मायावादी व धर्मध्वजी आदि के दोष कहने को साधु-निन्दा नहीं कहते

वर्जिले ए सब संग साधुनिन्दा नय।
इहाके ये निन्दा बले, सेइ वर्जय हय ।।

एइ सब संग छाड़ि’ अनन्यशरण।
कृष्णनाम करि’ पाय कृष्णप्रेमधन ।।

इन सबका अर्थात् मायावादी, धर्मध्वजी तथा निरीश्वरवादी के संग का त्याग करने को साधु का अपमान या साधु निन्दा नहीं कहते बल्कि जो व्यक्ति इनके संग को त्याग करने को साधुनिन्दा कहता है, उसका संग वर्जनीय है। ऐसे व्यक्तियों के संग का भी परित्याग कर देना चाहिए।

असत् – संग छोड़कर जो श्रीकृष्ण की अनन्य भाव से शरण लेकर श्रीकृष्ण नाम करते हैं, वही श्रीकृष्ण -प्रेम-धन को प्राप्त करते हैं।

*जो भगवान के नित्यस्वरूप को स्वीकार नहीं करता, जो श्रीकृष्ण की श्रीमूर्ति को माया की, अर्थात् लकड़ी व पत्थर आदि की बनी समझते हैं एवं जीव को भी माया – निर्मित तत्त्व कहते है, उन्हें मायावादी कहते हैं। ऐसे लोग जिनके अन्दर में भक्ति व वैराग्य लेशमात्र भी नहीं है, केवल अपने दुनियावी स्वार्थों को पूरा करने के लिए कपटता सहित साधु का वेश धारण करते हैं, उन्हें धर्मध्वजी कहते हैं तथा जो भगवान को न मानने वाले नास्तिक हैं उन्हें निरीवरवादी कहा जाता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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शुद्ध कीर्तन

कीर्तन श्रवण के ऊपर निर्भर करता है । जिसके द्वारा अपना या दूसरों का इन्द्रिय तर्पण होता है, वह कीर्तन या भक्ति नहीं है । भगवान के सुख के लिए जो कीर्तन होता है, वही शुद्ध कीर्तन है । श्रीचैतन्य महाप्रभु ने कहा है – श्रीहरि का कीर्तन ही Cent percent education अर्थात् हरिकीर्तन ही असली शिक्षा है । हरिकथा जितनी सुनी जाय, उतना ही मंगल होगा।

श्रीलप्रभुपद

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जीवों को स्वरूप-विचार में यदि विवर्त होगा अर्थात् भ्रम हो जाएगा तो उनका साध्य अर्थात् लक्ष्य भी भ्रमित सा रहेगा। यही नहीं, ऐसी स्थिति में यह निश्चित है कि उस भ्रमित लक्ष्य को पाने के लिए उनकी साधना भी भ्रमित ही होगी।

अतत्त्वतोऽन्यथा बुद्धिर्विवर्त्त इत्युदाहृतः

(सदानन्द कृत ‘वेदान्तसारं’ 49 संख्या)

अर्थात जो वस्तु, जो नहीं है, उसमें उस वस्तु की ही प्रतीति हो जाने का नाम ही विवर्त (भ्रम) है। ये विवर्त जीवों के लिए एक महादोष है। माया में फंसा जीव इसी दोष के कारण विभिन्न प्रकार के अनर्थों से पीड़ित रहता है।

श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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