अज्ञान रूपी कोहरा होता है स्वरूप-भ्रम

नामेर ये चित्स्वरूप ताहा नाहि जाने।
से अज्ञान – कुज्झटिका अन्धकार आने ।।

कृष्ण सर्वेश्वर बलि’ नाहि जाने येइ।
नाना देवे पूजि कर्ममार्गे भ्रमे सेइ ।।

जीवे चित्स्वरूप बलि’ नाहि यार ज्ञान।
माया जड़ाश्रये तार सतत अज्ञान ।।

श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि जीव हरिनाम के चिन्मय स्वरूप को नहीं जानता है। यही अज्ञानता रूपी कोहरा उसके आगे छा जाता है और जीव के आगे अन्धेरा सा हो जाता है। श्रीकृष्ण ही सर्वेश्वर हैं, जो यह नहीं जानता है, वह ही विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करता हुआ कर्म – मार्ग में भटकता रहता है। इसके इलावा जीवात्मा का भी चिन्मय स्वरूप है; जिसको यह ज्ञान भी नहीं है, वह तो समझो माया के द्वारा बुरी तरह जकड़ा हुआ, हर समय अज्ञान में ही रहता है।

तबे हरिदास बले आज आमि धन्य।
मम मुखे नाम – कथा शुनिबे चैतन्य ।।
कृष्ण जीव प्रभु – दास, जड़ात्मिका माया।
ये ना जाने, ता’र शिरे अज्ञानेर छाया ।।

तभी श्रीहरिदास जी आनन्द से कहने लगे- मैं तो आज धन्य हो गया हूँ क्योंकि आज मेरे मुख से स्वयं श्रीचैतन्य महाप्रभु जी हरिनाम महिमा सुनेंगे। हे गौरहरिजी ! श्रीकृष्ण नित्य प्रभु हैं और जीव उन्हीं श्रीकृष्ण का नित्य दास है तथा माया तो जड़ात्मिका है, जो जीव यह नहीं जानता उसके सिर पर अज्ञान रूपी छाया मंडराती रहती है अर्थात् श्रीकृष्ण प्रभु हैं, जीव उनका नित्यदास है तथा माया जड़ है इसे अच्छी तरह से जान लेने पर जीव का सारा अज्ञान खत्म हो जाता है।

श्रीहरिनाम चिन्तामणि

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एकाग्रचित्त होकर हरिकथा सुनने पर ही वास्तविक रूप में साधुसंग होता है । साधुसंग होने पर ही अर्थात् साधुओं के श्रीमुख से हरिकथा श्रवण करने पर ही भगवान के वीर्य और जगत की दुर्बलता को हम समझ सकते हैं । साधुओं के उपदेशानुसार सेवा करते-करते भगवान की सेवा में सुदृढ़ विश्वास, आसक्ति एवं प्रीति प्राप्त होती है । कृष्ण की सेवा में भी कृष्ण के प्रति प्रीति ही जीव का चरम प्रयोजन है।

श्रीलप्रभुपाद

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‘धर्म’ सभी मानते हैं। ‘धर्म’ शब्द का अर्थ होता है स्वभाव । शरीर के धर्म को तो हम सभी मानते हैं। क्योंकि शरीर निकृष्ट है, इसलिये शरीर का धर्म भी निकृष्ट एवं क्षणस्थायी अर्थात् कुछ समय ही रहने वाला है। शरीर का कारण मन है जो कि दीर्घ समय तक रहने वाला है। मन का धर्म शरीर धर्म से अधिक स्थायी होने पर भी चन्चल है। देह व मन दोनों का कारण ज्ञान अर्थात् आत्मा है। यदि ज्ञान न हो तो मन मनन नहीं कर सकता। इसीलिये देह धर्म से मनोधर्म और मनोधर्म से आत्म-धर्म की उत्कर्षता है। परन्तु समस्या यह है कि आत्म धर्म सभी नहीं मानते। बहुत से लोग अपने गंवारपने के कारण कहते हैं कि हम धर्म नहीं मानते। किन्तु देखा जाये तो धर्म सभी मानते हैं। हाँ, ये हो सकता है कि वे सद्-धर्म को न मानकर असद्-धर्म को मानते हैं। धन की आवश्यकता को सभी समझते हैं किन्तु परमार्थ की आवश्यकता को सभी नहीं समझते।

श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज

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तत्त्व विचार केवल कहने सुनने की वस्तु नहीं, उसके अनुसार सेवा की चेष्टा में प्रतिष्ठित होना है

हम में से यदि किसी को contagious (फैलने वाली) या infectious (छूत की) बीमारी हो जाये, तब पता चलेगा कि, किसकी कितनी वैष्णव प्रीति है। उस समय कहीं हम स्वयं रोगग्रस्त न हो जायें, इसी भय से वैष्णव को छोड़कर कहीं भी दूर चले जाने के लिए हिचकते नहीं हैं। अनित्य रक्त-मांस के इस शरीर के प्रति हमारी कितनी ममता है, वह समझ में आती है। हम लोग हमेशा पाठ-कीर्त्तन-प्रवचन में कहते हैं, – ‘देह कुछ नहीं, मन कुछ नहीं’, लेकिन उसे ही हरदम प्रमुखता देते हैं। कथनी और करनी यदि एक न हो तो बेकार में कहकर लोगों को ठगने से क्या लाभ है ? वैष्णवों का प्रधान गुण है सत्य संकल्प। हम सब समय कहते हैं- वैष्णवों के लिए जान देनी होगी, सब कुछ समर्पित करना होगा, जो भी कर्त्तव्य है, उसे वैष्णवसेवा के लिए ही करना होगा। ये सब क्या वाक्य-विन्यास (शब्दों की सजावट) तक ही सीमित रहेगा ? वैष्णव सेवा के लिए कुछ लोग जीवन का बलिदान करने को तैयार हुए हैं, तो उसमें बाधा डालकर किसी दुष्ट का पतन हुआ है-इसे भी हमने प्रत्यक्ष देखा है।

श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज

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आत्मस्वरूप-ज्ञान के अभाव के कारण ही लौकिक परिचय की प्रधानता

यदि मेरा साधन-भजन होता है, तो फिर स्त्री-पुरुष के भेद से कुछ फर्क नहीं पड़ता है। “जेई भजे सेई बड़” (जो भजन करता है, वही बड़ा है)—यही है सनातन शास्त्रों की वाणी। “किबा यति सती, किबा नीच जाति, जेई हरि नाहि भजे। तबे जनमिया भ्रमिया भ्रमिया रौरव नरके मजे ।।” (क्या संन्यासी, क्या सती और क्या नीच जाति, जो हरि का भजन नहीं करता है, वह पुनः जन्म लेकर भटकता हुआ रौरव नरक में सड़ता है) यही तो है स्त्री-पुरुष का शास्त्रों द्वारा स्वीकृत समान अधिकार। और भी शास्त्रीय विचार में देखा जाता है- एकमात्र लीला पुरुषोत्तम श्रीकृष्णचन्द्र ही परमपुरुष हैं, बाकी सभी जीवात्माएँ शक्ति या प्रकृति ही हैं; यही तो जीव का स्वरूप है; श्रीभगवान् के दास के स्वरूप में उनकी सेवा ही जीव का एकमात्र धर्म है। उस सेवा धर्म को भूल जाने से ही तब सांसारिक स्त्री-पुरुष की प्रधानता प्रकाशित हो जाती है। “अनन्त जीवात्माएँ सब ही श्रीभगवान् की आश्रिता और सेविका हैं” – यह समझ पाने पर ही तुम्हें स्त्री या पुरुष-जन्म मिलने का और अफसोस नहीं होगा।

श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज

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