गृहस्थ में रहने वाले साधु के लक्षण

रघुनाथदासे लक्ष्य करिया सेवार।
गृहिसाधुजने शिखायेछ एइ सार ।।

स्थिर ह’ये घरे याओ, ना हओ बातुल।
क्रमे क्रमे पाय लोक भवसिन्धुकूल ।।

मर्कट – वैराग्य छाड़ लोक देखाइया।
यथायोग्य विषय भुन्ज अनासक्त हया ।।

अन्तरे निष्ठा कर, बाह्य लोकव्यवहार ।
अचिरे श्रीकृष्ण तोमाय करिबे उद्धार ।।

में श्रीहरिदास ठाकुर जी कहने लगे – हे प्रभु! आपने श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को लक्ष्य करके गृहस्थ आश्रम साधु (भक्त) कैसे रहेंगे, इसकी सार शिक्षा दी है। आपने उस समय श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी जी को कहा था कि वह स्थिर होकर अपने घर जायें एवं पागल न बनें। छलांग मारकर कोई भी भवसागर से पार नहीं होता। भगवद् – भक्ति की साधना में लगे रहें, साधना करते-करते श्रीकृष्ण जी की कृपा से धीरे -धीरे जीव भव सागर से पार उतर जाते हैं। दुनियाँ वालों को दिखाने के लिए बन्दर जैसा दिखावटी वैराग्य दिखाने की कोई आवश्यकता नहीं, संसार के विषयों के प्रति अनासक्त रहो तथा दुनियाँ में रहने के लिए, गृहस्थ में रहने के लिए जितने विषयों की आवश्यकता हो, उतने विषयों को कर्तव्य समझकर अनासक्त भाव से स्वीकार करते रहो। हाँ, हृदय में भगवान के प्रति प्रगाढ़ निष्ठा रखो तथा साथ ही जगत के लोगों से अपने व्यवहार को ठीक रखो, ऐसा करने से बड़ी जल्दी ही श्रीकृष्ण प्रसन्न होकर तुम्हारा उद्धार कर देंगे।

गृहत्यागी साधु के लक्षण

पुनः तुमि ता’र देखि’ वैराग्य – ग्रहण।
एइ मत शिक्षा दिले अपूर्व श्रवण ।।

ग्राम्यकथा ना शुनिबे, ग्राम्यवार्त्ता ना कहिबे।
भाल न खाइबे आर भाल न परिबे ।।

अमानी मानद हया, कृष्णनाम सदा लबे।
व्रजे राधाकृष्णसेवा मानसे करिबे ।।

हे प्रभु! तुमने पुनः श्रीरघुनाथदास जी को वैराग्य का रास्ता ग्रहण करने पर, जो शिक्षा प्रदान की थी वह बड़ी अद्भुत थी। आपने कहा था कि ग्राम्य बातें अर्थात् अश्लील बातें न तो सुनना और न ही बोलना। अच्छा खाना व अच्छा पहनना, यह भी वैरागी को शोभा नहीं देता, ये भी मत करना। दूसरों के सम्मान देते हुए एवं स्वयं अमानी होकर हमेशा श्रीकृष्णनाम करते रहना तथा मानसिक चिन्तन द्वारा ब्रज में श्रीराधा-कृष्ण जी की सेवा करते रहना।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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जीव की बहिर्मुख रुचि को बदलना ही सर्वापेक्षा दयालु व्यक्तियों का एकमात्र कर्तव्य है । माया के जाल से एक जीव की रक्षा कर सको तो अनन्त कोटि अस्पताल बनाने की अपेक्षा उससे अनन्तगुण परोपकार का कार्य होगा ।

श्रीलप्रभुपाद
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नित्यप्रति शास्त्र – श्रवण द्वारा चित्त मार्जित होता है। किसी के द्वारा साक्षात् रूप से कोई भी दोष या त्रुटि दिखाने पर कई बार हमारे अभिमान में आघात लगता है और हमारा चित्त क्षुब्ध हो जाता है, किन्तु शास्त्र किसी पर व्यक्तिगत रूप से आक्रमण नहीं करता। इसलिए अभिमानी व्यक्ति उसे सुनकर स्वयं की कमियों का अनुभव करने का सुयोग प्राप्त करता है। इस अनुभूति के बाद अभिमानी व्यक्ति उनको परित्याग करने में यत्नवान होता है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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गरुड पुराण

ॐ अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा ।
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बह्याभ्यन्तर शुचिः ।।

कोई चाहे शुद्ध हो, दूषित हो और उसकी बाह्य स्थिती चाहे जैसी हो यदि वह कमलनेत्र भगवान् का स्मरण करता है, तो अपने जीवन को बाहर तथा भितर से स्वच्छ कर सकता है।
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