भगवद्भक्तों को अवश्य ही मायावादियों के संग का परित्याग करना चाहिए
मायावादि – सङ्ग तेह सतर्क छाड़िया।
शुद्ध नामपरायणे तुषिबे सेविया ।।
एइ त’ तोमार आज्ञा श्रीकृष्णचैतन्य।
सेइ आज्ञा जेइ पाले, सेइ जीव धन्य ।।
ये ना पाले तब आज्ञा, सेइ जीव छार।
कोटी जन्मे किछुतेइ ना ह ‘बे उद्धार ।।
कुसंग छाड़िये प्रभु राख तब पाय।
तव पादपद्म बिना ना देखि उपाय ।।
हरिदास – पदद्वन्द्वे विनोद याहार।
‘हरिनामचिन्तामणि’ सदा गान ता’र ।।
हरिदास ठाकुर जी कहते हैं- हे महाप्रभु जी! आपकी आज्ञा है कि भगवद् – भक्तों को मायावादियों का संग सावधानीपूर्वक छोड़ देना चाहिए तथा शुद्ध – नाम परायण होकर भगवान को प्रसन्न करने की चेष्टा करते रहना चाहिए। आपकी इस आज्ञा का जो जीव पालन करता है, वही जीव धन्य है। जो अधम जीव आपकी इस आज्ञा का पालन नहीं करता है, वह चाहे किसी भी प्रकार के साधन करे, उस जीव का करोड़ों जन्मों में भी उद्धार नहीं होगा। हे प्रभु! आप हमें कुसंग से बचाकर अपने चरणकमलों में रखिए, क्योंकि आपके पादपद्मों की कृपा के अतिरिक्त हमारे कल्याण का और कोई उपाय नहीं है।
श्रील भक्ति विनोद ठाकुर जी कहते हैं कि श्रीहरिदास ठाकुर जी के पादपद्मों में ही जिन्हें वास्तविक आनन्द की अनुभूति होती है, वे इस ‘हरिनाम चिन्तामणि’ का हमेशा गुणगान गाते रहते हैं।
इति श्रीहरिनाम – चिन्तामणौ नामाभासवर्णनं नाम तृतीयः
परिच्छेदः।
हरिनाम चिन्तामणि
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महापुरुषों की कृपा के बिना कृष्णसेवा कोई नहीं कर सकता । इसीलिए सद्गुरु – चरणाश्रय की इतनी आवश्यकता है । “महत्कृपा बिना कोन कर्मे भक्ति नय । कृष्णभक्ति दूरे रहु, संसार नहे क्षय ।।”
जो सब समय कृष्णसेवा करते हैं, उन साधुओं के संग में रहने से ही हमारी सेवाप्रवृत्ति जागेगी । कृष्णभक्तों के संग के बिना कृष्णसेवा की इच्छा नहीं जाग सकती । हरिसेवा कोई तमाशे की चीज नहीं है । यह केवल साधुसंग और कृपा – सापेक्ष है (कृष्णसेवा केवल साधुओं के संग में या साधुओं की कृपा से ही होती है ।) साधु एवं गुरु का पूर्ण आनुगत्य करने पर ही सेवा का सौभाग्य प्राप्त होता है ।
श्रीलप्रभुपाद
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