नाम-परायण वैष्णव ही साधु हैं
हेन साधु – मुखे यबे शुनि एक नाम।
‘वैष्णव’ बलिया तारे करिब प्रणाम ।।
वैष्णव से जगद्गुरु, जगतेर बन्धु।
वैष्णव सकल – जीवे सदा कृपासिन्धु ।।
ए हेन वैष्णव – निन्दा येइ जन करे।
नरके पड़िवे सेइ जन्म – जन्मान्तरे ।।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि इस प्रकार के अर्थात् ऊपर जो कम अक्षरों में साधु के लक्षण बताये गए हैं, ऐसे साधु के मुख से जब मैं एक श्रीकृष्णनाम सुनता हूँ तो मैं उसे वैष्णव समझ कर प्रणाम करता हूँ। क्योंकि वैष्णव ही जगद्गुरु हैं और वे ही जगत् के बन्धु हैं। सभी वैष्णव जीवों के लिए कृपा के समुद्र होते हैं। इस प्रकार के वैष्णव की जो निन्दा करते हैं, वे नरक में जाते हैं तथा जन्म-जन्मान्तर के चक्करों में फँसे रहते हैं।
भक्ति लभिवारे आर नाहिक उपाय।
भक्ति लभे सर्वजीव वैष्णव कृपाय ।।
वैष्णव – देहेते थाके श्रीकृष्णेर शक्ति।
सेइ – देह – स्पर्श अन्ये हय कृष्णभक्ति।।
वैष्णव – अधरामृत आर पद – जल।
वैष्णवेर पदरजः तिन महाबल ।।
वैष्णव – कृपा को छोड़कर भक्ति को प्राप्त करने का और दूसरा कोई उपाय नहीं है। वैष्णव की कृपा से ही सब जीवों को भक्ति की प्राप्ति होती है। वैष्णवों के देह में श्रीकृष्ण शक्ति रहती है। ऐसे वैष्णवों को स्पर्श करने से भी श्रीकृष्ण में भक्ति उदित हो जाती है। वैष्णवों की जूठन, वैष्णवों के चरणों का जल तथा वैष्णवों के चरणों की धूलि – ये तीनों ही भक्ति की साधना में बल प्रदान करने में बड़े प्रभावशाली हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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