नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डि स्वामी १०८श्री श्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज

प्रणाम

नमो ॐ गुरुदेवाय धीमते सौम्य-मूर्तये ।
भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती प्रभवे श्रीमहात्मने ।।
विशुद्ध भक्ति सिद्धान्त वाणी प्रचारिणे सते।
सात्त्वत शास्त्र व्याख्या-निपुणाय महात्मने।।
ब्रह्मसूत्र-श्रुति-स्मृतौ-गौड़ीय भाष्य कारिणे।
शास्त्रयुक्त्यास्ततस्तोत्र-विप्रतिपत्तिनाशिने ।।
श्रीसारस्वतः गौड़ीयाधीश सेवा प्रकाशिने।
वैष्णवाचार्य देवाय नित्य कल्याण दायिने ।।

धीमन, सौम्यमूर्ति महात्मा, मदीय श्रील गुरुपादपद्म त्रिदण्डिस्वामी श्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज को हम सब प्रणाम करते हैं।
विशुद्ध भक्तिसिद्धान्त वाणी प्रचारक, सत्, सात्त्वत शास्त्र की सद्व्याख्या में निपुण, ब्रह्मसूत्र वेद एवं स्मृति शास्त्र के गौड़ीय भाष्यकार, यथार्थ शास्त्रीय युक्ति के द्वारा सर्व संशय नाशकारी श्रील गुरुपादपद्य को हम सब प्रणाम करते हैं।

सारस्वत गौड़ियों के अधीश्वर श्रीश्रीराधामदनमोहन, राधागोविन्द एवं राधागोपीनाथ की नित्य सेवा प्रकाशक, वैष्णवाचार्यदेव, आश्रित जन के नित्य कल्याणकामी श्रील गुरुपादपद्म को हम सब प्रणाम करते हैं।

श्रीश्रीसिद्धान्त्याष्टकम्

दुःखाति दुःखानि विदग्धलोकैराराध्यते यस्य पदाब्जरेणुः ।
श्रीरूपसिद्धान्ति महोदयं तं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।।१

यः सत्यसारादि गुणैः समृद्धः गौरप्रियो धर्मपरो यतिश्च।
श्रीरूपसिद्धान्ती महोदयं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।। २

यः सर्वदा सात्वत शास्त्रभाषी श्रीभक्तिमार्गप्रसाराभिलाषी।
श्रीरूपसिद्धान्ती महोदयं तं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।।३

श्रीकृष्णचन्द्रस्य विहार भूमौ वृन्दावने यस्य सदैव चित्यम् ।
श्रीरूपसिद्धान्ती महोदयं तं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।।४

यसैक्षणेनापि नराः स्मरन्ति श्रीकृष्णचन्द्रस्य पदारविन्दम् ।
श्रीरूपसिद्धान्ती महोदयं तं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।।५

संस्थाप्य ‘श्रीगौड़ीयमठं’ सुरम्यं वैकुण्ठवार्त्तामवदत् प्रभुर्यः ।
श्रीरूपसिद्धान्ती महोदयं तं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।।६

कारुण्ययुक्तस्य विरागपूर्ण गौरलीलामृत पान मत्त।
श्रीरूपसिद्धान्ती महोदयं तं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।।७

यस्य प्रसादात् तरति प्रमादं यः धन्यातिधन्योऽखिल दीन लोकः।
श्रीरूपसिद्धान्त महोदयं तं सेव्यं गुरुं नित्यमहं नमामि ।।८

इति श्रीपाद अकिंचन महाराजेन विरचितम्

पूर्वबंग वरिशाल जिला अन्तर्गत साचिलापुर ग्राम के एक धनाढ्य, शिक्षित, एवं धार्मिक परिवार में श्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज ने १३१३ बंगाब्द ५ कार्त्तिक, १२ अक्टुबर सन् १९०६ सोमवार को सुमेधा शुक्ला श्रीपञ्चमी तिथि को पिता श्रीयुक्त गोपाल चन्द्र दे एवं माता श्रीमती राजलक्ष्मी देवी के पुत्र रूप से जन्म ग्रहण किया। मातापिता ने इनका श्रीशिवशंकर दे नाम रखा। शिशुकाल से भगवान् के नाम-रूप-गुण-लीला के प्रति स्वाभाविक रुचि थी। साधु-सन्तों का संग, भगवान् का नाम गान जहाँ होता वहाँ जाकर बैठते और तन्मय होकर सुनते थे। पिता ने बालक शिवशंकर को विद्याध्ययन के लिए झालकाठि स्कूल में भर्ती किया। अस्वाभाविक कृतित्त्व के साथ प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होकर मैट्रिक परीक्षा पास की। बड़े भाई डाः श्रीयोगेश चन्द्र दे महाशय एक प्रख्यात स्वाधीनता संग्रामी थे। शिवशंकर ने भी बड़े भाई का अनुसरण कर स्वाधीनता के लिए विभिन्न स्थानों पर भाषण एवं अभिनय के द्वारा स्वाधीनता संग्राम में सहयोग किया।

सन् १९२३ में एक दिन सुना कि कोलकाता से गौड़ीय मठ के एक दिव्य दर्शनधारी संन्यासी आये हैं और अत्यन्त वीर्यवती ओजस्विनी भाषा में अविराम गीता, भागवत, वेदान्तादि शास्त्र व्याख्या करके सनातन धर्म पर भाषण देकर समस्त लोगों को मोहित कर रहे हैं। शिवशंकर एक दिन अपने सहपाठियों को लेकर श्रीमद्भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज की सभा में उपस्थित हुये और उनके मुख से अपूर्व सुन्दर हरिकथा सुनकर एवं संन्यासी का रूप दर्शन कर मुग्ध हो गये। तब शिवशंकर अपने साथियों को लेकर एक महती सभा का आयोजन करके श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज से उस सभा में सनातन धर्म एवं भागवत धर्म के विषय में कथा सुनाने का विशेष अनुरोध किया। श्रील महाराज ने उस सभा में इनकी इच्छानुसार सनातन धर्म के विषय में श्रीमद्भगवद्गीता का धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे……. यह प्रथम श्लोक उद्धृत कर दो घड़ी तक सुमधुर कण्ठ से सु-सिद्धान्त पूर्ण बहुत प्रकार की व्याख्या करके भाषण दिया और उच्च कण्ठ से भावावेश में अति सुन्दर नृत्य करते हुये महाजन पदावली एवं हरिनाम कीर्तन भी करके सुनाया। वह सुनकर एवं श्रीलमहाराज के दिव्य दर्शन से आकृष्ट होकर श्रील महाराज के श्रीचरण पकड़ कर रोते हुये कहा मैं और संसार में नहीं जाऊँगा मुझे आपके श्रीचरणों में हमेशा के लिए आश्रय दीजिये। मैं हरिभजन करके इस जीवन को सार्थक बनाऊँगा। आप मुझे कृपा कीजिये। इस अवस्था में श्रील महाराज इनको समझाकर श्रील प्रभुपाद भक्ति सिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की कथा सुनाकर उनको साथ में ले आये एवं श्रील प्रभुपाद के चरणों में समर्पण कर दिया। श्रील प्रभुपाद सब कुछ सुनकर शिवशंकर के प्रति बहुत प्रसन्न हुये। १३३० बंगाब्द, फाल्गुन माह, मार्च सन् १९२४ को श्रीगौराविर्भाव शुभ पूर्णिमा तिथि में शिवशंकर को पाञ्चरात्र विधानानुसार श्रीहरिनाम एवं कृष्णमन्त्र दीक्षा प्रदान कर नित्यकाल के लिए श्रील प्रभुपाद ने अपने चरणों में आत्मसात कर लिया। श्रील प्रभुपाद ने श्रीपाद सिद्धस्वरूप दास ब्रह्मचारी पारमार्थिक नाम से इनको विभूषित किया।

श्रील गुरुपादपद्म में रहकर बहुत परिश्रम करके समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया। ब्रह्मचारी रूप में श्रील प्रभुपाद के निर्देश से पूर्ण निर्भीक वक्ता के रूप में विभिन्न शास्त्र सिद्धान्त पूर्ण श्रीचैतन्य महाप्रभु की वाणी एवं श्रीलप्रभुपाद की कथा का उत्साह पूर्वक प्रचार करते रहे। श्रीपाद सिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी द्वारा भारत के विभिन्न स्थानों पर इस प्रकार प्रचार एवं श्रीगुरु-गौरांग सेवा निष्ठा से श्रील प्रभुपाद अतिशय आनन्दित हुये। एक समय पूर्वबंग मयमन सिंग जिला के किशोरगंज की एक महती सभा में सनातन धर्म के विषय में समस्त अपसिद्धान्त को विभिन्न शास्त्र सिद्धान्त युक्ति के द्वारा खण्डन कर भाषण दिया। यह सुनकर स्थानीय एक दुष्ट सम्प्रदाय ने श्रीगौड़ीय मठ की बहुत निन्दा करके पत्रिका के माध्यम से समालोचना छपवाकर प्रचार किया। यह पत्रिका श्रील प्रभुपाद के पास आयी। उस पत्रिका की समालोचना पढ़कर अत्यन्त आनन्द पूर्वक उल्लसित होकर श्रील प्रभुपाद ने कहा- सिद्धस्वरूप ने आज मेरा लाख रुपया का प्रचार किया है। उस प्रकार विरूप एवं विरुद्ध समालोचना से आज के वास्तव धर्म संकट रूप मानव समाज में अपसम्प्रदायी कु-संस्कार, अज्ञान रूप बादल से छाये हुये अंधकार को हटाकर सूर्य के समान पूर्ण रूप से शुद्ध सात्वत ब्रह्ममाध्व गौड़ीय वैष्णव धर्म का प्रचार हुआ। यह देख और विचार कर जिज्ञासु व्यक्तिगण प्रकृत वास्तव सत्य को तत्त्वतः रूप से समझ पायेगा। श्रीपाद ब्रह्मचारी की विशुद्ध भक्तिसिद्धान्त वाणी प्रचार की निपुणता, वैष्णवशास्त्र की सुसिद्धान्त पूर्ण सद्व्याख्या की पारदर्शिता, हरिकथा की सरस माधुर्य मण्डित वाग्मिता, ब्रह्मचर्य की पराकाष्ठा एवं श्रीगुर्वानुगत्य में श्रीहरि-गुरु-भगवान् का आन्तरिक प्रीत्यस्पद सेवादर्श दर्शन करके श्रीगौराविर्भाव शुभ फाल्गुनी पूर्णिमा तिथि पर विश्व-वैष्णव राजसभा में सभापति के रूप में श्रील प्रभुपाद ने श्रीपाद सिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी को १९३२ शकाब्द में उपदेशक, १९३४ शकाब्द में महोपदेशक १९३५ शकाब्द में विद्यावागीश की उपाधि प्रदान कर प्रचुर कृपाशीर्वाद दिया। यह समस्त उपाधि उनके जीवन चरित्र एवं आदर्श में उज्ज्वल तारों के समान सदा ही प्रकाशित है।

एक समय वरिशाल जिला के रामसिद्धि ग्राम में आयोजित एक सभा उसमें सनातन धर्म तत्त्व के विषय पर सिद्धान्त पूर्ण व्याख्या सुनकर सभा में श्रोता के रूप में दो मुसलमान युवक शुद्ध वैष्णवधर्म के प्रति विशेष रूप से आकृष्ट हुये एवं श्रीपाद ब्रह्मचारी के माध्यम से श्रील प्रभुपाद के चरणों में आश्रय लेकर श्रीहरिनाम और दीक्षा ग्रहण करके अपना जीवन सार्थक किया। श्रीपाद ब्रह्मचारी जी सम्पूर्ण रूप से एकनिष्ठ सत्य साधक, सत्य दृष्टा एवं निर्भीक सत्य वक्ता थे। सत्यं ब्रूयात्-प्रियं ब्रूयात्, मा ब्रूयात् सत्यमप्रियम् इस प्रकार लौकिक नीति का कभी समर्थन नहीं किया। पूर्वबंग खुलना जिला की एक सभा में श्रीपाद सिद्धस्वरूप ब्रह्मचारी ने मनुष्य जीवन का कर्त्तव्य एवं सनातन धर्म के विषय में भाषण देते समय उच्चस्वर से ओजस्विनी भाषा में रामकृष्ण परमहंस को एक पाँठा एवं विवेकानन्द को एक गुण्डा बताया। इस प्रकार उन्होंने श्रील प्रभुपाद के कृपानिर्देश से समस्त पूर्व-पश्चिम उत्तर-दक्षिण भारत के विभिन्न स्थानों में श्रीमन्महाप्रभु की विशुद्ध प्रेमभक्ति धर्म की कथा और हरिनाम संकीर्तन प्रचार, श्रील प्रभुपाद की सु-सिद्धान्त पूर्ण हरिकथा प्रचार करके समस्त मानव समाज को अधर्म-कुसंस्कार अपसम्प्रदाय के प्रभाव से मुक्त करके यथार्थ सत्यधर्म का मार्ग दिखाया।

श्रील प्रभुपाद के अन्तर्धान लीला प्रकाश करने से चैतन्य मठ में बहुत अशान्त परिवेश के कारण उन्होंने चैतन्य मठ त्याग कर अपने ज्येष्ठ गुरुभ्राता पूज्यपाद श्रीमद्भक्तिप्रसून बोधायन गोस्वामी महाराज के निकट १३४८ बंगाब्द, सन् १९४१ को शुभ विजया दशमी तिथि पर त्रिदण्ड संन्यास मन्त्र ग्रहण कर त्रिदण्डि भिक्षु श्रीमद्भक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज के नाम से समस्त वैष्णव जगत में ख्याति प्राप्त की। श्रील प्रभुपाद के भावी मनोभीष्ट को पूर्ण करने के लिए श्रील महाराज ने अपने जीवन को संसार कारागार से मुक्त करके अतिमर्त्य जगद्‌गुरु श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर के श्रीचरण कमल में नित्य आश्रय और सेवा प्रदान कर शिक्षा एवं दीक्षा के साथ असीम कृपावारि वर्षण कारी परमार्थ पथ प्रदर्शक ज्येष्ठ गुरुभ्राता परमाराध्य त्रिदण्डि स्वामी श्रीमद्भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज के द्वारा दक्षिण कलकत्ता २९वि, हाजरा रोड स्थित स्थायी रूप से श्रीसारस्वत गौड़ीय मिशन आसन नामक एक बहुत सुन्दर मठ-मन्दिर निर्माण कर १३५१ बंगाब्द, सन् १९४४ में श्रीश्रीगुरु-गौरांग-राधामाधव जू श्रीविग्रह की नित्य सेवा प्रकाश की। श्रीमद्भक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज को श्रीसारस्वत गौड़ीय मिशन आसन के मठाधीश अर्थात् सभापति-आचार्य के रूप में विशेष सम्मानित किया। दुर्भाग्यवश तीन वर्ष बाद सन् १९४७ में माघी पंचमी तिथि में श्रीमद्धक्तिविवेक भारती गोस्वामी महाराज ने अन्तर्धान लीला प्रकाश की।

शिक्षागुरु के रूप में श्रीमद्भक्तिविवेक भारती महाराज के अन्तर्धान के पश्चात् बहुत दुःखी हृदय से आपने गुरु दायित्व आचार्य और सभापति का आसन स्वीकार कर श्रील प्रभुपाद की इच्छानुसार १३५२ बंगाब्द २२ आषाढ़, श्रीधाम पुरी में श्रीसारस्वत गौड़ीय आसन मिशन निर्माण करके श्रीश्रीगुरु-गौरांग गान्धर्विका राधागोविन्द जू की नित्य सेवा प्रकाश की। १३५६ बंगाब्द ७ ज्येष्ठ को श्रीधाम नवद्वीप में श्रीसारस्वत गौड़ीय आसन एवं मिशन निर्माण करके श्रीश्रीगुरु-गौरांग गान्धर्विका राधामदनमोहन जू की नित्य सेवा और श्रीधाम वृन्दावन में श्रीसारस्वत गौड़ीय आसन एवं मिशन निर्माण करके श्रीश्रीगुरु-गौरांग गान्धर्विका राधाविनोद जू की नित्य सेवा प्रकाश की। मायाबद्ध जीव को संसार की अनित्यता समझाकर मोह बन्धन से मुक्त करने के लिए एक सुन्दर उपाय विचार किया। श्रीभगवद् भजन की प्रयोजनीयता समझाने और श्रीहरि आराधना, श्रीहरिनाम संकीर्तन ही एकमात्र मनुष्य जन्म का कर्त्तव्य है, यह समझाने के लिए श्रील महाराज ने बहुत कष्ट उठाये। प्रत्येक मठ के नाट्य मन्दिर में अति सुन्दर शिल्पकला के माध्यम से श्रीदशावतारलीला, श्रीरामलीला, श्रीकृष्णलीला, श्रीगौरलीला एवं छह वेग, एकादश इन्द्रियों की अच्छाई-बुराई यह प्रकाश कर समस्त जीवों का बहुत कल्याण साधन किया। श्रील प्रभुपाद के मनोभीष्ट बृहद् मृदंग की सेवा श्रीमद्भगवद्गीता श्रीमद् बलदेव विद्याभूषण प्रभु के श्रीगोविन्द भाष्य समन्वित तीन खण्ड, वेदान्त सूत्रम् चार खण्ड, सिद्धान्त कणा, ईश, केन, कठ इत्यादि द्वादश उपनिषद्, तत्त्वकणा, श्रीमद्भागवतामृत कणा, श्रीभक्तिरसामृत सिन्धु-बिन्दुः, श्रीउज्ज्वल नीलमणि किरणलेश, अर्चन संक्षेप, महाजन गीत संग्रह, श्रीगोस्वामी ग्रन्थ समूह आदि प्रकाश और शिष्यादि करण के द्वारा श्रील महाराज ने श्रील प्रभुपाद की सेवा एवं जगत् जीव के प्रति नित्य कल्याण प्राप्ति के लिए बहुत कृपा वितरण की। श्रील महाराज ने १३९२ बंगाब्द १७ आश्विन, ४ अक्टूबर सन् १९८५ को कृष्णाषष्ठी मध्यरात के १-०५ बजे कोलकाता हाजरा रोड स्थित निज मठ में अन्तर्धान लीला प्रकाश की।

श्रीलभक्तिश्रीरूप सिद्धान्ती गोस्वामी महाराज के उपदेशामृत

(१) सद्‌गुरु पदाश्रय प्राप्त होना संसाराबद्ध जीव के लिए एक सौभाग्य है एवं विशेष समस्या भी है, इसमें कोई सन्देह नहीं। किन्तु भाग्यवान् जीव के प्रकृत रूप से श्रीकृष्णभजन करने का एकान्त प्रयोजन समझकर सद्‌गुरु प्राप्ति के लिए निष्कपट आकांक्षा एवं आर्त्ति होने पर श्रीकृष्णकृपा से यह सम्भव होता
है। बद्धजीव अत्यन्त लघु, उनके लिए गुरु का गुरुत्व उपलब्ध होना असम्भव है।

(२) जन्म-जन्मान्तरीय भक्त्युन्मुखी सुकृति संचित होने पर किसी भी जन्म में श्रीकृष्णकृपा से श्रीकृष्णभक्त वैष्णव गुरु का दर्शन हो सकता है। उन सद्‌गुरु के श्रीमुख से श्रीकृष्ण कथा व श्रीभागवती कथा श्रवण करते हुये धीर-धीरे जीवन के विषय मोह-आसक्ति का बन्धन, भोग लालसा, अहंकार से मुक्त होकर शुद्धभक्ति प्राप्त करते हैं। भक्तिरानी की कृपा से क्रमानुसार आत्म जिज्ञासा प्रगट होती है। श्रीगुरुदेव की पूर्ण शरणागति एवं सेवा के द्वारा परमार्थ वस्तु तत्त्वतः रूप से उपलब्ध होती है।

(३) संसार में कर्मी, ज्ञानी, योगी आदि कोई भी मुझे अपने खोये हुये घर, पिता-माता के पास पहुँचा नहीं सकेंगे। एकमात्र वैष्णव श्रीकृष्णभक्त ही मुझे नित्य पिठ-माता, नित्य आश्रय, नित्याराध्य एवं नित्य सेव्य श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में ले जा सकते हैं।

(४) शुद्धभक्त की कथा उपदेश हम सबके इन्द्रिय तर्पण के विरुद्ध में जितनी ही कठोर निर्मम हो, वह निष्कपट रूप से काय-मन-वाक्य से आदर प्रीति पूर्वक श्रवण एवं ग्रहण करने से हम सबका वास्तविक नित्य कल्याण अवश्यम्भावी है। किन्तु अपने ज्ञान, विद्या एवं समझदारी के अहंकार से विचार करना शुरु हो जाये तो उसका फल अनन्तकाल के लिए नरकगामी हो जायेगा।

(५) कोई व्यक्ति चतुरता का आश्रय कर शिष्य के रूप में गुरु आश्रय, गुरु सेवा एवं मिथ्या गुरुभक्ति दिखाकर श्रीगुरुदेव का श्रीकृष्णसेवा का विषय भोग करता है तो उसका फल है अनन्त काल तक नरक में रहना। श्रीभगवान् उसको कभी क्षमा नहीं करते। शुद्ध अन्तःकरण से निष्कपट भक्ति-श्रद्धा और प्रीति पूर्वक सरल उदार होकर पूर्ण शरणागति आनुगत्य के साथ श्रीगुरुदेव की सेवा एवं श्रीकृष्णभजन करने से उसका फल, अन्त में श्रीकृष्णलीला में प्रवेश कर श्रीश्रीराधागोविन्द युगलकिशोर के नित्यानन्द स्वरूप श्रीचरणकमल की प्रेमसेवा प्राप्त होना है।