साधु-निन्दा ही पहला अपराध है

साधु निन्दा प्रथमापराध बलि’ जानि ।
एइ अपराधे जीवेर हय सर्व हानि ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि मैं समझता हूँ कि साधु – निन्दा ही पहला अपराध है। इस अपराध से जीव का हर प्रकार से ही अकल्याण होता है।

साधु के स्वरूप और तटस्थ लक्षणों का विचार

साधुर लक्षण तुमि बलियाछ प्रभो।
एकादशे उद्धवेरे कृष्ण रूपे विभो ।।

दयालु, सहिष्णु, सम, द्रोहशून्यवत ।
सत्यसार, विशुद्धात्मा, परहिते रत ।।

कामे अक्षुभित बुद्धि, दान्त, अकिन्चन।
मृदु, शुचि, परिमितभोजी, शान्तमन ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! श्रीमद् भागवत के 11- वें स्कन्ध में आपने श्रीकृष्ण के रूप में उद्धव जी को साधु के लक्षणों के बारे में बताया है। आपने कहा था कि साधु अर्थात् भगवान का भक्त होगा – दयालु, सहनशील, समदर्शी, सत्यवादी, विशुद्धात्मा, हमेशा दूसरों के हित में लगा रहनेवाला, कामना – वासना से जिसकी बुद्धि विचलित न होने वाली, जितेन्द्रिय, अकिचन, मृदु, पवित्र, भगवान का भक्त उतना ही भोजन करेगा जितनी ज़रूरत है, इसके इलावा वह शान्त मन वाला होगा।

अनीह, धृतिमान्, स्थिर, कृष्णैकशरण।
अप्रमत्त, सुगम्भीर, विजित – षड्गुण ।।

अमानी, मानद, दक्ष, अवन्चक, ज्ञानी।
एइ सब लक्षणेते साधु बलि’ जानि ।।

एइ सब लक्षण प्रभो हय द्विप्रकार।
स्वरूप – तटस्थ – भेदे करिब विचार ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते है कि भक्त के अन्य लक्षण हैं जिसकी कोई स्पृहा न हो, धैर्यवान, स्थिर, श्रीकृष्ण के शरणागत, विषय – वासनाओं से दूर रहने वाला, गम्भीर, कामक्रोध आदि से मुक्त, मान-सम्मान की परवाह न करने वाला, सबको सम्मान देने वाला, दूसरों को हरिकथा सुनाने व हरिभजन कराने में निपुण, दूसरों को न धोखा देने वाला और न ही दूसरों से धोखा खाने वाला तथा ज्ञानी।

हरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हे प्रभु! यह सब लक्षण जिसमें हैं, वही साधु है परन्तु हे प्रभु! स्वरूप लक्षण और तटस्थ लक्षण के भेद से, ये सभी लक्षण दो प्रकार के होते हैं जिन पर मैं अब विचार करूँगा।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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भक्तों के संग से ही भक्ति होती है

भक्ति के प्रारम्भ में ही श्रद्धा की बात है । ‘श्रद्धावान् जीव हय भक्ति – अधिकारी’ अर्थात् श्रद्धावान् जीव ही भक्ति का अधिकारी है । सर्वप्रथम साधुसंग में शास्त्रों का श्रवण करने से श्रद्धा अर्थात् शास्त्र की बातों में विश्वास हो जाता है । कृष्ण के साथ सम्बन्धज्ञान तो हुआ नहीं, फिर भी भक्ति हो गयी, ऐसा कदापि नहीं हो सकता । क्योंकि शास्त्र कहते हैं- ‘भक्तिः परेशानुभवों विरक्तिरन्यत्र चैषत्रिक एककालः ।’ अर्थात् विषयों से वैराग्य और भगवद् – ज्ञान भक्ति के साथ एक ही समय उदित होते हैं । भक्ति का उदय हुए बिना विषयों से वैराग्य और भगवान की अनुभूति की कोई सम्भावना नहीं है । शुद्धभक्ति में धर्म – अर्थ-काम-मोक्ष की वाञ्छा नहीं रहती । भक्तों के संग से ही भक्ति होती है।

श्रीलप्रभुपाद
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कामनाओं को बढ़ाने की कोशिशों से किसी का भी उपकार नहीं होता

वर्तमान में पृथ्वी पर राजनीति, समाजनीति, अर्थनीति और धर्मनीति आदि को लेकर बड़े-बड़े विद्वान् लोग आपस में सिर फोड़ रहे हैं। उनमें से अधिकांश का प्रयास, मात्र जनता के सांसारिक सुख-सुविधाओं के उपायों की खोज करना ही होता है। दुःख का विषय यह है कि उनकी चेष्टाओं में भी विचारों की गम्भीरता का अभाव होता है। वे मनुष्यों के तात्कालिक दुःखों को दूर करने के लिये आपस में बढ़ने वाली शत्रुता की ओर ध्यान नहीं देते। दूसरों के दुःखों को दूर करना साधु का स्वभाव है। किन्तु दुःख एवं सुख के स्वरूप को पहचानने में सुख-दुःख का अनुभव करने वाला कौन है इसका निर्णय करने में अधिकाँश व्यक्ति भ्रम में पड़ जाते हैं क्योंकि ये देह, मन इत्यादि सब जड़ पदार्थ है। उनकी अर्थात् शरीर व मन इत्यादि की सुख-दुःख अनुभव करने की शक्ति नहीं है। किन्तु उनके अन्दर जो चेतन सत्ता या आत्मा विद्यमान है उसमें अनुभव करने की शक्ति है तथा उसके साथ रहने के कारण देह व मन इत्यादि बाहर से अनुभूति करने वाले लगते हैं। आत्मा या चेतन सत्ता के अभाव में देह-मन की अपनी कुछ भी अनुभूति नहीं रहती। उस चित्-तत्त्व अर्थात आत्मा के सुख में किस प्रकार समृद्धि हो सकती है या आत्मा का सुख कैसे बढ़ सकता है, विवेकी व्यक्तियों के लिये यही विचारणीय विषय होना चाहिये। किन्तु पृथ्वी के शासकों की श्रेणी में नीति-निर्धारण करने वाले बुद्धिजीवियों में उसके लिये सोचने की होश ही नहीं है। वे लोग सोचते हैं कि मान-मर्यादा एवं धन आदि के समान वितरण से ही देश में सुख-शान्ति हो सकती है। वे यह भूल जाते हैं कि कामनाओं को ईंधन देने से कामनायें कभी भी शान्त नहीं होतीं बल्कि और भी प्रबल हो उठती हैं। कामनाओं को बढ़ाने की कोशिशों से किसी का भी उपकार नहीं होता। कामनायें तो आपसी कलेश उत्पन्न करती हैं। कामनाओं को ईंधन देने वाले व्यक्ति स्वयं भी कामाग्नि में जलते रहते हैं और दूसरों को भी जलाते हैं। इन कामनाओं के हाथों से बचने का एक मात्र सुनिश्चित उपाय जो हमारे ऋषियों ने निर्धारित किया है वह है-‘प्रेम’। प्रेम नित्य-भूमिका में विद्यमान है, जबकि देह-मन का धर्म तो नश्वर, सदा परिवर्तनशील एवं दुःख को देने वाला है। पूर्ण-कारण परमात्मा अथवा भगवान् के प्रति जीवात्मा का अनुराग ही प्रेम कहलाता है। उस दिव्य व नित्य भूमिका में प्रेमास्पद अर्थात् जिसे प्रेम किया जाता है तथा प्रेमी अर्थात् जो प्रेम करता है- दोनों ही नित्य होते हैं। दोनों ही नित्य तत्त्व होने के कारण नश्वर वस्तुओं में आसक्ति-हीन होते है। यही कारण है कि उस स्थिति तक पहुँचे व्यक्तियों की दुःख, भय और शोकादि के वशीभूत होने की सम्भावना नहीं रहती।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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