गृहस्थ और गृहत्यागी के स्वरूप लक्षण एक ही हैं

स्वरूप लक्षण एक, सर्वत्र समान ।
आश्रमादि भेदे पृथक् तटस्थ विधान ।।

अनन्यशरणे यदि देखि दुराचार।
तथापि से ‘साधु’ बलि’ सेव्य सवाकार ।।

एइ त’ श्रीकृष्णवाक्य गीता – भागवते ।
इहाके पूजिब यत्ने सदा सर्व मते ।।

इहाते आछे त’ एक निगूढ़ सिद्धान्त ।
कृपा करि’ जानायेछ ताइ पाइ अन्त ।।

गृहस्थ और गृहत्यागी – दोनों के लिए, स्वरूप – लक्षण एक ही हैं, किन्तु आश्रम के भेद से, तटस्थ – लक्षण का कुछ अलग विधान है। श्रीकृष्ण की अनन्य शरणागति ही भक्त का स्वरूप लक्षण है अर्थात् मुख्य लक्षण है। जिसमें उक्त स्वरूप – लक्षण है, उसमें तटस्थ लक्षण भी अवश्य होंगे। किन्तु किसी श्रीकृष्ण के एकान्त शरणागत व्यक्ति में, यदि किसी अंश में तटस्थ – लक्षण पूर्ण उदित न होकर, उसके आचरण में कुछ कमी रह जाये, तब भी वह साधु ही है। श्रीकृष्ण ने यह वाक्य श्रीमद्भागवत एवं श्रीमद्भगवद्गीता में कहे हैं। भगवान श्रीकृष्ण तो ये भी कहते हैं कि ऐसे भक्त की यत्न के साथ हमेशा तथा हर प्रकार से पूजा करनी चाहिए। श्रीहरिदास ठाकुर कहने लगे – हे प्रभु! इसमें जो एक रहस्यमय सिद्धान्त है। आपने ही कृपा करके वह समझाया है, अन्यथा ये रहस्य भला मेरी समझ में कैसे आता।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
_ _ _ _ _ _ _ _ _ _

जिस क्षण हमारा रक्षाकर्ता नहीं रहेगा उसी क्षण हमारी निकटवर्तीनी सब वस्तुएँ शत्रु होकर हम पर आक्रमण करेंगी । सच्चे साधु की हरिकथा ही हमारी रक्षक है।

श्रीलप्रभुपाद
_ _ _ _ _ _ _ _

‘आर्थिक समस्या, घरेलु समस्या, राजनैतिक समस्या आदि का समाधान होने से ही व तथाकथित सामाजिक समानता होने से ही विश्व- समस्या का समाधान होगा इस प्रकार की शिक्षा हमारे गुरुदेव जी ने नहीं दी। चिकित्सा दो प्रकार की है- Symptomatic and Pathological अर्थात् रोग के लक्षणों के अनुसार एवं रोग के कारण के अनुसार । Symptomatic चिकित्सा में थोड़े समय के लिए आराम देखा जाता है किन्तु रोग का कारण समाप्त नहीं होता, इसलिए रोग के दुबारा होने की आशंका बनी रहती है। एक रोग समाप्त होता है तो दूसरा शुरु हो जाता है जबकि Pathological treatment में रोग के कारण को खोज कर उसे दूर किया जाता है, क्योंकि रोग का कारण समाप्त हो जाने के कारण उसके दुबारा होने की सम्भावना नहीं रहती। ऐसी चिकित्सा को ही उत्तम चिकित्सा कहा जाता है। उसी प्रकार विश्व-समस्या के मूल कारण को यदि समाप्त कर दिया जाए, तभी समस्या का वास्तविक समाधान होगा नहीं तो कुछेक समस्याओं का ही समाधान करते रहेंगे तो उससे नयी-नयी समस्याएँ उत्पन्न होंगी।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _

गरुड पुराण

अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकैः ।
पुमान विमुच्यते सद्यः सिंहत्रस्तैर्मृगैरिव ।।

यदी कोई असहायावस्था में भी या बिना इच्छा के ही पवित्र नाम का कीर्तन करता है तो उसके सारे पाप तुरन्त भाग जाते है जिस तरह सिंह की गर्जना वन के छोटे पशुओं को भय के मारे भागने के लिए बाध्य करती है।
_ _ _ _ _ _ _ _ _

शास्त्रों को मानकर चलने की अवस्था धीरे-धीरे लुप्त होने लगी है

जो लोग शास्त्रों को नहीं मानते हैं, वे ही हेय हैं। जो लोग शास्त्रों को मानकर चलते हैं, वे ही श्रेष्ठ हैं। यह बहुत दुःख की बात है कि, शास्त्रों को मानकर चलने की अवस्था धीरे-धीरे लुप्त होने लगी है। किसी दल का गठन करके शास्त्र की विधि को बलपूर्वक दबा देना उचित नहीं है। परन्तु शास्त्रविधि को पूरे जोर से सभी जीवों के निकट व्यक्त करने की ही आवश्यकता है। यदि लाखों व्यक्तियों में से एक व्यक्ति भी उस प्रकार शास्त्रविधि को मानकर चलने लगे, तो वही आदर्श है, और वही धन्य है।

श्रील भक्ति प्रज्ञन केशव गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _

शुद्ध-नाम ग्रहण- साधन और कृपा पर निर्भर

“निरपराधे नाम लइले पाय प्रेमधन” (निरपराध होकर नाम लेने से प्रेमधन मिलता है) यह वास्तव सत्य है। शुद्धभाव से श्रीनाम ग्रहण एक दिन में ही नहीं होता है; यह साधन की वस्तु है; फिर कृपा पर भी निर्भर है। दृढ़चित्त होकर निष्ठा के साथ आगे बढ़ने से वांछित फल अवश्य ही लाभहोगा। इसे लेकर मन में किसी प्रकार का संदेह या संशय मत रखना। जन्म (कुल), ऐश्वर्य, श्रुत (विद्या) और श्री (रूप) भजन-साधन के क्षेत्र में प्रतिकूलता लाते हैं और बहुत बाधा-विघ्न उत्पन्न करते हैं; किन्तु निष्कपट, सरल होने पर अतिशीघ्र सुफल मिलता है। संसार में व्यक्तिगत स्वार्थ का संघर्ष रहेगा ही। इसी में रहकर जो अपने अभीष्ट पथ पर चलने का संकल्प ग्रहण करता है, उसकी किसी प्रकार की क्षति की संभावना नहीं है। धैर्य स्थैर्य-सहनशीलता ही जीवन-पथ का श्रेष्ठ ‘पाथेय’ और संबल है। उसके साथ उत्साह, अनुप्रेरणा, विश्वास, आत्म-निर्भरता को अवश्य ही जोड़ना होगा। श्रीभगवान् निश्चय ही प्ररेणा प्रदान करते हैं, उसके द्वारा ही जीव अपने साधन-पथ का निर्णय करता है और जीवन के पथ पर अग्रसर होता है तथा चरम फल प्राप्त करता है।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
_ _ _ _ _ _ _ _ _