श्री ईशोपनिषद्
ईश-स्तुति
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ।।
भगवान् पूर्ण हैं और चूँकि वे पूरी तरह अखण्ड हैं, अतएव उनके सारे उद्भव, तथा यह व्यवहार जगत् पूर्ण के रूप में परिपूर्ण हैं। पूर्ण से जो कुछ उत्पन्न होता है वह भी अपने में पूर्ण होता है। चूँकि वे पूर्ण हैं, अतएव उनसे न जाने कितनी पूर्ण इकाइयाँ उद्भूत होती हैं, तो भी वे पूर्ण रहते हैं।
_ _ _ _ _ _ _
श्रीमद्भगवतं
१२-३-५१
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति होको महान् गुणः ।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसंगः परं व्रजेत् ।।
हे राजा! यद्यपि कलियुग दोषों का सागर है फिर भी इस युग में एक अच्छा गुण है-केवल हरे कृष्ण मन्त्र का कीर्तन करने से मनुष्य भवबन्धन से मुक्त हो जाता है और दिव्य धाम को प्राप्त होता है।
_ _ _ _ _ _ _ _ _