सम्बन्ध, अभिधेय, प्रयोजन

मेघ – कुज्झटिका गेले नाम – दिवाकर ।
प्रकाश हइया भक्ते देन प्रेमवर ।।

सद्गुरु सम्बन्ध – ज्ञान करिया अर्पण ।
अभिधेय – रूपे करान
नामानुशीलन ।।

अज्ञान रूपी कोहरा व अनर्थ रूपी बादलों के हट जाने पर हरिनाम रूपी सूर्य प्रकाशित हो उठता है। ये हरिनाम रूपी सूर्य प्रकाशित होकर भक्तों को श्रीकृष्ण – प्रेम रूपी आनन्द प्रदान करता है। सद्‌गुरु जीव को सम्बन्ध ज्ञान प्रदान करके अभिधेय (साधना) के रूप में उससे हरिनाम का अनुशीलन करवाते हैं अर्थात् सद्‌गुरु उसे हरिनाम के श्रवण-कीर्तन व स्मरण के लिए कहते हैं।

नाम – सूर्य स्वल्पकाले प्रबल हइया।
अनर्थ – कुज्झटिका देन ताड़ाइया ।।

प्रयोजनतत्त्व तबे देन प्रेमधन ।
प्राप्तप्रेम जीव करे नामसंकीर्त्तन ।।

गुरु जी की कृपा से अल्प समय में ही हरिनाम रूपी सूर्य के तेज से अनर्थ रूपी कोहरा दूर हो जाता है। उसके बाद श्रीहरिनाम जीव को प्रयोजन तत्त्व – प्रेमधन प्रदान करते हैं। उस प्रेमधन को प्राप्त करके जीव श्रीकृष्ण नाम – संकीर्तन करता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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यदि भाग्य ही नहीं हो, तो किस प्रकार समझ सकते हैं ? उसके लिए संस्कार होने चाहिए । जो भाग्यवान हैं वे ही गुरु-वैष्णवों के श्रीचरणों में प्रणत होकर कथा सुनते हैं । इसलिए वे भगवान की कृपा से पारमार्थिक बातों को समझ सकते हैं, परन्तु जो hasty-conclusion (किसी भी वस्तु के निर्णय में जल्दीबाजी) का आश्रय लेते हैं, वे सत्य वस्तु को ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं। वे पूर्णज्ञान अर्थात् भगवत् तत्त्व आदि के अनुशीलन में थोड़ा समय भी नहीं दे सकते । हम बाल्यावस्था से जिस समाज में पले हैं, उसमें materialism (भौतिकता) इतनी अधिक परिमाण में हैं कि नित्य या परमार्थ जीवन की आलोचना के लिए एक मुहूर्त समय भी नहीं दे सकते । व्यावहारिक कार्यों में ही हमारे चौबीस घण्टे नष्ट हो जाते हैं । वास्तव में हम क्या वस्तु हैं, इस बात को जानने की चेष्टा नहीं करते हैं। जब कि शास्त्रों का उपदेश है कि मानव जीवन के चौबीस घण्टे ही पारमार्थिक विषय में ही व्यतीत होने चाहिए । बुद्धिमान व्यक्ति का कर्तव्य यह नहीं है कि वह अपना अमूल्य जीवन अपनी इन्द्रिय तर्पण के लिए ही गंवा दे।

श्रीलप्रभुपाद
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प्राचीन वैष्णवजन धीरे-धीरे इस लोक को छोड़कर हम लोगों को परमार्थ की ओर अधिक ध्यान देने का संकेत दे रहे हैं। हम लोगों की आयु बहुत ही कम है। फिर भी श्रीकृष्णपादपद्म प्राप्ति का अवसर, उसके अनुरुप सुविधा और पथ के विषय में जानते हुये भी हम तीव्रता से भजन करने का कोई प्रयास नहीं कर रहे हैं। जन्म-जन्मान्तरों के संस्कारों के कारण हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गये हैं। जिस कारण हम देह-गेह (शरीर और घर) या उससे सम्बन्धित मायिक वस्तुओं को ही अपना धन और सर्वस्व समझ बैठे हैं। इसीलिये हम अपने वास्तविक सर्वस्व- अखिल रसामृत मूर्त्ति – श्रीकृष्ण की प्राप्ति से वन्चित हो गये हैं। जब तक हमारा अहंकार नहीं बदलेगा तब तक श्रीकृष्ण का वास्तविक अनुशीलन सम्भव नहीं है। सांसारिक अभिमान से जो भी साधन किया जाता है, वह अध्यात्म मार्ग में आगे नहीं ले जा सकता। जब तक इस मायिक barrier को transcend (अतिक्रमण) नहीं किया जायेगा तब तक परमात्मा का अनुशीलन नहीं हो सकता।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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हिरण्मयेन पात्रेण सत्यस्यापिहितं मुखम् ।
तत्त्वं पूषन्नपावृणु सत्यधर्माय दृष्टये ॥
पूषन्नेकर्षे यम सूर्य प्राजापत्य व्युह रश्मीन् समूह।
तेजो यत् ते रूपं कल्याणतमं तत्ते पश्यामि ॥

(ईशोपनिषद १५-१६ मन्त्र)

शुद्ध भक्ति के बिना श्रीभगवान्‌का दर्शन नहीं होता। श्रीभगवान्‌ की कृपा के बिना शुद्ध भक्ति नहीं होती। इसलिए कहते हैं- निर्विशेष ब्रह्मरूप ज्योतिर्मय आच्छादन के द्वारा सत्यरूप परब्रह्मका श्रीविग्रह आच्छादित है। हे जगत्पोषक परमात्मन् ! सत्य धर्मानुष्ठान परायण मुझ जैसे भक्तोंके साक्षात्कारके लिए आप उस आवरणको दूर करें ।

हे भगवन्! आप भक्तपोषक हैं, आप ज्ञानमय और सर्वनियन्ता हैं। आप भक्तोंकी भक्तिके द्वारा ही जाने जाते हैं, आप वेदोपदेश द्वारा ब्रह्माके प्रिय हैं. आप अपनी तेजराशिको संकुचित करें, तभी आपके कल्याणतम रूपका में दर्शन कर सकता हूँ। मैं उसी रूपको देखनेका अधिकारी हूँ। क्योंकि पूर्ण पुरुष आप जगत्प्रविष्ट आपके अंश परमात्मा एवं हम (जीव) सभी चित्स्वरूप हैं। आपकी कृपा होनेपर ही मैं आपको देख सकता हूँ।

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