्षा के लिये दूर दूर जाना पड़ता था । सारा क्षेत्र साँपों से भरा हुआ था । अत: वहाँ पर कोई ब्रह्मचारी रहने को तैयार नहीं होता था । परम गुरु जी के आदेश से गुरु महाराज जी वहाँ रहे । कई मील पैदल चल कर चावल भिक्षा करके लाते थे गुरु जी पीछे से चोर बर्तन आदि उठा कर ले जाते थे। रसोई के लिये लकड़ी आदि का भी कोई साधन नहीं था। तब गुरु जी केले के सूखे पत्तों को जलाकर जैसे-तैसे कच्ची-पक्की खिचड़ी बनाते थे । केले के पत्ते जलाना कोई आसान काम नहीं है । गुरु जी ने पूर्वाश्रम में तो यह काम किया नहीं था। अतः आग जलाने के लिये जब फूँक मारते थे तो पत्तों की सारी राख गुरु जी के श्री मुख पर पड़ जाती । गुरु जी से सुना कि जब वे अर्चन के लिये बैठते तो वहाँ साँप इधर उधर डोलते रहते थे। इस प्रकार वहाँ पर कुछ महीने बड़ी ही तितिक्षा के साथ गुरु जी रहे । बाद में परम गुरु जी आकर स्वयं उनको लिवा ले गये ।
आपको याद होगा ‘मेरे बृजमण्डल परिक्रमा के संस्मरण लेख में मैंने लिखा था कि काम्य वन परिक्रमा के अत्यंत कटकाकीर्ण पथ पर पग पग पर शूल चुभने पर भी गुरु जी ज़रा से भी विचलित नहीं होते जबकि साथ में चल रहा में बहुत बुरी तरह से बदहाल हो रहा था। मेरी दशा को देखते हुये उन्होंने कहा कि हम लोग ब्रज रज को लेना नहीं चाहते पर भगवान बड़े दयालु हैं वे कृपा करके काँटों के माध्यम से ब्रज रज हमारे अन्दर तक हमारे रक्त में मिश्रित कर देते हैं । इस प्रकार का दर्शन उनकी इस अप्राकृत सहिष्णुता का ही परिचायक है। हर कष्ट में भगवद् अनुकम्पा अनुभव करते हैं वे, संसार का बद्ध जीव कदापि ऐसा नहीं सोच सकता ।
ज्यादा संग तो मैं गुरु जी का कर नहीं पाया अत: अनुभव विहीन हूँ। फिर भी जितना भी उनके आश्रय में रहा उसमें जो देखा दिल करता है उनकी पल पल की झांकी को लिखता चला जाऊं। मैंने पहले ही कहा है कि उनके गुण अनन्त हैं और अनन्त काल में ही वे वर्णित हो सकते हैं। पर मैं तो अनन्त नहीं हूँ समाप्त करना ही पड़ेगा । कई बातें लिखने के बाद याद आयेंगी । अतः जितना जल्दी -2 याद हो पाया, लिखा। अब अगले गुणों (आप द्वारा निर्धारित) पर चलें ।
1. उनकी दयालुता
2. उनकी सभी प्राणियों में अहेतुकी भाव से मंगल करने की भावना
3. उनका किसी के प्रति शत्रु भाव का न होना ।
मुझे लगता है श्रील गुरु महाराज जी में ऊपर लिखित तीनों गुण आपस में मिले से हुये हैं। अतः इनके लिये इकट्ठा ही लिखने का प्रयास करूँगा । या ऐसा समझ लीजिये कि इन तीनों गुणों को में शायद अलग-2 नहीं लिख पाऊँगा ।
सहिष्णुता की तरह मेरे गुरु महाराज जी के यह तीन गुण भी अनन्त हैं, अपूर्व हैं अतिशय वज्र हृदय होने के कारण में इन गुणों को अनुभव नहीं कर पाया हूँ। अतः अधिक नहीं लिख पाऊँगा । मात्र प्रयासरत ही हूँ !
दया के श्री विग्रह का कोई साक्षात् दर्शन करना चाहे तो वह हमारे श्रील गुरु महाराज जी को देख ले। उन जैसी दयालुता उन जैसे भगवद् पार्षदों को छोड़ कहीं और मिल पाना असम्भव है। बद्ध जीव की घोर दुर्दशा देख उनका हृदय करुणा से विगलित रहता है। गुरु जी सर्वज्ञ हैं, मुक्त पुरुष हैं। वे संसार कारागार में कर्मबन्धन की जंजीरों से जकड़े, भगवद् विमुखता के घोर अपराध के कारण जन्म मरण जरा व्याधि द्वारा बार बार प्रताड़ित, दण्डित होते हुये जीवों की अतिशय दयनीय दशा देख कर दयार्द रहते हैं। इसी दयालुता वश ही वे अपने कष्टों की लेश मात्र भी परवाह न करते हुये अहेतुक एवं सर्वतोभाव से उन त्रस्त जीवों को उनकी इस अतिशय दयनीय अवस्था से मुक्ति दिला कर उस परमोत्कृष्ट आनन्द प्रदान करने में सचेष्ट रहते हैं। जिस परमोत्कृष्ट आनन्द में वे स्वयं स्थित हैं। कष्ट की गम्भीरता से उसके उन्मूल की दयालुता का अनुमान किया जा सकता है। बद्ध जीव का कष्ट तो गम्भीरतम् है और इस गम्भीरतम् कष्ट से मुक्ति दिलाकर परमतम् आनन्द प्रदान करने वाले की दयालुता आंकी जायेगी। इसलिए परमतम् दयालु हैं मेरे गुरु जी ।
कोमल हृदय है गुरु जी का । किसी का जरा भी कष्ट उन्हें द्रवित करने में सक्षम है। इस प्रकार की कोमलता कि दूसरे को रोते हुये देखकर स्वयं ही रोने लग जाते हैं । कोमल से मेरा तात्पर्य उनके चित्त की दयालुता से ही है। जो जितना कोमल हृदय होगा उतना ही वह दूसरों के कष्टों के प्रति संवेदनशील होगा ।
जालन्धर में कीर्तिक मास की समाप्ति पर जब गुरु महाराज जी वापसी के लिये बस में बैठे तो सब भक्त उनके सुखद संग से वंचित होने के कारण रो रहे थे और कीर्तन भी कर रहे थे। उन सब को रोता देख गुरु जी भी पूरी तरह रोने लगे । बाद में श्रील गुरु महाराज जी ने कहा भी सब को रोता देख कर में भी रोने लग गया। उनकी दयावत्सलता अकारण है, अहेतुक है पर दुःख कातरतावश ही वे सारा वर्ष यात्रा के मौसम के विभिन्न कष्टों को सहर्ष सहन करते हैं। घोर अपराधी जीव के मंगल के लिये चिन्तित रहते हैं और विडम्बना यह कि हम लोग उनकी इस अहेतुक दयालुता को, इस उपकार को समझते ही नहीं, और समझते भी हैं तो ध्यान नहीं देते और तो और हम उनकी इस अकारण दयालुता को उनके स्वार्थ की संज्ञा दे देते हैं। मैंने अक्सर अपने गुरु भाईयों को कहते सुना है कि गुरु जी का प्रचार कार्यक्रम तो उनका अपना स्वार्थ है। वे इस प्रकार प्रचार में न निकलें तो मठ कैसे चलेंगे। अब मठ चलाने के लिये पैसा तो चाहिये ही। वे तो कष्ट सहने के अभ्यस्त हो चुके हैं आदि आदि। किस प्रकार अकृतज्ञ और क्रूर हैं हम हमारी इस अकृतज्ञता व क्रूरता पर किचित मात्रा भी ध्यान न देकर वे (गुरुजी) सर्वदा हमारे मंगल विधान में लगे रहते हैं। मुझे मेरे शिक्षा गुरु वैद्य ओम प्रकाश जी की हरिकथा में कही बात याद होती है।
आपको नदी में नहा रहे एक संत जी की कथा तो याद ही होगी जो बिच्छू द्वारा बार बार डंक मारने पर भी उसे बचाते हैं। पूज्यपाद वैद्य जी कहते हैं कि हमारे परमाराध्यतम् श्रील गुरुमहाराज जी भी उसी संत जी की भांति हर साल स्वयं चल कर इस दल दल सागर में फंसे हम बद्ध जीवों को उबारने के लिये आते हैं परन्तु हम उस बिच्छू की भांति है जो बार – बार उन्हें डंक मारते हैं। अर्थात् अकृतज्ञ रह कर उन्हें स्वार्थी ठहराते हैं वैद्य जी कहते हैं कि 18 बार तो ( भटिण्डा के 18 सम्मेलन ) हम उन्हें डंक मार चुके हैं पर परम दयालु हमारे गुरु जी उन विष डंकों की परवाह न करते हुये फिर हमको हरिकथामृत व हरिनामामृत पान करा कर हमारा उद्धार करने आ जाते हैं। उनकी यह अहेतुकी दयालुता ही तो है। अपने दयालु स्वभाव यश ही वे हमारे विषयों को स्वीकार कर उन्हें अमृत में, प्रसाद में परिणत कर देते हैं।
बचपन में स्कूल समय में मैंने एक सत्संग में भगवान के कोमल हृदय का दृष्टान्त सुना था। जब श्री जानकी जी राजवाटिका में अपनी सखियों के संग चलती हैं तो सखियाँ देखती हैं कि वाटिका की पगडडियों पर दोनों तरफ खिले दिव्य पुष्पों का मकरन्द झड़ झड़ कर छिटक गया है तथा उस मकरन्द का एक आस्तरण सा बिछ गया है उन वीथियों में । सखियाँ मन मन में भय करती हैं कि जानकी जी के चरणारविन्द इतने कोमल हैं कि कहीं यह मकरन्द उनमें चुभ न जायें, आघात न कर दे। वक़्ता कहते हैं कि अगर जानकी जी के चरणारविन्द इतने कोमल हैं तो उनके हस्तारविन्द कितने कोमल होगें ? और फिर जानकी जी जब भगवान श्री राम के चरण दबाती है तो मन मन में भय करती हैं कि उनके सख्त हाथ भगवान के श्री चरणों में चुभ न जायें, आघात न कर दें । इतने कोमल हैं भगवान के पदारविन्द और अगर भगवान के पादारविन्द इतने कोमल हैं तो उनके हस्तारविन्द कितने कोमल होगें ? और उनके हस्तार विन्द इतने कोमल हैं तो उनका मुखारविन्द कितना कोमल होगा ? और उनका मुखारविन्द इतना कोमल है तो उनका हृदयारविन्द कितना कोमल होगा ?
अतः श्री भगवान का हृदय कोमलतम् है पर हमारे गुरु महाराज जी का हृदय उन भगवान के कोमलतम् हृदय से भी अधिक कोमल है। भगवान तो जीव को छोड़ देते हैं यह कह कर, “कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करहिं सो तस फल चात्वा ।” भगवान अगर पाप वहन करने की बात भी करते हैं तो साथ में ‘मामेकं शरणं व्रज, जैसी बड़ी 2 शर्तें भी हैं पर गुरु जी की क्या कहूँ मुझ जैसे पापिष्ठों के सारे पाप बिना किसी भेदभाव के अपनी झोली में ले लेते हैं। हम लोग दीक्षा काल में कहाँ उनमें शरणागत होते हैं अथवा अब हुये हैं पर वे अकारण करुणा वरुणालय हमारे शरणागति के ज़रा से अभिनय पर ही हमारे सब पाप ग्रहणं कर लेते हैं।
हरिनाम या दीक्षा देने वाले दिन गुरु जी को भूखे प्यासे कितना परिश्रम करना पड़ता है। अभी श्री कृष्ण चैतन्य सन्देश इसी वर्ष आपने चण्डीगढ़ में देखा ही है कि हरिनाम दीक्षा देते देते शाम के सात बज गये थे। इतनी सारी हरिनाम की माला उनको जप करनी पड़ती है हम लोगों के मंगल के लिये और हम उस गुरु प्रदत्त हरिनाम माला जप में कोई ध्यान ही नहीं देते । ध्यान तो दूर घर जाकर माला कहाँ फेंक देते हैं हम ध्यान ही नहीं रहता। अभी इसी वर्ष चण्डीगढ़ में हमारे एक गुरु भाई ने लगभग 15 वर्ष बाद जाकर दुबारा माला गुरुजी से प्राप्त की । 15 वर्ष पहले ली हुई हरिनाम की माला का न कहीं पता है और न ही जप का कोई ध्यान । पर यह सब जानकर भी हम लोगों के अपराधों को न देखते हुये अकारण दयालु गुरु जी ने दुबारा माला प्रदान की और साथ में इसका महत्त्व भी बताया । ऐसी एक नहीं अनेक घटनायें हैं।
मैं आपको आप बीती सुनाता हूँ। कई वर्ष पहले गाड़ी में यात्रा करते समय मेरी जप माला न जाने कहाँ गिर गई। अवश्य मेरा प्रमाद हुआ । श्रील गुरु महाराज तब ब्रज मण्डल परिक्रमा में थे। मैं अपने Senior गुरुभाईयों को आगे करके बड़े ही संकुचित भाव से श्रील गुरु महाराज जी के पास गया। गुरु जी ने मुझे समझाया तथा मुझ अयोग्य के लिये व्रज मण्डल परिक्रमा की अति व्यस्तता में भी। नई माला जप कर प्रदान की। नितान्त अनपढ़ व्यक्तियों को दीक्षा मंत्र देते समय 8-10 दिन लगातार दीक्षा मंत्र जपाते हुये मैंने उन्हें देखा है। पांचूडाला ( राजस्थान) के सरल ग्रामीणों पर कृपा वर्षण करते हुये मैंने उन्हें देखा है।
उनकी यह दया मनुष्यों पर ही नहीं प्राणी मात्र पर ही है। यह उनकी दयालुता एवं अहेतुकी भाव से सभी प्राणियों का मंगल करने की भावना ही है जो उन्हें प्रान्त प्रान्त नगर नगरे, गाँव-गाँव, गली गली और विदेश तक भी ले जाती है, तथा वे अपने स्वास्थ्य की परवाह न करते हुए श्री भगवान के पावन नामों को ऊँचे स्वर में गुंजारित कर नगर संकीर्तन करते हुये स्वेदज, अण्डज, उद्भिज व जरायुज सभी प्राणियों के कल्याण में लगे हुये हैं निश्चित ही वे हम लोगों के मंगल के लिये ही कटकाकीर्ण रास्तों पर हम लोगों को संग ले के चलते हैं।
गुरु महाराज जी तो क्षुद्र से क्षुद्र जीव को भी कष्ट नहीं देना चाहते हैं। होशियारपुर में श्री हरिबाबा आश्रम के जिस बड़े कमरे में गुरु जी ठहरते हैं उसमें वे विराजमान हैं। एक दिन में उनको प्रणाम करने गया तो गुरुजी ने बताया कि कमरे में चींटियाँ बहुत हैं इसलिये उनकी नींद भी नहीं हुई। मैंने देखा वहाँ पर दो चार दस नहीं,
हजारों हजारों चींटियों के अम्बार लगे हैं। लाईनें लगी हुई हैं। मैं गुरु जी का बिस्तर झाड़ने के लिये उद्यत हुआ तथा D.D. T. डालने के लिये प्रयत्न करना चाहा परन्तु गुरु महाराज जी ने एक दम मना कर दिया और कहा कि D.D.T. से तो यह मर जायेंगी इन्हें मारना नहीं भगाना है । अतः बिस्तर झाड़ कर मैंने हल्दी छिड़क दी ।
चलते- 1-2 यहाँ का एक गुरु जी का विनोद भी लिख रहा हूँ हालांकि यह विषय से संबंधित नहीं है। वह ये कि कमरे में बैठी एक माता जी गुरु जी का सम्मान करते हुये कहने लगीं- ‘महाराज जी ! यह बड़ा कमरा आश्रम वाले किसी के लिये नहीं खोलते । कभी आप जैसे कोई विशेष विशेष महात्मा आते हैं तभी ठहरने के लिये खोलते हैं । गुरु जी ने साथ ही साथ मुस्कराते हुऐ मज़ाक में कहा ” हाँ-हाँ देखना पड़ता है कि किस किस महात्मा को चींटियों से कटवाना है।” सब ठहाका लगा कर हँस दिये ।
हमारे गुरु महाराज जी तो छोटे से छोटे प्राणी को भी भगवद् सेवा में लगाने की शिक्षा देते हैं। फूल तोड़ो तो भगवद्- अर्पण करो, दाल- सब्जी चावल बनाओ तो भगवद् अर्पण करो। यह है सभी संकुचित, आच्छादित, मुकुलित, विकसित आदि प्राणियों का मंगल विधान करने की भावना । उनका किसी से कोई शत्रु भाव नहीं है। “कृष्ण अधिष्ठान सर्व जीवे जाानि सदा, करबि सम्मान सबै आदरे सर्वदा” की योग्यता उन में रह रह कर चरितार्थ होती है। उनका घोर विरोध कर रहे लोगों पर भी गुरुजी के हृदय में उनके प्रति कभी वैमनस्य नहीं देखा गया। उनके प्रति भी वे सहिष्णु तथा कृपाशील ही बने रहते हैं। मठ की कई उदाहरणें हैं, में लिखने में संकोच करूँगा जो मठ से नज़दीकी सम्बन्ध रखते हैं उन्हें भली प्रकार से विदित ही है। कलकत्ता में गुरु जी ने कहा भी था, “लड़ाई झगड़े में क्या रखा है ? थोड़ा सा समय है, भगवान का भजन करो भाई । ”
अपराधों के कारण मठ छोड़ कर गये ब्रह्मचारियों को पुनः भजन प्रवृत्त करने के लिये भी गुरु जी रात 2 भर बैठ कर पत्र लिखते हैं । भजन विमुख लोगों के लिये मैंने स्वयं गुरु जी को दुःखी होते देखा है।
गुरुजी के विदेश जाने के समय Sh. O. P. Loomba जी कुछ अस्वस्थ थे। Check up लिये गुरु जी उन्हें निर्देश दे गये थे। विदेश से एक पत्र गुरु जी का Loomba जी को प्राप्त हुआ है जिसमें उन्होंने Loomba जी के स्वास्थ्य के बारे तुरन्त जानकारी माँगी। यह उनकी करुणा, वत्सलता ही तो है।
पंजाब से एक व्यक्ति के कलकत्ता जाने पर भी गुरु जी अपनी कृपा वर्षण करते हुये हरि कथा हिन्दी में कहने लगते हैं सारी ब्रज मण्डल परिक्रमा में अकेले श्री वृदावन दास जी जो कि शरीर से रसियन हैं, के लिये गुरु जी ने English में भी कहा। उनकी अनुकम्पा अद्वितीय है।
उनका शान्त स्वभाव
शान्त का तात्पर्य है उद्वेग के सभी कारण उपलब्ध रहने पर भी क्रोधित न होकर शान्त रहना । मेरे गुरु महाराज जी में यह गुण भी अपूर्व एवं विलक्षण है। वे हर विपरीत हाल में हर विपरीत परिस्थिति में भगवान की कृपा का ही अनुभव करते हैं अतः उद्विग्नता उनसे कोसों दूर रहती है। हमेशा उनके मुखारविन्द पर शान्ति भरी मुस्कान शोभा पा रही होती है। गुरु जी ने अपनी सारी इच्छायें भगवद् इच्छा में सन्निहित कर रखी हैं। वे अक्सर हरिकथा में कहते हैं-“भगवान की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता भगवान मंगलमय हैं, उनकी इच्छा से जो होता वह मंगलमय ही होता है।” जिनका दर्शन ऐसा है वहाँ उद्वेग के लिये स्थान ही कहाँ ? वहां तो अखण्ड शान्ति एवं संतोष का साम्राज्य है।
हम लोग जिनको प्रतिकूल परिस्थितियाँ समझते हैं, गुरु जी उनके लिये निज कर्मों को कारण मानने की शिक्षा देते हैं। धैर्य रखना ही होगा । इसलिये जहाँ धैर्य है वहाँ शान्ति है ही । मैंने पहले ही ऊपर लिखा है कि ‘तत्तेनुकम्पा’ श्लोक की शत प्रतिशत Implication हमारे श्रील गुरु महाराज जी में है मठ में कई बार सभी महात्माओं के किसी प्रसंगवश अत्याधिक क्रोधित हो जाने पर भी वे शान्त ही बने रहे हैं।
कलकत्ता में एक बार मेरा गोबिन्द बाबू जी ( परम गुरु जी के चरणाश्रित एवं उनके द्वारा मनोनीत मठ की संचालन समिति के सदस्य ) के श्री चरणों में जाने का सौभाग्य हुआ था। मेरी प्रार्थना पर उन्होंने यही भाव प्रकाशित किया था कि हमारे गुरुजी बहुत ही सज्जन पुरुष हैं अतिशय शान्त स्वभाव के हैं तथा उनका विशेष गुण किसी के भी प्रति वैमनस्य न रखना है। उनके प्रति कटुता रखने वाले पर भी उनका दया भाव है।
कई वर्ष पहले भटिण्डा सम्मेलन हेतु श्रील गुरु महाराज जी ने नई दिल्ली से भटिण्डा पधारना था। गाड़ी शाम 7 बजे के लगभग भटिण्डा पहुँचती श्री कृष्ण चैतन्य सन्देश है जो लगभग 6 घण्टे लेट रात को 1 बजे के लगभग पहुंची। दिल्ली से लगभग 12-30 बजे चलनी थी जो शाम 5 बजे चली । किस प्रकार पहले दिल्ली में सब परेशान हुये और बाद में मार्ग में रात को गाड़ी के पहुंचने पर मैंने देखा सारी प्रचार पार्टी भूख, थकान, परेशानी से झुंझलायी हुई थी। जबकि श्रील गुरु जी के श्रीमुख पर वही चिर परिचित मुस्कान शोभा पा रही थी। कुंदन लाल धर्मशाला में पहुंचते ही सब लोग स्थान पा कर सोने के लिये आतुर थे। कईयों ने तो प्रसाद भी नहीं पाया और जाते ही सो गये। हम लोगों से उस दिन बड़ा प्रमाद हो गया था, बड़ी असावधानी हुई थी। हम लोगों ने जो प्रसाद तैयार किया था वे सभी तेल, मसाले युक्त, Rich Food था । गुरु जी के लिये पपीता, केला, खीरा आदि आदि एक भी सब्जी सिद्ध नहीं की गई थी और न ही कच्ची लाकर रखी थी । जब गुरु जी के सेवक गुरु जी के लिये प्रसाद लेने आये तो चावल को छोड़ और कुछ भी उनकी कटोरी में डालने के लिये नहीं था। रात के दो बज रहे थे। अतः नया कुछ भी तैयार नहीं किया जा सकता था । श्रीपाद शचीनन्दन प्रभु हम लोगों पर बहुत ही नाराज़ हुये, उचित भी था। हम पर उनकी डाँट का ऊपर Fisrt Floor पर कमरे में बैठे गुरु महाराज जी को आभास हो गया था। शचीनन्दन प्रभु जी के गुरु जी के कमरे में प्रवेश करते ही गुरु जी उनको कहने लगे कि नहीं कुछ बना तो कोई बात नहीं, क्यों गृहस्थ लोगों को व्यर्थ में तंग करते हो ? कुछ नहीं है तो चावल के साथ थोड़ा नमक ले आओ में वहीं था, यह सब सुनकर में हैरान था। लेश मात्र भी क्रोध नहीं, एकदम शान्त ऐसी एक नहीं अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों में शान्त रहते देखा है मैंने गुरु जी को ।
बरसाना की परिक्रमा में श्रील गुरुमहाराज जी पहले गहर वन की परिक्रमा करते हैं तथा बाद में मोर कुटी के रास्ते से होते हुये श्रीजी के मुख्य मन्दिर में पिछले दरवाज़े से प्रवेश करते हैं। जैसे ही गुरुजी ने मन्दिर के पिछले दरवाज़े से प्रवेश किया वहाँ के पण्डों ने गुरु जी को घेर लिया तथा पैसे मांगने लगे । पण्डे संख्या में बहुत थे तथा उन्होंने गुरुजी पर बहुत धक्कमपेल की तथा बहुत छीना झपटी की । उस छीना झपटी में पण्डों के नाखूनों से गुरु जी के हाथ छिल गये और उनमें से रक्त बहने लगा । उनके इस व्यवहार से भी गुरुजी चुप रह कर शान्त रहे और उन्होंने अपने रक्त बह रहे हाथ को गल वस्त्र से ढक लिया, और तो और हम लोगों को भी गुरुजी ने उन पण्डों के प्रति कोई दुर्भाव न रखने के लिये कहा। उनके लिये उनका दर्शन ब्रजवासीयों का है। अद्भुत दर्शन है उनका
उनका अपने गुरु वर्ग, गुरु भाईयों व वैष्णवों के पति सम्मान भाव
श्रीमन् महाप्रभु जी के तीसरे श्लोक के ‘अमनिना मानवेन’ की Practical श्री मूर्ति हमारे श्रील गुरुमहाराज जी उनका अपने गुरु वर्ग, गुरु भाईयों व वैष्णवों के प्रति सम्मान भाव अद्वितीय है । स्वसम्मान की इच्छा लेश मात्र भी नहीं । गुरु महाराज जी के इस गुण को हम लोग प्रत्यक्षतः उनकी दिनचर्या में अनुभव कर सकते हैं।,
श्रीधाम मायापुर में ISKCON के जय पताका महाराज जी ने गुरु जी के पास निवेदन किया कि महाराज जी आप सब भक्तों को लेकर कीर्तन करते हुये सब जगह जाते हैं। अत: हमारे यहां पर भी पधारिये गुरु जी ने उनका आग्रह स्वीकार कर लिया । एक दिन सब को साथ लेकर नगर संकीर्तन करते हुये गुरु जी श्री चैतन्य चन्द्रोदय मन्दिर पधारे। श्री जय पताका महाराज जी व मठ के दूसरे सन्यासियों व ब्रह्मचारियों ने गुरु जी का मन्दिर द्वार पर भरपूर स्वागत किया।
गुरु महाराज जी के पधारने पर उन सब ने अतिशय उल्लास प्रकट किया। वे सब स्वयं संकीर्तन में सम्मिलित हो गये । गुरुजी को बड़े सम्मान के साथ मन्दिर के सत्संग भवन में ले गये। वहाँ पर पहले ही एक सिंहासन विशेष रूप से पुष्प सज्जित व सुन्दर तकिया आदि देकर के रक्खा गया था। वह सिंहासन था एक ही व्यक्ति के बैठने के लिये । हमारी पार्टी के साथ पूज्यपाद भक्ति शरण त्रिविक्रम महाराज जी भी थे । ISKCON वालों ने गुरु महाराज जी को बहुत ही अनुनय विनय की उस सिंहासन पर बैठने के लिये पर गुरु जी उस पर नहीं बैठे तथा पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी की तरफ संकेत कर कहने लगे “साथ में हमारा गुरु वर्ग है । उनको इस सिंहासन पर बिठाईये ।” अतः गुरु जी ने स्वयं आसन ग्रहण न कर पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी को उस उच्च आसन पर विराजित किया और स्वयं नीचे फर्श पर आसन ले कर बैठे। वहाँ पर बैठे सब लोग गुरु महाराज जी के इस व्यवहार से बहुत प्रभावित हुये ।
ISKCON के अतिथि गृह के Top Floor से उनके एक अनुयायी ने जब गुरु जी को मन्दिर द्वार पर प्रवेश करते देखा तो वह Video कैमरा उठा कर भागा तथा जल्दी 2 उसने यह सारा दृश्य लगभग 20 मिनट का, अपने Camera में Catch किया । उसने अगले ही दिन विदेश रवाना होना था। उसके दिल में बहुत दुःख था कि उसे इस प्रोग्राम की पूर्व सूचना नहीं थी। वह पूरे का पूरा Programme फिलमाना चाहता था । बाद में अगले वर्ष विदेश से वह कैसेट मैंने किस प्रकार मँगवाई यह लिखने से विषयांतर हो जायेगा। वह कैसेट अब मेरे पास सुरक्षित है।
अभी पिछले वर्ष ही December में जब गुरु महाराज जी एक दिन के लिये Sh. B.L. Chotani जी के गृह पर मानसा पधारे तो वही दृश्य फिर उपस्थित हो गया। महात्माओं के लिये लगाये गये आसनों में श्रील गुरु जी का आसन मामूली सा ऊँचा (केवल मात्र गद्दे की मोटाई ज़रा अधिक होने से ) था। गुरु जी वहाँ पर जा कर खड़े हो गये और तब तक नहीं बैठे जब तक सारा मंच दुबारा ठीक नहीं कर दिया गया पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराजी जी के संग होने से गुरु जी ने उनके सम्मान में मामूली सा ऊँचा आसन भी नहीं ग्रहण किया। अपने गुरु वर्ग के प्रति इस सम्मान की सब उपस्थित लोगों ने बड़ी श्रद्धा के साथ चर्चा की ।
गुरुजी के नज़दीक रहने वाले जानते ही हैं कि परम पूज्यपाद पूरी गोस्वामी महाराज जी की जय वह प्रतिदिन ही नहीं प्रति जय ध्वनि के साथ देते हैं। अपने गुरु वर्ग में उनकी आस्था अतुलनीय है। ब्रज मण्डल परिक्रमा में मैंने देखा कि परम पूज्यपाद पुरी गोस्वामी महाराज जी अगर कहीं पीछे रह जाते थे तो गुरु महाराज जी वहीं रुक जाते थे तथा उनको आगे कर ही स्वयं पीछे चलते थे।
जन्माष्टमी पर एक बार में कलकत्ता में था। महोत्सव पर प्रति वर्ष की तरह परम पूज्य भक्ति कुमुद संत गोस्वामी महाराज जी हमारे मठ में प्रसाद एवं हरिकथा कहने के लिये पधारे थे । मठ की प्रथम सीढ़ियाँ चढ़ कर के Office के बगल वाले कमरे में पलंग पर पूज्यपाद त्रिविक्रम महाराज जी के साथ सुशोभित हुये । पूज्यपाद जर्नादन महाराज जी ने मुझे उनके आने की सूचना श्रील गुरुमहाराज को देने का संकेत किया। में भागा गया तो गुरु जी अपने कमरे में कुर्सी पर बैठे लिखने में व्यस्त थे । मैंने जब धीरे से सूचित किया तो गुरु जी सब छोड़ छाड़ कर तत्काल उठे और द्रुत गति से सीढ़ियाँ उतर कर संत महाराज जी के कमरे की तरफ बढ़े । कुर्सी से तत्काल उठते गुरु जी ने तब कहा था, अभी जाना होगा नहीं तो संत महाराज जी यहाँ पर आ जायेंगे।
मुझे उनके पास जाना चाहिये ।” गुरुजी ने जाकर उन्हें साष्टांग दण्डवत् प्रणाम किया तथा उनके सामने करबद्ध खड़े होकर बड़े विनय पूर्वक शब्दों से गुरु जी ने उनकी अभ्यर्थना की। गुरुजी उनके सामने बैठे नहीं, उनके सम्मान में खड़े ही रहे । जब पूज्यपाद संत महाराज जी ने विशेष रूप से उन्हें बैठने की आज्ञा की तब वे बड़े संकुचित से होकर वहाँ पर पड़े एक स्टूल पर बैठ गये । कुर्सी फिर भी नहीं ली। गुरु जी का इस प्रकार का आचरण मानस पटल पर सदा के लिये अंकित हो गया ।
विदेश जाने के लिये भी गुरु जी परम पूज्य पाद भक्ति सौरभ भक्ति सार महाराज जी व परम पूज्यपाद भक्ति प्रमोद पुरी गोस्वामी महाराज जी का आदेश प्राप्त कर के ही गये ।
परम पूज्यपाद संत महाराज जी ने मुझे एक बार कहा भी था कि आपके गुरुजी अपने गुरु वर्ग का बहुत ही सम्मान करते हैं इतने बड़े 2 मठों के सर्वोच्च अधिकारी होते हुये कभी उनमें लेश मात्र भी अहं नहीं है। वे अपने गुरु वर्ग को देखते ही साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करते हैं।
गुरु महाराज जी द्वारा उनके प्रवचनों में उनके गुरु वर्ग के लिये प्रयोग की जाने वाली विशेष सम्मान युक्तभाषा का प्रयोग देखते ही बनता है। किसी बात को स्थापित करने के लिये वे अपने गुरु वर्ग से सम्बंधित घटनाओं का दृष्टान्त देते हैं। परम पूज्यपाद भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी महाराज जी के पदाश्रित एक त्रिदण्डि महात्मा के मुखारविन्द से मैंने सुना। उन्होंने मुझे ही कहा, आपके गुरु महाराज जी में यह बहुत ही बड़ी विशेषता है कि कोई भी बात स्थापित करते समय वे अपने गुरु वर्ग की उदाहरण देते हैं। ”
गुरुजी को अपने गुरु वर्ग से पहले कभी माला चन्दन स्वीकार करते नहीं देखा गया । अपने सतीर्थों के लिये भी गुरु महाराज जी अद्भुत सम्मान भाव प्रकट करते हैं। नई दिल्ली पंजाबी बाग के सम्मेलन में गुरु जी अपने कमरे में विराजमान थे । मैं भी वहीं था कि अचानक पूज्यपाद रामनाथ जी, तुलसी दास जी आदि 3-4 गुरु जी के सतीर्थों (गृहस्थों) ने कमरे में प्रवेश किया। उनके झुकने से पहले ही गुरु जी ने झुक कर उन्हें पंचाग प्रणाम करना शुरू कर दिया। उनके लिये यह अप्रत्याशित था । सब हड़बड़ा गये ।
गुरुजी ब्रज मण्डल परिक्रमा में वृंदावन मठ में अतिथि निवास के 7 नम्बर कमरे विराजमान थे। बहुत साल पहले की बात लिख रहा हूँ। मठ के सभी कमरे यात्रियों से खचाखच भरे थे। बाहर भी दो धर्मशालायें भरी थी। अचानक दिल्ली से प्रहलाद जी सपत्नीक कार से पधारे गुरु महाराज उन्हें मठ में ही ठहराना चाहते थे। उनके लिये गुरु जी अपना कमरा खाली करने के लिये उद्यत होकर अपना सामान समेटने लगे । उस समय के गुरु जी के Remarks मुझे याद हैं- “प्रहलाद जी ने हमारे गुरु महाराज जी की बहुत सेवा की है। उन्हें मठ में स्थान नहीं देने से तो हमारा अपराध हो जायेगा । हमारा क्या है? हम तो पुरी महाराज जी के साथ उनके कमरे में रह लेगा।” मैं तो गुरु जी का इस प्रकार का आचरण देख कर हैरान था। इतने बड़े -2 मठों के आचार्यदेव और इस प्रकार दैन्य । अपने सतीर्थों के प्रति इस प्रकार सम्मान । हमारी हालत भी लिखता हूँ। पुरी महाराज जी स्वयं मठ के कमरे 2 में गये तथा कमरा खाली करने के लिये प्रार्थना करने लगे। उन्होंने सब लोगों से कहा कि अगर आप कोई कमरा खाली नहीं करेंगे तो गुरु जी अवश्य ही अपना कमरा खाली कर देंगे। तब भी कोई तैयार नहीं हुआ कमरा खाली करने को । सब यही भाव लिये हुये थे कि हमने ठहरने के लिये ब्रज मण्डल परिक्रमा के लिये Payment दी है। अन्त में गुरु जी के पदाश्रित यात्रियों ने तुरन्त एक कमरा खाली कर प्रहलाद जी का सामान उनके कमरे में पहुँचाया । प्रहलाद जी के ठहरने की व्यवस्था देख तब कहीं आश्वस्त हुये गुरु जी । उत्थान एकादशी तिथि में गुरु महाराज जी को अपने सतीर्थों, चाहे वे ब्रह्मचारी हों अथवा उनके अपने सन्यास शिष्य को प्रणाम करते हुये देख कर वज्र हृदय भी द्रवीभूत हो जाता है। अन्यान्य वैष्णवों के प्रति भी गुरु जी का सम्मान प्रदर्शन अद्भुत है। सभी के प्रति उनका सम्मान भाव है। “कृष्ण अधिष्ठान सर्व जीवे जानि सदा, करबि सम्मान सबे आदरे सर्वदा यही दर्शन है, हमारे गुरु महाराज जी का । वे स्वयं इस पर पूर्ण आचरण कर हम लोगों को इस पर चलने की शिक्षा देते हैं।
झूलन पर एक बार वृन्दावन में श्रील गुरु महाराज जी शाम को प्रवचन कर रहे थे । एक अपरिचित महात्मा अचानक धीरे से आकर कथा में बैठ गये तथा गुरु जी का प्रवचन सुनने लगे । वे देखने में संन्यासी प्रतीत होते थे यद्यपि उनके हाथ में त्रिदण्ड नहीं था। गुरुजी भी उनसे परिचित नहीं थे । गुरु जी ने तुरन्त प्रवचन बीच में ही छोड़कर उनसे उनका परिचय पूछा तथा उनके लिये आसन मंगवा कर दिया तथा कहा कि कहीं उनका अपराध न बन जाये इसलिये प्रवचन बीच में ही छोड़ पहले उन्होंने उस सन्यासी के लिये आसन की व्यवस्था की। मुझे याद है तब गुरु महाराज जी ने इसी प्रकार की एक घटना परम गुरु महाराज जी के समय की सुनाई तथा हम लोगों को भी दूसरों के सम्मान के प्रति सचेत रहने का उपदेश दियां गुरु जी ने तब कहा था कि अपने साधन भजन पर विशेष ध्यान रखना चाहिये। दूसरों के सम्मान का ध्यान नहीं रखेंगे तो साधन भजन नष्ट हो जायेगा ।
और तो और गुरु महाराज जी अपने शिष्यों को शिष्य न समझकर उन्हें अपना दोस्त कहते हैं तथा उन्हें आप तथा जी से सम्बोधित करते हैं । शिष्यों के प्रति भी अद्वितीय सम्मान भाव है उनका कभी कभी वे अपने प्रवचनों में शिष्य को भी गुरु की संज्ञा देते हैं। चण्डीगढ़ मठ में विशेष रूप से देखा गया है कि जब निमंत्रित व्यक्ति (Guests ) सभा में सिद्धान्त विरुद्ध बोलते हैं तो गुरु महाराज जी उनका खंडन करते हुये उन्हें समझाते हुये इस बात का विशेष ध्यान रखते हैं जिससे उनके सम्मान में कोई हानि न हो ।
7 भगवान में अनन्य भाव से सुदृढ़ प्रेम
8 गुरु वैष्णव भगवान की सेवा के लिये दुनियावी कर्मों का व सगे सम्बन्धियों का त्याग ।
9. भगवद् भाव में विभावित रह कर भगवान की कथा कीर्तन में रुचि ।
इन विषयों पर लिखने के लिये मैं स्वयं को अत्यंत असहाय पा रहा हूँ। श्रील गुरु महाराज जी के यह उपरोक्त गुण उनके पास रह कर ही अनुभव किये जा सकते हैं। मैं तो देखता हूँ कि विष्णु – वैष्णवों की सेवा के लिये ही उनका समस्त जीवन समर्पित है।
अनन्य कृष्ण भक्ति भाव – उनकी हरिकथा को सुन कर सहज ही भगवान के प्रति उनका अनन्य भाव महसूस किया जा सकता है। हर समय वे भगवान की किसी न किसी सेवा में व्यस्त रहते हैं।
श्री भगवद् विग्रह सेवा उन्होंने कई मठों में प्रकाशित की है तथा परम गुरु महाराज जी द्वारा प्रकाशित विग्रहों की सेवा की भी उन्होंने सुन्दर व्यवस्था कर रक्खी है ताकि सब लोग भगवान की कोई न कोई सेवा प्राप्त कर सकें । मेरे गुरु महाराज जी पर यह श्लोक पूरी तरह चरितार्थ होता है, “श्रीविग्रहाराधन नित्य नानाना………. ” श्री भगवद् विग्रह कैंकर्य में उनका विशेष अनुराग है। मुझे याद है कि देहरादून मठ में वे स्वयं ठाकुर जी की रसोई करने को प्रस्तुत हो गये थे। पंजाब में उग्रवाद के समय अमृतसर के पास रामतीर्थ में श्री मूर्तियों को तोड़ा गया तो अत्यंत दुःखी हुये तथा रोते रोते वापस कलकत्ता चले गये । महावन मठ के श्री विग्रह खंडित होने पर जब गुरु जी महावन गये तो में उनके साथ ही था । उस समय के उनके आर्तनाद व क्रंदन के बारे में लिख पाना मेरे लिये असम्भव है। भगवान कृपाकर ऐसा दिन फिर न दिखायें ।
गुरु महाराज जी को दी जाने वाली प्रणामी को वे भगवान व वैष्णवों की सेवा में ही लगाते हैं। श्री भगवद् लीला सम्बन्धी तिथियों को गुरु जी विशेष उत्साह के साथ मनाते हैं। भगवद् प्रकट तिथियों, एकादशी आदि भगवान की प्रिय तिथियों में वे अत्यंत तितिक्षा तथा श्रद्धा से व्रत रखते हैं। वे हर समय कृष्ण भजन का उपदेश देते हैं।
वे भगवद् प्रसाद को छोड़ अन्य किसी देवी देवता का प्रसाद ग्रहण नहीं करते। भगवान के प्रसाद में उनकी निष्ठा के बारे में मैंने मठ के वैष्णवों से सुना कि ब्रह्मचारी काल में वे प्रसाद सेवन के साथ-साथ पत्तल भी साथ रखा जाने को तत्पर रहते थे। भगवान में अनन्यता है तभी तो भगवद् प्रसाद में अनन्यता है। गोकुल मंत मन्दिर प्रतिष्ठा के समय उन्होंने कहा था- “जब तक भगवान में रुचि नहीं होगी तब तक उनके प्रसाद सेवन में भी रुचि नहीं होगी ।”
वे हर समय किसी न किसी रूप में भगवान का गुणगान करते रहते हैं। श्री हरिनाम संकीर्तन रूपी श्रीभगवद् विग्रह में उनकी प्रगाढ़ आस्था देखी जाती है। वे भगवान की हर सेवा भगवद् नाम संकीर्तन के साथ करते हैं। मैंने उन्हें घण्टों अक्षुण भाव से भगवद् नाम संकीर्तन करते देखा है। भगवान का नाम संकीर्तन करते करते वे आत्महारा हो जाते हैं तथा अनन्य भक्त में प्रकट होने वाले विकार उनमें प्रकट हो जाते हैं। उनका संकीर्तन सदैव भगवद् भाव विभावित होता है। परम पूज्य पाद पुरी गोस्वामी महाराज जी उनके बारे में कहते हैं” इस उम्र में भी इस प्रकार उच्च स्वर से उदण्ड नृत्य कीर्तन करने वाला अभी और कोई नहीं है।” अभी 1996 की व्रजमण्डल परिक्रमा में दूसरे दूसरे मठों से आये त्रिदण्डि सन्यासी गुरु महाराज जी का नाम संकीर्तन व उनकी भगवद् कथा परिवेशन को देख कर आश्चर्य चकित थे । उन्होंने मुझसे बड़ी हैरानी से कहा भी ” अरे बाबा, इस प्रकार का आचार्य जो परिक्रमा में स्वयं बार-बार नाम संकीर्तन करता हो तथा हर समय भगवद् भाव में विभावित होकर जगह-जगह में भगवद् कथा व भगवद् धाम माहात्म्य स्वयं प्रकाशित करे, उन्होंने नहीं देखा ।” कई सन्यासी तो गुरु महाराज जी की इस विलक्षण अलौकिक प्रतिभा को देखकर उनके श्री चरणों में लौटने लगते थे।
गुरु जी जब भगवान की लीला कथा कहते हैं तो वह उस लीला को आँखों के समक्ष उपस्थित कर देते हैं। जिन लोगों ने गुरु जी से ध्रुव चरित ..में गुरु जी को “कहाँ पद्म पलाश लोचन हरि” बार – 2 पुकारते सुना है वे जानते हैं कि उस समय साक्षात् ध्रुव का भगवान को पुकारना ही अनुभव होता है और कुरुक्षेत्र में यज्ञ के प्रसंग में जब गुरु जी ‘गोपाल’ ‘बाबा गोपाल’ पुकारते हैं तो यशोदा मैया का पुकारना ही सुनाई देता है। उनकी भगवद् भाव से सुनायी जाने वाली रस भरी हरि कथा में नित्य नूतनता है, नित्य नवीन रस उसमें प्रवाहित होता है। उनकी कथा में वास्तव में भगवान हैं। अत: वह अतीव आनन्द प्रदायिनी है। उनकी कथा सुनने से ही मन का मैल धुलने लगता है, पश्चाताप होने लगता है। भगवद् भजन के लिये मन प्रोत्साहित हो जाता है। कठोर हृदय भी द्रवीभूत हो जाता है। दिन में चाहे जितने प्रोग्राम आप कथा के रख दीजिये गुरु जी को कभी कहते नहीं सुना गया कि आप लोगों ने हरिकथा के इतने प्रोग्राम क्यों रख दिये ? गुरु जी ने देहरादून में उत्थान एकादशी तिथि में एक बार कहा भी था, हम तो सारी रात कथा कह सकते हैं पर आप लोग चंचल हो जायेंगे ।”
गुरु महाराज जी को कथा में श्रोताओं की अपेक्षा नहीं रहती । वे भगवान की प्रसन्नता के लिये हरि कथा कहते हैं। उनके कथा कीर्तन में इस प्रकार आकर्षण है कि मुझे पूज्यपाद श्रीधर महाराज जी के मठ के एक संन्यासी कहते हैं कि आपके गुरु जी जब महाप्रभु के भाव में निमज्जित होकर “श्री कृष्ण चैतन्य प्रभु दया करो मोरे……. ” गाते हैं तो शरीर में अद्भुत बिजली तरंगित हो जाती है। उन्होंने कहा कि में बार बार यह कीर्तन सुनने के लिये आता हूँ। उन्होंने मुझे यह भी कहा कि “प्रभुपाद जी के चरणाश्रितों की बात छोड़ दें तो इस समय गौड़ीय वैष्णव जगत में आपके गुरु महाराज जी जैसा कोई भी आचार्य नहीं है। ” उनके अप्राकृत गुणों से प्रभावित हो कर ही उन्हें विश्व वैष्णव राज सभा को Preside करने का बार बार आग्रह किया जाता है।
कृष्णानन्द दासाधिकारी
(कुलदीप चोपड़ा)
भटिण्डा