गिरिराज गोवर्धन का इस दुनिया में आविर्भाव कैसे हुआ? गोवर्धन गोलोक-वृंदावन में हैं। वह इस दुनिया में कैसे आ गया? मैं अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में नहीं बोल पाऊंगा। किसी को अनुवाद करना चाहिए। गिरिराज गोवर्धन सर्वोत्तम अप्राकृत धाम गोलोक वृंदावन से है। गर्ग ऋषि ने गर्ग संहिता में लिखा है कि जब राक्षसों द्वारा अत्याचार हुआ तो सभी देवता ब्रह्मा को साथ लेकर ‘क्षीर सागर’ गए। पृथ्वी देवी अब राक्षसों द्वारा किए गए पापों का बोझ नहीं उठा सकती थी। इसलिए वह ब्रह्मा के पास आई और उन्हें राक्षसों द्वारा किए गए पापों के बोझ को सहन करने में अपनी असमर्थता के बारे में बताते हुए उनसे रक्षा के लिए प्रार्थना की। ब्रह्मा ने उससे कहा कि वे सभी देवताओं के साथ ‘क्षीर सागर’ में भगवान विष्णु के पास जायेंगे। और सब ने वहाँ जाकर भगवान् से प्रार्थना की।
इस जगत में प्रकट होने की भगवान की इच्छा हुई। तब उन्होंने श्रीमती राधारानी को पहले इस संसार में अवतरित होने के लिए कहा, किन्तु उन्होंने कहा, ” जहाँ यमुना और गोवर्धन नहीं हैं, ऐसे स्थान पर मेरी जाने की इच्छा नहीं है।” उनकी बात सुनकर, भगवान कृष्ण ने अपने 84 कोस के अप्राकृत गोलोक धाम को इस संसार में अवतरित किया, किन्तु गोवर्धन को शाल्मली-द्वीप नामक स्थान पर द्रोण पर्वत के पुत्र के रूप में प्रकट किया।
हमारे सनातन धर्म के विचार को हम नहीं समझ सकते हमें संदेह हो सकता है कि एक पर्वत का पुत्र कैसे हो सकता है? गंगा देवी हिमालय पर्वत की पुत्री है (गंगा नदी की अधिष्ठात्री देवी), जो मकर-वाहिनी (मगरमच्छ पर सवार होती) हैं। हम सोचते हैं कि गंगा देवी कैसे हो सकती है। यह एक नदी है। इसी प्रकार सूर्य के अधिष्ठाता देवता हैं जिन्हें सूर्य देवता कहा जाता है। यह वैदिक दृष्टिकोण है कि जब तक शरीर के पीछे चेतना है, उसका अस्तित्त्व है।चेतना शरीर छोड़ देगी तो शरीर भी नष्ट हो जायेगा। यहां तक कि यह इमारत में चेतन प्राणी रहते हैं नहीं तो वह कुछ समय में गिर जायेगी, चेतन पीछे में नहीं रहने से किसी का संरक्षण नहीं हो पायेगा, इसी तरह समुद्र के पीछे समुद्र देवता और दस दिशाओं को नियंत्रित करने वाले दस देवता भी हैं। तो यह वैदिक दृष्टिकोण है जिसे समझना हमारे लिए कठिन है।
गिरिराज गोवर्धन भारतवर्ष के पश्चिमी भाग में स्थित शाल्मली-द्वीप में एक पर्वत द्रोण के पुत्र के रूप में प्रकट हुए। ऋषि पुलस्त्य जो ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। वे काशी-धाम में विश्वनाथ (शिव) के पास तपस्या कर रहे थे। एक बार उनको भारत-वर्ष के विभिन्न तीर्थ स्थलों की यात्रा करने की इच्छा हुई, भारत को धर्म-भूमि कहा जाता है, यहाँ पर बहुत तीर्थ स्थान हैं। शाल्मली-द्वीप की यात्रा करते समय, वे गिरिराज गोवर्धन की सुंदरता को देखकर मंत्रमुग्ध हो गए। वहाँ वे सुन्दर लता, फल-फूल से लदे नाना प्रकार के वृक्ष, सुन्दर बैठक स्थान, झरने, मुलायम घास ईत्यादि से सुशोभित गोवर्धन पर्वत की अद्भूत शोभा देखकर मंत्रमुग्ध हो गए।। वे गोवर्धन के पिता द्रोण पर्वत के पास गए, उन्होंने पुलस्त्य ऋषि का योग्य सत्कार किया। पुलस्त्य ऋषि ने कहा, “जब मैं इस द्वीप की यात्रा कर रहा था, मैंने आपके पुत्र को सुंदर गोवर्धन देखा। मैं आपसे विनती करता हूं कि आप उसे मुझे दे दें।” पुत्र के प्रति स्नेह के कारण, पर्वत द्रोण अपने पुत्र गोवर्धन को पुलस्त्य ऋषि के साथ जाने नहीं देना चाहते थे। किन्तु उन्हें इस बात का भी भय था कि यदि ऋषि उनके पुत्र को श्राप देंगे तो उससे गोवर्धन का अकल्याण होगा। इसलिए अनिच्छा से वे पुलस्त्य ऋषि के प्रस्ताव पर सहमत हो गए।
उस समय गिरिराज गोवर्धन चौंसठ मील लंबा, चालीस मील चौड़ा और सोलह मील ऊंचा था। वर्तमान में इसकी लंबाई केवल सात मील है। पुलस्त्य सोच रहे थे कि वे गोवर्धन को कैसे उठाएंगे। अंत में, ऋषि ने उन्हें अपने हाथ की हथेली पर ले जाने का निर्णय किया। वे सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के पुत्र हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है कि उनका हाथ इस प्रकार है कि वे गोवर्धन को ले जा सके। इसलिए उन्होंने गोवर्धन से कहा कि मैंने तुम्हारे पिता से अनुमति ले ली है और तुम मेरी हथेली पर बैठ जाओ। गोवर्धन ऋषि के साथ जाने के लिए तैयार हो गए लेकिन एक शर्त रखी। शर्त यह है कि ऋषि को उसे सीधे उस स्थान पर ले जाना होगा जहाँ वे उसे ले जाना चाहते थे।गंतव्य स्थान पर पहुँचने से पहले यदि वे बीच में कहीं भी उसे नीचे रख दे, तो वह वहीं रहेगा और उस स्थान से आगे कहीं भी नहीं जाएगा। ऋषि ने उसकी शर्त मान ली और गोवर्धन से कहा कि वे उसे सीधे काशी-धाम ले जाना चाहते हैं जहाँ वे तपस्या करते हैं। अच्छा होगा कि गोवर्धन उनके साथ काशीधाम में रहे।
पाश्चात्य देश के लोग इतने बड़े गोवर्धन को ऋषि की हथेली पर ले जाने की इस घटना को मिथ्या या कल्पना कहते हैं। लेकिन यह न तो कल्पना है और न ही मिथ्या, यह वास्तविक है। यह हमारी बुद्धि से परे है। ऋषि गिरिराज को हथेली पर लेकर अपने गंतव्य की ओर धीरे-धीरे चलने लगे। काशी-धाम की जाते समय रास्ते में जब वे वृंदावन-धाम पहुंचे और जैसे ही गोवर्धन ने वृंदावन के वन, यमुना, मोर और राधा-कृष्ण के अन्य लीला स्थानों को देखा, उनकी वृन्दावन छोड़कर कहीं और जाने की इच्छा नहीं हुई। ऐसा सोचकर गोवर्धन, जो स्वयं भगवान हैं, अचानक बहुत भारी हो गए। गोवर्धन को अचानक बहुत भारी देखकर पुलस्त्य ऋषि बहुत चकित हुए। उन्होंने अपनी यात्रा में कहीं भी गोवर्धन को नीचे नहीं रखने का वचन दिया था, उसे वे भूल गए। उन्होंने गोवर्धन को निचे रख दिया और वे संध्या-वंदन इत्यादि करने के लिए शौच करने के लिए गए। संध्या-वंदन इत्यादि करने के बाद, ऋषि पुलस्त्य ने गोवर्धन को अपनी हथेली पर फिर से बैठने के लिए कहा, गोवर्धन अपने स्थान नहीं हटे और न ही उनको कुछ उत्तर दिया। ऋषि गोवर्धन को याद दिलाया कि उनके पिता ने उन्हें उनके साथ उनके स्थान पर जाने के लिए कहा था किन्तु वे फिर भी चुप रहे। तब उन्होंने गोवर्धन को बलपूर्वक उठाने का प्रयास कीया किन्तु वे इतने भरी हो गए थे कि ऋषि उनको उठा ही नहीं पाए। पहले
तो गोवर्धन की इच्छा से, ऋषि उठाकर लाने में सक्षम थे, किन्तु जब उन्होंने वृंदावन में रहने की इच्छा की तो ऋषि उन्हें अपने स्थान से स्थानांतरित करने में समर्थ नहीं हो पाए। गोवर्धन को ले जाने में असमर्थ होने के कारण, ऋषि पुलस्त्य गोवर्धन पर बहुत क्रोधित हो गए। उन्होंने गोवर्धन को यह कहते हुए श्राप दिया कि वह प्रतिदिन एक तिल के प्रमाण अनुसार आकार में क्षय हो जाएगा।
तो श्राप के अनुसार गोवर्धन का आकार प्रतिदिन छोटा होता जा रहा है और अब यह आकार में इतना छोटा हो गया है। एक दिन, वह पूरी तरह से अंतर्धान हो जाएगा। जब तक गोवर्धन रहेगा तब तक कली अपना प्रभाव प्रचंड रूप से नहीं दिखा पाएगा। जब गंगा और गिरिराज गोवर्धन पूरी तरह से अंतर्धान हो जाएंगे, तो कली का प्रभाव अपने चरम पर होगा। यद्यपि हम वर्तमान में कली के प्रभाव को देख रहे हैं, किन्तु यह अभी भी अपने चरम पर नहीं है, बाद में वह भयंकर मूर्ति धारण करेगा।
गोवर्धन वृंदावन में रह गया और पुलस्त्य ऋषि वहाँ से चले गए। वृंदावन में गोवर्धन को देखकर, हिमालय और सुमेरु जैसे बड़े पहाड़ उन्हें प्रणाम करने लिए वहाँ आए। गोवर्धन जो भगवान कृष्ण की लीलाओं का स्थान है।वही गोवर्धन शाल्मली-द्वीप में द्रोण पर्वत के पुत्र के रूप में प्रकट हुए और अब वृंदावन आ गए हैं। जब सब ने यह सुना तो सभी पहाड़ों ने आकर उनको प्रणाम किया और स्तव-स्तुति की। गोवर्धन में भगवान कृष्ण,जो अवतारी हैं की विहार-स्थली है, इसलिए वे सभी पहाड़ों में सर्वोत्तम हैं और उन्हें गिरिराज के नाम से जाना जाता है।
हिमालय जैसे पर्वतों की तुलना में गोवर्धन आकार में भले ही छोटे लगते हों, लेकिन गुणों की दृष्टि से वे सर्वोत्तम हैं।
गिरिराज गोवर्धन के बारे में यहाँ लिखा है:
श्रील शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज से कहते हैं:
श्री शुक उवाच
भगवानपि तत्रैव बलदेवेन संयुत: ।
अपश्यन्निवसन्गोपानिन्द्रयागकृतोद्यमान् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.1)
(शुकदेव गोस्वामी ने कहा: अपने भाई बलदेव के साथ उसी स्थान पर रहते हुए, भगवान कृष्ण ने ग्वालों को इंद्र के लिए यज्ञ की व्यवस्था करने में व्यस्त देखा।)”
ऋग्वेद में वर्णित भारत के सब से प्राचीन इतिहास इसका उल्लेख किया गया है जिसके अनुसार बादलों के संरक्षक देवता/ वर्षा के अधिष्ठाता देवता, इंद्र की पूजा पृथ्वी पर की जाती थी, ताकि उचित समय पर और पर्याप्त मात्रा में वर्षा हो जिससे धन-धान्य इत्यादि की पैदावार अच्छी हो। उन दिनों लोग इंद्र के नाम आहुति या यज्ञ करते थे। इस प्रकार के यज्ञ असम, बंगाल आदि स्थानों में नहीं देखे जाते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि साधारणतः पर उन स्थानों पर इतनी अधिक वर्षा होती है कि वहाँ बाढ़ आती है, इसलिए उचित फसल के लिए वर्षा होने के लिए इंद्र को कोई आहुति देने की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन एक बार जब मैं जालंधर में था, जहां बारिश नहीं हो रही थी, मैंने देखा कि एक जगह पर एक यज्ञ किया जा रहा है। मैंने किसी से पूछा कि यह किस प्रकार का यज्ञ है और क्यों किया जा रहा है। उन्होंने मुझे बताया कि बारिश की कमी के कारण गर्मी से राहत पाने के लिए इंद्र-याग अर्थात इंद्र के लिए यह यज्ञ किया जाता है। इस यज्ञ के बाद शाम को हल्की बारिश हुई।
इस प्राचीन प्रथा का पालन करते हुए नंद महाराज अन्य गोपों के साथ प्रतिवर्ष राजा इंद्र की प्रसन्नता के लिए इस यज्ञ को करते थे। कृष्ण ने जब इन्द्र-याग करने के कारण के बारे में पूछा तो नंद-महाराज ने कहा, ” यदि इन्द्र की प्रसन्नता हो तो उचित समय पर पर्याप्त वर्षा होगी और अच्छी फसल होगी। यद्यपि हम लोग वैश्य (व्यापारी वर्ग) हैं खेती, व्यापार, गायों की सुरक्षा और धन-उधार देना वैश्यों की आजीविका है, किन्तु किन्तु व्रजवासियों ने केवल गायों के संरक्षण को अपनी आजीविका का मुख्य साधन माना है। गायों को अपना भोजन तभी मिलेगा जब पर्याप्त मात्रा में फसल होगी। फिर वे दूध का उत्पादन करेंगे जिसे बेचकर हम जीवन यापन कर करेंगे। हम पहाड़ियों में स्थित जंगलों में निवास करते हैं। इसी कारण हम प्रतिवर्ष यह यज्ञ किया करते हैं।”
कृष्ण ने देखा कि इस यज्ञ के लिए ढेर सारा सामान एकत्र हो गया है।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा, “हे राजन, भगवान कृष्ण और बलराम ने एकबार देखा कि इंद्र-याग के लिए बहुत सारा सामान इक्कठा हो गया है।”
तदभिज्ञोऽपि भगवान् सर्वात्मा सर्वदर्शन: ।
प्रश्रयावनतोऽपृच्छद् वृद्धान् नन्दपुरोगमान् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.2)
श्रीगर्गाचार्य ने गर्ग-संहिता में नंद महाराज और वृद्ध सलाहकार गोप सनंद के बीच हुए वार्तालाप के अंतर्गत इस संसार में श्रीगोवर्धन के अवतरण के विषय में वर्णन आता है। सानंद ने पांडु और भीष्म के बीच के वार्तालाप का संदर्भ देते हुए इस प्रसंग का वर्णन किया।
कथ्यतां मे पित: कोऽयं सम्भ्रमो व उपागत: ।
किं फलं कस्य वोद्देश: केन वा साध्यते मख: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.3)
भगवान् सब कुछ जानते हैं फिर भी उन्होंने अपने पिता से पूछा, “आपने इस यज्ञ की इतनी व्यवस्था की है, उसे करने का उद्देश्य क्या है? इस यज्ञ को करने से क्या फल मिलेगा? यह यज्ञ किस देवता के लिए है? इस यज्ञ को करने के लिए किन द्रव्यों का उपयोग किया जाना चाहिए? मैं इन सब के बारे में सुनना चाहता हूँ।”
एतद् ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पित: ।
न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ।
अस्त्यस्वपरदृष्टीनाममित्रोदास्तविद्विषाम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.3)
कृष्ण ने आगे कहा, “हे पिता, मुझे इस यज्ञ बारे में जानने की बहुत इच्छा हो रही है। तो कृपया मुझे ये सब बातें समझाएं।”
कृष्ण देखा कि उनके प्रश्नों को सुनकर सब मौन है। कोई भी उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए इच्छुक नहीं है। तब उन्होंने कहा कि जो साधु दूसरों को अपने समान देखते हैं, जो ‘आत्म-पर भेद शुन्य’ अर्थात् जिन्हें ‘मेरा’ या ‘दूसरे का’ इस प्रकार का कोई भेद विचार नहीं है, जो यह नहीं मानते कि कौन मित्र है और कौन शत्रु है और जो तटस्थ हैं, वे कभी भी कुछ भी गुप्त नहीं रखते हैं। साधु कभी कुछ गोपन नहीं रखते।”
व्रजवासी हमेशा कृष्ण को अपने प्यारे छोटे बच्चे के रूप में देखते हैं और इसलिए उन्होंने सोचा कि एक बच्चे से ये सब बातें कहने का क्या फायदा है।
उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.5)
उदासीन व्यक्ति शत्रु की तरह वर्जनीय है, क्योंकि इससे किसी को कोई लाभ नहीं होगा। किन्तु सुहृद व्यक्ति को आत्म-तुल्य समझते हुए उस पर विश्वास करना चाहिए। मैं तो आपका सुहद हूँ मुझसे कुछ गोपन रखना ठीक नहीं है।
ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।
विदुष: कर्मसिद्धि: स्याद् यथा नाविदुषो भवेत् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.6)
इस जगत में कोई-कोई लोग ‘वे क्या कर्म कर रहे हैं और उसका उद्देश्य क्या है’ इस विषय में जानकर कर्म करते हैं किन्तु कोई कोई लोग उद्देश्य जाने बिना ही कर्म-अनुष्ठान करते हैं। जो लोग अपने कर्म और उसके उद्देश्य के बारे में जानते हुए कर्म करते हैं वे अपने कर्म में सफलता प्राप्त करते हैं, उसे अच्छे से पूर्ण कर पाते हैं, किन्तु जो नहीं जानते हैं उनका ऐसा नहीं होता है। इसलिए केवल मात्र गतानुगति (उद्देश्य जाने बिना बाकि लोग करते हैं तो हम भी कर लेते है यह विचार) अनुसार कर्म नहीं करना चाहिए। व्यक्ति को अपने सुहृद के साथ विचार-विमर्श करके ही कर्म-अनुष्ठान करना चाहिए।
तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारित: ।
अथवा लौकिकस्तन्मे पृच्छत: साधु भण्यताम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.7)
कृष्ण कहते हैं कि आपका यह कर्म-अनुष्ठान क्या शास्त्रों के निर्देशानुसार है या कोई लोकाचार (साधारण समाज की एक प्रथा) है? कोई भी कार्य युक्ति-सांगत होना चाहिए।
श्रीनन्द उवाच
पर्जन्यो भगवानिन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तय: ।
तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पय: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.8)
नंद महाराज ने उत्तर दिया, “भगवान इंद्र बादल के अधिपति हैं। मेघ जो स्थावर-जंगम सभी प्राणियों के लिए हितकर है, मृतप्राय सुखी घास भी वर्षा का जल मिलने से फिर से जीवंत हो जाती है। जल के बिना समस्त जीव-जंतु नष्ट हो जाएँगे।”
तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।
द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नरा: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.9)
“न केवल हम बल्कि कई अन्य लोग भी उसकी पूजा करते हैं। जिनकी कृपा से वर्जोषा होकर धन-धन्य उत्पान होते हैं , उन वर्षा देने वाले बादलों के अधिपति की उनकी कृपा द्वारा उत्पन्न धन-धान्य आदी द्वारा उपासना नहीं करना उचित नहीं होगा, बुद्धिमान व्यक्ति अवश्य ही उनकी उपासना करेगा। ”
देवराज इंद्र की वजह से वर्षा हो रही है। क्या हमें उनकी पूजा नहीं करनी चाहिए जो हमें वर्षा प्रदान करते हैं?
तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।
पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्य: फलभावन: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.10)
“जीव वर्षा के कारण उत्पन्न धन-धान्य पर जीवित रहते हैं। वर्षा के कारण धर्म, अर्थ और काम संपादन हो पाता है। कृषि-कर्म (खेती) जीवों के लिए जीवन का उपाय है। कृषि-कर्म का फल वर्षा के कारण ही संभव है, वर्षा के बिना खेती कैसे होगी? जिसके अधिपति देवराज इंद्र है।” इस प्रकार नंद महाराज युक्ति दे रहे हैं।
य एनं विसृजेद् धर्मं परम्पर्यागतं नर: ।
कामाद् द्वेषाद्भयाल्लोभात्स वै नाप्नोति शोभनम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.11)
सब जानते हुए भी जो वासना, शत्रुता, भय या लोभ के कारण परंपरागत धर्म को अस्वीकार कर देता है, कभी भी उसका मंगल नहीं होता है।
श्रीशुक उवाचं
वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।
इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशव: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.12)
शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज को कहते है,”कृष्ण को ‘दर्प-हरि’ कहा जाता है – अभिमान का नाश करने वाला। उन्होंने देवराज इंद्र के गर्व को दूर करने के लिए गोवर्धन उठाने का लीला प्रदर्शन किया। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी श्री गिरिराज गोवर्धन के प्रति अपनी प्रार्थना में लिखते हैं,
निजपतिभुजदण्डच्छत्रभावं प्रपद्य
प्रतिहतमदधृष्टोद्दण्डदेवेन्द्रगर्व ।
अतुलपृथुलशैलश्रेणिभूप प्रियं मे
निजनिकटनिवासं देहि गोवर्धन त्वम् ॥
(श्री गोवर्धन-वासा-प्रार्थना-दशकम्)
हे गिरिराज गोवर्धन! देवराज इंद्र के अभिमान को नष्ट करने के लिए आप भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उठाए गए हैं। आप सभी पर्वतों में श्रेष्ठ हैं।आप मेरे प्रिय हैं। इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अपने निकट में निवास-स्थान प्रदान करें।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा, “देवराज इंद्र को क्रोधित करने के लिए, श्रीकृष्ण ने नंद महाराज को इस प्रकार संबोधित किया।”
एतद् ब्रूहि महान् कामो मह्यं शुश्रूषवे पित: ।
न हि गोप्यं हि साधूनां कृत्यं सर्वात्मनामिह ।
अस्त्यस्वपरदृष्टीनाममित्रोदास्तविद्विषाम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.3)
कृष्ण ने आगे कहा, “हे पिता, मुझे इस यज्ञ बारे में जानने की बहुत इच्छा हो रही है। तो कृपया मुझे ये सब बातें समझाएं।”
कृष्ण देखा कि उनके प्रश्नों को सुनकर सब मौन है। कोई भी उनके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए इच्छुक नहीं है। तब उन्होंने कहा कि जो साधु दूसरों को अपने समान देखते हैं, जो ‘आत्म-पर भेद शुन्य’ अर्थात् जिन्हें ‘मेरा’ या ‘दूसरे का’ इस प्रकार का कोई भेद विचार नहीं है, जो यह नहीं मानते कि कौन मित्र है और कौन शत्रु है और जो तटस्थ हैं, वे कभी भी कुछ भी गुप्त नहीं रखते हैं। साधु कभी कुछ गोपन नहीं रखते।”
व्रजवासी हमेशा कृष्ण को अपने प्यारे छोटे बच्चे के रूप में देखते हैं और इसलिए उन्होंने सोचा कि एक बच्चे से ये सब बातें कहने का क्या फायदा है।
उदासीनोऽरिवद् वर्ज्य आत्मवत् सुहृदुच्यते ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.5)
उदासीन व्यक्ति शत्रु की तरह वर्जनीय है, क्योंकि इससे किसी को कोई लाभ नहीं होगा। किन्तु सुहृद व्यक्ति को आत्म-तुल्य समझते हुए उस पर विश्वास करना चाहिए। मैं तो आपका सुहद हूँ मुझसे कुछ गोपन रखना ठीक नहीं है।
ज्ञात्वाज्ञात्वा च कर्माणि जनोऽयमनुतिष्ठति ।
विदुष: कर्मसिद्धि: स्याद् यथा नाविदुषो भवेत् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.6)
इस जगत में कोई-कोई लोग ‘वे क्या कर्म कर रहे हैं और उसका उद्देश्य क्या है’ इस विषय में जानकर कर्म करते हैं किन्तु कोई कोई लोग उद्देश्य जाने बिना ही कर्म-अनुष्ठान करते हैं। जो लोग अपने कर्म और उसके उद्देश्य के बारे में जानते हुए कर्म करते हैं वे अपने कर्म में सफलता प्राप्त करते हैं, उसे अच्छे से पूर्ण कर पाते हैं, किन्तु जो नहीं जानते हैं उनका ऐसा नहीं होता है। इसलिए केवल मात्र गतानुगति (उद्देश्य जाने बिना बाकि लोग करते हैं तो हम भी कर लेते है यह विचार) अनुसार कर्म नहीं करना चाहिए। व्यक्ति को अपने सुहृद के साथ विचार-विमर्श करके ही कर्म-अनुष्ठान करना चाहिए।
तत्र तावत् क्रियायोगो भवतां किं विचारित: ।
अथवा लौकिकस्तन्मे पृच्छत: साधु भण्यताम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.7)
कृष्ण कहते हैं कि आपका यह कर्म-अनुष्ठान क्या शास्त्रों के निर्देशानुसार है या कोई लोकाचार (साधारण समाज की एक प्रथा) है? कोई भी कार्य युक्ति-सांगत होना चाहिए।
श्रीनन्द उवाच
पर्जन्यो भगवानिन्द्रो मेघास्तस्यात्ममूर्तय: ।
तेऽभिवर्षन्ति भूतानां प्रीणनं जीवनं पय: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.8)
नंद महाराज ने उत्तर दिया, “भगवान इंद्र बादल के अधिपति हैं। मेघ जो स्थावर-जंगम सभी प्राणियों के लिए हितकर है, मृतप्राय सुखी घास भी वर्षा का जल मिलने से फिर से जीवंत हो जाती है। जल के बिना समस्त जीव-जंतु नष्ट हो जाएँगे।”
तं तात वयमन्ये च वार्मुचां पतिमीश्वरम् ।
द्रव्यैस्तद्रेतसा सिद्धैर्यजन्ते क्रतुभिर्नरा: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.9)
“न केवल हम बल्कि कई अन्य लोग भी उनकी पूजा करते हैं। जिनकी कृपा से वर्षा होकर धन-धन्य उत्पन्न होते हैं, उन वर्षा देने वाले बादलों के अधिपति की कृपा द्वारा उत्पन्न धन-धान्य आदी द्वारा उनकी उपासना नहीं करना उचित नहीं होगा, बुद्धिमान व्यक्ति अवश्य ही उनकी उपासना करेगा।”
देवराज इंद्र की वजह से वर्षा हो रही है। क्या हमें उनकी पूजा नहीं करनी चाहिए जो हमें वर्षा प्रदान करते हैं?
तच्छेषेणोपजीवन्ति त्रिवर्गफलहेतवे ।
पुंसां पुरुषकाराणां पर्जन्य: फलभावन: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.10)
“जीव वर्षा के कारण उत्पन्न धन-धान्य पर जीवित रहते हैं। वर्षा के कारण धर्म, अर्थ और काम संपादन हो पाता है। कृषि-कर्म (खेती) जीवों के लिए जीवन का उपाय है। कृषि-कर्म का फल वर्षा के कारण ही संभव है, वर्षा के बिना खेती कैसे होगी? और वर्षा के अधिपति देवराज इंद्र है।” इस प्रकार नंद महाराज युक्ति दे रहे हैं।
य एनं विसृजेद् धर्मं परम्पर्यागतं नर: ।
कामाद् द्वेषाद्भयाल्लोभात्स वै नाप्नोति शोभनम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.11)
सब जानते हुए भी जो वासना, शत्रुता, भय या लोभ के कारण परंपरागत धर्म को अस्वीकार कर देता है, कभी भी उसका मंगल नहीं होता है।
श्रीशुक उवाचं
वचो निशम्य नन्दस्य तथान्येषां व्रजौकसाम् ।
इन्द्राय मन्युं जनयन् पितरं प्राह केशव: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.12)
शुकदेव गोस्वामी परीक्षित महाराज को कहते है,”कृष्ण को ‘दर्प-हरि’ कहा जाता है – अभिमान का नाश करने वाला। उन्होंने देवराज इंद्र के गर्व को दूर करने के लिए गोवर्धन उठाने का लीला प्रदर्शन किया। श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी श्री गिरिराज गोवर्धन के प्रति अपनी प्रार्थना में लिखते हैं,
निजपतिभुजदण्डच्छत्रभावं प्रपद्य
प्रतिहतमदधृष्टोद्दण्डदेवेन्द्रगर्व ।
अतुलपृथुलशैलश्रेणिभूप प्रियं मे
निजनिकटनिवासं देहि गोवर्धन त्वम् ॥
(श्री गोवर्धन-वासा-प्रार्थना-दशकम्)
हे गिरिराज गोवर्धन! देवराज इंद्र के अभिमान को नष्ट करने के लिए आप भगवान श्रीकृष्ण द्वारा उठाए गए हैं। आप सभी पर्वतों में श्रेष्ठ हैं।आप मेरे प्रिय हैं। इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि मुझे अपने निकट में निवास-स्थान प्रदान करें।
शुकदेव गोस्वामी ने कहा, “देवराज इंद्र को क्रोधित करने के लिए, श्रीकृष्ण ने नंद महाराज को इस प्रकार कहा।”
श्रीभगवानुवाच
कर्मणा जायते जन्तु: कर्मणैव प्रलीयते ।
सुखं दु:खं भयं क्षेमं कर्मणैवाभिपद्यते ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.13)
भगवान ने कहा, “जीव अपने कर्म अनुसार ही जन्म लेता है और मृत्यु को प्राप्त करता है। सुख, दुःख, भय और शुभ इत्यादि सब कुछ कर्मानुसार प्राप्त होता है,अच्छे कर्म का अच्छा फल और बुरे कर्म का बुरा फल मिलता है।
अस्ति चेदीश्वर: कश्चित्फलरूप्यन्यकर्मणाम् ।
कर्तारं भजते सोऽपि न ह्यकर्तु: प्रभुर्हि स: ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.14)
यद्यपि जीवों के कर्मों के फल को नियंत्रित करने वाला एक परमेश्वर है, तब भी वह परमेश्ववर भी जीवों के कर्मों के अनुसार ही उनके फल देता है। कर्म का फल भगवान नियंत्रित करते हैं।
यद्यपि जीवों के कर्मों के फल को नियंत्रित करने वाला एक परमेश्वर है, तब भी वह परमेश्ववर भी जीवों के कर्मों के अनुसार ही उनके फल देता है। कर्म का फल भगवान नियंत्रित करते हैं।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि ॥
(श्रीमद्भगवद गीता 2.47)
किमिन्द्रेणेह भूतानां स्वस्वकर्मानुवर्तिनाम् ।
अनीशेनान्यथा कर्तुं स्वभावविहितं नृणाम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.15)
“जीव को अपने कर्मों का फल मिलता है। देवराज इंद्र का फलों पर नियंत्रण नहीं है, तो उनकी पूजा करने से क्या लाभ है?”
परमात्मा हर जीव के हृदय में निवास करता है। उपनिषद में जीव के शरीर की तुलना उस पेड़ से की गई है जिसकी शाखा पर दो पक्षी रहते हैं, उनमें से एक कर्म कर रहा है और दूसरा उसका साक्षी है। यहाँ जो पक्षी (अच्छे और बुरे) कर्म करता है वह आत्मा है और जो पक्षी अपने कर्मों को देख रहा है वह परमात्मा है, जो सबके प्रति निष्पक्ष होकर आत्मा के सभी कर्मों के फल को नियंत्रित करता है। कृष्ण कहते हैं, “यदि ऐसा है तो इंद्र की पूजा करने से क्या लाभ? मैं यह नहीं समझ पा रहा हूँ।”
स्वभावतन्त्रो हि जन: स्वभावमनुवर्तते ।
स्वभावस्थमिदं सर्वं सदेवासुरमानुषम् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.16)
“ब्रह्मांड के सभी जीव अपनी स्वभाव के अनुसार कार्य करते हैं जो वे तीन मूल गुणों-सत्व, रज और तम के आधार पर प्राप्त करते हैं।”
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं
स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ: ।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं
निष्किञ्चनानां न वृणीत यावत् ॥
(श्रीमद्भागवतम् 10.24.17)
जीव को उसके कार्यों (कर्म) के आधार पर देव या तिर्यक अर्थात् उच्च और निम्न श्रेणी के भौतिक शरीर मिलते हैं।और कर्मानुसार फिर उनको छोड़ देते हैं। कर्म ही उसका शत्रु या मित्र है और सब कुछ नियंत्रित कर रहा है।
श्रीकृष्ण कहते हैं, “क्या इन्द्र अच्छे कर्म करने वाले को कुछ बुरे फल दे सकता है या बुरे कर्म करने वाले को अच्छा फल दे सकता है, उसे उस बुरे कर्म के फल से उद्धार कर सकता है? वह नहीं कर सकता। इसलिए मेरे मतानुसार इन्द्र की करने से कोई लाभ नहीं है। वह कर्माधीन देवता है। हम गोवर्धन और इन वनों की शरण में हैं। आप कहते हैं व्रजवासी वनवासी, पर्वतवासी है, तब वन और पर्वत ही हमारा आश्रय है। गोवर्धन हमें भोजन देता है। जो हमें भोजन देता है उसकी सेवा और पूजा करनी चाहिए। जिस प्रकार पति को छोड़कर पतिव्रता स्त्री किसी अन्य व्यक्ति की सेवा करके वास्तविक कल्याण प्राप्त नहीं कर सकती, उसी प्रकार हमारा रक्षण और पालन करनेवाले गिरिराज गोवर्धन की सेवा छोड़कर, व्रजवासी दूसरों की सेवा करके वास्तविक कल्याण प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए यदि आपको मुझ पर विश्वास है तो मेरा यह विचार है कि इंद्र की पूजा के लिए एकत्र किए गए सभी द्रव्यों के साथ, हमें गिरिराज गोवर्धन की पूजा करनी चाहिए। ”
नंद महाराज को कृष्ण से बहुत आसक्ति है इसलिए उन्होंने दूसरों से कहा, “कनैया ऐसा कह रहा है। क्या करें? उसकी राय के अनुसार कार्य करने से अच्छा है।”
तब वे सभी कृष्ण की बात मानने के लिए तैयार हो गए। कृष्ण ने सभी को उनके पास जितना दूध, दही और अन्य दुग्ध उत्पादों है उनको लाने के लिए कहा और उनसे विभिन्न प्रकार के व्यंजन बनाये गए। गिरिराज गोवर्धन को विभिन्न प्रकार के से बहुत व्यंजन भोग लगाये गए। अन्नकूट अर्थात् चावल का पहाड़, पुरी आदि के ढेर, लड्डू और कई प्रकार की मिठाईयां और सब्जी व्यंजन का भोग निवेदन किया गया। पता नहीं यहाँ कितने प्रकार के व्यंजनों का भोग लगा है।? (भक्तों ने कहा कि 200 से अधिक प्रकार के व्यंजन भोग लगाये गए हैं)। कोलकाता के बागबाजार गौड़िया मठ में एक बार गिरिराज गोवर्धन को 2500 प्रकार के वस्तुओं का भोग निवेदन किया गया था। उन्होंने मिठाइयों का मंदिर बनाया था।
व्रजवासियों को यह बताने के लिए कि गिरिराज गोवर्धन कृष्ण से अभिन्न हैं,श्रीकृष्ण ने स्वयं पर्वत का रूप धारण किया और बार-बार उच्च स्वर में कहा, “मैं ही गोवर्धन पर्वत हूँ।” और हजार हाथ बढ़ाकर वे गोवर्धन को निवेदन किए गए सभी भोग खाने लगे। कृष्ण नंद महाराज से पूछते हैं, “आपलोग प्रतिवर्ष इन्द्र-याग करते है क्या इंद्र स्वयं आकर उनको निवेदन की गयी वस्तुएं खाते हैं? किन्तु गिरिराज गोवर्धन उन्हें स्वीकार कर रहे हैं।”
पूर्ण भगवान पूर्ण हैं, भले ही वे सब कुछ खा लें, कुछ भी समाप्त नहीं होता है।
कृष्ण कहते हैं, “आइए हम गिरिराज गोवर्धन को प्रणाम करें।” कृष्ण ने स्वयं कहा कि गिरिराज स्वयं भगवान हैं।बाहरिक रूप से गोवर्धन एक पर्वत के रूप में है किन्तु वह भगवान् से अभेद है।
श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी ने गिरिराज गोवर्धन से इस प्रकार प्रार्थना की:
गिरिनृप! हरिदासश्रेणीवर्येति-नामा-
मृतमिदमुदितं श्रीराधिकावक्त्रचन्द्रात्।
क्रजजन-तिलकत्वे क्लृप्त! वेंदैः स्फुटं मे
निज-निकट-निवासं देहि गोवर्धन! त्वम्।।
(श्री गोवर्धन-वास-प्रार्थना-दशकम्, श्लोक ८)
राधारानी ने गोवर्धन को ‘हरि-दास-वर्य’ कहा। गोवर्धन स्वयं कृष्ण है और वह हरि के दासों में श्रेष्ठ है। अर्थात् वह कृष्ण है और कृष्ण भक्त भी है। गोवर्धन की पूजा अर्थात् कृष्ण की पूजा और कृष्ण भक्त की पूजा।
यहाँ पर भगवान श्री कृष्ण ने देवताओं की पूजा बंद कर दी और गोवर्धन की पूजा की, जिसका अर्थ है कि उन्होंने कृष्ण और कृष्ण-भक्तों की पूजा का प्रवर्तन किया। गोवर्धन का एक अर्थ ‘इंद्रियों का वर्धन’ है , इसलिए गोवर्धन-पूजा कृष्ण और कृष्ण-भक्तों की अप्राकृत इंद्रियों की वृद्धि का प्रतीक है। कृष्ण ने कहा कि वे स्वयं गोवर्धन हैं और राधारानी उन्हें हरि-दास-वर्य अर्थात् श्री हरि के सभी सेवकों में सबसे प्रमुख।
कृष्ण ने गोवर्धन के अपने स्वयं के प्रकट रूप को साष्टांग प्रणाम किया। श्रीकृष्ण ने स्वयं गोवर्धन को साष्टांग प्रणाम करने की प्रथा और साथ ही गोवर्धन की परिक्रमा की शुरुआत की। बहुत से भक्त साष्टांग दंडवत करते हुए और कुछ भक्त तो एक ही स्थान पर 108 बार दण्डवत प्रणाम करके गोवर्धन की परिक्रमा करते हैं और फिर आगे बढ़ते हैं। कई लोग भौतिक लाभ प्राप्त करने के लिए ऐसा करते हैं। और उनकी मनोकामना पूर्ण होती है। किन्तु हम ऐसे उद्देश्यों से नहीं करते हैं। हम इसे भगवान की सेवा के लिए करते हैं।
कृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन की पूजा की विधि में व्रज-वासियों को निर्देश दिया, ““गोवर्धन-पूजा करानेवाले वैदिक ब्राह्मणों का गौ-दान एवं दक्षिणा देकर सम्मान करना चाहिए। ब्राह्मणों को उत्तम प्रकार के व्यंजन निवेदन करने चाहिए। उसके बाद, चाण्डाल (सबसे निचली जाति), निम्न जाती के व्यक्तियों और कुत्तों सहित सभी को उचित प्रसाद परोसा जाना चाहिए। गायों को उत्तम घास खिलानी चाइए। अंत में, सभी को गायों, ब्राह्मणों और अग्नि-देवता के साथ गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करनी चाहिए।”
उस समय स्त्रियाँ अपने घरों तक सीमित रखती थीं, बाहर नहीं जाती थी लेकिन अब वे पुरुषों की तुलना में कहीं अधिक घूमती हैं। एक बार जब मैं 5 या 6 वर्ष का बच्चा था, मैं अपनी चाची के साथ बातचीत कर रहा था, तभी अचानक एक पुरुष रिश्तेदार उस स्थान पर आया, उस पुरुष को देखकर उन्होंने तुरंत अपने सिर पर घूंघट खींच लिया। मैं छोटा था, मैं समझा नहीं उन्होंने ऐसा क्यों किया और इसलिए मैंने घूंघट को खींचने का प्रयास किया।
तो गोपियों, भले ही वे चल सकती थीं, उन्हें बैलगाड़ियों पर बैठाया गया और, सभी गावल और गायों के साथ, कृष्ण ने गोवर्धन की परिक्रमा की। इस प्रकार कृष्ण ने गोवर्धन परिक्रमा का प्रवर्तन किया।
यह देखकर कि उनके लिए किया जाने वाला यज्ञ बंद हो गया है, देवराज इंद्र क्रोधित हो गए और कहा, “एक ग्वाले के लड़के की इतनी हिम्मत कि उसने मेरा यज्ञ बंद कर दिया। मैं वृंदावन वासियों को अपनी शक्ति और महत्व दिखाऊंगा। मैं सम्पूर्ण व्रज को डुबा दूँगा !!!”
इतना कहकर उसने व्रज पर हाथी की सूंड जितनी मोटी वर्षा की धारा शुरू कर दी।
इस घटना को देखकर सभी व्रजवासी बहुत डर गए और असहाय होकर कृष्ण को पुकारने लगे, जो उनका एकमात्र आश्रय है। कृष्ण ने कहा, “तुम सब को डरने की कोई बात नहीं है। अपने घर का सब सामान बैलगाड़ियों पर रखकर और मेरे पास जाइए।” इस तरह सभी व्रजवासी अपना घर छोड़कर कृष्ण की शरण में आ गए। सभी व्रजवासी ‘पैठ-ग्राम’ नामक स्थान पर एकत्रित हुए। यह वही स्थान है जहाँ भगवान ने एक बार नारायण का चतुर्भुज रूप धारण किया था और गोपियों ने केवल ‘नमो नारायण’ कहकर उन्हें प्रणाम किया और चले गए। किन्तु जैसे ही उन्होंने राधारानी को देखा, उनकी दो भुजाएँ अन्दर गईं और उन्होंने फिर से कृष्ण का रूप धारण कर लिया ।
तब भगवान ने व्रजवासियों से कहा कि उन्हें गायों और व्रजवासियों की रक्षा के लिए गोवर्धन उठाना होगा। कृष्ण के सखा कहते हैं, “तुम्हारे हाथ बहुत कोमल हैं और गोवर्धन के भार को सहन करने में असमर्थ होंगे, हम तुम्हें गोवर्धन उठाने नहीं देंगे।” कृष्ण ने कहा, “गोवर्धन नहीं उठाने से सबकी रक्षा कैसे होगी, मैं गोवर्धन उठा सकता हूँ आप मेरी शक्ति की परीक्षा कर लीजिए।” तब सखाओं ने कहा, “यहाँ एक बहुत बड़ा कदंब का पेड़ है। क्या तुम इसे उठा सकते हो और अपने हाथों से उसे मोड़ सकते हो?” कृष्ण ने कहा, “हाँ, मैं यह कर सकता हूँ।” जब कृष्ण ने कदम्ब के पेड़ को मोड़ दिया तो सभी आश्चर्य-चकित रह गए।
बहुत भारी पर्वत उठाना है इसलिए सखाओने कृष्ण को पहलवान की तरह कपड़े पहना दिए और बाल भी बांध दिए, उन्होंने कृष्ण को तैयार कर दिया। उसके बाद कृष्ण ने गिरिराज गोवर्धन को उठा लिया, इतने बड़े गोवर्धन को छोटे लड़के द्वारा इतनी सहजता से उठाकर देख सभी चकित रह गए। वे इस बात से भी आशंकित थे कि कहीं पहाड़ उसके हाथ से गिर न जाए। इसलिए उन्होंने भी उसे अपनी लाठियों से ठेका दे दिया। इंद्र ने सात दिन और सात रातों तक लगातार भारी वर्षा की। व्रजवासी लंबे समय से इच्छा थी कि वे कृष्ण को लगातार देख पाए। साधारणतः भगवान किसी न किसी काम में व्यस्त रहते थे, जैसे गायों को चराने वन में चले जाते हैं था माता-पिता और बड़े उन्हें देख नहीं पाते, रास लीला इत्यादि में सखा नहीं जा सकते इसतरह सब लोग सब समय कृष्ण का दर्शन नहीं कर पाते थे। अब उनकी सभी मनोकामनाएं पूरी हुई और वे सात दिन और सात रातों तक लगातार कृष्ण के दर्शन कर सके। ये वही गोवर्धन-धारी गोपाल हैं जिन्होंने कलियुग में श्रील माधवेंद्र पुरी को दर्शन दिए थे।
व्रजवासी लगातार भगवान के साथ रहे और उके दर्शन कर रहे हैं। इस दौरान उन्होंने न कुछ खाया, न पिया और न ही सोए। वे उनकी सुंदरता से इतने मंत्रमुग्ध थे कि वे अपनी सारी भूख, प्यास आदि भूल गए और उन्हें लगातार देखते रहे। इस तरह भगवान ने अपने भक्तों की इच्छा पूरी की और उन्हें आनंद में डुबो दिया।
यह सब देखकर देवराज इंद्र सोच में पड़ गए, “यह सारा पानी कहाँ जा रहा है, इससे तो सम्पूर्ण जगत डूब सकता है,किन्तु यह क्या हो रहा है, पानी जा कहा रहा है?”
इन्द्र ब्रह्मा के पास गए और बताया कि कैसे ग्वाले छोटे लड़के ने व्रज में उनकी पूजा बंद कर दी है। इन्द्र ने यह भी बताया कि कैसे उन्होंने व्रज को डूबाने का प्रयास किया था, किन्तु समझ नहीं पाए कि बारिश से बरसा हुआ सारा पानी कहाँ जा रहा है?
ब्रह्मा ने कहा, “तुमसे भी गलती हो गई? मैंने भी समझा था कि वह एक गायों को चरानेवाला साधारण सा ग्वाल बाल है किन्तु वास्तव में यह छोटा लड़का कोई ग्वाल बाल नहीं है बल्कि स्वयं भगवान है। मैं मोहित हो गया था और भगवान से क्षमा मांगी थी। तुम्हें भी उनसे क्षमा मांगनी चाहिए।
इंद्र सोचने लगे कि वे क्षमा कैसे मांगेगे। गायें प्रभु को बहुत प्रिय हैं। इसलिए इंद्र सुरभि गाय के साथ भगवान के पास गए, यह सोचकर कि गाय को देखकर भगवान प्रसन्न हो जाएंगे। उन्होंने भगवान् का स्तव करके उनसे क्षमा याचना की।
भगवान् ने उनसे कहा कि वे अपने घमंड को त्याग दे। देवराज इंद्र ने जल से भगवान का अभिषेक किया जिससे एक कुंड का निर्माण हुआ जिसे ‘गोविंद कुंड’ के नाम से जाना जाता है। यह वही कुंड है जिसके जल से माधवेन्द्र पूरी पाद ने व्रजनाभ द्वारा स्थापित गिरिधारी गोपाल का अभिषेक किया था।
देवराज इंद्र और भगवान ब्रह्मा दोनों ने भगवान को न पहचानकर गलतियां कीं, भगवान् की कृपा के बिना भगवान् को कोई नहीं जान सकता है।
अब हम गिरिराज गोवर्धन का महिमा कीर्तन सुनेंगे।