कहां से प्रारम्भ करूँ और क्या लिखूँ, कुछ समय में ही नहीं आता, ऐसे तो पतितपावन श्रील गुरु महाराज जी की कृपा से उनके संग का सौभाग्य प्राप्त तो हुआ, परन्तु न जाने मेरी लेखनी उनके पतितपावनत्त्व, सर्वजीवकरुणत्त्व, अपूर्व प्रचारकत्त्व, सहनशीलता, दयालुता, अजातशत्रुता, शान्त स्वभाव इत्यादि अलौकिक गुणों को लिखने में समर्थ होगी कि नहीं कुछ कहा नहीं जा सकता । हाँ, यदि वे अहैतुकी कृपा करके मेरी लेखनी से कुछ लिखवा दें तो कह नहीं सकता। श्री श्री चैतन्यभागवत के आदिखण्ड को लिखते समय श्री श्रील वृन्दावन दास जी की लेखनी में हर वक्त यही पाया कि
“के तौरे जानिते पारे, यदि ना जानाय”
अर्थात् यदि वे कृपा करके अपने आपको प्रकट न करें तो कौन उनको जान सकता है।
अतः मैं सर्वप्रथम अपने श्रीगुरुदेव के श्री चरणाविन्द में असंख्य साष्टांग दण्डवत् प्रणाम करता हूँ तथा उनकी अहेतुकी कृपा प्रार्थना करते हुए इस लेखनी से लिखना प्रारम्भ कर रहा हूं, जैसे वे कृपा करके लिखवाते चले जायेंगे और यह लेखनी लिखती चली जायेगी।
मुझे याद है कि मुझ जैसे संसाररूपी दलदल में फसे जीव को किस प्रकार से श्रील गुरुदेव ने अपनी वात्सल्यता प्रदानकर श्रीहरिगुरु- वैष्णवों का दासानुदास बना दिया है। श्रील गुरु महाराज जी का चरणाश्रय करने के पश्चात् पहली बार श्रीधाम मायापुर की परिक्रमा के दौरान उनके संग का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 5 दिन तक श्रीधाम वृन्दावन चलने वाली इस परिक्रमा में प्रतिदिन प्रातः 4 बजे होने वाली परम गुरुदेव ॐ विष्णुपाद 108 श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज जी के समाधि मन्दिर में मंगल आरती के समय पहले से ही स्थित श्रील गुरुदेव के दर्शन, जबकि दूसरी ओर इसके साथ-साथ सारा दिन नंगे श्रीचरणों से पैदल परिक्रमा के संग भावमय नृत्य कीर्तन करने, स्थान-स्थान पर माहात्म्य बोलने, रात्रि की सभा में किसी के न आने पर भी उनकी उपस्थिति, शरीर के किसी भी प्रकार के विश्राम से रहित इत्यादि सब प्रकार का आचरण भी देखने को मिला। ऐसी सहनशीलता, ऐसा आचरण किसी दूसरे में मैंने अभी तक नहीं देखा ।
इस परिक्रमा के दौरान विद्यानगर की परिक्रमा के समय अक्सर रात हो जाया करती है। उन दिनों में भी जब विद्यानगर की परिक्रमा पूर्ण करके हम लोग वापस मठ की ओर आ रहे थे तो शाम ढल चुकी थी और तब लगभग 8 बजे होंगे और अभी हमें नाव द्वारा गंगा पार स्थित मठ मन्दिर में पहुंचना था। गंगा जी की स्थिति यह थी कि जहां हम चल रहे थे वहां से वह लगभग तीन किलोमीटर दूर थी। सभी लोगों का सारा दिन चलने से थकावट के मारे बुरा हाल हो रहा था । परन्तु श्रील गुरु महाराज जी थकावट का एक भी चिन्ह अनुभव नहीं कर रहे थे। उनको तो चिन्ता थी केवल दूसरों की सभी ने अपने में थकावट अनुभव करने के कारण समझा, शायद गुरु महाराज जी को कुछ थकावट हो गई होगी, सब ने उनके लिए एक रिक्शा करना चाहा, लेकिन गुरु महाराज जी ने रिक्शा लेने से मना कर दिया, रिक्शे को छोड़कर मेरे गुरुदेव कीर्तन करने लगे। उनके मुखारविन्द से कीर्तन सुनकर सभी की थकावट न जाने कहाँ चली गई। इस प्रकार कीर्तन करते-करते लगभग 1/2 किलोमीटर जाने पर श्रील गुरु महाराज जी ने श्रीरामप्रभु जी से कीर्त्तन करने के लिए कहा। जिन लोगों ने परिक्रमा की है, वे जानते हैं कि जिस रास्ते से जाना पड़ता है, उस रास्ते में कोई Light नहीं है। अपनी-अपनी टार्च या Gas Light के द्वारा रास्ता देख-देखकर चलना पड़ता है। श्रीरामप्रभु जी ने कीर्तन करना प्रारम्भ किया तो फिर कुछ श्रद्धावान् वैष्णवों ने श्रील गुरु महाराज जी को फिर से रिक्शा में बैठने के लिए विशेष रूप से प्रार्थना की, क्योंकि हम जिस रास्ते पर चल रहे थे, वह रास्ता भी पथरीला था। किसी प्रकार से उन्होंने इस सेवा को ग्रहण किया। जिस रिक्शे पर श्रील गुरुदेव विराजमान हुए, वह रिक्शा संकीर्तन पार्टी के पीछे-पीछे धीरे- धीरे चलने लगा, क्योंकि ऐसा श्रील गुरु महाराज जी का आदेश था कि अब मैं पार्टी के आगे आगे न रहकर पीछे-पीछे आऊँगा । उस समय उनके उस रिक्शे के पीछे-पीछे में, श्रीपाद दामोदर दास प्रभु जी और श्री पाद रासबिहारीदास प्रभु जी (राजेन्द्र मिश्र ) चल रहे थे, बाकी सब लोग संकीर्तन पार्टी में मिलकर संकीर्तन कर रहे थे। श्रीराम प्रभु संकीर्त्तन कराते कराते जल्दी जल्दी गंगा के उस पार जा पहुंचे और शीघ्र ही नावों में बैठकर सभी लोग उस पार पहुँच कर श्रीमठ मन्दिर में चले गये। इधर जब हम लोग श्रील गुरु महाराज जी के रिक्शे के पीछे चलते-चलते रात के लगभग 10 बजे वहां पहुँचे तो देखा आसमान पर बादल हैं और किनारे पर कोई नाव भी नहीं है। किनारे पर खड़े श्रीपाद भगवान प्रभु जी ने बताया कि श्रीराम प्रभु सबको लेकर सही रूप से गंगा के उस पार पहुँच गये हैं, कोई भी बाकी नहीं रहा, इस कारण सभी नाव वाले उनको छोड़ने के लिए उस किनारे पर गये थे । तब से आये नहीं, अभी आने वाले होंगे। श्रील गुरु महाराज जी को देखा कि जब तक सभी यात्री सही रूप से उस पार न हो जायें, तब तक वे किनारे पर ही बैठे
रहते हैं, चाहे जितनी देर हो जाये ।
श्रीपाद भगवान दास प्रभु ने जैसे ही यह बताया. कि सभी ठीक ठाक गंगा पार हो गये हैं, तब श्रील गुरु महाराज जी सन्तुष्ट होकर श्रीपाद दामोदर दास प्रभु द्वारा लाई एक कुर्सी के ऊपर, किनारे पर स्थित एक टीन की छत के नीचे बैठ गये और नाव के आने की प्रतीक्षा करने लगे। छत के नीचे बैठते ही जोरों से वर्षा प्रारम्भ हो गई। हम सभी लोग श्रील गुरु महाराज जी के चारों ओर खड़े हो गये। श्रीपाद दामोदर दास प्रभु श्रील गुरु महाराज जी के मना करने पर भी जबरदस्ती उनका पाद- संवहन करने लगे। कुछ क्षण पश्चात् जैसे ही वर्षा रुकी तो एक मोटर बोट को किनारे लगते देखकर हम सब प्रसन्न हो उठे। सभी लोग श्री गुरुदेव के संग नाव में बैठकर दूसरे किनारे पर पहुँचे। अभी किनारे से पैदल चलकर फिर लगभग एक किलोमीटर की दूरी का रास्ता तय करना था मठ तक पहुँचने के लिये । परन्तु यह क्या, किनारे से लगभग एक दो कदम चलते ही देखा कि तेज वर्षा के कारण काफी कीचड़ हो गया है। Street Light न होने से कुछ दिखाई नहीं दे रहा है एक टार्च हाथ में है। कीचड़ में से निकलना मुश्किल हो रहा है। अतः श्रीपाद दामोदर दास प्रभु जी श्रील गुरु महाराज जी को सहारा देते हुए धीरे-धीरे चलने लगे । हम सभी श्रील गुरुमहाराज जी के पीछे-पीछे थे। वहाँ से चलते-चलते लगभग रात्रि के 11 बजे हम लोग मठ में पहुँचे। वहां पहुँचते ही सबसे पहले श्रील गुरु महाराज जी ने पूज्यपाद श्रीमद् परिव्राजक महाराज जी से सबके सही रूप से मठ में पहुँचने का वृत्तान्त जाना, तत्पश्चात् अपने कमरे में प्रवेश किया। हम लोग थकावट से बेहाल हो चुके थे, परन्तु श्रील गुरु महाराज जी को इसकी जरा-सी भी अनुभूति नहीं थी। ऐसा मैंने उनके साथ रहकर अनुभव किया ।
श्री गुरु महाराज जी के क्रिया कलापों से स्पष्ट है कि उनके हृदय में जीवों के निस्तार की कितनी उत्कण्ठा है। केवल इतना ही नहीं मठ की तमाम जिम्मेदारियाँ, तमाम भक्तों के पत्रों का समय पर जवाब, बंगला मासिक पत्रिका श्री चैतन्यवाणी का लेखन, नाना प्रकार के कष्टों को सहकर प्रचार प्रोग्राम, प्रचार प्रोग्राम के दौरान पंजाब इत्यादि में दिन में सात-सात बार प्रोग्राम। यह सब अपूर्व सहनशीलता नहीं तो और क्या हैं ?
इससे भी कई गुणा अधिक सहनशीलता का ज्वलन्त आदर्श तब देखने को मिला, जब इस श्रीधाम मायापुर की परिक्रमा के पश्चात श्रीव्रज मण्डल परिक्रमा का भी सौभाग्य मिला । शायद श्रीहरि-गुरु- वैष्णवों ने इस अधम दास के चित्त पर पड़ी उस छाप को और पक्का करने के लिये ऐसा मौका प्रदान किया। श्रीदामोदर व्रत के दौरान लगातार एक महीने तक श्रीधाम मायापुर की भाति सारा दिन धूप में नंगे श्रीचरणों से नृत्य – कीर्त्तन में निमग्न होकर तमाम यात्रियों की व्रज चौरासी कोस में आने वाली विभिन्न लीला स्थलियों का दर्शन कराना, माहात्म्य श्रवण कराने के साथ-साथ श्रीदामीदर व्रत की अष्टयाम लीलाओं का स्मरण कराना, सारा दिन इतना सब करने के पश्चात् भी रात्री को सभा में बिना किसी थकावट का अनुभव किये उपस्थित होना अपने आप में अवर्णनीय है। यह केवल उनके लिए एक मास या 5 दिन की बात नहीं है, मेरे गुरुदेव तो सारा साल अपनी संकीर्तन मण्डली के साथ इस प्रकार जीवों के उद्धार साधन में रत हैं। वे आज पंजाब में हैं तो कल आसाम में Train के सफर में भी न 1 जाने कैसे-कैसे कष्टों को सहना पड़ता है। मुझे जब श्रील गुरु महाराज जी अपने संग आसाम प्रचार प्रोग्राम में ले गये तो आसाम से कामरूप एक्सप्रेस द्वारा कलकत्ता वापस आते समय बंगाल और आसाम का Border आने पर पूज्यपाद श्री अनन्त प्रभु जी से, उससे पिछले साल की एक अद्भुत घटना को सुनकर मैं तो आश्चर्यचकित रह गया। उन्होंने कहा कि यहाँ आसाम और बंगाल का बार्डर बहुत स्वतरनाक इलाका है, यहाँ अगर यह ट्रेन अपने ठीक समय पर न आये तो दूर-दूर तक सुनसान इस इलाके में डाकू लोग आकर ट्रेन के यात्रियों को लूट लेते हैं। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा कि इस साल यह ट्रेन ठीक समय पर जा रही है, परन्तु पिछले साल हमारी ट्रेन 2 घंटे लेट हो गयी थी, इस स्थान पर पहुँचते ही हमारी ट्रेन को डाकुओं ने घेर लिया। ट्रेन के अन्दर अल्प मात्रा में मौजूद पुलिस ने हमें सचेत कर दिया था कि अपनी अपनी खिड़कियों और ट्रेन के दरवाजों को एकदम बंद कर दें। प्रभु जी ने बताया कि सब लोग डर गये, हमने खिड़की के शीशों से झांक कर देखा कि उन डाकुओं का सरदार बार-बार घूम घूम कर चक्कर लगा रहा है और कुछ शायद कह रहा है कि अपना अपना समान हमें सौंप दें, नहीं तो हम सारी ट्रेन को जबरदस्ती लूट लेंगे। परन्तु पुलिस का एकदम सख्त निर्देश था कि कोई भी खिड़की अथवा दरवाजा मत खोले, नहीं तो मुश्किल हो जायेगी । तब कहते हैं कि हमने देखा आपके गुरु महाराज जी श्रीनृसिंहदेव का स्मरण कर रहे हैं और हमें भी स्मरण करने के लिए निर्देश कर रहे हैं। इस प्रकार स्मरण करते करते हम लोग क्या देखते कि कुछ लोगों ने उन डाकुओं पर पीछे से प्रहार प्रारम्भ कर दिया है। शायद कुछ दूरी पर स्थित किसी गांव के लोगों को इस बात की खबर मिल गई होगी और वे लूट से बचाने के लिए पीछे आकर प्रहार करने लगे। हमारे देखते ही देखते डाकू भाग खड़े हुए कुछ समय पश्चात् हमारी ट्रेन को पुलिस ने चलने का निर्देश दे दिया। श्री अनन्त प्रभु ने कहा कि उस दिन श्रील गुरु महाराज जी द्वारा श्रीनृसिंहदेव को स्मरण करने के कारण हम लोग इस लूट से बच पाये, हो सकता था इसमें बहुत सी जानें चली जातीं ।
देवकीनन्दन दास
श्रीधाम वृन्दावन