श्रीमद् भागवतम्
५-१२-१२

(जडभरत ने राज रहूगण से कहा)

रहूगणैतत्तपसा न याति
न चेज्यया निर्वपणाद् गृहाद्वा।
नच्छन्दसा नैव जलाग्निसूर्ये र्विना महत्पादरजोऽभिषेकम् ।।

हे राजा रहूगण! महापुरुषों के चरणकमलों की धूलि से सम्पूर्ण शरीर को स्नान किये बिना परम सत्य की प्रतीति नही हो सकती। ब्रह्मचर्य धारण करने, गृहस्थ जीवन के विधि-विधानों के अनुपालन, वानप्रस्थ के रूप में गृहत्याग अथवा शीत ऋतु में जल में घुसे रहने, या ग्रीष्म में अग्नि में अथवा सूर्य कि झुलसती धूप में पडे रहने जैसी कठिन तपस्याओं से परम सत्य कि प्रतिती नही हो सकती। परम सत्य को जानने के और भी अनेक साधन है, किन्तु परम सत्य उसे ही प्राप्त होता है जिसे महान भक्त का अनुग्रह प्राप्त हो।
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