गृहस्थ-वैष्णवों के कर्त्तव्य
गृहस्थ हइया येइ विष्णुभक्त हय।
सर्वकार्य कृष्ण पूजे छाड़िया संशय ।।
निषेकादि श्मशानान्त संस्कार यत।
ताहाते पूजयें कृष्ण वेदमन्त्रमत ।।
विष्णु – वैष्णवेर पूजा वेदेते विधान।
देवपितृगणे कृष्णनिर्माल्यप्रदान ।।
माँयावादिमते पितृश्राद्ध येइ करे।
येवा अन्यदेव पूजे, अपराधे मरे ।।
विष्णुतत्त्वे द्वैतबुद्धि नाम – अपराध ।
सेइ अपराधे ता’र हय भक्तिबाध ।।
शिवादि देवतागणे पृथक् ईश्वर।
मानिले नामापराध हय भयंकर ।।
विष्णुशक्ति पराशक्ति हैते देव यत।
भिन्न शक्ति सिद्ध नय वेदेर सम्मत ।।
शिव – ब्रह्मा – गणपति – सूर्य – दिक्पाल ।
कृष्णशक्ति – बलेते ईश्वर चिरकाल ।।
अतएव परेश्वर एकमात्र जानि।
आर सब देवे ताँ’र शक्तिमध्ये गणि ।।
अतएव सर्वकार्य कर्म – जड़भाव ।
छाड़िया गृहस्थ पाय भक्तिर सद्भाव ।।
गृहस्थ होकर जो, श्रीविष्णु – भक्त होता है वह सभी संशय त्यागकर हर परिस्थिति में श्रीकृष्ण की पूजा करता है। जन्म से मरने तक जितने भी संस्कार हैं, गृहस्थ व्यक्ति उन सभी में वेद मन्त्रों के अनुसार श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं। भगवान विष्णु व वैष्णवों की पूजा का तथा देवी-देवताओं व पितृगणों को श्रीकृष्ण का प्रसाद देने का, वेद में विधान है।
मायावादियों के मत के अनुसार जो व्यक्ति पितृश्राद्ध एवं अन्य देवों की पूजा करते हैं, वे अपराधी हैं तथा इस अपराध के कारण उनकी दुर्गति होती है। हरिदास ठाकुर जी कहते है, हे गौरहरि ! जैसे विष्णु जी एक ईश्वर हैं, उसी प्रक्रार शिव जी इत्यादि भी अलग अलग ईश्वर हैं विष्णु तत्त्व में इस प्रकार की भेद-बुद्धि करना भी एक प्रकार का भयंकर नामापराध है। भगवान विष्णु की शक्ति पराशक्ति है, इसी से सभी देवी-देवता आये हैं। वेदों के अनुसार भगवान की शक्ति के इलावा और कोई शक्ति नहीं हैं। शक्ति को शक्तिमान से कभी भी अलग नहीं किया जा सकृत्ता, यही वेद का सिंद्धान्त है। शिव, ब्रह्माजी, गणेश जी तथा सूर्य व अलग अलग दिशाओं के देवता हमेशा से ही श्रीकृष्ण के द्वारा शक्ति प्रदान करने पर ही कुछ सामर्थ्य रखते हैं। हरिदास जी कहते हैं कि इन्हें ईश्वर कहा जा सकता है परन्तु मैं समझता हूँ कि परमेश्वर एक है तथा जितने भी देवी-देवता हैं, सभी इन्हीं परमेश्वर की शक्ति हैं। अतः गृहस्थ – भक्त यदि कर्मकाण्ड के जड़ भाव का परित्याग कर दें तो वहु भगवान की भक्ति के सद्भाव को ग्रहण करेंगे।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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