नामाभास-विचार
गदाइ – गौराङ जय जाह्नवा – जीवन ।
सीताद्वैत जय श्रीवासादि भक्तजन ।।
हरिदासे महाप्रभु सदय हइया।
उठाय तखन पद्महस्त प्रसारिया ।।
श्रीगदाधर पंडित, श्रीगौरांग महाप्रभु व जाह्नवा देवी जी के जीवन स्वरूप – श्रीनित्यानन्द जी की जय हो। सीतापति श्रीअद्वैताचार्य जी और श्रीवास आदि भक्तों की सर्वदा ही जय हो। हरिदास जी से हरिनाम की महिमा सुनकर महाप्रभु जी बड़े प्रसन्न हो गये और गद्गद् होकर उन्होंने श्रीहरिदास ठाकुर जी को अपनी बाहों में उठा लिया।
बले – शुन हरिदास आमार वचन ।
नामाभास स्पष्ट रूपे बुझाओ एखन ।।
नामाभास बुझाइले नाम शुद्ध ह ‘बे।
अनायासे जीव नामगुणे तरे या ‘बे ।।
महाप्रभु जी कहने लगे कि हे हरिदास! तुम मेरी बात सुनो। अब आप मुझे “नामाभास क्या है”, इसे स्पष्ट रूप से समझाओ क्योंकि नामाभास के बारे में पूरी जानकारी होने से ही जीवों का शुद्ध नाम होगा और तब अनायास ही जीव हरिनाम के गुणों के प्रभाव से भवसागर से पार हो जायेंगे।
नामाभास
नाम सूर्यसम नाशे माया – अन्धकार।
मेघ – कुज्झटिका नामे ढाके बार बार ।।
जीवेर अज्ञान आर अनर्थसकल ।
कुज्झटिका – मेघ रूप हय त ‘प्रबल ।।
कृष्णनाम – सूर्य चित्त – गगने उठिल ।
कुज्झटिका – मेघ पुनः ताँहारे ढाकिल ।।
नामाचार्य श्रीहरिदास ठाकुर जी कहते हैं कि हरिनाम रूपी सूर्य उदित होकर मायारूपी अन्धकार का नाश करता है परन्तु हरिनाम रूपी सूर्य को अज्ञान और अनर्थ रूपी कोहरा तथा बादल बार-बार ढक देते हैं। जीव के ये अज्ञान और अनर्थ रूपी कोहरा और बादल बड़े घने होते हैं। श्रीकृष्ण नाम रूपी सूर्य जीव के चित्त रूपी आकाश में जैसे ही उदित होता है, उसी समय अज्ञान रूपी कोहरा और अनर्थ रूपी बादल उसे ढक देते हैं।
श्रीहरिनाम चिन्तामणि
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सर्वश्रेष्ठ आराधना
मधुर रस से नन्दनन्दन की सेवा ही समस्त साधनों में सर्वश्रेष्ठ एवं साध्यों में भी सर्वश्रेष्ठ है । नन्दनन्दन की उपासना ही उपासना की पराकाष्ठा है । ब्रजदेवियों ने नन्दनन्दन के ऐश्वर्य से मुग्ध होकर उन्हें अपने प्रेमी के रूप में स्वीकार नहीं किया, क्योंकि कृष्ण का कोई ऐश्वर्य उन ब्रजदेवियो को आकर्षित नहीं कर सकता । कृष्ण के प्रति उनकी प्रीति तो स्वाभाविक रूप से ही है । वे सदा-सदैव केवल कृष्ण सुख के लिए ही चेष्टा करती हैं। इसी अहैतुकी महती कामना के कारण ही वे कृष्ण को कान्तरूप में वरण कर पाईं।
श्रीलप्रभुपाद
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जो व्यक्ति जन्म, ऐश्वर्य, पाण्डित्य और रूप आदि के अभिमान में प्रमत्त रहते हैं, वे लोग अकिन्चन व्यक्तियों के ग्रहणीय श्रीकृष्ण नाम का कीर्त्तन करने में असमर्थ होते हैं। दुनियाँदारी के अभिमान यदि हमारे दिल में स्थान बना लें, और यदि हम कनक, कामिनी व प्रतिष्ठा के पीछे भागते रहें तो ऐसे चित्त में भगवान् का आगमन कैसे होगा? बाहर दरवाज़े पर ‘स्वागतम्’ लिखा रहने पर भी अन्दर कूड़ा-कर्कट भरा रहने के कारण बैठने का स्थान न देखकर घर आया हुआ व्यक्ति जैसे वापस चला जाता है, उसी प्रकार बाहर-बाहर से हम भगवान् के स्वागत की बात करें और हृदय में और-और कामनायें भरकर रखें तो ऐसे में यदि भगवान् आ भी जायें तो बैठने का स्थान न देखकर वापस चले जायेंगे।
श्री श्रीमद् भक्ति दयित माधव गोस्वामी महाराज
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गुरुसेवा के बदले उत्साह पाने के नाम पर, प्रतिष्ठा की कामना-गुरुसेवा या शरणागति का लक्ष्ण नहीं है
हमने कई बार देखा है कि, -कई लोग लाभ-पूजा-प्रतिष्ठा की कामना. करते हुए पाठ, कीर्त्तन, भाषण, प्रबंध आदि-लेखन, ग्रंथों का प्रकाशन आदि कार्यों में बहुत उत्साह दिखाते हैं। यदि कुछ पाने की संभावना या प्रशंसा-स्वरूप प्रतिष्ठा भी न मिले तो हमसे और गुरुसेवा नहीं हो पाती है। हम हमेशा ही गुरुदेव के पास उत्साह पाने के नाम पर प्रतिष्ठा की कामना किया करते हैं। यह वास्तविक गुरुसेवा और शरणागति का लक्षण नहीं है।
गुरुदेव में जो जितने तक आसक्त हैं, वे उतने ही गुरुसेवक हैं। हम महाजन-पदावली में देखते हैं- “विषये जे प्रीति एबे आछये आमार। सेइमत प्रीति हउक् चरणे तोमार।” (अर्थात् धन-सम्पत्ति विषयादि में मेरी. जितनी प्रीति है, उतनी प्रीति तुम्हारे चरणों के प्रति भी हो।) मायिक विषयों को अपना समझकर उसके प्रति इतना आसक्त हो जाते हैं कि, उनसे एक क्षण भी दृष्टि हटाने पर कष्ट का बोध होता है। हरि-गुरु-वैष्णवों की सेवा की वस्तुओं के प्रति ‘अपनापन’ न रहने से भगवान की कृपा प्राप्त करने की सम्भावना कहाँ है? ‘हरि-गुरु-वैष्णवों की व्यवहार की वस्तुएँ नष्ट होती हैं तो हो जायें लेकिन मेरी चीज़ ठीक रहे’ – इस प्रकार की बुद्धि सेवा-बुद्धि नहीं है। जगत की सभी वस्तुएँ भले ही ध्वंस हो जाएँ परन्तु हरि-गुरु-वैष्णव सेवा की वस्तुओं को कणमात्र भी मैं ध्वंस नहीं होने दूँगा-यही है असली सेवक का लक्षण ।
श्रील भक्ति प्रज्ञान केशव गोस्वामी महाराज
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जो निरन्तर श्रीभगवान् का नाम करते हैं, वे सर्वदा ही पवित्र हैं, वे परम पवित्र और नित्य स्नात (हमेशा स्नान किये हुए) हैं। तीन समय स्नान करने से पवित्रता नहीं आती, किन्तु त्रिसन्ध्या गायत्री जप करने से वह लाभ होती है। किन्तु जो उस अवस्था तक उन्नत नहीं हुए हैं, उन्हें साधारण नियम-निषेध का पालन अवश्य ही करना होगा।
श्रील भक्ति वेदान्त वामन गोस्वामी महाराज
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साधारणतया जब भी कोई अतिथि अपने गन्तव्य स्थान पर पहुँचता है तो सर्वप्रथम वह यह जानना चाहता है कि अपना सामान कहाँ रखे, वह कहाँ स्नान करे तथा उसके रहने की व्यवस्था कहाँ पर है? किन्तु श्रील यायावर गोस्वामी महाराज का इस प्रकार का स्वभाव नहीं था। जब वह उत्सव में पहुँचे तब आने के साथ-ही-साथ अपने सामान को एक ओर रखकर उन्होंने सर्वप्रथम कीर्त्तन में योगदान दिया। उनका विचार था, “जब तक मठ में पहुँचकर मैं कोई सेवा नहीं करता हूँ, तब तक मुझे अपने रहने के लिए स्थान अथवा अपने सामान तक को रखने के स्थान की अपेक्षा करना किस प्रकार युक्तिसङ्गत है?
श्रील भक्ति विचार यायावर गोस्वामी महाराज
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