पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्री श्रीमद् भक्ति सौरभ आचार्य महाराज जी ने कहा
आज विशेष शुभदा तिथि है । आज भगवान श्रीराम चन्द्र जी का आविर्भाव दिवस है तथा आज ही हमारे अखिल भारतीय श्रीचैतन्य गौड़ीय मठ के आचार्य, मेरे शिक्षा गुरु तथा मेरे सन्यास गुरु पूज्यपाद श्री श्रीमद् भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी की शुभ आविर्भाव तिथि है। आज की ये विराट सभा महाराज जी की शुभ आविर्भाव तिथि के उपलक्ष में ही रखी गयी है। आज की इस विशाल पावन सभा में मुझे आज्ञा हुई है महाराज जी के बारे में कुछ कहने के लिये। वैसे तो अथाह महिमा है महाराज जी की । तब भी संक्षेप में कुछ निवेदन करता हूँ। शास्त्र ऐसा कहता है कि वैष्णव के गुणानुवर्णन करने से जीव का कल्याण होता है। परन्तु वैष्णव को पहचानना बहुत मुश्किल है। भगवान जिस प्रकार से होते अप्राकृत हैं उसी प्रकार वैष्णव भी अप्राकृत होते हैं। भगवद् अवतार अक्सर ये नहीं कहते कि वे भगवान हैं फिर भी भक्त मुनि लोग उनके गुण, मुख्य लक्षण, गौण लक्षण, आकार लक्षण तथा प्रकृति लक्षण आदि देखकर उन्हें पहचान लेते हैं। महाराज जी की आकृति प्रकृति के बारे में भला आपको क्या बताऊँ। आप तो सामने बैठे महाराज के दर्शन कर ही रहे हैं।
महाराज का सर्वप्रथम दर्शन मुझे सन् 1962 में हुआ । सन 1960 में मेरा हरिनाम हुआ व सन् 1962 में दीक्षा । ज्यादा लम्बे समय तक महाराज जी के साथ मुझे रहने का मौका तब मिला जब गुरुजी ने मुझे इन महाराज जी के साथ पुरी भेजा। तब प्रभुपाद जी की जगह उद्धार नहीं हुई, उसी के सम्बन्ध में महाराज जी वहाँ गये हम दोनों एक साथ रहते थे। महाराज जी तो बाहर के कार्य करते थे और मैं भीतर का एक बार कार्य करते-करते अचानक मेरे सिर पर बड़ी ज़ोर से आलमारी लगी । मेरे सिर में चोट लगी जानकर महाराज जी ने अपने सारे काम छोड़ दिये, मेरी सेवा में लग गये। खुद अपने हाथ से इन्होंने मेरे सिर पर दवाई लगायी, मुझे डाक्टर के पास ले गये । उस दिन महाराज जी की सेवा परायणता देखकर में हैरान रह गया। महाराज जी ने तब इतना किया कि आज तक भी में वह दिन भूल नहीं पाया। जब कि में महाराज जी से बहुत छोटा हूँ ।
पुरी में हम लोग एक आश्रम में रहते थे। मैंने देखा कि महाराज जी हर समय ही सेवा में व्यस्त रहते थे। मुझे याद है तब गुरु महाराज जी ने मुझे एक चिट्ठी दी जिसमें लिखा था- “गौरांग प्रसाद* तुम हमेशा तीर्थ महाराज के साथ-साथ रहना। उनके ऊपर मेरा व गौड़ीय मठ का बहुत जिम्मा है। तुम उनको अकेला मत छोड़ना । बहुत दुश्मन हैं। कभी भी कोई कुछ भी कर सकता है।” गुरु जी की ये बातें मुझे आज भी याद हैं। गुरुजी का आदेश पालन करने के लिये मैं साथ-साथ रहता हूँ ।
अटूट गुरु निष्ठा है महाराज जी के अन्दर बहुत से उदाहरण हैं इसके, जब हम लोग श्रीप्रभुपाद जी के जन्म स्थान के उद्धार के लिये प्रयास कर रहे थे। तो तब बहुत से किरायेदार वहाँ रहते थे। उनमें से कई तो हमारे से दुश्मनी रखने लगे थे। कभी-कभी तो वे बहुत ज्यादा तंग करते थे हम जब रास्ते में जाते तो हमारा मजाक उड़ाते थे। मछली खाकर उसका टुकड़ा हमारे कमरे में फेंक देते थे। एक दिन की बात है, गुरु महाराज जी पुरी आये हुए थे। कहीं से हम जहाँ अभी मठ है, की ओर आ रहे थे तो एक किरायेदार ये जानते हुए भी कि हम प्याज नहीं खाते, मज़ाक करने के लिये एक थाली में प्याज के पकोड़े सजाकर गुरुजी के आगे ले आया और कपटयुक्त दीनता के साथ कहने लगा महाराज जी में तो गरीब हूँ आपकी सेवा नहीं कर सकता, कृपा करके ये थोड़े से पकोड़े जो मैं लाया हूँ ग्रहण करें।
गुरुजी ने उसके हाथ में पकोड़े की थाली देखी, उसकी बात सुनी और मुस्कराते हुए कहा आप तो जानते ही हैं कि हम प्याज इत्यादि नहीं स्वाते हैं।
गुरुजी की बात सुनकर भी उसने अनसुनी कर दी और बार बार कपटतापूर्ण अनुनय विनय करता हुआ गुरुजी के साथ हाथ में प्याज की चाली लिये उल्टे कदमों से चलने लगा ।
किरायेदार को गुरुजी से मज़ाक करते देखकर तीर्थ महाराज जी की आँखें क्रोध से लाल हो गयी। सारा शरीर काँपने लगा उनका । काँपते शरीर से बाँए हाथ की मुट्ठी को बाँधकर व उसे कुछ ऊपर उठाकर गुस्से में गरज कर दहाड़ते हुए कहने लगे ‘क्या बोलते हैं आप। ऐसा करना ठीक नहीं। आग के साथ खेल रहे हो तुम। आग के साथ ऐसे खेलना ठीक नहीं, आग जला देगी तुम्हें । इसका नतीजा भुगतना पड़ेगा आपको, अवश्य भोगना पड़ेगा । ”
महाराज जी को ऐसे काँपता देखकर मैं तो डर गया। वैसे महाराज जी बिल्कुल शान्त स्वभाव के हैं परन्तु उनके सामने कोई गुरुजी का अपमान करे उसे भला कैसे सहन करते वे ।
जागतिक दृष्टि से महाराज जी विद्वान हैं वर्षों पहले Calcutta University से Philosphy में M.A की थी उन्होंने विद्वान होते हुए भी नम्र हैं, अमानी हैं। इतने साल से महाराज जी के साथ हूँ, विशेष बात जो में देखता हूँ वह इनकी Presence of mind है। कब कौन सा काम करना, कैसे करना है इसका बिल्कुल ठीक-ठीक निर्णय लेते हैं महाराज जी ।
अपने गुरुजी का शासन किस प्रकार से महाराजजी स्वीकार करते हैं उसकी एक घटना बताता हूँ श्री प्रभुपाद जी के शिष्य थे पूज्यपाद योगेश्वर महाराज जी, बातों बातों में एक बार उन्होंने हमें बताया कि एक दिन गुरुजी ने किसी से बात करते-करते तीर्थ महाराज जी से कलकत्ता मठ का जो मन्दिर है उसका प्लान लाने को कहा । तुरन्त महाराज जी कमरे में गये और कुछ कागज हाथ में लेकर बाहर आये। महाराज जी ने कागज गुरुजी के हाथ में लाकर दे दिये। गुरु जी ने उन कागजों को खोलकर देखा तो वे मन्दिर के प्लान के कागज नहीं थे। गलती से और ही कागज आ गये थे। कागजों को गुरुजी ने महाराज जी के हाथों में दिया और डाँटने लगे ।
गुरुजी ने इतनी ज़ोर से महाराज जी को डाँटा कि महाराज जी डर से कांपने लगे सारे कागज जो महाराज जी के हाथों में थे, नीचे गिर पड़े।
तब योगेश्वर महाराज जी ने गुरुजी को कहा कि आपने इतनी जोर से डांटा। ये तो डर से काँप रहा है। जवाब में गुरुजी ने कहा सब को डाँटा नहीं जा सकता। सभी को शासन नहीं किया जा सकता तथा सब लोग शासन सहन भी नहीं कर सकते हैं। ये शासन सहन कर सकता है, इसलिये इसको डाँटा ।
श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जी ने श्रीचैतन्य चरितामृत जी की मध्यलीला में जो कृपालु, अकृतद्रोह व सत्यसार आदि वैष्णव के 26 लक्षण बताये हैं वे सारे के सारे महाराज जी में पूर्ण रूप से घटते हैं। महाराज जी के साथ रहते रहते अब महाराज जी में मेरी ऐसी आसक्ति सी हो गयी है कि इनका संग छोड़ने की इच्छा ही नहीं होती। परन्तु दूसरी ओर देखता हूँ, कि इनके साथ चलने की मेरी योग्यता नहीं है। मैं तो जूं की तरह महाराज जी का संग करता हूँ। आज की अतिशुभ तिथि में में इनको अनन्त कोटि दण्डवत् प्रणाम करता हूँ तथा इनकी अहेतुकी कृपा प्रार्थना करता हूँ । कृपा करके महाराज जी मुझे श्री श्रीराधागोविन्द श्री श्रीराधामाधव जी की सेवा करने की योग्यता प्रदान करें। इतना कहकर में अपना वक्तव्य समाप्त करता हूँ ।
वान्छाकल्पतरुभ्यश्च कृपासिन्धुभ्य एव च ।
पतितानां पावनेभ्यो वैष्णवेभ्यो नमो नमः ॥
पूज्यपाद त्रिदण्डिस्वामी श्रीभक्ति सौरभ आचार्य महाराज जी का ब्रह्मचारी अवस्था का नाम