सम्बन्ध-ज्ञान
सद्गुरू – चरणे जीव श्रद्धा – सहकारे।
प्रथमे सम्बन्धज्ञान पाय सुविचारे ।।
कृष्ण – नित्य प्रभु, आर जीव – नित्यदास।
कृष्णप्रेम – नित्य, जीव-स्वभाव प्रकाश ।।
कृष्ण – नित्यदास जीव, ताहा विस्मरिया ।
मायिक जगते फिरे सुख अन्वेषिया ।।
सद्गुरु के चरणों में जीव जब श्रद्धा के साथ उपस्थित होता है तो उसे सर्वप्रथम सद्गुरु से सम्बन्ध- ज्ञान की प्राप्ति होती है और उसे ये अच्छी तरह से मालूम पड़ जाता है कि श्रीकृष्ण ही नित्यप्रभु हैं और जीव उनका नित्यदास है तथा ये नित्य सिद्ध श्रीकृष्ण-प्रेम जीव के स्वरूप में प्रकाशित है। जीव श्रीकृष्ण का नित्यदास है, यह भूल कर ही वह माया के जगत में सुख की खोज कर रहा होता है।
मायिक जगत् हय जीव – कारागार।
जीवेर वैमुख्य – दोषे दण्ड प्रतिकार ।।
तबे यदि जीव साधु – वैष्णव – कृपाय ।
सम्बन्ध – ज्ञानेते पुनः कृष्णनाम पाय ।।
तबे पाय प्रेमधन सर्वधर्मसार ।
याहार निकटे सायुज्यादिर धिक्कार ।।
यावत् सम्बन्ध – ज्ञान स्थिर नाहि हय।
तावत् अनर्थ नामाभासेर आश्रय ।।
श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते है कि यह मायिक जगत तो जीव का कारागार है। जीव की भगवद् – विमुखता नामक दोष के कारण उसको यह दण्ड देकर शोधन किया जाता है। इस परिस्थिति में यदि जीव साधु – वैष्णवों की कृपा प्राप्त करता है तो वह पुनः सम्बन्ध ज्ञान के द्वारा श्रीकृष्ण नाम प्राप्त करता है तथा हरिनाम करते-करते सभी धर्मों के सार – स्वरूप, श्रीकृष्ण – प्रेमधन को प्राप्त करता है, जिसके सामने सायुज्य, सामीप्य आदि मुक्तियाँ तुच्छ सी प्रतीत होती हैं। जब तक किसी का सम्बन्ध ज्ञान पूरी तरह पक्का नहीं हो जाता, तब तक वह अनर्थो से रहित होकर शुद्ध हरिनाम नहीं कर सकता, ऐसी स्थिति में उसके द्वारा किया गया हरिनाम केवल मात्र नामाभास ही होता है।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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भगवान की सेवा में नियुत्त होने पर कल्याण होता है
जीवमात्र ही बाहर के आवरण (जड़ देह) को आत्मा मानते हैं । मैं नित्य भगवान का सेवक हूँ। भगवान की सेवा ही मेरा नित्य धर्म है । मैं वर्णी (ब्राह्मण, क्षत्रिय इत्यादि) या आश्रमी (ब्रह्मचारी, गृहस्थ इत्यादि) नहीं हूँ। अतः वर्णाश्रम धर्म अच्छी प्रकार से पालन करने पर इस लोक में और परलोक में सुविधा होती है । जब तक यह जड़ शरीर रहता है, तबतक वर्णाश्रम धर्म भी रहता है। यह जागतिक मंगल के लिए ही उपयोगी है। चौदह लोकों में औपाधि की स्थिति में ही इसकी उपयोगिता है। किन्तु नित्य जगत में इसकी कोई उपयोगिता नहीं है । स्वयं श्रीचैतन्यमहाप्रभु कहते हैं-मैं ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र अथवा ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यासी भी नहीं हूँ। मेरा सम्बन्ध तो केवल भगवान से ही है । मैं उनका सेवक हूँ। मैं यदि उन्हें न भूलूँ, तो मेरा मंगल ही मंगल है।
भगवान चेतन हैं, जीव भी चेतन है । जीव भगवान का अंश है । वह भगवान की भाँति विभु चेतन नहीं है, अणु चेतन है । जीव भगवान के अधीन है । परन्तु वर्तमान अवस्था में जीव अपनी चेतनता या स्वतन्त्रता क दुर्व्यवहार कर रहा है, इसीलिए उसकी दुर्गति हो रही है । भगवान की सेवा से च्युत होने के कारण ही हमारी दुर्गति होती है और भगवान की सेवा में नियुत्त होने पर कल्याण होता है ।
श्रीलप्रभुपाद
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श्रीकृष्ण और उनके प्रियजनों की सेवा ही हरिभजन है
अप्राकृत भूमिका में संसार के प्रति लोभ या कर्त्तव्यबोध अन्तर्हित हो जाता है। तदीय अभिमान जाग्रत होने पर श्रीकृष्ण और उनके भक्त तथा उनसे सम्बन्धित चाहे कोई भी वस्तु क्यों न हो, उसमें प्रीति उत्पन्न हो जायेगी। सम्बन्ध-ज्ञान के साथ श्रीकृष्ण और उनके प्रियजनों की सेवा ही हरिभजन है। शुद्ध सम्बन्धज्ञान उदित न होने तक किये गये प्रत्येक कर्मार्पण आदि मिश्रा-भक्ति के कार्य हो सकते हैं। शुद्धभक्ति दुष्प्राप्य होने पर भी वही हमारी अन्वेषणीय है। कर्म-काण्डियों के बगीचे में जन-साधारण को मोहित करने के लिये जो कुछ भी देखा जाता है उसके द्वारा श्रीकृष्ण का शुद्ध अनुशीलन नहीं हो सकता। आत्मज्ञान में स्थित हुये बिना वैकुण्ठभजन नहीं होता। भेड़-चाल का अनुसरण करते हुये अनावश्यक कार्यों के लिये जीवन नष्ट करना हमारे लिये बुद्धिमता नहीं है। ‘To make the best of a bad bargain की Policy ग्रहण करना आवश्यक है।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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‘एक’ शब्द का तात्पर्य
तत्ववस्तु एक ही है-जैसे “केशव-धृत-दशविध-रूप”। एक श्रीकेशव विभिन्न प्रकाश में विभिन्न लीलाओं में विभिन्न विलास में प्रकाशित हुए हैं। ‘एक’ कहने पर निर्विशेष एक नहीं- सविशेष एक ही समझा जाता है।
“एकमेवाद्वितीयम्” कहने पर निर्विशेष ‘एक’ को ही लक्ष्य नहीं किया जाता है। निर्विशेष ‘एक’ की कल्पना या अनुभव कुछ भी संभव नहीं है। दूसरी ओर मायातीत चित्जगत में सविशेष एक के अस्तित्व का ही बोध होता है। ब्रह्म-‘एक’ वस्तु है। यहाँ एक मायामुक्त जीव और एक मायाबद्ध जीव ‘एक’ की ही धारणा किस प्रकार करेगा- यही विचार का विषय है। ‘एक’ कहने पर हमारी भाषा का एक-इन दोनों अक्षरों का सम्मिलित शब्द है या फिर गणित के अंक ‘1’ का बोध होगा या अंग्रेज़ी भाषा में O+N+E=ONE का अथवा mathematical ‘1’ या विभिन्न भाषाओं में प्रकाशित ‘एक’- इन सब में से किस ‘एक’ को समझा जाएगा? मनुष्य ‘एक’ कहने से क्या समझेंगे? विभिन्न विचारधाराओं में वह विभिन्न प्रकार का होता है। लेकिन निर्विशेष विचारधारा में एक की कोई धारणा कल्पित नहीं हुई है। ‘ब्रह्म एक, अद्वितीय वस्तु’ कहने पर बहुत्व के जनक या सृष्टिकर्ता ‘एक’ को ही लक्ष्य किया जाता है। “जन्मादस्य यतः” सूत्र में ‘अद्वैत ब्रह्म’ ही लक्षित हुआ है। इसलिए ‘एक’ कहने पर कहीं हम निर्विशेष ‘एक’ समझकर अज्ञानी न हो जायें। अतएव ‘पूजापंचक’ कहने पर ‘एक’ वस्तु की ही पूजा समझी जायेगी। ‘सेव्य-सेवक’ या शक्ति-शक्तिमान एक ड्री वस्तु है- वह दो नहीं है।
( यहाँ पर वक्ता का अभिप्राय यही है कि, – निर्विशेषवादी लोग ‘एक’ कहकर जिस निराकार, निर्विकार, निर्विशेष निःशक्तिक ब्रह्म की धारणा करते हैं, वह धारणा प्रच्छन्न बौद्धवाद से ही सृष्ट है; अर्थात् उनका ‘एक’ वाद और बौद्धगणों का ‘शून्यवाद’ एक समान तात्पर्यपर है। वास्तव में उसी ‘एक’ में ही सेव्य-सेवक तत्त्व, शक्ति-शक्तिमान् तत्त्व अवस्थित है। उससे निर्विशेषवादी आशंका करते हैं कि, इस प्रकार दो तत्त्व स्वीकृत होने से ‘अद्वय’-तत्त्व की क्षति होगी। उसे खण्डन करने के लिए ही यहाँ कहा गया है, “सेव्य-सेवक, शक्ति-शक्तिमान् एक ही वस्तु हैं-वह दो नहीं है”, अर्थात् इसके द्वारा वस्तु का अद्वयत्व नष्ट नहीं होता। क्योंकि, वस्तु और वस्तु के धर्म को अलग नहीं समझना होगा-बस्तुमात्र ही धर्मविशिष्ट है-वस्तु का धर्म कोई बाहर से आया हुआ धर्म नहीं है कि उसे वस्तु से अलग समझना होगा। उसी प्रकार का ही है सेव्य-सेवक तत्त्व और शक्ति-शक्तिमान् तत्त्व, यहाँ दो बस्तुएँ प्रतीत होने पर भी, एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, अतः यह एक ही है। इसलिए इसमें ‘अद्ययज्ञान’ विचार की हानि नहीं होती। )
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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अच्छा बनने का दिखावा करना-विप्रलिप्सा, अच्छा होने का प्रयास-दीनता
कोई स्वयं गलत आचरण कर न्यायकारी या अच्छा आदमी बनने का ढोंग करना चाहता है- यह ‘विप्रलिप्सा’- दोष के अन्तर्गत है, जोकि भजन में बाधा है। ‘मैं असत्अन्यायकारी हूँ, इसे गुरु-वैष्णवों के सामने ज्ञापन करते हुए सत् बनने के प्रयास को दीनता कहते हैं। जड़-अहंकार और दम्भ प्रकाशित करने पर (भगवान्) श्रीमधुसूदन उनका दर्प (गर्व) चूर कर देते हैं, यही शास्त्र-सिद्धान्त है। जो भजन-प्रयासी व्यक्ति हैं, वे निरभिमान (अभिमान रहित) हैं; उनके हृदय में दाम्भिकता का कोई स्थान नहीं है। हृदय में स्वाभाविक दीनता न रहने पर चित्त वज्र के समान कठोर हो जाता है, जिससे सरस (रस-युक्त) भक्तिवृत्ति का अभाव होने लगता है। दीनता ही सेवक या साधक का भूषण है-अलंकार है।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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क्या विद्या-शिक्षा, क्या कृषि-शिक्षा और क्या कपड़ा बुनने की शिक्षा-सभी कार्यों में अभिज्ञ गुरु का प्रयोजन है । उपयुक्त गुरु व्यतीत कोई भी कार्य सुसिद्ध नहीं होता है। इसलिये नित्यमंगल और परमसुखद् भक्ति प्राप्त करने के लिये सद्गुरु अर्थात् भगवद्भक्त-गुरु का विशेष प्रयोजन है, इस विषय में तनिक भी सन्देह नहीं है।
इसलिये ग्रन्थराज श्रीमद्भागवत कहती है –
तस्माद् गुरुं प्रपद्येत जिज्ञासुः श्रेय उत्तमम् ।
शाब्दे परे च निष्णातं ब्रह्मण्युपशमाश्रयम् ।।
(भा०. ११-३-२१)
जो नित्यमंगल चाहते हैं, वही भाग्यवान् सज्जन वेद और वेदानुग श्रीभागवतादि-शास्त्र-सिद्धान्त में सुनिपुण, भगवन्निष्ठापरायण, भगवदनुभूतिविशिष्ट, निष्काम और शान्त गुरु का चरणाश्रय करेंगे।
श्रील भक्ति प्रमोद पूरी गोस्वामी महाराज
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वैष्णव – धर्म तो परमहंसों का धर्म है
एक हंस में ये गुण होता है कि यदि उसे दूध और पानी मिलाकर दे दिया जाए तो वह बड़ी आसानी से दूध – दूध पी जाता है और पानी को छोड़ देता है। इसी प्रकार एक सच्चा वैष्णव, जो कि परमहंस होता है, वह भी इस संसार में ऐसे ही रहता है। उसके सम्पर्क में आने वालों के गुणों को तो वह देखता है पर उनके अवगुणों की ओर वह देखता भी नहीं, जबकि माया- बद्ध जीव भगवान की त्रिगुणात्मिका माया के सत्, रज व तमोगुण के द्वारा मोहित रहता है; इसलिए वह गुणग्राही नहीं होता। वह तो केवल – मात्र दूसरों के दोष ही ढूँढता रहता है। अतः ये जीव, जब तक वैष्णवों की व गुरु की श्रेष्ठता को नहीं समझ पाता, तब तक सम्भावना ही नहीं है कि वह गुरु – वैष्णवों के सम्पर्क में आये या उनका अन्तरंग बन सके।
श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज
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