एक समय एक डाक्टर ने हरिभजन में अत्यन्त व्याकुलता दिवाकर श्रील गौरकिशोर प्रभु के पास नवद्वीप में वास करने की इच्छा प्रकट की। डाक्टर ने पहले से ही सब व्यवस्था कर ली थी कि वह नवद्वीप में रहकर डाक्टरी करेगा, लोगों के पास भिक्षा मांगकर औषधि खरीदेगा और निःशुल्क रोगियों की चिकित्सा करेगा। उसने सोचा कि इससे उसका परोपकार और अपना हरिभजन, दोनों ही हो जाएँगे, इसलिए इस बात की पुष्टि करने के लिए वह श्रील गौरकिशोर प्रभु के पास जाकर गौर-पार्षद श्रीमुरारिगुप्त के प्रसंग की चर्चा करने लगा-

प्रतिग्रह नाहि करे, ना लय का’र धन।
आत्मवृत्ति करि’ करे कुटुम्ब भरण।
चिकित्सा करेन यारे हइया सदय।
देहरोग, भवरोग – दुइ ता’र क्षय।

(चै. च. आ. 10/50-51)

अर्थात् श्रीमुरारी गुप्त जी ने कभी दान ग्रहण नहीं किया, न ही कभी किसी से धन लिया। अपनी रोज़ी से वे अपने परिवार का पालन-पोषण करते थे। जिस प्रकार वे मरीज़ों का इलाज करते थे, उनकी कृपा से देहरोग और भवरोग दोनों ठीक हो जाते थे। श्रीगौरकिशोर प्रभु ने उक्त डाक्टर के नवद्वीप वास और हरिभजन के लिए व्याकुलता के अभिनय में छिपी जो कपटता है, उसे प्रकाशित किया। श्रील गौरकिशोर जी ने कहा, “मुरारिगुप्त महाप्रभु के नित्यपार्षद और नित्य नवद्वीपवासी हैं। नवद्वीप वास की छलना कर, उन्होंने महाप्रभु के धाम को भोग करने का आदर्श कभी भी प्रदर्शित नहीं किया। उन्होंने नवद्वीप में कोई भजन मन्दिर या ठाकुर मन्दिर का व्यवसाय कर, अपना या अपने परिवार का पेट भरने या हरिभजन के छल का आदर्श प्रदर्शित नहीं किया। उन्होंने दानग्रहण नहीं किया और न ही किसी से धन स्वीकार किया। वे साक्षात् महाप्रभु के अप्राकृत प्रेम के भण्डार थे, उनकी कृपा से ही गौर – प्रेम प्राप्त होता है। वे कृपा करके जिनकी चिकित्सा करते हैं, उनके सभी प्रकार के रोग, हमेशा के लिए विनष्ट हा जाते हैं व वे श्रीमन् महाप्रभु की निष्कपट प्रीति प्राप्त करते हैं। उनके चरित्र का अनुसरण न करने से, उनके आदर्श को विकृत करके अनुकरण और उसके द्वारा भजन के नाम पर भोग करने की चेष्टा करने से अनन्तकाल तक सांसारिक दुःख प्राप्त होंगे। आप स्वयं भवरोग के रोगी हैं, फिर आप किस प्रकार दूसरे का रोग दूर करेंगे? पहले रो-रोकर, निष्कपट होकर मुरारिगुप्त जी से कृपा प्रार्थना कीजिए, तभी वास्तविक परोपकार क्या है, यह समझ सकते हैं। श्रीमन् महाप्रभु जी ने एकमात्र हरिनाम करने की निष्कपट बुद्धि को छोड़कर बाकी सभी विचारों को कुबुद्धि कहा है। आप इस प्रकार की कुबुद्धि को छोड़कर श्रवण-कीर्तन करिए। हरिभजन करते-करते किसी की यदि इस प्रकार की अन्याभिलाषा उदित होती है तो उसका सर्वनाश हो जाता है एवं वह व्यक्ति हरिनाम की सेवा से वंचित हो जाता है। निःशुल्क रोगियों की चिकित्सा करने, जड़-प्रतिष्ठा संग्रह और चिन्मय नवद्वीप में वास’- यह दोनों एक साथ नहीं होते। “कर्मी कभी भी चिन्मय नवद्वीप में वास नहीं कर सकता।”

तब उक्त डाक्टर साहब ने श्रील गौरकिशोर दास बाबाजी से प्रश्न किया “तब फिर मेरा क्या कर्त्तव्य है?” बाबाजी महाराज जी ने कहा- “आप यदि वास्तव में नवद्वीप वास करना चाहते हैं तो इन सब सम्बन्धों को सम्पूर्ण रूप में छोड़िए। आपने निःशुल्क चिकित्सा करके विषयी लोगों को विषय चेष्टा की सहायता करने का जो विचार किया है, उस कुविचार का परित्याग कर दीजिए। जो वास्तव में हरिभजन करते हैं, एकमात्र उनके हरिभजन की सहायता छोड़कर अन्य किसी प्रकार की भी सेवा या धर्म, वह सभी घोर बन्ध न का कारण बन जाता है। आपने जिस प्रकार से धाम वास करने की इच्छा की है, उस प्रकार वास करने की अपेक्षा अपने घर वापिस जाकर हरिनाम करने से आप बच सकते हैं। यदि बचना चाहते हैं, तब वही कीजिए। कपटत्तापूर्ण धामवास की छलना नहीं करना।

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एक बार एक नवीन कौपीनधारी ने गौरकिशोर प्रभु के पास कई दिनों तक आने-जाने के बाद कुलिया नवद्वीप की किसी ज़मींदार रानी के राज्य कर्मचारी से पांच-काठा ज़मीन ली। यह सुनकर श्रील गौरकिशोर प्रभु जी ने कहा – “श्रीनवद्वीप धाम अप्राकृत है; यहाँ पर सांसारिक भूमि – अधिकारियों को कैसे जमीन प्राप्त हुई कि उसमें से वे उस कौपीनधारी को पांच काठा ज़मीन देने में सक्षम हुए?

विनिमय में इस ब्रह्माण्ड के सारे रत्न अप्राकृत नवद्वीप के एक रज-कण के मूल्य के समान नहीं हैं। इसलिए कोई ज़मींदार इतना मूल्य कहाँ से प्राप्त करेंगे कि वे नवद्वीप की भूमि को बेचने का अधिकार प्राप्त करेंगे? और उस कौपीनधारी का कितना भजन बल है, कि वह अपने भजन रूपी मुद्राओं के बदले में नवद्वीप में इतनी ज़मीन इकट्ठी करने में सक्षम हुआ है? नवद्वीप धाम में इस प्रकार की सांसारिक बुद्धि रहने से धामवास होना तो दूर की बात है बल्कि अपराध ही होगा। अप्राकृत तत्व नवद्वीप को जो प्राकृत समझता है उसे तो वास्तविक वैष्णवगण, ‘प्राकृत सहजिया’ कहकर सम्बोध न करते हैं।