नित्यलीला प्रविष्ट ॐ विष्णुपाद परिव्राजकाचार्य त्रिदण्डिस्वामी १०८श्री श्रीमद्भक्तिस्वरूप पर्वत गोस्वामी महाराज
प्रणाम
नमो ॐ विष्णुपादाय गौरप्रेष्ठाय भूतले।
श्रीमते भक्ति स्वरूप पर्वत गोस्वामीति नामिने ।।
श्रील भक्तिस्वरूप पर्वत गोस्वामी महाराज ने सन् १८८४ श्रीगुरुपूर्णिमा तिथि पर श्रीधाम नवद्वीप अन्तर्गत गोद्रुम द्वीप निवासी पिता पशुगोपाल वेदान्त देशिक के पुत्र के रूप से जन्म लिया। बाल्यकाल में इनका नाम बादल था। इनकी माता श्रीलभक्तिविनोद ठाकुर की चरणाश्रित शिष्या थीं। माताजी कहती थीं कि, बादल बाल्यकाल में मध्यरात्रि में घर से निकलकर सुरभीकुञ्ज चला जाता था। श्रीलगौरकिशोर दास बाबाजी महाराज, श्रील प्रभुपाद भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर एवं श्रील कृष्णदास बाबाजी महाराज का संग भी करते थे और उन सबके मुखारविन्द से हरिकथा भी सुनते थे। बालक बादल का इस प्रकार सुन्दर नित्यसिद्ध भक्तिभाव देखकर श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के आदेश से श्रील कृष्णदास बाबाजी महाराज ने बादल को श्रीहरिनाम दीक्षा प्रदान की। बादल श्रील भक्तिविनोद ठाकुर को पारमार्थिक शिक्षागुरु के रूप से भक्ति, पूजा एवं आदर करते थे। सन् १९००, १६ वर्ष की आयु में माता-पिता ने इनका विवाह कर दिया था। विवाह के बाद इनके यहाँ दो कन्याओं ने जन्म लिया। इसके बाद सन् १९०८ में श्रीलभक्तिसिद्धान्त सरस्वती ठाकुर की ब्रह्मचारी अवस्था में उनके निकट उन्होंने शाश्वत शास्त्र वैदिक विधानानुसार कृष्णमन्त्र दीक्षा ग्रहण कर पुरीधाम में चटक पर्वत पर निर्जन भजन किया। उस समय श्रील प्रभुपाद शतकोटि हरिनाम ग्रहण का व्रत पालन कर रहे थे। बादल का दीक्षा नाम श्रीपाद हरिपद दास हुआ। वे श्रीधाम पुरी में रहकर पहले प्रत्येक माह में श्रीजगन्नाथ के प्रसाद के लिए साढ़े चार रुपया खर्च किया करते थे। गुरुदेव श्रील प्रभुपाद ने इनको पत्र लिखा कि, भिक्षा से प्राप्त द्रव्य को अपने हाथों से भोग बना कर श्रीश्रीगान्धर्विका गिरिधारी जू को भोग निवेदन कर प्रसाद भोजन करना। इस प्रकार अपने हाथों से श्रीभगवान् की सेवा के लिए प्रत्येक भक्त को श्रील प्रभुपाद उत्साहित करते थे। श्रील भक्तिविनोद ठाकुर के अन्तर्धान के बाद श्रीपाद हरिपद दासाधिकारी श्रीधाम मायापुर में श्रील प्रभुपाद के पास चले आये। सन् १९१८ में श्रील प्रभुपाद के पास त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण किया। श्रील प्रभुपाद ने इनको त्रिदण्डिस्वामी श्रीभक्तिस्वरूप पर्वत महाराज नाम प्रदान किया। संन्यास के बाद महाराज ने पैदल ही चारधाम परिक्रमा की। श्रीलमहाराज ने गुरुदेव श्रीलप्रभुपाद के निर्देशानुसार पूर्णरूप से उत्कल देश में प्रचार कार्य किया। सन् १९४८ मयूरभञ्ज जिला के अन्तर्गत कप्तिपदा के राजा ने मठ करने के लिए इनको १० बीघा घरवाड़ी सहित १६ बीघा जमीन दान की। श्रीलमहाराज ने गुरुभक्ति के आदर्श पराकाष्ठा स्वरूप गुरुदेव श्रील प्रभुपाद के पादपीठ कूयामारा से मिट्टी लाकर उदाला में मठ की भित्ति स्थापित की थी। श्रीवार्षभानवीदयित गौड़ीय मठ नाम रख कर उदाला में मठ स्थापित किया। श्रीलमहाराज ने श्रीभक्तिविनोद वाणी प्रचार सभा स्थापित की। इस प्रचार सभा के सदस्य श्रील प्रभुपाद के शिष्य गुरुभ्राता श्रीभक्तिस्वरूप सज्जन महाराज भी थे। उत्कल प्रदेश के ‘ प्रायः सभी शिष्य श्रीलपर्वत महाराज के ही हैं। श्रील प्रभुपाद के बहुत से शिष्यों ने श्रील महाराज के पास त्रिदण्ड संन्यास ग्रहण किया। श्रीलमहाराज के त्यागी शिष्यों के बीच श्रीमद्भक्तिविकास महायोगी महाराज, श्रीमद्भक्तिसुन्दर सागर महाराज, श्रीमद्भक्ति निरीह महाराज, श्रीगिरिधारी दास बाबाजी महाराज, श्रीप्राणकृष्ण ब्रह्मचारी आदि हैं। श्रील पर्वत गोस्वामी महाराज ने सन् १९५७ में बसन्त पञ्चमी तिथि पर उदाला मठ में अपनी अन्तर्धान लीला प्रकाश की।