श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी

चैतन्य चरितामृत के रचयिता श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी के आविर्भाव काल, उनके पिता माता का नाम वे किस कुल में आये है – इन सभी के समबन्ध में ठीक से निर्णय नहीं किया जा सका है। श्री श्रील भक्ति सिद्धांत सरस्वती को स्वामी प्रभुपाद ने श्री चैतन्य चरितामृत की भूमिका में इस प्रकार लिखा है – ‘श्री चैतन्य चरितामृत के रचयिता पिता-माता के द्वारा दिये गये किसी नाम से परिचित थे, वह हम नहीं जानते हैं और इन विषयों में जिन सब नवोदभावित नामों एवं अनुष्ठानों का उल्लेख पाया जाता है, वे वास्तविक है कि नहीं, इस विषय में भी कोई द्दिड़ता नहीं है। परमार्थिक जीवन में वे ‘कृष्णदास’ के नाम से जाने जाते थे। इस ग्रन्थ की आदि लीला में जो उन्होंने अपना परिचय दिया है, उसके द्वारा हम जान सकते हैं कि उन्होंने झमाटपुर ग्राम में जन्म ग्रहण किया था। झमाटपुर गाँव नैहाटी नामक गाँव के पास ही है। उनके पूर्वाश्रम के स्मृति-चिन्ह स्वरूप एक मात्र श्री गौर-.नित्यानन्द की विग्रह सेवा अभी भी विराजमान है। उनके पूर्वाश्रम के रिश्तेदारों का कोई भी वंशज अभी वर्तमान में वहाँ पर श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी का किसी प्रकार का भी परिचय नहीं देता है। स्वप्न में श्री नित्यानन्द प्रभु की आज्ञा प्राप्त कर उन्होंने झामटपुर का परित्याग कर दिया था। आपने अपने जीवन के अन्तिम दिन तक श्री वृन्दावन धाम में वास किया था। श्री वृन्दावन में श्री राधा – दामोदर मन्दिर में अभी भी श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी की समाधि देखने को मिलती है। नैहाटी- निकटे ‘झामटपुर’ नोमे ग्राम। तहाँ स्वपने देखा दिला नित्यानन्द – राम ॥

श्री प्रभुपाद ने कृष्णदास कविराज गोस्वामी के समय के निर्णय के समबन्ध में कुछ घटनाओं का प्रमाण रूप से उल्लेख करते हुए इस प्रकार लिखा है कि कृष्णदास के वर्ण के समबन्ध में विभिन्न मतों के लोगों ने अपने-अपने विचारों से इन्हें ऊंचे तीन वर्णो (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) में से किसी एक में प्रकट बताया है, क्योंकि उस समय के साहित्य और अलंकार इत्यादि कलापुष्ट लोगों के अनुसार काव्य शास्त्र में निपुण व्यक्ति अपनी पारदर्शिता के फलस्वरुप ही कविराज के नाम से ख्याति प्राप्त करते थे।

चिकित्साशास्त्र कुशल सम्प्रदाय में अनेक स्थानों पर कविराज नाम का उल्लेख होने के कारण , कोई-कोई कृष्णदास को वैद्य कहते हैं।

दर्शन शास्त्र में अगाध पण्डित्य और श्रुति, स्मृति व न्याय आदि तीनों प्रस्थानों में उनका असामान्य अधिकार और प्रतिभा को देखते हुये, इन्हें ब्राह्मण कुल में उतपन्न मान लेना, आपत्तिजनक नहीं होगा।

श्री प्रभुपाद के उपरोक्त विचारों से ऐसा प्रतीत होता है कि कविराज गोस्वामी ब्राह्मण, कायस्थ अथवा वैद्य तीनों में से किसी एक कुल में आविर्भूत हुये होंगे। वैसे तो वैष्णव किसी भी कुल में उत्पन्न हो सकते है, फिर भी वे सर्वोत्तम हैं – ये सभी शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित है।

ये ते कुल वैष्णवेर जन्मा केने नय ।
तथापिऔ सर्वोत्तम सर्वशास्त्रे कय॥
ये पापिष्ठ वैष्णवेर जाति बुद्धि करें ।
जन्म जन्म अधम – योनिते डूबि मरे ॥

अर्थात: वैष्णव का जन्म जिस किसी कुल में भी क्यों न हो वह सर्वोत्तम है -. ऐसा शास्त्र कहते हैं। इसलिए जो पापी वैष्णवो की जाति देखता है, वह बार-बार नीच योनियों में जन्मता मरता रहता है।

श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी के आश्रम के विषय में भी सब एक मत नहीं है। कोई कहता है कि वे ब्रह्मचारी आश्रम से ही चले गये। कारण, अगर वे गृहस्थ आश्रम में रहे होते, तो सांसारिक बन्धन को तोड़ कर जाने का प्रसंग कविराज गोस्वामी की लेखनी में कहीं तो मिलता। इस प्रसंग में श्री प्रभुपाद ने लिखा है – ‘श्री वृन्दावन जाने से पहले, वे घर की बातों के प्रति उदासीन एवं हरिकथा में रत रहते थे। वे तृतीय चतुर्थ आश्रमोचित् हरि भजन परायण जीवन थे। आश्रमातीत निष्किंचन परमहंस अवस्था में ही, उन्होंने श्रीचैतन्य चरितामृत ग्रन्थ की रचना की थी। श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी अपने परमार्थिक आत्मीय समाज में कविराज गोस्वामी के नाम से प्रसिद्ध हैं।

श्री चैतन्य चरितामृत में श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी के वचनों से पता लगता है कि उनका एक और भाई भी था। भाई का नाम वहाँ नहीं दिया गया। गौड़ीय वैष्णव शब्दकोश में उल्लेख है कि उनके भाई का नाम श्री श्यामदास कविराज था। कविराज गोस्वामी ने श्री चैतन्य चरितामृत की आदि लीला के 5वे परिच्छेद में नित्यानन्द प्रभु की महिमा वर्णन करते हुये अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है। श्री नित्यानन्द पार्षद श्री मीनकेतन रामदास का श्री पाठ भी झामटपुर में ही था। एक बार मीनकेतन रामदास आम आमंत्रित होने के कारण सारी रात संकीर्तन में योगदान देने के लिए कविराज गोस्वामी के घर पर आए थे। नित्यानन्द का नाम लेते समय महाभागवत मीनकेतन रामदास की महाप्रेम में उन्मत्त अवस्था को देख कर एवं उस प्रेमोउन्मत्त अवस्था में उनको किसी के वंशी व किसी के थप्पड़ इत्यादि मारते देखकर संकीर्तन में योगदान करने आए सभी वैष्णव चमत्कृत हो उठे। सभी ने मीनकेतन रामदास के चरणों की वन्दना की। किन्तु कविराज गोस्वामी के घर पर श्री विग्रह की पूजा के लिए नियोजित पुजारी, श्री गुणार्णव मिश्र ने मीनकेतन रामदास के प्रति सब जैसा समदसूचक व्यवहार नहीं किया। इससे गुणार्णव मिश्र का नित्यानन्द प्रभु के प्रति श्रद्धा का अभाव देखा गया। इसलिये मीनकेतन रामदास ने क्रोधित होकर उनका तिरस्कार करते हुए कहा ‘एइ त ‘ द्वितीय सूत रोमहर्षण। बलदेव देखी ये ना कैल प्रत्यूद् गम… गुणार्णव मिश्र को मीनकेतन रामदास का शासन करना बहुत अच्छा लगा और वह सन्तुष्ट हुये। उत्सव के पश्चात पुजारी विप्र के इसी विषय को लेकर कविराज गोस्वामी के भाई का मीन केतन रामदास से वाद-विवाद हो गया। कविराज गोस्वामी के भाई की जैसी सुदृढ़ श्रद्धा महाप्रभु में थी, वैसी नित्यानन्द प्रभु के प्रति नहीं थी। इसलिए मीनकेतन रामदास ममर्हत हुए और क्रोधवश वंशी तोड़ कर वहां से चले गए, जिससे कविराज गोस्वामी के भाई का सर्वनाश (भक्ति हीनता) और अध्: पतन हो गया। कविराज गोस्वामी ने नित्यानन्द के पार्षद रामदास का पक्ष लेने लेकर अपने भाई की बहुत तिरस्कारपूर्ण भर्त्स्ना की थी।

दुई भाई एकद तनु- समान – प्रकाश ।
नित्यानन्द ना मान, तोमर हवे सर्वनाश ॥
एकेटे विश्वास, अन्य ना कर सम्मान ।
“अर्ध्द – कुक्कुटी – न्याय” तोमार प्रमाण ॥
किंवा दोहा ना मानीञ़ा हउ त’ पाषंड ।
एक मानि आरे ना मानि,- एइमत भण्ड ॥

अर्थात: दोनों भाई अभिन्न स्वरूप हैं, दोनों में ही तुल्य शक्ति का विकास है। श्री नित्यानन्द प्रभु को तू नहीं मानता है, तेरा सर्वनाश हो जाएगा (क्योंकि श्री नित्यानन्द के चरणों में तुम्हारा यह घोर अपराध हुआ है)।

कविराज ने फिर कहां – तुम एक में तो विश्वास करते हो एवं दूसरे को नहीं मानते हो, इससे तुम्हारा अर्ध्द – कुक्कुटी न्याय प्रमाणित होता है। यदि तुम दोनों को नहीं मानो-तब तुम पाखण्डी कहे जाओगे, जबकि एक को मानना और एक को ना मानना – तो भंडों का मत है।

भक्तों के अधीन भगवान अपने भक्तों के द्वारा दिखाये गये थोड़े से अनुराग को भी बहुत अधिक समझते हैं, तथा भक्त का पक्ष लेने वाले व्यक्ति को जो वह चाहता है उसे दे देते हैं।

श्री कविराज गोस्वामी ने लिखा है कि उन्होंने नित्यानन्द पार्षद मीनकेतन रामदास का पक्ष लेकर अपने भाई को जो डाँटा था; उसी सामान्य गुण के आधार पर ही श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए एवं वृन्दावन जाने के लिए आदेश दिया ।

आरे आरे कृष्णदास, ना करिह त है भय ।
वृन्दावन याह, ताहा सर्व लभ्य हय ॥
एत बलि प्रेरिला मोरे हातसान दिया ।
अंतर्धान कैला प्रभु निज – गण लञ़ा ॥

अर्थात: कृष्णदास! तू कुछ भय मत कर, तू वृन्दावन चला जा, वहां तेरी सर्व अभिलाषाए पूर्ण होगी। इतना कहकर प्रभु ने मुझे हाथ का इशारा देकर श्री वृन्दावन जाने की प्रेरणा की एवं अपने पार्षदों को लेकर वे अंतर्ध्यान हो गये ।

दूसरी तरफ देखा जाये तो अपमान करने वाला बाहर के गुणों से गुणी होने पर भी भगवान की कृपा से वंचित रह जाता है। जिमीदार रामचंद्र खान इसका उदाहरण है। हरिदास ठाकुर के चरणों में अपराध करने के कारण नित्यानन्द प्रभु उस पर क्रोधित अप्रसन्न हो गये थे, जिससे उसका सर्वनाश तो हुआ ही, यहां तक की उसका स्थान तक उजड़ गया। इसलिए अत्यन्त मूढ़ विवेकहीन व्यक्ति ही भगवत् प्रिय साधु के प्रति अन्यायपूर्ण आचरण करने का दु :साहस करते है। कविराज गोस्वामी ने वैष्णवोचित अत्यन्त दीनतापूर्ण वचनों के द्वारा श्रीमान् नित्यानन्द प्रभु की महिमा की मुक्तकण्ठ से जगत में घोषणा की है।

जगाइ माधाइ हैते मुई से पापिष्ट ।
पूरीषेर कीट हैते मुई से लघिष्ठ ।
मोर नाम शुने येइ, तार पुण्य क्षय ।
मोर नाम लेय येइ, तार पाप हय ।
एमन निर्घृण मोरे केवा कृपा करे ।
एक नित्यानन्द बिनु जगत भितरे ।
प्रेमें मत नित्यानन्द कृपा- अवतार ।
उत्तम, अधम , किछु ना करें विचार ।
ये आगे पड़ये तारे करये निस्तार ।
अतएव निस्तारीला मो – हेन दुराचार ॥

अर्थात: जगाई – मधाई से भी मैं अधिक पापी हूं। विष्ठा के कीड़े से भी अतिनीच हूँ। जो मेरा नाम सुने लेता है उसके पुण्य नाश हो जाते हैं। जो मेरा नाम का उच्चारण करता है। उसे पाप लगता है। ऐसे मुझ कुकर्मी पर केवल श्री नित्यानन्द प्रभु को छोड़ कर जगत में और कौन कृपा करेगा। श्री नित्यानन्द प्रभु कृपा के अवतार हैं इसलिए वे उत्तम-अधम अर्थात पात्र- अपात्र का विचार नहीं करते अपितु जो भी सामने आता है, उसे कृष्ण-प्रेम देकर भव सिंधु से पार कर देते हैं, अर्थात उन्होंने मुझे जैसे दुराचारी का भी उद्धार किया।

विष्णु व वैष्णवो की कृपा के बिना उनकी महिमा नहीं गायी जा सकती। इस बात को बताने के लिए ही कविराज गोस्वामी ने प्रति परिच्छेद के आरम्भ में गौर नित्यानन्द अद्वैतचार्य व गौरभक्तों का जयगान किया है और प्रति परिच्छेद के अन्त में श्री रूप रघुनाथ के पादपद्यों की सेवा प्राप्ति के आकांक्षा की है। कविराज गोस्वामी ने वैष्णवो की अमर्यादा एवं उनके प्रति किसी प्रकार का अपराध ना हो, इसकी और विशेष सत्तर्कता प्रयोग करने का आदर्श दिखाया है।

सहजे विचित्र मधुर चैतन्या- विहार।
वृन्दावनदास – मुखे अमृतेर धार
अतएव तहा वर्णिले हय पुनरुक्ति।
दम्भ करि वर्णि यदि, नहीं तैछे शक्ति
चैतन्यमंगल जाहा करिला वर्णन।
सूत्ररुपे सेइ लीला करिये सूचन ।
तार सुत्रे आछे, तेह न कैल वर्णन।
यथा कथचित् करि ‘ से लीला – कथन ।
अतएव तार पाये करि नमस्कार ।
तार पाए अपराध ना हउक आमार
चै.च.म 4/5-9

अर्थात: श्री चैतन्यदेव की लीलाएं स्वभाविक ही मधुर है, एवं विचित्र हैं। फिर भी उनका श्री वृन्दावन दास के मुख से वर्णन होना मानो अमृत तुल्य रसदायक हुआ है। अंत: उनको फिर वर्णन करना पुनरुक्ति नहीं कही जायेगी। यदि मैं अहंकारपूर्वक उनका वर्णन करू (कि मैं उनसे अच्छा वर्णन करूंगा) तो ऐसी मेरी शक्ति नहीं है। श्री वृन्दावनदास ने श्री चैतन्य भागवत में जिन-जिन लीलाओं का वर्णन है, मैं यहां उन्हें अति संक्षेप से सूत्ररूप में वर्णन करूंगा। और जो लीलाएं उन्होंने वर्णन नहीं की है या सूत्ररूप से कहीं हैं, उनके चरणों में नमस्कार करता हूं, जिससे उनके प्रति मेरा अपराध ना हो।

कृष्ण लीला भागवते कहे वेदव्यास ।
चैतन्यालीलार व्यास – वृन्दावनदास ।
वृन्दावन पदे कोटि-कोटि नमस्कार ।
ऐछे ग्रन्थ करि तेह तरिला संसार

जैसे श्री वेदव्यास ने श्रीमद् भागवत में श्री कृष्ण लीला का वर्णन किया है, उसी तरह श्री वृन्दावन दास ने श्री चैतन्य मंगल में श्री चैतन्यलीला का वर्णन किया है- अंत: उन्होंने श्री चैतन्यलीला का व्यासदेव कहा जाता है। श्री वृन्दावनदास के चरण-कमलों में हम कोटि-कोटि नमस्कार करते हैं, जिन्होंने ऐसे ग्रन्थ की रचना कर संसार के जीवों का उद्धार किया है।

श्री वृंदावन दास ठाकुर ने श्रीमन महाप्रभु की जीन लीलाओं का विस्तृत रूप से वर्णन किया है, उन्हें श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी ने ‘श्री चैतन्य चरितामृत’ में सूत्र रूप से लिखा है, एवं जिन लीलाओं को श्री वृन्दावन दास ठाकुर ने संक्षेप में सूत्रों में लिखा है वे श्री चैतन्य चरितामृत में विस्तृत रूप से वर्णन की गयी है।

चैतन्य लीलार व्यास दास वृन्दावन ।
मधुर करिया लीला करीला रचान
ग्रन्थ – विस्तार – भाये छाड़िला ये-ये स्थान।
साईं साईं स्थाने किछु करिव व्याख्यान
चै.च.आ. 13/48-49

अर्थात: श्री वृन्दावन दास श्री चैतन्यालीला के व्यासदेव है, जिन्होंने अति मधुर रूप से लीलाओं का वर्णन किया है। ग्रन्थ के विस्तार- भय से उन्होंने जो – जो लीलाएं छोड़ दी है, उन लीलाओं को कुछ विस्तार से वर्णन करूंगा।

श्री चैतन्य गौड़ीय मठ से बंगाल भाषा में प्रकाशित ‘श्री चैतन्य चरितामृत’ ग्रन्थ का सम्पादकीय निवेदन करते समय श्री चैतन्यवाणी पत्रिका के सम्पादक संघपति नित्यलीला प्रविष्ट ॐ पूज्यपाद श्रीमद् भक्ति प्रमोदपुरी गोस्वामी महाराज ने इस प्रकार लिखा है कि श्री वृन्दावन ठाकुर ने अपने ग्रन्थ ‘श्री चैतन्य भागवत’ के आरम्भ में श्री चैतन्य महाप्रभु की तमाम लीलाए सूत्र रूप में तथा बाद में विस्तृत रूप से वर्णन की। विस्तार करते – करते यह ग्रन्थ कहीं बहुत बड़ा ही ना हो जाये, इस भय से उन्होंने किसी-किसी लीला को सिर्फ सूत्र रूप में ही रहने दिया, उसका विस्तृत वर्णन नहीं किया। परन्तु श्री नित्यानन्द की लीलाओं का वर्णन करते समय आवेश हो जाने के कारण श्री चैतन्य महाप्रभु की लीला असम्पूर्ण रह गई थी, इसलिये महाप्रभु की उस अन्तिम लीला का श्रवण करने के लिए अत्यधिक व्याकुल वृन्दावनवासी गौरगोत प्राण भक्तों ने श्री कविराज गोस्वामी से उन तमाम लीलाओं का वर्णन करने के लिये विशेष रूप से अनुरोध किया। शुद्ध भक्तों के अनुरोध करने पर श्री कविराज गोस्वामी ने भक्तों की इस इच्छा को पूर्ण करने के लिए स्वयं भगवान श्री मदनगोपाल से आज्ञा ली। प्रभु के चरणों में कविराज गोस्वामी द्वारा आज्ञा मांगते ही सब वैष्णवो ने देखा कि सभी के सामने भगवान श्री मदन गोपाल के गले से माला गिर पड़ी। भगवान के गले से माला गिरते ही सभी वैष्णव एक साथ हरि – ध्वनि कर उठे तथा मंदिर के श्री गोसाई दास पुजारी ने वह माला लाकर श्री कविराज गोस्वामी पाद के गले में पहना दी। भगवान की आज्ञा माला को पहन कर कविराज गोस्वामी ने परमानन्द से ग्रन्थ लिखना आरम्भ कर दिया। इसलिये उन्होंने दीनता के साथ लिखा है। “एइ ग्रन्थ लेखाय मोरे मदनमोहन। आमार लिखिन येन शुकेर पठन.. सेई लिखी मदनगोपाल ये लिखाय। काष्ठेर पुतली येन कुहके नाचाय..” चै.च .आ 8/78-79 अर्थात: यह ग्रन्थ मुझे मदनगोपाल ने लिखवाया है। मेरा लिखना तो तोते की पढ़ने की तरह है। श्री मदनमोहन ने जो लिखाय, वही मैंने लिखा, जैसे कठपुतली कुहक की नचाई नाचती है।

श्री कविराज गोस्वामी ने श्री स्वरूप दामोदर गोस्वामी की निजी डायरी जो कि रघुनाथ दास गोस्वामी ने पूरी रटी हुई थी, का अवलंबन करके ही, श्री चैतन्य चरितामृत ग्रन्थ लिखा। श्री स्वरूप गोस्वामी ने महाप्रभु की अंतिम लीला पद्यों में सूत्र रूप से लिख कर श्री रघुनाथ दास गोस्वामी को कण्ठस्थ करवा दी थी। श्री स्वरूप दामोदर द्वारा एकत्रित अनमोल रत्नों का श्री कविराज गोस्वामी ने जगत में प्रचार किया।

यही कारण है कि स्वरूप गोस्वामी का कड़चा अर्थात व्यक्तिगत डायरी अलग पुस्तक रूप से लिखी नहीं गयी। यह श्री चैतन्य चरितामृत ही स्वरूप की डायरी का निष्कर्ष है। – श्री ठाकुर भक्ति विनोद

स्वरूप गोसाईं कड़चाय ये लीला लिखिल ।
रघुनाथदास मुखे ये सब सुनिल ॥
सेइ सब लीला कहि, सक्षेप करिया ।
चैतन्यकृपा ते लिखि क्षुद्र जीव हइया ॥

अर्थात: श्री स्वरूप गोस्वामी ने अपने कड़चा मे जो लिखा है और श्री रघुनाथ दास के श्री मुखारविन्द से जो सब सुना मे मैं क्षुद्र जीव श्री चैतन्य की कृपा से उन सब लीलाओं को सक्षेप में कह रहा हूं। श्रीमन्महाप्रभु की अप्राकृत नाम – रूप – गुण – लीला – महिमा कविराज गोस्वामी के हृदय में प्रकटित होकर ‘श्री चैतन्य चरितामृत’ के रूप में प्रकाशित हुयी है। इसका प्रमाण श्री चैतन्य चरितामृत ग्रन्थ के विभिन्न स्थानों पर ग्रन्थ के रचयिता की लेखनी से जाना जाता है। जैसे -” आमि वृद्ध जरातुर, लिखित कांपये कर, मने किछु स्मरण न हय। ना देखिये नयने, ना शुनिये क्षवणे, तबु लिखि, ए बड़ विस्मय ॥” चै.च.म. 2/89-90 अर्थात: मैं वृद्ध हूं और जरावस्था में पीड़ित हूं। लिखते हुए मेरे हाथ कांपते हैं, कोई बात याद नहीं रहती, नेत्रों से बहुत कम दिखता है, कानों से पूरा सुन भी नहीं सकता हूं, परन्तु फिर भी मैं श्रीचैतन्य – चरित लिख रहा हूं- यह बड़ा आश्चर्य है।

एक समय श्री चैतन्य चरितामृत की सर्वोत्तमता का वर्णन करते समय श्री भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने अपनी उपदेशावली में इस प्रकार कहा था – यदि कभी पृथ्वी की ऐसी अवस्था हो जाय कि सब कुछ ध्वंश हो जाय, किन्तु उस समय श्रीमद् भागवत और श्री चैतन्य चरितामृत दो ग्रन्थ रह जाये, तो मात्र इन दो ग्रन्थो के विद्यमान रहने से मनुष्य अपनी इच्छानुरूप सभी वस्तुओं की प्राप्ति कर सकता है। और यदि कभी ऐसा भी हो जाय कि श्रीमद् भागवत भी लुप्त हो जाये, तब एकमात्र ‘श्री चैतन्य चरितामृत’, रहने से भी मनुष्य का कोई नुकसान नहीं होगा। श्रीमद् भागवत में जो अभीव्यक्त नहीं किया गया है, वह श्री चैतन्य – चरितामृत में अभिव्यक्त हुआ है। राधाकृष्ण मिलित तनु श्री चैतन्य महाप्रभु परमत्तव है। उनकी ही अभिन्न शब्द मूर्ति श्री चैतन्य चरितामृत है। श्री चैतन्य चरितामृत में राधा का गूढ़ तत्त्व और उनकी महिमा प्रकटित हुयी है। इसलिये श्री चैतन्य चरितामृत की सर्वोत्तमता के विषय में और क्या सन्देह हो सकता है? श्री चैतन्य चरितामृत की सर्वोत्तमता से इस ग्रन्थ के रचयिता कविराज गोस्वामी सर्वोत्तम वैशिष्ट्य भी सिद्ध हो रहा है। श्री कविराज गोस्वामी द्वारा रचित, श्रीचैतन्य चरितामृत, श्री गोविन्दलीलामृत और कृष्णकर्णमृत की टीका- ये तीन अमूल्य ग्रन्थ है। श्री गोविन्दलीलामृत में श्री कृष्ण की अष्टकालीन लीला विस्तृत रूप से वर्णन हुयी है। श्री नरोत्तम ठाकुर ने अपनी गीति में इस प्रकार लिखा है – ” कृष्णदास कविराज रसिक भकत माझ यिहो कैल चैतन्य चरित। गौर गोविन्द लीला शुनिटे गलये शिला, तहाते न हइल मोर चित्र॥”अर्थात रसिक भक्त श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी जिन्होंने श्री चैतन्य महाप्रभु के चरित्र का वर्णन किया है, जिससे श्रवण कर पत्थर भी पिघल जाते हैं, किन्तु मेरी उसी में आसक्ति नहीं हुई है।

गोविन्दलीलामृत ग्रन्थ लिख कर श्री कृष्णदास गोस्वामी ‘कविराज’ की उपाधि से ‘विभूषित’ हुये थे। वैष्णव जगत में श्री कृष्णदास कविराज रूपानुगवर रूप से पूजे जाते हैं।

प्रसिद्ध टीकाकार श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद ने कविराज गोस्वामी के संबंध में जो लिखा है उससे जाना जाता है कि कविराज गोस्वामी राधारानी के निजजन थे, तथा स्वभाविक रूप से ही उनके ह्रदय में भगवत तत्व प्रकाशित था। इसलिये उनके वाक्य मात्र परम प्रमाणिक हैं। कविराज गोस्वामी ने कामगायत्री के अक्षरों की संख्या 25 बोलने के स्थान पर 24 1/2 क्यों बोली, समझ न आ पाने के कारण विश्वनाथ चक्रवर्ती पाद बहुत ही विह्लल हो उठे थे। यहां तक कि इस विह्ललता से उन्होंने राधाकुण्ड के तट पर देह त्याग का संकल्प ले लिया। देहत्याग का संकल्प करने पर मध्यरात्रि को तन्द्रावस्था उन्होंने स्वपन में देखा – स्वयं वृषभानुनन्दिनी जी उनके पास आकर कह रही है – हे ‘विश्वनाथ! हे हरि हरिबल्ल्भ!! तुम उठो, कृष्णदास कविराज ने जो लिखा है वह सत्य ही है। वह मेरी नर्म सहचरी है। मेरे अनुग्रह से ही वह मेरे अन्दर की सब बातें जानते हैं। उनके वाक्यों में सन्देह नहीं करना। ‘वर्णागमभास्वत’ ग्रन्थ में लिखित है कि ‘य’ कार के पश्चात ‘वी’ अक्षर रहे, ‘य’ कार ही आधा अक्षर कहलाता है। अंत: वह ‘य’ कार आधा अक्षर है। यह विषय भी श्री चैतन्य चरितामृत में सम्पादक के निवेदन में लिखित है।

श्री श्रीनिवासाआचार्य के साथ श्री रघुनाथ दास गोस्वामी, श्री राघव और श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी के साक्षात्कार की बात भक्ति रत्नाकर ग्रन्थ में लिखी है –

श्री राघव- कृष्णदास कविराज आदि
श्रीनिवासे कैंल सवे कृपार अवधि
भक्ति रचनाकार4/३९२

कविराज गोस्वामी के श्रीपाट श्री झामटपुर में श्री नित्यानन्द प्रभु का अति छोटा पादपीठ मन्दिर है। स्थानीय लोगों का कहना है कि इसी स्थान पर कविराज गोस्वामी ने नित्यानन्द प्रभु की कृपा प्राप्त की थी तथा इसी स्थान पर उन्होंने नित्यानन्द से दीक्षा भी प्राप्त की थी, किन्तु प्रेमविलास ग्रन्थ में लिखा है कि श्रीकृष्ण दास कविराज गोस्वामी श्रील रघुनाथ दास गोस्वामी द्वारा दीक्षित थे। कविराज गोस्वामी जी के श्रीपाठ में श्रीगौरनित्यानन्द जी के विग्रह विराजित है। कविराज गोस्वामी द्वारा पहनी हुई पादुका कहकर एक लकड़ी की पादुका वहां दिखाई जाती है। श्री कृष्णदास कविराज गोस्वामी की भजनकुटीर और समाधि राधाकुंड में आज भी विराजित है।

श्री रघुनाथ दास गोस्वामी जी केअप्रकट होने के पश्चातआशिवन शुक्ला द्वादशी तिथि को श्रील कविराज स्वामी जी ने नित्यलीला में प्रवेश किया।

स्रोत: श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज द्वारा रचित ग्रन्थ “गौर-पार्षद” में से