श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज जिस छप्पर के नीचे वास करते थे, एक बार, वर्षाकाल में वे उसे परित्याग कर कुलिया-नवद्वीप की धर्मशाला के बरामदे में आ गये। वहाँ पर बाबाजी महाराज के लिए कुछ अन्नप्रसाद ‘छींके’ के ऊपर रख दिया गया था। थोड़ी देर बाद एक विषधर सांप दीवार के सहारे, छींके के साथ लिपट कर नीचे उतर गया।

धर्मशाला में आयी हुई एक वृद्ध महिला ने यह देखते ही चिल्लाना शुरु कर दिया, ‘बाबाजी को सांप ने डस लिया।’ तब दृष्टिशक्ति – हीन बाबाजी महाराज हाथ से ढूँढते-ढूँढते कहने लगे ‘सांप कहाँ गया?’ कहाँ गया? इतने में सांप भी चला गया। तब वह महिला कहने लगी, ‘बाबा आप क्या पागल हो गये हैं? अभी आपको सांप डस लेता, आपके आस-पास घूमकर सांप चला गया। और थोड़ा सा हाथ अधिक बढ़ाते तो आपको काट लेता। हम आपको और यहाँ रहने नहीं देंगे।’ तब बाबाजी महाराज ने उस महिला को कहा ‘माताजी, आप और यहाँ पर खड़ी मत रहिए, बहुत देर से खड़ी हैं, आपको कष्ट हो रहा है।’ उस स्त्री ने कहा-‘आप जब तक वापिस नहीं जाएँगे मैं तब तक यहाँ से बिल्कुल भी नहीं जाऊँगी।’ बाबाजी महाराज ने कहा- ‘मैं अब प्रसाद ग्रहण करूँगा, आपको घर जाने में देरी हो रही है।’ उस स्त्री ने कहा, ‘आप यह प्रसाद नहीं ग्रहण कर पाएँगे, उस स्थान से होकर सांप गया था, हो सकता है कि सांप ने इसे मुँह लगाया हो, यह विषैला प्रसाद पाकर आप मर जाएँगे। मैं अभी प्रसाद मँगवा देती हूँ।’ इस पर बाबाजी महाराज ने कहा- ‘मैं माधुकरी भिक्षा में मिले प्रसाद के अतिरिक्त, विषयी व्यक्तियों का अन्नादि कुछ भी ग्रहण नहीं करता हूँ।’ तब उस स्त्री ने श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी महाराज के पास खड़े एक सेवक से कहा- ‘आप बाबाजी महाराज जी के लिए थोड़े से चावल बना दीजिए।’ बाबाजी महाराज जी ने कहा-‘माताजी, जब तक आप यहाँ से नहीं जाएँगी, तब तक मैं कोई भी बात नहीं सुनूँगा।’ बाध्य होकर वह महिला वहाँ से चली गई। कुछ समय पश्चात बाबाजी महाराज ने पास खड़े सेवक से पूछा-‘माता जी चली गईं क्या?’ वह महिला वहाँ से चली गई है, यह सुनकर महाराज कहने लगे- ‘माया का काम देखा? देख, माया सहानुभूति का ढोंग करके किस प्रकार धीरे-धीरे प्रवेश करना चाहती है। माया बहुरूपिणी है, अनेक प्रकार के छल-कपट जानती है। जीव को हरिभजन नहीं करने देती; माया कितनी माया दिखाकर कहती है, घर में मत जाओ, सांप खा जाएगा, सांप के द्वारा खाया हुआ प्रसाद मत खाना, मर जाओगे। मैं तो अभी मरने से बच जाऊंगा, कृष्णभजन नहीं हुआ, इस शरीर को बचाकर क्या होगा?’ यह कहकर बाबाजी महाराज यह भजन गाने लगे-

गोरा पहुँ ना भजिया मैनु।
प्रेम रतन धन हेलाय हाराइनु ।।
अधने यतन करि’ धन तेयागिनु ।
आपन करम-दोषे आपनि डुबिनु ।।
सत्संग छाड़ि’ कैनु असते विलास ।
ते-कारणे लागिल ये कर्मबन्ध फांस ।।
विषय विषम-विष सतत खाइनु।
गौरकीर्तन रसे मगन ना हइनु ।।
केन वा आछये प्राण कि सुख लागिया।
नरोत्तमदास केन ना गेल मरिया।।

हाय! हाय ! मैंने श्रीगौरसुन्दर का भजन नहीं करके अमूल्य प्रेमधन को अनायास खो दिया। जो असली धन है उसे त्यागकर अधन के लिए ही यत्न किया। अपने कर्मों के दोष के कारण अपने आपको विषयों में डुबो दिया। मैं सत्संग का त्याग कर असत् चीज़ों में रमा रहा। इसलिए मैं कर्मों के बन्धन में फँस गया। विषय रूपी भयानक ज़हर को ही हमेशा चखता रहा- इसलिए श्रीगौरसुन्दर के कीर्तन रस में मग्न नहीं हो पाया। हाय! हाय! किस सुख के लिए अभी तक प्राण हैं? नरोत्तमदास अभी तक मर क्यों नहीं गया?