छठा परिच्छेद

गुरु-अवज्ञा

पन्चतत्त्व जय जय श्रीराधामाधव।
जय नवद्वीप व्रज यमुना वैष्णव ।।

हरिदास बले प्रभु करि निवेदन।
तृतीयापराध नामे येरूपे घटन ।।

विस्तारि’ बलिव आमि तोमारि आज्ञाय।
येइ सब अपराध गुरु – अवज्ञाय ।।

बहुयोनि भ्रमि’, मानव – शरीर, दुर्लभ शुभद अति ।
तथापि अनित्य, पाइलेक येइ, यावत् जीवने स्थिति ।।

परम मंगल, लभिवार तरे, यदि ना यतन करे।
पुनराय भवे, अनित्य शरीर, लभिया आबार मरे ।।

भगवान श्रीचैतन्य महाप्रभु, श्रीमन् नित्यानन्द प्रभु, श्रीअद्वैताचार्य, श्रीगदाधर पंडित व श्रीवास पंडित इन पंचतत्त्व की जय हो, श्रीराधा-माधव जी की जय हो। श्रीनवद्वीप धाम, श्री व्रजधाम, श्रीयमुना जी और सभी वैष्णवों की जय हो।

श्रीहरिदास ठाकुर निवेदन करते हुये श्रीमन् महाप्रभु से कहने लगे-हे प्रभु! अब मैं आपकी आज्ञानुसार तीसरे अपराध ‘गुरु- अवज्ञा’ के बारे में विस्तार से कहूँगा कि ये कैसे घटित होता है तथा जीवन में किस प्रकार से गुरु – अवज्ञा होती है।

अनेक योनियों में भ्रमण करने के बाद जीव को ये मनुष्य शरीर मिलता है जो कि अति दुर्लभ एवं मंगल प्रदान करने वाला है। जितनी भी लम्बी अवधि के लिए ये शरीर मिले, परन्तु होता ये अनित्य ही है। मानव शरीर को धारण करने पर भी जब कोई भजन न करे तो उसे इस मानव देह को त्याग कर फिर से अनित्य संसार में जन्म लेना और मरना पड़ता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय श्रीनामसंकीर्तन है

जो नामकीर्तन करते हैं, उनका समस्त प्रकार से मंगल होता है। तब एक बात है-जो नामकीर्तन करेंगे, पहले उनको श्रवण करने की आवश्यकता है। श्रीकृष्णनाम – संकीर्तन ही साधन शिरोमणि है। श्रीनामभजन में जीव की सर्वसिद्धि होती है । साधुसंग में नामकीर्तन के अतिरिक्त हमारा अन्य कोई कार्य नहीं है । श्रीमद्भागवत का प्रतिपाद्य विषय श्रीनामसंकीर्तन है। जो मुक्त हो चुके हैं, उनके लिए भी नामसंकीर्तन के अतिरिक्त अन्य कर्तव्य नहीं है । जो मन्त्र उच्चारणकारी हैं, वे अपने को श्रीनाम के चरणकमलों में अर्पण करते हैं। जिस दिन मन्त्रसिद्धि होती है, उसी दिन से उसके मुख में सब समय हरिनाम नृत्य करने लगते हैं। जो कृष्णकीर्तन करते हैं, ऐसे मठवासी भक्तों की सेवा से विमुख होकर भजन का अभिनय करने पर मंगल नहीं होगा । श्रीमद्भागवत – पाठ गृहस्थ एवं मठवासी सभी के लिए आवश्यक है।

श्रीलप्रभुपाद
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श्रीमद्भागवतम
६-३-२९

जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम् ।
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि तानानयध्वमसतो ऽकृ तविष्णु कृ त्यान् ।।

मेरे दूतों, मेरे सामने ऐसे ही पापी लोगोंको लाओ जो अपनी जीभ का उपयोग भगवान् कृष्ण के पवित्र नाम और गुणोंका कीर्तन करने में नहीं करते, जिनके हृदय भगवान् कृष्ण के चरण-कमलों का एक बार भी स्मरण नहीं करते, और जिनके सिर एक बार भी भगवान् कृष्ण के सामने नहीं झुकते । मेरे सामने इन लोगोंको भेजो जो भगवान् विष्णु के प्रति स्व-कर्तव्य का पालन नहीं करते, जो मानव जीवन का एकमात्र कर्तव्य है। ऐसे ही मूढों और दुष्टों को मेरे सामने लाओ।
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