छाया नामाभास धीरे-धीरे जीव को शुद्ध नाम की ओर ले जाता है यदि वह दुष्ट मत में प्रवेश न करे तो

छाया – नामाभासी नाहि जाने दुष्टमत।
मतवादे चित्तबल नहे तार हत ।।से केवल नाहि जाने यथार्थ प्रभाव।

से प्रभाव ज्ञानदान नामेर स्वभाव ।।

मेघाच्छने, सूर्यप्रभा प्रतीत ना हय।
किन्तु मेघे नाशि’ सूर्य करेन उदय ।।

छाया – नामाभासी धन्य सद्गुरू – प्रभावे।
अल्पदिने नाम – प्रेम अनायासे पाबे ।।

चूंकि छाया – नामाभासी व्यक्ति का मायावाद रूपी दुष्ट मत से कोई सम्बन्ध नहीं होता, इसलिए मतवादों के चक्कर में पड़कर उसका चिद्दल नष्ट नहीं होता। छाया नामाभासी व्यक्ति में केवल यह कमी होती है कि वह हरिनाम के वास्तविक प्रभाव को नहीं जानता जबकि हरिनाम का स्वभाव है कि वह अपने आश्रित को अपनी महिमा से अवगत करवा देता है। घने बादलों से ढक जाने के कारण सूर्य का तेज दिखाई नहीं पड़ता परन्तु यदि बादल छिन्न-भिन्न हो जायें तो सूर्य का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगता है। वैसे देखा जाये तो छाया नामाभासी व्यक्ति धन्य है क्योंकि सद्‌गुरु की कृपा से थोड़े ही दिनों में अनायास ही वह भगवद् – प्रेम प्राप्त कर लेता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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श्रीमद्भागवत में कहा है-साधुओं के हितकारी कृष्ण अपने नाम – गुण – श्रवणकारी व्यक्तियों के हृदय में अन्तर्यामी चैत्यगुरु के रूप में विद्यमान रहकर उसके हृदय में स्थित कामनाओं- वासनाओं को जड़ से ध्वंस कर देते हैं ।

जो भगवान की मंगलमयी कथाओं को श्रद्धापूर्वक प्रतिदिन श्रवण करते हैं अथवा कीर्तन करते हैं, भगवान अति शीघ्र स्वयं उसके हृदय में आविर्भूत हो जाते हैं । यदि सद्‌गुरु से हरिनाम श्रवण किया जाय, उनसे श्रीनाम ग्रहणकर निरन्तर कीर्तन किया जाय, तो अन्य चिन्ता और कामनाएँ सब दूर हो जायेंगी तथा सब समय कृष्णस्मृति होती रहेगी । कीर्तन के प्रभाव से ही स्वाभाविकरूप में स्मरण होता है । सरल हृदय से निरन्तर या प्रतिदिन श्रवण- कीर्तन किया जाय, तो अवश्य ही मंगल होगा तथा समस्त प्रकार की असुविधाएँ दूर हो जाएंगी।

श्रीलप्रभुपाद
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भक्ति साथ में मिश्रित हो, तभी कर्म, ज्ञान एवं योग अपना-अपना फल प्रदान कर सकते हैं। किन्तु भक्ति रहित होने पर ये सब फल देने में असमर्थ हैं। जहाँ पर भागवत और वेद के वाक्यों का आनुगत्य है, वहीं पर कर्म का फल – इस लोक और उस लोक में इन्द्रिय सुख की प्राप्ति, ज्ञान का फल-मुक्ति या ब्रह्मसायुज्य की प्राप्ति और योग का फल-सिद्धि या ईश्वर-सायुज्य आदि की प्राप्ति हो सकती है। ‘भक्ति मुख निरीक्षक कर्म- ज्ञान- योग’ किन्तु वे अर्थात कर्म व ज्ञान भगवान को या भगवान के प्रेम को प्राप्त नहीं करा सकते। केवल मात्र निष्काम शुद्धभक्ति के द्वारा ही भगवान या भगवत-प्रेम प्राप्त होता है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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