बादल रूपी हैं – असतृष्णा, हृदय की दुर्बलता और अपराध

असत्तृष्णा, हृदय – दौर्बल्य, अपराध।
अनर्थ ए सब मेघ रूपे करे बाध ।।

नाम – सूर्य – रश्मि ढाके, नामाभास हय।
स्वतःसिद्ध कृष्णनामे सदा आच्छादय ।।

श्रीकृष्ण नाम रूपी दिव्य सूर्य के सामने असद् – तृष्णा, हृदय की दुर्बलता एवं अपराध आदि के बादल रूपी अनर्थ आकर उसको ढकने लगते हैं। हरिनाम रूपी सूर्य की रोशनी को जब ये अनर्थ रूपी बादल ढक लेते हैं तो जीव का नामाभास होता है। ऐसी अनर्थयुक्त अवस्था में, स्वतः सिद्ध कृष्ण नाम हमेशा ही ढका रहता है।

नामाभास की अवधि

सम्बन्धतत्त्वेर ज्ञान यावत् ना हय।
तावत् से नामाभास जीवेर आश्रय ।।

साधक यद्यपि पाय सद्गुरू – आश्रय ।
भजन – नैपुण्ये मेघ आदि दूर हय ।।

जितने समय तक सम्बन्ध तत्त्व का ज्ञान नहीं होता है, उतने समय तक जीव का नामाभास ही होता है। यद्यपि ऐसी अवस्था में भी साधक सद्गुरु के आश्रय में ही रहता है। परन्तु जब तक वह दृढ़ता पूर्वक भजन नहीं करता, तब तक उसके ये अनर्थ रूपी बादल नहीं छटते अर्थात् साधक के भजन की निपुणता से ही ये अनर्थ रूपी बादल छिन्न-भिन्न होंगे।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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वैकुण्ठ जगत से आया हुआ व्यक्ति ही वैकुण्ठ जगत की बात बताने में समर्थ होता है । इस जगत का कोई व्यक्ति उस जगत की बात बताने में समर्थ नहीं हो सकता । उस जगत से आये हुए महापुरुषों के श्रीमुख से भगवान की कथाओं को श्रवण करने का सौभाग्य प्राप्त होने पर ही जीव वैकुण्ठ के विषय में जान सकताहै । इस जगत की विचार प्रणाली के द्वारा उस जगत की वस्तुओं को ग्रहण नहीं किया जा सकता । Transcendental (अधोक्षज) के साथ phenomenal (अक्षज) को एक साथ मिलाना उचित नहीं है । यदि भाग्य अच्छा हो, तो वैकुण्ठ से आये हुए महापुरुष का दर्शन और उनका संग प्राप्त होता है । श्रीचैतन्यदेव कह रहे हैं-

कृष्ण यदि कृपा करने कोन भाग्यवाने ।
गुरु अन्तर्यामी रूपे से शिवाय आपने ।।
(चै. च.)

अर्थात् जिस भाग्यवान व्यक्ति पर कृष्ण कृपा करते हैं, वे स्वयं अन्तर्यामी रूप में शिक्षा प्रदान करते हैं ।

श्रीलप्रभुपाद
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गुण और संख्या कभी भी एक साथ नहीं मिलते गुणों की अधिकता में संख्या एवं संख्या के अधिक होने पर गुणों क कम होना अवश्यम्भावी है। सर्वोत्तम आध्यात्मिक उन्नति के शिखर पच पहुँचे व्यक्ति संख्या में कम भी हों तो भी उन्हीं के द्वारा जगत् के लोग का कल्याण होता है। किन्तु गुणहीन, चरित्रहीन व्यक्ति संख्या में अधित होने पर भी उनसे किसी का कल्याण नहीं हो सकता।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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भगवद्-भक्ति में प्रगाढ़ निष्ठा ही साधक-जीवन की रक्षा करती है। श्रीभगवान् साधक की निष्ठा को और बढ़ाने के लिए ही इस प्रकार की स्थिति उपस्थित करके परीक्षा लेते हैं। परीक्षा के प्रश्न कितने ही कठिन क्यों न हो, उत्तम पठित छात्र उनमें कभी असफल नहीं होता। मुझे विश्वास है कि, इस भगवद्-परीक्षा में तुम अवश्य सफलता प्राप्त करोगे। विपत्ति ही सम्पत्ति की मुख्य नींव है। दुर्बल हृदय वाला व्यक्ति विपत्ति को अशुभ मानकर उससे निवृत्ति या मुक्ति पाने की चेष्टा करता है। सबल व्यक्ति विपत्ति आने पर उसे मंगल का कारण मानकर उसको आलिंगन कर लेता है। इसलिए तुम विपत्ति को सम्पत्ति समझना एवं उसको दृढ़ता के साथ आलिंगन करके जय कर लेना।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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