छाया और प्रतिबिम्ब भेद से आभास दो प्रकार का होता है छाया नामाभास

आभास द्विविध हय – प्रतिबिम्ब, छाया।
श्रद्धाभास द्विप्रकार, सब तब माया ।।

छाया श्रद्धाभासे छाया- नामाभास हय।
सेइ नामाभासे जीवेर शुभ प्रसवय ।।

आभास दो प्रकार के होते हैं प्रतिबिम्ब – आभास तथा छाया आभास। हे प्रभु! यह आपकी माया है कि श्रद्धा का आभास भी दो प्रकार से होता है। छाया श्रद्धाभास से छाया नामाभास होता है और इसी से जीव का शुभ उदित होने लगाता है।

प्रतिबिम्ब नामाभास

अन्य जीवे शुद्धा श्रद्धा करिया दर्शन ।
निज मने श्रद्धाभास आने येइ जन ।।
‘भोग – मोक्ष वान्छा ताहे थाके नित्य मिशि’।
अश्रमे अभीष्ट – लाभे यते दिवानिशि ।।

श्रद्धा लक्षण मात्र, श्रद्धा ताहा नय।
ता ‘के प्रतिबिम्ब – श्रद्धाभास शास्त्रे कय ।।

प्रतिबिम्ब – श्रद्धाभासे नामाभास यत।
प्रतिबिम्ब – नामाभास हय अविरत ।।

अन्य लोगों की भगवान में शुद्ध श्रद्धा को देखकर जो व्यक्ति अपने मन में भी श्रद्धा का आभास लाता है, उसे प्रतिबिम्ब नामाभास कहा जाता है। उस जीव के अन्दर इस श्रद्धा के साथ साथ दुनियावी भोग तथा मोक्ष आदि की इच्छाएँ भी रहती हैं और वह बिना प्रयास के ही अपनी अभीष्ट वस्तु श्रीकृष्ण – प्रेम को प्राप्त करने के लिए दिन-रात हरिनाम करता है। यह श्रद्धा का लक्षण मात्र है, इसे वास्तविक श्रद्धा नहीं कहा जा सकता। शास्त्रों में इसे प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास कहा गया है। प्रतिबिम्ब श्रद्धाभास की स्थिति में जितना भी हरिनाम उच्चारित होता है, वह सब प्रतिबिम्ब नामाभास ही होता है।

*प्रतिबिम्ब नामाभास मायावाद रूपी कपटता को उत्पन्न करता है?

एइ नामाभासे मायावाद दुष्टमत।
प्रवेशिया शठताय हय परिणत ।।

इस नामाभास में मायावाद रूपी दुष्ट मतों का प्रवेश हो जाये तो यह नामाभास धूर्तता में बदल जाता है।

कपट प्रतिबिम्ब नामाभास ही नामापराध है

नित्य साध्य नामे साधन बुद्धि करि’।
नामेर महिमा नाशि’ अपराधे मरि ।।

नित्य साध्य हरिनाम को सिर्फ साधन समझने से हरिनाम की महिमा को कम आँकना है। यह भी नामापराध है। जो व्यक्ति हरिनाम को सिर्फ साधन समझता है, वह बेचारा अपराधों में उलझ कर खत्म हो जाता है क्योंकि हरिनाम तो साक्षात् हरि हैं। ये साधन के साथ-साथ साध्य भी हैं।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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जिस क्षण हमारा रक्षाकर्ता नहीं रहेगा उसी क्षण हमारी निकटवर्तीनी सब वस्तुएँ शत्रु होकर हम पर आक्रमण करेंगी । सच्चे साधु की हरिकथा ही हमारी रक्षक है।

श्रीलप्रभुपाद
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नित्यप्रति शास्त्र – श्रवण द्वारा चित्त मार्जित होता है। किसी के द्वारा साक्षात् रूप से कोई भी दोष या त्रुटि दिखाने पर कई बार हमारे अभिमान में आघात लगता है और हमारा चित्त क्षुब्ध हो जाता है, किन्तु शास्त्र किसी पर व्यक्तिगत रूप से आक्रमण नहीं करता। इसलिए अभिमानी व्यक्ति उसे सुनकर स्वयं की कमियों का अनुभव करने का सुयोग प्राप्त करता है। इस अनुभूति के बाद अभिमानी व्यक्ति उनको परित्याग करने में यत्नवान होता है।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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